Monday, July 8, 2013

उजड़ जाएंगे हम क्योंकि बसानी है नई बस्तियां

गांवों में लोग जान चुके हैं कि जल्द ही उन्हें छोडऩी पड़ेगी अपनी जमीन
 अकलीआमा-चेलिकआमा पहाड़ों के जंगलों में दूर-दूर तक कोई आबादी नजर नहीं आती है। लोगों को जानकर हैरत होगी कि चेलिकआमा नाम का गांव राजस्व नक्शे पर तो है लेकिन वहां  40 साल से कोई आबादी नहीं है। वहीं अकलीआमा गांव में आज भी महज एक घर है। आस-पास कुछ गांव है जरूर। आबादी यहां उंगलियों पर गिनने लायक है लेकिन यहां की जमीनों के मालिक आस-पास के गांव से लेकर सहसपुर लोहारा तक रहते हैं। बीते साल जबसे इन गांवों में जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (जीएसआई) की हलचल बढ़ी है, तब से लोगों में भविष्य को लेकर संशय होने लगा है। हालांकि इन सब के लिए 'दिल्लीÓ अभी दूर है। 
नियम के मुताबिक जीएसआई अपना पूर्वेक्षण कार्य मार्च 2014 तक पूरा करेगा। उसके बाद मिली रिपोर्ट के आधार पर छत्तीसगढ़ मिनरल डेवलपमेंट कार्पोरेशन और भिलाई स्टील प्लांट के संयुक्त उपक्रम की ओर से माइनिंग लीज के लिए आवेदन की प्रक्रिया शुरू होगी। जानकार पूरी प्रक्रिया में कम से कम 5 साल का वक्त लगने की उम्मीद जता रहे हैं। दूसरी तरफ जीएसआई के ड्रिलिंग कार्य में मजदूरी कर रहे इन्हीं गांवों के युवा और घरों में रह रहे बुजुर्ग यह अच्छी तरह जान चुके हैं कि खदान शुरू होने पर इन्हें अपनी जमीन छोडऩी पड़ेगी। 
बोदलपानी के रास्ते बीएसपी-सीएमडीसी को आवंटित क्षेत्र जाते हुए सबसे पहले मिलता है अकलीआमा गांव। यहां जीएसआई की ड्रिलिंग पिछले साल खत्म हो चुकी है। कुछ मशीनें यहां हैं और पहाड़ों के गर्भ से निकले लोहा पत्थर के टुकड़े आस-पास बिखरे पड़े हैं। यहां दूर तक खेत नजर आ रहे थे और पूरे गांव में महज एक घर मिला। शहरी हिसाब से इसे हाउसिंग कांप्लेक्स मान सकते हैं, क्योंकि यहां सिर्फ एक ही परिवार के 16-17 सदस्य रहते हैं। दोपहर के वक्त घर में बहुएं काम में व्यस्त थी, बच्चे खेल रहे थे तो घर की सियान भूरी बाई गोंड़ साफ-सफाई में जुटी थी। घर के युवक चेलिकआमा में जीएसआई के मातहत मजदूरी करने गए हुए थे। दीवार पर घर के मालिक का नाम सुखीराम और मोबाइल नंबर लिखा हुआ है। वजह, आस-पास के गांव में गोंड़ परंपरा से बलि देना और पूजा करने का काम सिर्फ सुखीराम ही करता है। भूरी बाई पास ही बंधे हुए सुअरों और बकरों को दिखाते हुए बताती हैं कि 15 दिन बाद होने वाली पूजा में बलि देना है। जब मैने लौह अयस्क खदानों के बारे में पूछा तो भूरी बाई ने बताया कि यहां आस-पास सिर्फ उसके परिवार के खेत हैं। अब हम सुन रहे हैं कि आगे यहां खदान शुरू होगी। लेकिन हम लोग परेशान नहीं है क्योंकि अगर सरकार हमको यहां से हटाएगी तो दूसरी जमीन भी देगी।  अकलीआमा से आगे चेलिकआमा के रास्ते में कहीं कोई गांव नहीं है। इस बारे में सहसपुर लोहारा राजपरिवार के सेक्रेट्री कृष्ण कुमार तिवारी बताते हैं कि 40 साल पहले चेलिकआमा गांव आबाद था लेकिन ग्रामीण स्वेच्छा या अन्य कारणों से पहाड़ों में एक जगह से दूसरी जगह बसते रहते हैं, इसलिए चेलिकआमा गांव अब वीरान है। श्री तिवारी ने बताया कि चेलिकआमा गांव वीरान जरूर है लेकिन वहां खेती होती है और इनमें राजपरिवार सहित कई ग्रामीणों की जमीनें भी है। श्री तिवारी का कहना है कि भविष्य में जब भी खदान शुरू होगी तो भू-अधिग्रहण होगा और उचित मुआवजा भी मिलेगा। वैसे भी सरकारी कंपनी को जमीन देने के नाम पर यहां विवाद की आशंका नहीं है। 
----------
बीएसपी-सीएमडीसी के प्रस्तावित खनन क्षेत्र में आने वाले गांवों और आबादी का ब्यौरा
राजस्व सर्किल रेंगाखार कलां ग्राम पंचायत मिनमिनया
पटवारी हल्का नं. 45, जुनवानी जंगल
ग्राम आबादी
अकलीआमा 18
चेलिक आमा वीरान
गंजई डबरी 127
घुघवादाहरा 26
बोदलपानी 127
मिनमिनया जंगल 319
भालापुरी 212
----------------------
कुल 829
(आबादी 2001 की जनगणना के अनुसार)
--------
ये शिकारी बच्चे गुम हो जाएंगे खदानों में ..?
जीएसआई की हलचल बढऩे के साथ-साथ भविष्य की तैयारी भी शुरू हो रही है। आगे यहां भू-अधिग्रहण होना है। इसके बाद यहां की बैगा-गोंड़ आबादी को विस्थापित होना पड़ेगा। चेलिकआमा जाते हुए रास्ते में मिले ये बैगा जनजाति के बच्चे अपने शिकार में मशगूल थे। इनके शिकार का तरीका भी बिल्कुल जुदा था। इनके पास कमान थी लेकिन तीर नहीं। कमान की रस्सी में गोटी फंसाने का इंतजाम, जिससे बच्चा बिल्कुल सटीक निशाना लगा कर परिंदे मार रहा था। इसके अलावा इन बच्चों ने जंगल में जगह-जगह कच्ची टहनियां गाड़ रखी थी। जिस पर पीपल-बड़ का लासा (गोंद) लगा हुआ था। इन टहनियों पर उड़ता परिंदा या कोई भी जानवर बेहद तेजी से चिपक जाता है। फिर गोंद से उस जानवर को छुड़ाने के बाद इन बच्चों की शानदार दावत तय है। इन बच्चों ने बेहद सकुचाते हुए अपने शिकार के गुर तो बता दिए लेकिन नाम बताने की बारी आई तो सारे के सारे तेजी से भागते हुए जंगलों में गुम हो गए।