Tuesday, October 23, 2012

रोशनी जाती रही लेकिन हौसला बढ़ता गया

स्कूल के दिनों से आंखों की रोशनी धीरे-धीरे कम होती गई जो कॉलेज पहुंचने तक पूरी तरह बुझ गई लेकिन डॉ. आशीष सिंह ठाकुर का हौसला इसके मुकाबले दुगुनी रफ्तार से बढ़ता गया। महज ऑडियो कैसेट सुन-सुन कर डॉ. ठाकुर ने एमए,जेआरएफ,पीएचडी, सेल टैक्स और आईएएस जैसी सफलता की सीढिय़ां बिना किसी बाधा के और उल्लेखनीय सफलता के हासिल कर ली। आज वह भारतीय डाक सेवा (आईपीएस) के अफसर के नाते 5 जिलों का डाक विभाग बिना किसी बाधा के संभाल रहे हैं।

चर्चा करते हुए डॉ. ठाकुर मंगलवार की दोपहर सिविक सेंटर स्थित अपने दफ्तर में रूटीन का काम-काम भी निपटा रहे थे। फाइलों पर दस्तखत करने उनके सहायक एल्युमिनियम की विशेष पट्टी दस्तखत वाली जगह रख रहे थे और डॉ. ठाकुर बेहद सहज होकर दस्तखत करते हुए लगातार फाइलें भी निपटा रहे थे। बात शुरू करते हुए उन्होंने कहा- मेरा स्टाफ ही मेरी आंखें हैं, इसलिए मुझे कभी भी असहज नहीं लगता। ऑफिस के बाहर परिजनों और दोस्तों ने कभी मेरा हौसला टूटने नहीं दिया। बिलासपुर दैहान पारा के मूल निवासी डॉ. ठाकुर ने बताया कि स्कूल तक तो स्थिति कुछ ठीक थी लेकिन धीरे-धीरे रोशनी कम होती गई। न्यूरो रैटिन्याओरिस की वजह से कॉलेज पहुंचते तक दोनों आंखों की रोशनी जा चुकी थी। इसका थोड़ा अफसोस तो हुआ लेकिन मैने अपना लक्ष्य पहले ही तय कर रखा था। दोस्तों की मदद से मैं पढ़ाई पूरी कर रहा था। दोस्त किताबें पढ़ते तो उन्हें मैं रिकार्ड कर लेता और इस तरह एमए (इतिहास) में दाखिला लिया। गुरू घासीदास विश्वविद्यालय से 2002 में मैने गोल्ड मैडल के साथ एमए किया। इसके पहले एमए प्रिवियस के दौरान यूजीसी का जूनियर रिसर्च फैलो (जेआरएफ)क्लियर कर चुका था। जेआरएफ दूसरी बार भी किया और लगातार दो बार जेआरएफ क्लियर करने वाला मैं देश का पहला युवा हूं। इसके बाद राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षा में सेल टैक्स आफिसर के तौर पर चयनित हुआ। इस दौरान आईएएस की तैयारी भी कर रहा था। मैने परीक्षा दी और 2009 में 435 वें रैंक के साथ मुझे आईपीएस दिया गया। इस बीच मैने 2010 में आधुनिक भारतीय इतिहास पर पीएचडी भी पूरी कर ली। डॉ. ठाकुर का कहना है कि यहां 5 जिलों की डाक सेवा का नियंत्रण और संचालन करना कभी भी मुश्किल नहीं रहा, क्योंकि अभ्यास और अनुभव की वजह से अब सब कुछ सहज लगता है।

'टॉक्स' और 'जॉका' ने बनाया आईटी फ्रैंडली
भारतीय खाद्य निगम में प्रबंधक प्रहलाद सिंह ठाकुर और गृहिणी ममता सिंह ठाकुर के पुत्र डॉ. आशीष सिंह ठाकुर ने बताया कि एक सामान्य जीवन जीने में उन्हें दिक्कत नहीं आती। वह मोबाइल और लैपटॉप भी सहजता से इस्तेमाल करते हैं। मोबाइल में 'टॉक्स' और लैपटॉप में 'जॉका' साफ्टवेयर है। इससे मोबाइल-लैपटॉप का कोई भी की-बोर्ड दबाने अथवा स्क्रीन पर कुछ भी डिस्प्ले होने की स्थिति में यह साफ्टवेयर उसे पढ़ देता है। इसलिए कॉल करने और लैपटॉप पर फाइलें पढऩे (सुनने) में कोई दिक्कत नहीं आती।

Sunday, October 21, 2012

भिलाइयन की कंपनी हुई ट्विटर के संग

सॉफ्टवेयर कंपनियों के अंतरराष्ट्रीय बाजार में बड़ी हलचल

'डेजियेंट' की संस्थापक टीम के सदस्य नील दासवानी, अमित रणदिवे और शारिक रिजवी
साफ्टवेयर कंपनियों के अंतरराष्ट्रीय बाजार में इस हफ्ते बड़ी हलचल हुई। दुनिया भर में सर्वाधिक लोकप्रिय सोशल नेटवर्किंग साइट 'ट्विटर' ने अमेरिका की इंटरनेट सिक्यूरिटी कंपनी 'डेजियेंट स्टार्ट अप' का अधिग्रहण कर लिया है। यह अधिग्रहण भारतीय और अमेरिकी मीडिया की सुर्खी बना हुआ है। खास बात यह है कि 'डेजियेंट' का कर्ता-धर्ता भिलाई का होनहार नौजवान शारिक रिजवी है। शारिक अपनी इस उपलब्धि से बेहद खुश है। उन्होंने चर्चा में इस अधिग्रहण की जानकारी देते हुए कहा कि -मर्जर के तुरंत बाद वह और उनकी टीम सैन फ्रांसिस्को में ट्विटर इंजीनियरिंग की टीम ज्वाइन कर चुके हैं।
भिलाई में पले-बढ़े शारिक रिजवी ने 1999 में आईआईटी में देश भर में पांचवां स्थान हासिल करने के बाद आईआईटी मुंबई में दाखिला लिया था। जहां से 2003 में वह यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया एट बर्कले में फैलोशिप के तहत पीएचडी के लिए गए। यहां 2008 में 'डेजियेंट' की रुप रेखा बनीं और अमेरिकन-इंडियन नील दासवानी, अमित रणदिवे और अन्य लोगों के साथ मिलकर 2009 जून में इसकी विधिवत लांचिंग  कर दी। तब से 'डेजियेंटÓ ने वेब स्केल सिक्यूरिटी प्रॉब्लम माल वेयर और दूसरी तरह के  दुरुपयोग से संबंधित समस्याओं को सुलझाने पर ध्यान केंद्रित किया। इसके लिए डेजियेंट ने  बहुत सी नई पहल की, जो आज भी जारी है। शारिक ने बताया कि इस अधिग्रहण के बाद उनकी कंपनी अपनी तकनीक और टीम दुनिया के सबसे बड़े रियल टाइम इन्फरमेशन नेटवर्क 'ट्विटर' के लिए उपलब्ध करा चुकी है। इस अधिग्रहण के महत्व पर उन्होंने बताया कि यह एक बड़ी उपलब्धि इसलिए भी है क्योंकि सिलिकॉन वैली में बहुत सी साफ्टवेयर कंपनियां 'स्टार्ट-अप' तो होती है लेकिन 90 फीसदी से ज्यादा सफल नहीं हो पाती। उनकी टीम खुशकिस्मत है कि न सिर्फ यह सफलतापूर्वक चली बल्कि अब दुनिया की सबसे बड़ी और बहुचर्चित कंपनी का हिस्सा भी बन गई है। अब तक 'डेजियेंट' ने गूगल वेंचर्स, राडार पार्टनर, फ्लड गेट और बेनहामुओ ग्लोबल वेंचर्स जैसी नामचीन कंपनियों को अपनी सेवाएं उपलब्ध कराई हैं। आगे अब 'ट्विटर' का हिस्सा बन कर एक नया आयाम स्थापित करने जा रही है। शारिक ने भिलाई की उत्कृष्ट शिक्षा व्यवस्था को अपने करियर की नींव बताते हुए इसे ही इस सफलता का श्रेय दिया है।
29 जनवरी 2012 (c)

Saturday, October 20, 2012

भिलाई का वैज्ञानिक जुटा है मानव जाति की जड़ें तलाशनें

डार्विन का वंशज भी जुड़ा है इस महाअभियान से 

अजय राय्युरू
 इस्पात नगरी भिलाई का युवा वैज्ञानिक अजय राय्युरू अंतर्राष्टरीय स्तर की एक महत्वपूर्ण परियोजना का नेतृत्व कर रहा है। इस परियोजना के तहत यह पता लगाया जा रहा है कि  मानव जाति के  कहां से कहां तक का सफर करते हुए पूरी दुनिया में फैलते गए। अपनी जड़ों को तलाशने की इस मुहिम से हाल ही में क्रिस डार्विन भी जुड़ चुके हैं। क्रिस दुनिया को अनुवांशिकी का सिद्धांत देने वाले वैज्ञानिक चाल्र्स डार्विन के वंशज हैं। अजय राय्युरू इस महत्वकांक्षी परियोजना को लेकर बेहद उत्साहित हैं।

चर्चा मेअजय राय्युरू ने बताया कि नेशनल ज्योग्राफिक चैनल और आईबीएम संयुक्त रूप यह परियोजना 'जिनोग्राफिक प्रोजेक्ट' के नाम से पिछले 4 साल से चला रहे हैं। इस मुहिम में अब  तक 4 लाख से भी ज्यादा नमूने ले कर उनका विश्लेषण किया जा चुका है। उल्लेखनीय है कि अजय इस परियोजना में आईबीएम की ओर से प्रभारी हैं। जनभागीदारी से चल रही विश्व की सबसे अनूठी और बड़ी परियोजनाओं में से एक 'जिनोग्राफिक प्रोजेक्ट' में किसी भी मनुष्य के गाल के अंदरूनी हिस्से को खुरच कर लार के साथ उसके नमूने लिए जाते हैं। जिनका प्रयोगशाला में विश्लेषण किया जाता है। अजय भिलाई के हैं और सेक्टर-10 सीनियर सेकंडरी स्कूल के पूर्व छात्र रहे हैं इसलिए उन्होंने इस प्रोजेक्ट की शुरूआत में ही अपने सेक्टर-10 स्कूल के एक छात्र के नमूने लेकर भिलाई की भागीदारी भी इस प्रोजेक्ट में दर्ज कर ली थी। अजय ने बताया कि इस प्रोजेक्ट की गतिविधियों से प्रभावित होकर महान वैज्ञानिक चाल्र्स डार्विन के प्रपौत्र के प्रपौत्र (ग्रेट-ग्रेट ग्रैंड सन) क्रिस डार्विन ने भी अपनी भागीदारी दी है।

चाल्र्स डार्विन 
अजय ने बताया कि चाल्र्स डार्विन ने अपनी पुस्तक 'ओरिजिन आफ स्पीशिस' में यह सिद्धांत प्रतिपादित किया था कि सभी मनुष्य एक ही पूर्वज से आए हैं। चाल्र्स डार्विन के जन्म के दो सौ साल बाद डीएनए टेक्नालॉजी द्वारा इसी अवधारणा की पुष्टिï अब 'जिनोग्राफिक प्रोजेक्ट' में  और बेहतर ढंग से हो है। ब्ल्यू माउंटेन सिडनी में रहने वाले डार्विन के वंशज क्रिस डार्विन ने जिनोग्राफिक पब्लिक पार्टिसिपेशन प्रोजेक्ट के तहत अपने नमूने दिए थे। जिसमे उनके वाई क्रोमोसोम का विश्लेषण किया गया। इससे यह पता चला कि चाल्र्स डार्विन के पूर्वज 45 हजार साल पहले अफ्रीका से निकले थे।

क्रिस डार्विन 
अजय ने बताया कि क्रिस इस परिणाम से बेहद खुश हैं। इसी साल फरवरी में क्रिस से मुलाकात हुई थी।  अजय ने बताया कि क्रिस डार्विन के दिए नमूने के विश्लेषण से यह  निष्कर्ष भी निकला है कि उनके पूर्वजों में पितृत्व की श्रृंखला हैपलो ग्रुप आर वन बी से और उनकी मां की ओर से वह हैपलो ग्रुप 'के' से हैं। उन्होंने बताया कि यूरोप में ज्यादातर हैपलो ग्रुप आर वन बी से हैं। इस समूह का एक भाग अफ्रीका से 40 हजार साल पहले ईरान और दक्षिण मध्य एशिया मे पहुंचा था। उसके बाद 35 हजार साल पहले यूरोप में यह ग्रुप पहुंचा। फिर धीरे-धीरे यह यूरोप मे बसते गए हैं। अजय के मुताबिक यह प्रोजेक्ट बहुत महत्वपूर्ण है इससे सही अनुमान लगाया जा सकता है कि मानव जाति ने एक जगह से दूसरी जगह कैसे प्रवास तय किया। 100 डालर की भागीदारी फीस का भुगतान कर इस महत्वकांक्षी प्रोजेक्ट से कोई भी जुड़ सकता है। अजय ने बताया कि भारत में इस प्रोजेक्ट के तहत नमूने लेने का काम चल रहा है और मदुरई के प्रोफेसर पिच्चप्पन इसे देख रहे हैं। अभी भारत मे नमूनों का विश्लेषण होना है। इसके उपरांत इसे शोधपत्र में प्रकाशित कराया जाएगा।
भिलाई,15 जून 2010 (C)

 मैं साहिर-शैलेंद्र बनने आया था, मुझे लोग

 'समीर' बनाना चाहते थे: राहत इंदौरी 


हुसैन के मुद्दे पर हिंदुस्तान की पेशानी पर जो तिलक

लगाने की कोशिश कर रहे हैं वो दाग बन जाएगा.....


मुहम्मद ज़ाकिर हुसैन 
भिलाई में 2010 में इंटरव्यू के दौरान रहत इंदौरी 
इंदौर के देवी अहिल्या विश्वविद्यालय में उर्दू के प्रोफेसर,शायर और पेंटर डा. राहतुल्लाह कुरैशी से फिल्मों के गीतकार डा. राहत इंदौरी तक का सफर अपने आप में कई दास्तां समेटे हुए है। 
गीतकार राहत इंदौरी चाहते तो बहुत कम बताना हैं लेकिन उनकी बातों में इतनी साफगोई है कि इंटरव्यू के दौरान बहुत सी बातों पर परदा डालने की कोशिश करते हुए भी वह कामयाब नहीं हो पाते हैं। 
एक मुशायरे के सिलसिले में 10 अप्रैल 2010 को भिलाई आए डा.राहत इंदौरी से मेरी लंबी गुफ्तगू हुई थी। शाम का वक्त था और राहत पूरी तरह फुरसत में थे। ऐसे में खुद के फिल्मी सफर नामे से लेकर हाल में मकबूल फिदा हुसैन के देश छोडऩे जैसे मुद्दे पर उन्होंने पूरे इत्मिनान के साथ बात की।
 कई बार कुछ ऐसे सवाल भी आए जिसमें उन्होंने साफ तौर पर यह भी कह दिया कि 'यह सब बताना मेरी कमीनगी होगी' फिर बात की रौ में राहत कुछ ऐसे बह गए कि सब कुछ साफ बयानी के साथ बता दिया। राहत इंदौरी से हुई ये बातचीत बिना ज्यादा काट-छांट के।

इंदौर से मुंबई का रूख क्यों कर हुआ..?

शरीके  हयात के साथ साभार-फेसबुक 
मैं इसलिए गया था कि बंबई वाले भरपूर पैसा देते हैं और साथ में थोड़ी बहुत शोहरत भी दे देते हैं। 
इंदौर में रहते हुए शोहरत मेरे पास पहले से थी फिर बंबई आने के बाद पैसा इतना आ गया कि बस अल्लाह का करम है। 
मैं 10-20 दिन के बाद अपने घर इंदौर जाता हूं तो मेरे पास कितना पैसा होता है, मुझे खुद नहीं मालूम, मैं अपनी बीवी को दे देता हूं देख लेना गिन लो। 
अब पैसा भी मेरा प्राब्लम नहीं रहा और शोहरत भी मेरा प्राब्लम नहीं रहा। मैनें कभी भी फिल्मों में ज्यादा नहीं लिखा और शौकिया ज्यादा लिखा।




...तो ये 'शौकिया' लिखने की शुरूआत कैसे हुई?

 
राहत इंदौरी परिवार के  साथ. साभार फेसबुक पेज 
उन दिनों मैं इंदौर की देवी अहिल्या यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर था।

 टी सीरिज के मालिक गुलशन कुमार ने तब कई फोन काल आए, लोगों ने कहा कि आप उनसे बात कर लीजिए। 
फिर एक बंदा खुद चल कर आया कि खुदा के वास्ते उनसे बात कर लीजिए। गुलशन कुमार एक फिल्म बना रहे थे 'शबनम'। मेरी एक बहुत पुरानी गजल का मतला था -झील अच्छा है, कंवल अच्छा है,जाम अच्छा है,तेरी आंखों के लिए कौन सा नाम अच्छा है।
 उन्होंने पूछा ये आपका है, मैनें कहा-जी हां ये मेरा है। उन्होंने कहा आ जाइए, इस गीत को पूरा कर लीजिए। 
मैनें कहा साहब मैं तो पंजाब जा रहा हूं, मुशायरे लगे हुए हैं। उन्होंने कहा सब छोड़ दीजिए,जो आपके नुकसानात होंगे वह सब हम देंगे। 
मैं सब छोड़ कर चले गया। गुलशन कुमार ने वहां पूछा - राहत भाई हमारे लिए क्या है आपके पास? मैनें कहा, आपके लिए कुछ भी नहीं है मेरे पास, एक लाइन भी नहीं है। 
मैंनें कहा कि अगर आप बता दें, अगर आप बता दें सही-सही और मैं आपकी बात को सही-सही समझ गया तो मुझसे बेहतर कोई लिख ही नहीं सकता। उन्होंने खुद कार ड्राइव करते हुए सड़क पे गाने की सिचुएशन सुनाई।
 फिर दूसरे तीसरे दिन जब मैनें गीत लिख कर दिए तो फिल्म के लिए नहीं बल्कि  उन्होंने ये सभी14 गाने एक साथ एक एलबम 'आशियाना' के लिए अनुराधा पौडवाल-पंकज उधास की आवाज में छह दिन रिकार्ड कर लिए। उन्होंने खूब पैसे दिए। पैसे किसको अच्छे नहीं लगते हैं,लिहाजा मैं भी वहां रूकता गया।
 फिर अन्नू मलिक के साथ मैंनें महेश भट्ट  के लिए 'सर' फिल्म में गीत लिखे और इसके बाद महेश भट्ट,मेरी और अन्नू की ट्यूनिंग सी बन गई। भट्ट कैंप की ज्यादातर फिल्मों में मैनें गीत लिखे।

जैसा आप चाहते थे, फिल्मों में वैसा लिख पाते हैं.?

इंटरव्यू के दौरान 
सच कहूं तो मैं फिल्मी दुनिया में गया था साहिर-शैलेंद्र बनने के लिए लेकिन ये फिल्मवाले मुझे 'समीर' बनाने के चक्कर में लगे रहे। इस वजह से मैं बहुत जगह अनफिट  भी रहा।
 मुझे जब-जब शायरी के लिए बंबई ने पुकारा मैं वहां नजर आया। मैनें विधु विनोद चोपड़ा के लिए 'करीब' फिल्म में जब लिखा कि 'रिश्तों के नीले भंवर कुछ और गहरे हुए गए, तेरे मेरे साए हैं पानी पे ठहरे हुए, जब प्यार का मोती गिरा, बनने लगा दायरा' तो बड़ी तसल्ली हुई।
 'मुन्ना भाई' के गीत लिखने के बाद जब मैं अमेरिका मुशायरे के सिलसिले में गया तो देखा कि वहां कुछ बच्चे गुनगुना रहे हैं-चंदा मामा सो गए सूरज चाचू जागे। 
मैनें आज के सभी टॉप डायरेक्टर महेश भट्ट, राजकुमार संतोषी, अब्बास-मस्तान सहित कई लोगों के लिए लिखा। लेकिन कई बार ऐसा भी हुआ कि मुझसे  नाच मेरी जान फटाफट, चार फीट की घोड़ी और छह फीट का घोड़ा, टन टना टन, टन टन तारा टाइप के गाने लिखवाने की कोशिश भी की गई, जिस पर मैनें सॉरी बोल इंदौर लौटना मुनासिब समझा। 
फिर एक वक्त आया जब फिल्म वाले भी समझ गए कि वे मुझसे बुरा लिखवाएंगे तो मैं भाग जाऊंगा और भाग के इधर भिलाई आ जाऊंगा मुशायरे में या फिर किसी और शहर चला जाऊंगा। क्योंकि अब पैसा मेरा प्राब्लम नहीं रहा।

क्या वाकई अब पैसा आपका प्राब्लम नहीं रहा और आज फिल्मों में म्यूजिक का ट्रेंड कैसा देखते हैं ?


मेरा खयाल है पिछले 10 बरस में मैनें कोई 3-4 दर्जन सुपर-डुपर हिट फिल्मी गीत दिए। मैंनें गोल्डन जुबली और सिल्वर जुबली फिल्में दी। मैनें मिशन कश्मीर, करीब ,मुन्ना भाई एमबीबीएस जैसी कई हिट फिल्मों मे गीत लिखे।
 मैनें इतना लिखा कि मुझे पैसा बहुत आ जाता है। लाखों का चेक हर साल सितंबर और मार्च में आ जाता है। अगर मैं समीर की तरह गाने लिख देता तो शायद इससे कहीं ज्यादा पैसे आते और मैं तो कभी घर से ही नहीं निकलता। इसलिए वाकई अब मेरा प्राब्लम पैसा नहीं, मेरा प्राब्लम पोएट्री है।
ये बड़ा अजीब मामला है कि आज फिल्मों का जो म्यूजिक है वो प्रोड्यूसर-डायरेक्टर या म्यूजिक डायरेक्टर के भी हाथ में नहीं रहा। वो अब म्यूजिक कंपनी के हाथ में आ गया है।
 गुलशन कुमार ने ये ट्रेंड शुरू किया था कि गाना चाहे कोई भी हो आप रिकार्ड कीजिए,हम बैंक बना देंगे। अब आज ढेर सारी म्यूजिक कंपनियां हैं। जब फिल्म का प्रोजेक्ट जब शुरू होता है तो सबसे पहले प्रोड्यूसर- डायरेक्टर म्यूजिक कंपनी के लोगों को बुलाते हैं ।
 ये म्यूजिक कंपनी वाले बताते हैं कि साहब हम फलां-फलां गाना कर रहे हैं। अब जो डायरेक्टर-प्रोड्यूसर म्यूजिक का अलीफ-बे भी नहीं जानता वो ओके-ओके कह देता है। इस तरह पहले गाने से फिल्म का मुहूर्त भी हो जाता है।

आज फिल्मों में गीतों की कितनी अहमियत रह गई है?

हकीकत ये है कि आज के ज्यादातर गानों का किसी भी फिल्म की कहानी से कोई ताल्लुक नहीं रह गया है। पहले हमारी फिल्म में जो गाने आते थे उनका बाकायदा कहानी से ताल्लुक होता था।
 मसलन आप 'मदर इंडिया' फिल्म से 'मतवाला जिया डोले पिया,झूमे घटा छाए रे बादल' को आप हटा दीजिए, फिल्म की कहानी भटक जाएगी। अब ये होता है कि जब गाना आ जाता है तो कहानी खत्म हो जाती है। उस गाने का उस कहानी से कोई ताल्लुक नहीं  होता है।
 अब ये होता है कि वो गाना इस फिल्म से हटा कर दूसरी फिल्म में रख दिया जाए तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि सिचुएशन एक सी होती है। एक लड़की है और एक लड़का है और बाग में ढेर सारे एक्स्ट्रा के साथ गा रहे हैं। 
तो इस गीत को आप इस फिल्म से हटाकर दूसरी फिल्म में रख लीजिए कोई फर्क नहीं पड़ेगा। कई बार ऐसे गीत हम खुद भी लिख देते हैं, लेकिन हमारे अंदर का शायर हमें इनकार करता है कि ये क्या कर रहे हैं आप कुछ हजार रूपए के चेक के लिए।

ये कैसे मुमकिन है कि फैक्ट्री की तरह हर दूसरी फिल्म में किसी के गीत  लगातार आते रहें ? समीर, इंदीवर हो या आनंद बख्शी....

(बीच में टोकते हुए) आपका ये सवाल जरा मुश्किल है और इसका जवाब भी मुश्किल है। आप सिर्फ समीर या इंदीवर के मुताल्लिक सवाल नहीं कर रहे हैं बल्कि इनका इशारा कर आप उन लोगों की बातें कर रहे हैं जो हमारे सीनियर हैं और बड़े लोग हैं जिसमें शकील, साहिर और हसरत सहित दूसरे लोग भी आ जाएंगे।
 हां, होता है ऐसे लेकिन मेरे साथ ये कभी नहीं हुआ। अगर दूसरों से गीत लिखाने बहुत से बड़े नाम किराए के लोग रखते भी होंगे तो मुझे नहीं मालूम। मैनें तो कभी नहीं रखे। 
जैसा आप कह रहे हैं तो सच है कि  एक जमाना था कि इंदीवर हर दूसरी फिल्म में लिखता था। एक जमाना मेरा भी था कि जब मैनें फिल्म लाइन ज्वाइन की तो हर तीसरी फिल्म मेरी थी। 
सुपर-डुपर फिल्में मैनें लिखी लेकिन मैनें कभी ओढ़ा नहीं फिल्म को। इतराया नहीं मैं कि मैं फिल्म राइटर हूं।

इंडस्ट्री में ये ट्रेंड तो चलता रहा है..?

मैं  इसका जवाब नहीं देना चाहता। आप बार-बार कुरेद रहे हैं उसके बावजूद मैं नाम नहीं लेना चाह रहा हूं क्योंकि ये सब मेरे बड़े हैं मेरे दोस्त हैं।
 अलबत्ता ये जरूर है कि कोई मुखड़ा या गीत का बंद पसंद आ गया डायरेक्टर को। मसलन मुझको यारों माफ करना मैं नशे में हूं। डायरेक्टर जीपी सिप्पी लेकर गए शंकर-जयकिशन साहब के पास।
 उन्होंने पूछा ये किसका है जवाब मिला जिसका भी हो ये अच्छा है और ये मुखड़ा चाहिए। रिकार्ड करो। तो ऐसे काम बहुत हुए हैं इसमें मैं किसी का नाम नहीं लूंगा और लेना भी नहीं चाहिए मुझे।

...तो क्या आपके साथ ऐसा कुछ भी नहीं हुआ..?

भिलाई में राहत इंदौरी,पीछे बैठे उस्ताद शायर बदरुल कुरैशी 'बद्र '
कई गाने ऐसे हैं। मैनें मैक्जिमम वर्क किया है अन्नू मलिक के साथ। अन्नू ने कहा कि राहत यार ये मुखड़ा मेरे मामू हसरत (जयपुरी) का है। अब वो बीमार रहते हैं,ये गाना तू कंपलीट कर दे,पैसे तेरे को नहीं मिलेंगे लेकिन उनके पास पहुंच जाएंगे। तो,मुझे खुशी हुई।
वो गाना था फिल्म 'मैं खिलाड़ी तू अनाड़ी' का 'पास वो आने लगे जरा-जरा..' । आप सीडी उठा कर देखेंगे तो गीतकार की जगह हसरत जयपुरी लिखा हुआ है। कई बार हुआ कि यार, ऐसा कर दो या ऐसा कर दो। तो,मैंनें कई बार कई लोगों के लिए ऐसा काम किया। तो उसके मुझे पैसे भी नहीं मिले, नाम भी किसी और का हुआ। 
ऐसा मैनें कई बार किया। फिर ऐसा भी हुआ कि मैनें गाना लिख लिया लेकिन रिकार्ड हुआ किसी और का लिखा हुआ। मसलन, एक फिल्म महेश भट्ट की ' द जेंटलमैन' थी।
 मुझे सिचुएशन दी गई गीत लिखने। किसी वजह से मैं 3-4 दिन बाद गीत लेकर पहुंचा तो मालूम चला कि वो गीत तो इंदीवर ने लिख भी दिया और रिकार्ड भी हो गया।
ये गीत था 'रूप सुहाना लगता है चांद पुराना लगता है तेरे आगे ओ जानम'। मैंनें सुना तो मुझे धक्का सा लगा। वैसे तो मैं इंदीवर जैसी शख्सियत को मैं आज भी सैल्यूट करता हूं। लेकिन, उस रोज इस गीत को लेकर मेरी इंदीवर से थोड़ी सख्त लहजे में बात हो गई। 
वो इसलिए क्योंकि इस गीत का मुखड़ा इंदीवर ने कैफ भोपाली की लिखी गजल के मतले से उठा लिया था। उनका मतला था-तेरे आगे चांद पुराना लगता है तेरा चेहरा कितना सुहाना लगता है।
तो, मैनें इंदीवर को कहा कि यार, ये तुमने एक फकीर आदमी की लाइनें मार ली। इंदीवर बोले मुझे म्यूजिक डायरेक्टर ने कहा था कि इसको गाना कर ले। ऐसा तो होता रहता है।

यानि इंडस्ट्री में ये सब आम बात है?

देखिए, ये इंडस्ट्री की ये ट्रेजेडी भी रही और ट्रेंड भी रहा। अब बात निकल ही गई  है तो मैं बताऊं,हमारे बुजुर्ग और बड़े बेतकल्लुफ दोस्तों में थे खुमार बाराबंकवी। उन्होंने फिल्मों में अपने लिए और दूसरों के लिए खूब लिखा है। जब वो मूड में हों तो हम लोगों को शराब  भी खूब पिलाते थे। 
ऐसे तो वो फिल्मी दुनिया पर ज्यादा बात नहीं करते थे लेकिन कभी मूड में हो तो हम लोग ही छेड़ देते थे कि खुमार भाई, बताओ आप ने कौन-कौन से गाने दूसरों के लिए लिखे। तो वो गा कर सुनाते लग जाते थे- ये जिंदगी के मेले दुनिया में कम ना होंगे, हमीं से मोहब्बत हमीं से लड़ाई, अरे मार डाला दुहाई-दुहाई।
 उनके मुंह से ऐसी कड़वी हकीकत सुन कर हम तो पागल हो जाते थे क्योंकि उनके बताए ज्यादातर गाने शकील बदायूंनी के नाम पर है। ऐसा इंडस्ट्री में बहुत हुआ और लोगों ने बहुत किया।

आपके अंदर का शायर कभी फिल्मी गीतकार पर हावी नहीं होता..?

देखिए, दोनों अलग-अलग बातें हैं। मुशायरों में तो राहत इंदौरी ही होता है। मुझे ये कहने वाला कोई नहीं होता कि ये पढऩा है या ये नहीं पढऩा। ये सुनाना है या ये नहीं सुनाना है। 
फिल्मों में मुझे मेरे सर पर मेरा चेक जो है वो मुझे मजबूर करता है कि आपको ये लिखना है और ये नहीं लिखना है। फिल्मों में वो लिखना पड़ता है जो हमसे हमारा डायरेक्टर और प्रोड्यूसर चाहता है। मुशायरे में ये नहीं होता बल्कि हम अपनी मर्जी का सुनाते हैंं।
 अवाम की  तारीफ,उनकी तहसीन,उनकी तालियां मेरे लिए करोड़ों रूपए की जायजाद है। फिल्म का मामला कुछ ऐसा है कि -गिन-गिन के सिक्के हाथ मेरा खुरदुरा हुआ,जाती रही वो हाथ की नरमी, बुरा हुआ। ये शेर मेरा नहीं बल्कि जावेद अख्तर का है।

इन दिनों किन फिल्मों के लिए गीत लिख रहे हैं आप?

मैं शुरू से ही सलेक्टिव लिखने में यकीन रखता रहा हूं। इन दिनों मैं एक बहुत बड़े प्रोजेक्ट पर काम कर रहा हूं। एमएफ हुसैन इन दिनों 'माजरा' बना रहे हैं। जिसके गीत लिखने का मौका उन्होंने मुझे दिया है।
 दरअसल उनकी पिछली दो फिल्मों 'गजगामिनी' और 'मीनाक्षी-ए टेल ऑफ़ थ्री सिटीज़' में भी मैनें ही गीत लिखे थे। फिर जब हुसैन ने अपनी तीसरी फिल्म 'माजरा' पर काम शुरू किया तो उन्होंने मुझे बुलाया। बातचीत के दौरान मैनें पूछ लिया कि-आपकी कास्टिंग क्या है, कौन काम कर रहा है आपकी फिल्म में? तो, उन्होंने मुझे बड़ा दिलचस्प जवाब दिया कि राहत, हमारी फिल्म की जो कास्टिंग है वो है लैंड स्केप, कलर और पोएट्री।
 तो मैं फौरन तैयार हो गया क्योंकि मैं लैंड स्केप भी जानता हूं, कलर्स भी जानता हूं और पोएट्री भी जानता हूं। तो मैं उनकी 'माजरा' के लिए काम कर रहा हूं,छह-सात गाने मैं लिख चुका हूं।
हुसैन के बेटे ओवैस हुसैन की मौजूदगी में इन दिनों कुल्लू मनाली मे फिल्म की शूटिंग भी चल रही है। इस फिल्म के सिलसिले में भी मैं दुबई जाकर हुसैन से मिलता रहता हूं।

हुसैन का कतर की नागरिकता लेना क्या सचमुच इतना गंभीर मसला है?

मुझे खुद समझ नहीं आता कि आखिर हुसैन के नाम पर इतना हौव्वा क्यों खड़ा किया जा रहा है। कोई 8-10 साल पहले अमिताभ बच्चन ने अमेरिका की नागरिकता ले ली थी। अभी भी अमिताभ के पास दोहरी नागरिकता है। कोई अमिताभ से तो कुछ नहीं पूछता।
अब आज ये बात आप मीडिया के लोग भी भूल गए हैं, तो मुझे हैरत है। हमारे एनआरआई लाखों की तादाद में हैं जो अमेरिका,कनाडा,ब्रिटेन और फ्रांस सहित कई मुल्कों में वहां की  नागरिकता रखते हैं, इसके बावजूद वो हिंदुस्तानी भी है।
अभी मैनें अखबार में पढ़ा कि लंदन का शेरिफ हिंदुस्तानी है। तो, इससे क्या फर्क पड़ता है। हां, लेकिन ये अफसोस की बात है कि एक 96 बरस का बूढ़ा पेंटर जो सारी दुनिया में फख्र की नजर से देखा जाता है उसे सिर्फ सियासत की वजह से हिंदुस्तान को छोडऩा पड़ा। 
मेरा कहना है कि अगर 96 बरस का एक बूढ़ा अगर कतर में मर जाता है तो मेरी नजर में ये हिंदुस्तान का सबसे बड़ा सियासी कत्ल होगा।

अपने हिंदुस्तान के बगैर हुसैन किस हाल में हैं वहां?

सच बताऊं तो हिंदुस्तान का जिक्र आते ही हुसैन की आंखें नम हो जाती  है। अभी पिछले महिने लंदन के एक होटल में वो मुझसे मिलने आए। हम लोग खाना खा रहे थे तो भीगी आंखों से कहने लगे, राहत, मैंनें सारी जिंदगी पूरी दुनिया में घूमते-घूमते गुजार दी।
 हमेशा मेरी जेब में अलग-अलग मुल्क के 5 टिकट ,पासपोर्ट वीजा सब कुछ होता है। फिर एयरपोर्ट में जाता हूं तो लगता है कि यहां मत जाओ यार किसी छठें मुल्क में चलों।
 घर में बच्चों से कह कर आता हूं कि शाम में इकट्ठे खाना खाएंगे लेकिन अक्सर यह होता है कि शाम को किसी और मुल्क भी पहुंच जाता हूं मैं। पूरी दुनिया में जिस वक्त चाहूं जा सकता हूं लेकिन मेरी आंख में आंसू आ जाते है कि इन सबके बावजूद मैं अपने मुल्क हिंदुस्तान नहीं जा सकता हूं। हुसैन कहते हैं कि-यार, मैं  यहां मिस कर रहा हूं अपनी दिल्ली, अमरोहा, जैसलमेर बाड़मेर और न जाने कितने हिंदुस्तानी शहर, गांव, बस्ती। जो मेरे ब्रश है मेरे कलर हैं मेरे अपने मुल्क के।

वहां रहते हुए हुसैन की जीवन शैली में बदलाव आया..?

बिल्कुल नहीं। आज भी वह इंसान नंगे पैर पूरी दुनिया नाप रहा है। मेरी हुसैन से लंदन,दुबई और कतर में मुलाकात होते रहती है। मुख्तलिफ मुल्कों में वो जहां होता है एमएफ हुसैन होता है।
 आपको जान कर हैरत होगी कि दुबई में वो बुगादी कार में मुझसे मिलने आए थे। ये कार पूरे मिडिल इस्ट में सिर्फ 4 लोगों के पास है।
 और वो चारों वहां अपने-अपने मुल्क के बादशाह हैं। हम हिंदुस्तानियों को खुश होना चाहिए कि एक आदमी हमारे  देश  का ऐसा है जो इस हाल में है।

....लेकिन क्या  एक इस्लामी मुल्क में हुसैन उतनी ही आजादी से अपने 'घोड़े' दौड़ा पाएंगे ?

वहां हुसैन अपने 'घोड़े' दौड़ा पाएंगे नहीं बल्कि दौड़ा रहे हैं और पूरी आजादी के साथ। जनवरी में जब वो मुझसे मिलने दुबई आए थे तो उन्होंने कहा कि-राहत यार मैं कल कतर जा रहा हूं। वहां के शाह के कहने पर कतर की सौ बरस की तहजीब को पेंट करना है। मैं कल चला जाऊंगा। 
खैर, कुछ दिनों के बाद उन्होंने टेलीफोन किया और बताया कि आजकल वह कांच के घोड़े बना रहे हैं शाह के महल में। फिर एक हफ्ते बाद मैंनें फोन किया तो उन्होंने कहा कि मुझे कतर की सिटीजनशिप आफर की थी और मैंने वह कुबूल कर ली है। 
मुझे एक सदमा सा पहुंचा लेकिन जैसा मैनें पहले ही कहा कि आदमी या तो मजबूरी में फैसले लेता है खौफ में या दबाव में लेता है। तो हुसैन के साथ भी कुछ ऐसा ही मामला समझिए।

 ...तो क्या हुसैन का हिंदुस्तान छोडऩा वाकई बहुत बड़ा नुकसान है..?

देखिए, सच्चे कलाकार के लिए जमीन या कोई देश या कोई इलाका नहीं होता। रोशनी जहां होगी अपना नूर फैलाएगी। हुसैन जहां रहेंगे अपनी कला बिखेरेंगे। कब तक आप सियासत करेंगे हुसैन के नाम पर। साल, दो साल, चार साल। ये जो हमारी सदियों की तहजीबें हैं। 
जिसे आप कह रहे हो नग्नता है तो ये खजुराहो के मंदिर कहां लेकर जाओगे आप? सुप्रीम कोर्ट में जब हुसैन के खिलाफ मुकद्दमे हटाए गए तो जज ने कहा कि जिन लोगों ने ये मुकद्दमें किए हैं वो जाहिल हैं और समझते ही नहीं है कि आर्ट क्या होता है।
आप अजंता-एलोरा कहां लेकर जाओगे? ये हमारी अपनी तहजीबें हैं,ये खत्म नहीं की जा सकती। आपको मालूम ही नहीं कि हमारे मुल्क की गंदी सियासत की वजह आज के दौर का यह (हुसैन का मुल्क छोडऩा) कितना बड़ा नुकसान है।
यह गैलेलियों और सुकरात की तरह का मामला है। आप इस मामले को लेकर हिंदुस्तान की पेशानी पर जो तिलक लगाने की कोशिश कर रहे हैं वो हमेशा के लिए दाग़ बन जाएगा।

लेकिन, हुसैन ने तो अपना हिंदुस्तानी पासपोर्ट ही लौटा दिया है?

 मेरा कहना है कि आदमी कोई भी फैसला मजबूरी, खौफ या दबाव में लेता है। अब ये  चिदंबरम साहब जो 74 लोगों को मरवा के बैठे हुए हैं इन्होंने क्या कभी बयान दिया कि आप आइए आपकी हिफाजत की गारंटी हम लेते हैं? 
अगर वो दे भी देते तो क्या सचमुच वो ऐसा कर पाएंगे। जब वो खुद हमारे जवानों को नहीं बचा पा रहे हैं तो हुसैन जैसी शख्सियत की क्या बात करें।

खुद हुसैन इस बारे में क्या कहते हैं..?

मैं पिछले तीन  माह में छह मरतबा हुसैन से मिला* हूं। मैं मुशायरे के सिलसिले में लंदन जाऊं या दुबई। उनसे जरूर मुलाकात होती है। हुसैन ने मुझे हाल की मुलाकात में बताया कि-चिदंबरम कह रहे हैं कि हम कोशिश कर रहे हैं कि हम आपकी हिफाजत का इंतजाम करें। हम बहुत जल्दी आपको बुलवाएंगे।
 हुसैन परेशान हैं,उनका कहना है कि मेरा मुल्क है ये मेरी जमीन है ये, आखिर मेरी हिफाजत क्यों नही। इसलिए हुसैन साहब ने वो बयान भी दिया था कि इंदिरा गांधी और राजीव गांधी को तो उनके मुहाफिजों ने मारा था। सचिन तेंदुलकर और जावेद अख्तर के घर पर शिवसेना पहुंच जाती है। ऐसे में अपने मुल्क हिंदुस्तान में कौन महफूज है।

...लेकिन 96   बरस की उम्र में हुसैन को अपनी हिफाजत को लेकर इतना खौफ क्यों..?

10 जून 2011 हुसैन का आखिरी सफर लंदन में 
देखिए, सुप्रीम कोर्ट ये फैसला दे चुका है कि हुसैन के उपर कोई केस नहीं है। 
उसके बाद बजरंग दल, आरएसएस और उनकी जमात ये कहती है कि हम कोर्ट को नहीं मानते हैं। 
 वो अगर आएंगे तो हम एहतेजाज (विरोध प्रदर्शन) करेंगे। ऐसा अखबारों में भी छपा। इसके बावजूद हिंदुस्तान की हुकूमत सब चुपचाप देख रही है। आखिर एक 96  बरस के आदमी की ज्यादा से ज्यादा उम्र क्या मान सकते हैं आप? 
आज की तारीख में बहुत हुआ तो साल भर या दो ,तीन, चार साल और। ऐसे में हुसैन का अपनी जमीन से बाहर होना इस दौर की सबसे बड़ी बदकिस्मती होगी।
*नोट -यह इंटरव्यू 10 अप्रैल 2010 का है और तब राहत इंदौरी कुछ अरसा पहले मक़बूल फ़िदा हुसैन से दुबई से मिल कर लौटे थे। क़रीब साल भर बाद 9 जून 2011 को लंदन में हुसैन का इंतेक़ाल हुआ.. إِنَّا لِلّهِ وَإِنَّـا إِلَيْهِ رَاجِعونَ

एक गज़ल मे 500 शेर, ऐसे तैयार

 हुआ मुनव्वर का 'मुहाजिरनामा' 


अब तक एक गजल में इतने ज्यादा शेर लिखना रिकार्ड 


8 अप्रैल 2010 को भिलाई में मुनव्वर राना के साथ गुफ्तगू के दौरान

 उर्दू के जाने-माने शायर मुनव्वर राना ने एक नायाब रिकार्ड अपने नाम किया है। पहली बार उर्दू में सिर्फ एक गज़ल में पूरे 500 शेर लिखे गए हैं। खुद मुनव्वर राना का कहना है कि शायर या लेखक किसी रिकार्ड के लिए नहीं लिखता लेकिन दो साल पहले जब वह लिखने बैठे तो पता ही नहीं लगा कि कब 500 शेर हो गए। 

'मुहाजिरनामा' नाम से उनकी यह किताब हिंदी और उर्दू में शीघ्र प्रकाशित होने वाली है। यहां भिलाई में 8 अप्रैल 2010 को मुनव्वर राना एक मुशायरे में हिस्सा लेने आए थे। कॉफी हाउस सुपेला में उन्होंने बातचीत के लिए वक्त दिया तो चारों तरफ उनके मिलने वालों का हुजूम था। इस अफरा-तफरी के बीच उन्होंने 'मुहाजिरनामा' लिखने की वजह बताते हुए ख़ास तौर पर अपनी इस अप्रकाशित किताब के चुनिंदा शेर भी पेश किए।
मुनव्वर राना ने इस खास बातचीत में कहा कि-मुहाजिर उसे कहते हैं जो अपनी जमीन से उठ कर कहीं और चले जाए। देश के विभाजन के दौरान हमारे अपने परिवार के ज्यादातर लोग हिजरत कर उस हिस्से मे चले गए जिसे आज पाकिस्तान कहते हैं। उस दौरान हमारे दादी-दादा बुआएं,चाचा सारे लोग चले गए और पूरा खानदान बिखर गया। हमारे वालिद (पिता) ने कहा कि हम यहीं रहेंगे।
यह तो थी आपबीती,जहां तक 'मुहाजिरनामा' लिखने की बात है तो मुहाजिरों के हालात पर नस्र (गद्य) में काफी लिखा गया। भीष्म साहनी से लेकर मंटो और मंटो से लेकर इंतजार हुसैन तक बहुत ने इसमें बहुत काम किया।

इसकी बनिस्बत शायरी में अब तक कोई बड़ा काम नहीं हुआ। इक्का-दुक्का लोगों ने मुख्तलिफ शेर कहे हैं लेकिन इस एक ही उन्वान (शीर्षक) में 500 शेर कहने की कोशिश पहली बार हुई है। 

राना का कहना है कि यह अपने आप में रिकार्ड है लेकिन वह गिनीज या लिम्का बुक में इसे दर्ज करवाने के लेकर ज़रा भी उत्साहित नहीं है। क्योंकि शायर किसी रिकार्ड के लिए नहीं लिखता।

'मुहाजिरनामा' की शुरूआत के बारे में राना ने बताया कि 2008 में वह एक मुशायरे के सिलसिले में करांची गए थे। वहां एक साहब ने कहा कि हमारे हैदराबाद चलिए। हमनें कहा, तबीयत साथ नहीं देती कि हम इतनी दूर 250 किमी जाएं और फिर लौटे। वो जिद करते रहे हम माफी मांगते रहे। आखिर में एक बहुत कमजोर सी बात उन्होंने कह दी कि राना साहब, आज आपको जितना पेमेंट मिल रहा है उसका दुगुना-तिगुना हम देंगे लेकिन हम आपको हैदराबाद लेकर ही चलेंगे। मैनें कहा-आप ने बहुत कमजोर बात कह दी। आखिरकार हम आपके मेहमान हैं। तब उन्होंने माफी मांगी।
दरअसल होता यह है कि वहां जो पाकिस्तान में बैठे हैं वो ऐसा सोचते हैं कि वहां के भिखारी रहे होंगे जो यहां राजा बन गए जबकि ऐसा नहीं है। सन् 1955-56 में जो बाग़ मेरे दादा 25 हजार में बेच कर गए थे उसे वापस खरीदने 2001 में मेरे वालिद ने 25 लाख के दाम लगा दिए थे। 

इसके बावजूद हमें नहीं मिला। उन्होंने कहा कि आपके पूर्वजों ने हमें दिया है और अमानतें बेचने के लिए नहीं होती। वहां करांची में जब मैं स्टेज पर बैठा था तो मैनें कुछ शेर कहे। मैंनें कहा मतला उन साजिद साहब की नजर है जिन्होंने ये बात मुझसे कही थी और मुहाजिरों की तरफ से पाकिस्तानी हुकूमत की नजर है। (मतला ये था कि)


मुहाजिर हैं हम मगर एक दुनिया छोड़ आएं हैं
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आएं हैं।


इस तरह शुरूआत हुई 'मुहाजिरनामा' की। इसके बाद दो साल में कई मौके ऐसे आए जब शेर लिखते वक्त दर्द उभरता गया और तबियत बिगड़ती चली गई। पूरा 'मुहाजिरनामा' तैयार करने में मैनें जो तकलीफ महसूस की है उसका जिक्र नहीं कर सकता। 

इन दो सालों मे कम से कम 4 बार अस्पताल में दाखिल होना पड़ा। अब यह पूरा तैयार हो चुका है। जिसमें 500 शेर के अलावा 30 पेज का एक आलेख भी है। हिंदी और उर्दू में यह किताब मिज़गां और सहारा पब्लिशर लेकर आ रहे हैं।
राना अपनी अप्रकाशित किताब 'मुहाजिरनामा' के चंद शेर पेश करते हुए उनके साथ कुछ ब्यौरा भी देते गए।


(पाकिस्तान में बैठा हुआ याद करता है हिंदुस्तान के अपने शहर को)
हमारी रिश्तेदारी तो नहीं थी हां ताल्लुक था
जो लक्ष्मी छोड़ आएं हैं दुर्गा छोड़ आएं हैं।


हिमालय से निकलती हर नदी आवाज देती थी,
मियां आओ वजू कर लो, ये जुमला छोड़ आएं हैं।


वजू करने को जब भी बैठते हैं ये याद आता है
कि हम जल्दी में जमुना का किनारा छोड़ आएं हैं।


(यहां एक शेर है जिसमे मुंतकिल के मायने है हस्तांतरण)
जमीनें मुंतकिल करते हुए एक कोरे कागज पे
 अंगूठा कब लगाया था अंगूठा छोड़ आए हैं।

(आज भी देखिए होता यह है कि कोई पुश्तैनी चीज अगर आप बेचते हैं तो पढ़े-लिखे होनें के बावजूद आपका अंगूठा पकड़ कर लगाया जाता है क्योंकि वो भागता है वहां पर से, कहता है कि नहीं ये गलत हो रहा है।)


(फिर आगे शेर है)
हमारी अहलिया (बीवी) तो आ गई,मां छूट गई आखिर
कि हम पीतल उठा लाएं हैं सोना छोड़ आए हैं


महीनों तक तो अम्मी ख्वाब में भी बड़बड़ाती थी,
सूखाने के लिए हम छत पर पुदीना छोड़ आए हैं


अभी तक बारिशों में भीगते ही याद आता है
कि छप्पर के नीचे अपना छाता छोड़ आए हैं


(इसमें एक पूरी तस्वीर उभरती है कि)
गले मिलते हुई नदियां, गले मिलते हुए मजहब
इलाहाबाद में कैसा नजारा छोड़ आएं हैं


महल से दूर बरगद के तले निर्वाण की खातिर
थके हारे हुए गौतम को बैठा छोड़ आए हैं


मोहर्रम में हमारा लखनऊ ईरान लगता था
मदद मौला हुसैनाबाद रोता छोड़ आए हैं


(एक और शेर है जिसमें रेयाया के मायने है जनता और हाकिम के मायने है शासक)
रेयाया थे तो फिर हाकिम का कहना क्यों नहीं माना
जो हाकिम थे तो क्यूं अपनी रेयाया छोड़ आएं हैं


ये हिजरत तो नहीं थी बुजदिली शायद हमारी थी
कि हम बिस्तर में एक हड्डी का ढांचा छोड़ आएं हैं

(लोगों ने कहा कि-भैया अभी मत जाओ,आज कल के मेहमान हैं चच्चा या अब्बा, कहां जाओगे। तो बोले कि अरे नहीं, हमें तो पाकिस्तान जाना है।   मालूम पड़ा कि उधर वो बैठे होंगे ट्रेन में और इधर उनके बुजुर्ग चल बसे)


 (जिन लोगों ने उस हिस्से से यहां हिजरत की उनका दर्द इस शेर में है)
यहां सब कुछ मयस्सर है, यहां हर चीज हासिल है
सभी कुछ है मगर पंजाब आधा छोड़ आए हैं


सड़क भी शेरशाही आ गई तक्सीम की जद में
तुझे हम कर के हिंदुस्तान छोटा छोड़ आए हैं


(जवान होने का जो अमल है उसका सबसे तहजीबी लफ्ज इस शेर में इस्तेमाल हुआ है)


भतीजी अब सलीके से दुपट्टा ओढ़ती होगी
वही झूले में हम जिसको हुमकता छोड़ आए हैं।


(भिलाई नगर, 8 अप्रैल 2010)

मुनव्वर राना का 'मुहाजिरनामा' अब दुनिया के कोने-कोने तक पहुंच गया है और बेहद मशहूर भी रहा है। पूरा 'मुहाजिरनामा' आप मोहम्मद अजीज की आवाज में भी सुन सकते हैं और एक लिंक मुनव्वर राना की मुशायरे के दौरान की..।

भिलाई की दुआ रही तो 'बर्फी' ऑस्कर जरूर जीतेगी

मेरी हर फिल्म में नजर आएगा भिलाई और छत्तीसगढ़

निर्देशक अनुराग बसु 'बर्फी' की सफलता से बेहद उत्साहित हैं। उन्होंने इस सफलता के लिए अपने भिलाई और छत्तीसगढ़वासियों का खास कर शुक्रिया अदा किया है। अनुराग अपनी हर फिल्म में अपने भिलाई और छत्तीसगढ़ को किसी न किसी रूप में दिखाने का इरादा रखते हैं और यही उनकी मुकम्मल पहचान भी है। 'बर्फी' की सफलता पर अनुराग ने विभिन्न मुद्दों पर बातचीत की।

'मुस्कान' से मिला मुझे बेसिक आइडिया
सेक्टर-2 के 'मुस्कान' मानसिक नि:शक्त स्कूल से मेरा बेहद करीबी का रिश्ता रहा है। इसे संचालित कर रहे अजयकांत भट्ट व अन्य सभी लोग हमारे पारिवारिक सदस्य हैं। इसलिए भिलाई आने पर मैं 'मुस्कान' जरूर जाता हूं। पिछली बार जब मैं यहां गया था तो 'मुस्कान' परिवार से मैंने कुछ वायदे किए थे। मुझे 'बर्फी' का बेसिक आइडिया यहीं से ही मिला। आज जब मेरी 'बर्फी' पूरे देश में सुपरहिट हो गई है तो मुझे लगता है कि मैने 'मुस्कान' परिवार से जो वादा किया था, उसे निभाने में सफल रहा। मेरी 'बर्फी' को दरअसल 'मुस्कान' के प्रति एक आदरांजलि हैं।

साल की तीसरी हिट, खुशी तो होगी ही
'अग्निपथ' और 'एक था टाइगर' के बाद मेरी 'बर्फी' इस साल बालीवुड की तीसरी बिग हिट साबित हुई है। हालांकि हम लोगों ने बेहद सीमित प्रिंट रिलीज किए वहीं बाकी दो फिल्में रिकार्ड तीन गुना प्रिंट के साथ 26 जनवरी और रमजान की छुट्टियों के माहौल में रिलीज हुई थी। इसके बावजूद हमारी 'बर्फी' ने शुरूआती 4 दिन में ही 60 करोड़ से ज्यादा का बिजनेस दिया। इससे खुशी तो होती ही है। फिर मेरे अपने शहर भिलाई में भी यह फिल्म बहुत अच्छी जा रही है। कभी स्कूल के दिनों में मैं जिस न्यू बसंत टॉकीज में भाग-भाग कर फिल्म देखने जाता था, आज वहां लगी मेरी फिल्म को मेरे शहर के लोगों ने सुपरहिट बनाया। इसके लिए मैं कहूंगा-शुक्रिया भिलाई।

'मैट्रो' की नाराजगी दूर कर दी मेरे शहर के लोगों ने
मैं अपने ही शहर के लोगों से नाराज था। वजह, मेरी पिछली फिल्म 'लाइफ को भी पसंद किया गया, जबकि मेरी नजर में यह अब तक की मेरी सबसे बुरी फिल्म थी। अब जबकि भिलाई, रायपुर और बाकी छत्तीसगढ़ में मेरी 'बर्फी' अच्छी चल रही है, तो लगता है मेरे अपनों ने मुझे पहली बार इतना प्यार दिया है। 'मैट्रो' की नाराजगी मेरे शहर के लोगों ने 'बर्फी' से दूर कर दी है।

हर फिल्म में रहेगा मेरा भिलाई और छत्तीसगढ़
मैने अपनी पिछली फिल्मों की तरह 'बर्फी' में भी भिलाई और छत्तीसगढ़ का टच दिया है। ये मेरा जुनून है कि मेरी हर फिल्म में मेरा शहर और मेरा स्टेट रहे। मैं इसे आगे भी जारी रखूंगा। मैं कहीं भी रहूं मौजूदा और मेरे बाद की पीढ़ी कम से कम यह तो जान सके कि मेरी जड़ें कहां की हैं। मैं आज भी अपने भिलाई और रायपुर उतनी ही शिद्दत से याद करता हूं। जब भी मैं तनाव में रहता हूं भिलाई-रायपुर में अपने दोस्तों से लंबी बातचीत कर रिलैक्स फील करता हूं। मुझे मेरे शहर वाले जब भी याद करेंगे, मैं हाजिर हो जाऊंगा।
आगे 'सुपर-30' सहित कई प्लानिंग
इन दिनों दो-तीन प्रोजेक्ट पर मैं काम कर रहा हूं। इसमें पटना के प्रसिद्ध कोचिंग इंस्टीट्यूट 'सुपर-30' पर फिल्म बनाना करीब-करीब तय हो चुका है। फिल्म भले ही पटना के कोचिंग इंस्टीट्यूट की सफलता पर होगी, पर यकीन मानिए इसमें मेरा अपना शहर भिलाई भी कहीं न कहीं जरूर होगा।

बंगाल ने अपना बना लिया, लेकिन छत्तीसगढ़...
कोलकाता के लोगों ने मुझे खूब प्यार दिया, बंगाल ने मुझे अपना बना लिया। लेकिन, अफसोस इस बात का है कि मेरे अपने छत्तीसगढ़ के लोगों के प्यार में शायद कुछ कमी रही है। आज मुझे 'बर्फी' के बाद जो प्यार छत्तीसगढ़ से मिल रहा है, उससे खुशी तो बहुत हो रही है लेकिन मैं एक बात कहूंगा कि कोलकाता के लोगों ने 'बर्फी' का इंतजार नहीं किया। मुझे उस वक्त बहुत बुरा लगा था, जब पिछले दौरों में मैने राजधानी रायपुर में अपने किसी प्रोजेक्ट पर कुछ जिम्मेदार लोगों से डिस्कस किया, तब मुझे जवाब मिला कि इससे हमें क्या मिलेगा..?

Friday, October 19, 2012

एक राग में दो बंदिशें, रोमू की बांसुरी ने बांधा समा

श्री शंकराचार्य टेक्निकल कैंपस में पं. रोनू मजुमदार की प्रस्तुति

हिंदी फिल्मों के अलावा देश-विदेश में शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बनाने वाले प्रख्यात बांसुरी वादक रोनू मजुमदार की बांसुरी ने 17 अक्टूबर 2012 बुधवार की शाम कुछ ऐसा रंग जमाया कि सुनने वाले दम साधे बैठे रहे। एक राग में दो बंदिशें, कुछ कजरी का रंग और 'ठुमक चलत रामचंद्र' भजन में दिग्गज पं. विष्णु दिगंबर पलुस्कर की याद दिलाता 'रामचंद्र' का उच्चारण...सब कुछ घंटे भर की छोटी सी सभा में कब बीत गया श्रोताओं को पता ही नहीं चला।


मौका था श्री शंकराचार्य टेक्निकल कैंपस के सहयोग से संस्था स्पिक-मैके की ओर से 'विरासत-2012' के आयोजन का। इसमें जाने-माने बांसुरी वादक पं. रोनू मजुमदार ने अपनी बांसुरी का जादू जगाया। इंजीनियरिंग स्टूडेंट और शहर के गणमान्य लोगों के बीच पं. मजूमदार ने परिसंवाद के साथ अपनी प्रस्तुति दी। इंजीनियरिंग स्टूडेंट से रूबरू होते हुए उन्होंने पूछा कि इस वक्त (शाम) का राग प्रस्तुत करुंगा, क्या कोई इस राग का नाम बता सकता है? इस पर स्टूडेंट के बीच से सही जवाब आया-मधुवंती। पं. मजुमदार ने राग मधुवंती में झप ताल और तीन ताल में दो बंदिशें पेश की। इस दौरान कई मौके ऐसे आए जब उनकी बांसुरी के सुरों का सुरूर लोगों के सिर चढ़ कर बोला और तालियां गूंजने लगी। इस पर पं. मजुमदार ने विनम्रता से कहा कि-इससे और अच्छा बजाउंगा तब ताली बजाइए। हालांकि इसके बाद भी तालियां रुकी नहीं। उनके साथ तबले पर संगत की देश-विदेश में अपनी थाप का रंग जमा रहे भिलाई के युवा पं. पार्थसारथी मुखर्जी ने। वहीं सहायक के तौर पर पं. मजुमदार के साथ कमलेश भी बांसुरी थामे मंच पर थे।
इसके बाद पं. मजुमदार ने दर्शकों की फरमाइशों को ध्यान में रखते हुए 'ठुमक चलत रामचंद्रÓ भजन बांसुरी की धुन पर सुनाया। हालांकि बांसुरी वादन करते-करते पं. मजुमदार इस कदर भावुक हो गए कि उन्हें शास्त्रीय संगीत के दिग्गज पं. विष्णु दिगंबर पलुस्कर की याद आ गई और उन्होंने भजन की कुछ पंक्तियों के आधार पर हूबहू पं. पलुस्कर की शैली में 'रामचंद्र' का उच्चारण कर एक अलग समा बांध दिया। इसके बाद उन्होंने बांसुरी से कजरी का रंग भी बिखेरा। प्रस्तुति के बाद पं. मजुमदार का सम्मान करते हुए श्री शंकराचार्य ग्रुप के निदेशक डॉ. पीबी देशमुख ने सिर्फ एक पंक्ति में पूरी बात कह दी कि-आज कृष्ण के दर्शन हो गए। पं. पार्थसारथी का डॉ. साकेत रंजन प्रवीर और कमलेश का डॉ. आरएन खरे ने सम्मान किया। इस पूरे आयोजन में युवाओं के बीच शास्त्रीय संगीत और संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए सक्रिय संस्था सोसाइटी फॉर प्रमोशन ऑफ इंडियन क्लासिकल म्यूजिक एंड कल्चर अमंग्स्ट यूथ-स्पिक मैके के दुर्ग जिला प्रमुख एसवी नंदनवार की सराहनीय भूमिका रही।
..तो कैलिफोर्निया से आएंगे राग
इंजीनियरिंग स्टूडेंट के बीच से कॉलेज के रॉक बैंड के विपुल ने पं. मजुमदार के बांसुरी वादन के बाद अपनी बात रखते हुए कहा कि आज ऐसा लग रहा है कि हम अपने कल्चर से दूर होते जा रहे हैं। अब हम कोशिश करेंगे कि हम अपने संगीत को बढ़ावा देने कुछ करें। इस पर पं. मजुमदार ने कहा कि युवा अपनी जवाबदारी समझ रहे हैं यह बहुत अच्छा संकेत है। वरना आज आयुर्वेद में जर्मनी हमसे कहीं आगे निकल गया है और वह दिन दूर नहीं जब हमें अपने रागों के लिए कैलिफोर्निया का मुंह ताकना पड़ेगा।

Tuesday, October 16, 2012

सुप्रीम कोर्ट की राहत के बावजूद पेंच बरकरार

विश्वविद्यालय का रुख अभी भी साफ नहीं, कॉलेज 

आश्वस्त कि दाखिले के बाद नामांकन हो ही जाएगा

सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ के इंजीनियरिंग कॉलेजों को भले ही 15 फीसदी सीटों पर मैनेजमेंट कोटे के तहत दाखिला लेने हरी झंडी दे दी हो लेकिन पेंच अभी भी बरकरार है। पिछले साल दूसरी पाली की कक्षाओं के मामले में अदालती कार्रवाई झेल रहा छत्तीसगढ़ स्वामी विवेकानंद तकनीकी विश्वविद्यालय मैनेजमेंट कोटे के तहत दाखिला लेने वाले स्टूडेंट के नामांकन के लिए 'न्यायसंगत रास्ता' कैसे निकालेगा यह भी बड़ा सवाल है।
सुप्रीम कोर्ट के 3 अक्टूबर के फैसले के बाद तकनीकी शिक्षा संचालनालय (डीटीई) छत्तीसगढ़ ने 34 कॉलेजों को एक पत्र जारी कर मैनेजमेंट कोटे के तहत संस्था स्तर पर 30 अक्टूबर तक दाखिला प्रक्रिया पूरी करने की अनुमति दी है। इसके तहत महीने भर में इन 34 कॉलेजों की 2974 सीटों पर दाखिला शुरू हो गया है। इस दाखिले के बाद स्टूडेंट कक्षा और परीक्षा में शामिल हो सकें, इसके लिए जरूरी होगा कि इनका नामांकन छत्तीसगढ़ स्वामी विवेकानंद तकनीकी विश्वविद्यालय से हो। विश्वविद्यालय ने नियमित दाखिले के तहत 7 काउंसिलिंग के बाद 30 सितंबर को नामांकन समाप्त कर दिया है। अब बड़ा सवाल यही है कि इस माह दाखिला लेने वाले स्टूडेंट का नामांकन कैसे होगा।
हालांकि सुप्रीम कोर्ट के रुख के बाद दाखिला शुरू कर चुके निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों को उम्मीद है कि अंतत: विश्वविद्यालय कोई न कोई रास्ता निकाल लेगा। इन कॉलेजों के संचालकों का कहना है कि चूंकि नामांकन 30 सितंबर तक हो चुका है, इसलिए विवि को नए सिरे से प्रक्रिया शुरू करनी होगी। क्योंकि यह सीधा सा मामला है कि काउंसिलिंग 27 सितंबर को खत्म हुई है उसका नामांकन 30 सितंबर तक हुआ है। अब चूंकि डीटीई ने 30 अक्टूबर तक दाखिला लेने कहा है तो विवि भी नामांकन के लिए रास्ता निकालेगा। निजी कॉलेज संचालकों का कहना है कि इस माह दाखिला लेने वाले स्टूडेंट की पढ़ाई न पिछड़े इसके लिए छुट्टियों में कटौती और एक्सट्रा क्लासेस जैसे कदम उठाए जाएंगे। इधर विवि अपने रुख पर कायम है। विवि के जिम्मेदार लोग ऑफ द रिकार्ड कह रहे हैं कि दूसरी पाली के दाखिले को लेकर चल रही अदालती कार्रवाई के बाद इस मामले में भी सोच-समझ कर कदम उठाया जाएगा।
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एक लैंड मार्क को मिटाने की कोशिश हुई थी जो अब दूर हो गई है। हमें पूरी उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट के रुख के बाद जब शासन ने हमें दाखिले की अनुमति दी है तो विश्वविद्यालय भी नामांकन के लिए रास्ता निकालेगा। मैनेजमेंट कोटा हमारा अधिकार है और छुट्टियां कम कर व एक्स्ट्रा क्लासेस के साथ हम हर हाल में कोर्स पूरा करवाएंगे।
संजय रूंगटा, चेयरमैन निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों के संगठन 'एपिक'
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सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहां कह दिया है कि मैनेजमेंट कोटे से दाखिला लेने वालों के लिए  विश्वविद्यालय अपने सारे नियम शिथिल कर दे। अभी जो दाखिले हो रहे हैं वो मेरिट के आधार पर तो नहीं है। पहले डीटीई इनका परीक्षण करेगा,उसके बाद विश्वविद्यालय भी देखेगा कि ये सारे दाखिले सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश का पालन करते हुए दिए गए हैं या नहीं। उसके बाद जही हम न्यायसंगत निर्णय लेंगे।
डॉ. अशोक दुबे, रजिस्ट्रार छत्तीसगढ़ स्वामी विवेकानंद तकनीकी विश्वविद्यालय भिलाई

बुद्ध-रामदास के बाद नीतीश समाज सुधारक


बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और इस वक्त देश के सबसे उम्रदराज सांसद रामसुंदर दास (92) ने अपने मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को गौतम बुद्ध और संत रामदास के बाद तीसरा बड़ा समाज सुधारक बताया है। 1979-80 में बिहार के मुख्यमंत्री रहे श्री दास को फिलहाल मध्यावधि आम चुनाव की कोई संभावना नजर नहीं आती है। सबसे बुजुर्ग सांसद श्री दास का संकल्प है कि जब तक शरीर में प्राण है, वह सार्वजनिक जीवन में रहते हुए देश सेवा करते रहेंगे।
यहां लोकनायक जयप्रकाश नारायण के जयंती समारोह में शामिल होने आए जनता दल (यू) के सांसद श्री दास ने चर्चा करते हुए कहा कि भगवान बुद्ध ने उन सारे दलित और पिछड़े लोगों को जोडऩे का काम किया, जो अरसे से उपेक्षित थे। उनके बाद 13 वीं शताब्दी में स्वामी रामानंद हुए। जिनके कबीर सहित 12 शिष्यों में 9 शूद्र थे। उन्होंने भी समाज को जोड़ा। इन दोनों के बाद अब बिहार में नीतीश कुमार भी उन्हीं टूटी हुई कडिय़ों को जोडऩे का काम कर रहे हैं। नीतीश की सभाओं में हंगामे के सवाल पर श्री दास ने कहा कि हमारे बिहार में 'सूप और छलनी' वाली कहावत है।
बस इसी तरह कुछ लोग जिनका लगातार पराभव हो रहा है, वो ऐसी हरकत कर रहे हैं। कद्दावर नेता रामविलास पासवान को हरा कर हाजीपुर से सांसद श्री दास ने तीसरे मोर्चे के सवाल पर मुलायम सिंह यादव पर निशाना साधते हुए कहा कि ये सवाल तो उन्हीं लोगों से पूछिए जो कभी कहते हैं तीसरा मोर्चा बनेगा और फिर अपनी बात से पलट भी जाते हैं। इसके बावजूद केंद्र सरकार को समर्थन भी जारी रखे हुए हैं। श्री दास ने कहा कि घोटाले और भ्रष्टाचार से कांग्रेस गठबंधन सरकार घिरी हुई जरूर नजर आ रही है लेकिन फिलहाल ऐसी कोई संभावना नहीं दिखती कि अगले साल मध्यावधि आम चुनाव हो जाएंगे।
तीसरा मोर्चा बनने की स्थिति में भाजपा नीत एनडीए गठबंधन से जदयू के अलग होने की संभावनाओं पर श्री दास ने कहा कि ऐसा कुछ है ही नहीं तो इस पर क्या बात करना। 92 साल की उम्र में भी राजनीति में सक्रियता के सवाल पर श्री दास ने कहा कि  जब तक सांस चलेगी और शरीर साथ देगा वह सार्वजनिक जीवन में रहते हुए देश सेवा करते रहेंगे। श्री दास ने कहा कि जरूरी नहीं कि यह सेवा एमपी या एमएलए रहते हुए ही की जाए।
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गाछे कटहर ओछे तेल
एनडीए में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने की संभावनाओं के बारे में जवाब देते हुए श्री दास ने कहा कि हमारे यहां कहावत है 'गाछे कटहर ओछे तेल' यानि कटहल पेड़ पर फला हुआ है और आप अपने ओंठ पर तेल लगा रहे हैं कि हम कटहल खा रहे हैं। कुछ ऐसा ही मामला यहां है। अभी तो खुद भाजपा में ही ढेर सारे उम्मीदवार हैं। फिर एनडीए एक गठबंधन है। जब मौका आएगा तो इसमें शामिल सारी पार्टियां एक साथ बैठेंगी और जो सर्वसम्मति से तय होगा उसे समर्थन दिया जाएगा। नीतीश कुमार के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की संभावनाओं पर श्री दास ने कहा कि अभी कहना जल्दबाजी होगी, वैसे भी खुद नीतीश ने कहा है कि वह फिलहाल अपने बिहार की सेवा करना चाहते हैं।

नकल नहीं सच्ची प्रेरणा है 'बर्फी'

बॉलीवुड अभिनेताओं ने कहा-ऑस्कर मिला तो देश और बॉलीवुड का मान बढ़ेगा

भरत कपूर
अवतार गिल
थियेटर, फिल्मों और छोटे परदे के स्थापित अभिनेता अवतार गिल व भरत कपूर का कहना है कि भिलाई के निर्देशक अनुराग बसु की बनाई फिल्म 'बर्फी' नकल नहीं बल्कि सच्ची प्रेरणा है। दोनों का मानना है कि अगर  'बर्फी' को ऑस्कर अवार्ड मिल जाता है तो इससे देश औैर बॉलीवुड दोनों का मान बढ़ेगा।
यहां एक कार्यक्रम में शामिल होने आए दोनों कलाकारों ने प्रेस से बातचीत में कहा कि अनुराग ने अपनी फिल्म की शुरूआत में ही साफ कर दिया है कि यह महान फिल्मकारों चार्ली चैपलिन और बस्टर कीटोन से प्रेरित एक आदरांजलि है। इसके बाद तो किसी तरह का विवाद होना ही नहीं चाहिए था। जो लोग इस बेहतरीन फिल्म को नकल बता रहे हैं, उन्हें नकल और प्रेरणा में फर्क ही नहीं मालूम है।
दूरदर्शन के दौर में चर्चित धारावाहिक 'नुक्कड़' में कादर भाई का यादगार किरदार निभाने वाले अवतार गिल ने अन्य सवालों के जवाब में कहा कि आज सैटेलाइट चैनलों की वजह से जो बदलाव आया है, वह स्वाभाविक है। इस तरह के बदलाव होते रहना चाहिए। भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) से जुड़े श्री गिल ने एक सवाल के जवाब में चुटकी लेते हुए कहा कि फिल्मों में उनका कोई गॉड फादर नहीं था। जो भी काम मिला वह पिछले काम के बूते पर मिलता गया। उन्होंने बताया कि जल्द आने वाली उनकी फिल्मों में 'आई लव यू सोणयो'  और सीरियल में 'हम तुमको न भूल पाएंगे' शामिल है।
'नूरी' , 'बाजार' और 'गुलामी' जैसी फिल्मों में यादगार किरदार निभाने वाले भरत कपूर इन दिनों छोटे परदे पर व्यस्त हैं। थियेटर की पृष्ठभूमि से आए भरत कपूर का कहना है कि उनके दौर में पारिवारिक किस्म के नाटकों का ज्यादा मंचन हुआ करता था लेकिन अब थियेटर में काफी प्रयोग हो रहे हैं, जो कि एक अच्छा संकेत है। फिल्मों में ज्यादातर नेगेटिव किरदार के संबंध में भरत कपूर ने कहा कि ये तो बॉलीवुड का ट्रेंड है, जब आप एक रोल में फिट हो जाते हैं तो आपको लगातार वैसी ही भूमिका मिलती जाती है। इसलिए मुझ पर नेगेटिव रोल का जो ठप्पा लगा, तो उसी के साथ चलना पड़ा।

कांशीराम के बहाने दिखाई दलित एकजुटता

विभिन्न प्रांतों के दलितों को एक करने की मुहिम

राज्य में निवास कर रहे अलग-अलग प्रांतों के दलितों को एकजुट करने एक बड़ी मुहिम शुरू हो गई है। दलित मूवमेंट एसोसिएशन के बैनर तले आयोजन किए जा रहे हैं। इसी कड़ी में एक प्रमुख आयोजन दो दिन पहले सेक्टर-6 के डॉ. अंबेडकर सांस्कृतिक भवन में कांशीराम की पुण्यतिथि पर हुआ। जिसमें भिलाई स्टील प्लांट व अन्य सार्वजनिक कंपनियों के अफसरों सहित भिलाई में निवासरत विभिन्न प्रांतों के दलित प्रतिनिधियों ने अपनी उपस्थिति दी।
दलितों को एकजुट करने छत्तीसगढ़ स्तर पर विविध आयोजन के लिए 15 विभिन्न संस्थाओं ने मिलकर कैलेंडर तैयार किया है। जिसमें दलितों से जुड़े मुद्दों पर राज्य के विभिन्न शहरों में कार्यक्रम शुरू हुए हैं।  इस एकजुटता को आगामी लोकसभा-विधानसभा चुनावों से भी जोड़ कर देखा जा रहा है। आयोजक भी इससे इंकार नहीं कर रहे हैं।
आयोजन की श्रृंखला में 'हमारे महापुरुषों की विरासतÓ कार्यक्रम में बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक दिवंगत कांशीराम को लोगों ने याद किया और भारतीय समाज व्यवस्था को बदलने के उनके योगदान की सराहना की। मुख्य अतिथि बीएसपी के जीएम एल. उमाकांत ने कहा कि स्व. कांशीराम का उद्देश्य देश के 85 फीसदी जनसंख्या को एकजुट करना था। उन्होंने अपने त्याग और आचरण से इसमें सफलता पाई। अपने संस्मरण सुनाते हुए बीएसपी के विधि अधिकारी टी. दास ने कहा कि जब स्व.कांशीराम ने डॉ. अम्बेडकर की पुस्तक 'एनहिलेशन ऑफ कास्टÓ को 7 बार पढ़ा तो उनका जीवनदर्शन बदल गया। बीएसपी के डीजीएम एफ. आर. जनार्दन ने 1978 के रामनामी मेले में उनकी उपस्थिति को याद करते हुए बताया कि गिरौदपुरी मेले के दौरान कसडोल में रूकने की व्यवस्था न होने पर एक बस कंडक्टर के छोटे से कमरे में 10-15 साथियों के साथ, जमीन पर लेटकर रात गुजारने का मार्मिक वृतांत सुनाया। इस अवसर पर पंजाब नेशनल बैंक में कार्यपालक जी डी राउत ने बताया कि लोगों को जोडऩे के लिए स्व. कांशीराम ने भाईचारा बनाओ कार्यक्रम, जाति तोड़ो-समाज जोड़ो, सफाई कामगार आंदोलन, साइकिल रैली आदि अनेक अभियान चलाए। आदिवासी ओमखास समाज के महासचिव किशोर एक्का, बीएसपी के डीजीएम पी. जयराज, सामाजिक कार्यकर्ता विजय कश्यप, विमला जनार्दन, डा. अकिल धर बैनर्जी और प्रवीण कांबले ने भी संबोधित किया। आयोजन में विनोद वासनिक, नरेंद्र खोबरागढ़े, एन. चिन्ना केशवलू, प्रदीप सोमकुंवर, वासुदेव लाउत्रे, दिवाकर प्रजापति, शीलाताई मोटधरे और अरविंद रामटेके सहित अन्य का योगदान रहा।
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'' निश्चित रूप से राजनीतिक मोर्चे पर दलित एकजुटता हमारा सबसे बड़ा मकसद है। आरक्षण में कटौती और जाति प्रमाण पत्र बनाने में आने वाली अड़चनें सहित ढेरों ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर जिनके लिए एक बड़ा आंदोलन खड़ा करना जरूरी है। डॉ. अंबेडकर परिनिर्वाण दिवस पर 6 दिसंबर को हम लोग रायपुर में समूचे प्रदेश से दलित समुदाय को एकजुट करने की तैयारी है। वहां हमारे आंदोलन को नाम भी मिल जाएगा और आगे की मुहिम भी वहीं से शुरू होगी।''
संजीव खुद शाह, आयोजक

Wednesday, October 3, 2012

बरकरार रहेगा मैनेजमेंट कोटा


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