Saturday, June 4, 2022

मेरा कश्मीरनामा-4

 

चंद कपड़े और घरेलु एलबम लेकर रातों-रात अपना घर छोड़ना पड़ा था

 गंजू परिवार को, आज भी याद आती है सत्थू बरबरशाह की वो गलियां

 

कश्मीर में फिल्मों की शूटिंग का सुनहरा दौर देख चुके गंजू 

को अब सब सपना लगता है, लौटना चाहते हैं अपने घर

डाउन टाउन श्रीनगर में बाजार की एक गली


मुहम्मद जाकिर हुसैन 

साल के 365 दिनों में कुछ तारीखें ऐसी भी होती हैं जो निजी तौर पर लोगों के लिए खास अहमियत रखती हैं। साल 1989 की 24 जनवरी ऐसी ही तारीख है जो गंजू दंपत्ति को भुलाए नहीं भुलती। 

श्रीनगर के तीन सितारा होटल पम्पोश के मैनेजर तेज कृष्ण गंजू और बारामूला में शासकीय वित्त विभाग में कार्यरत शकुंतला (अंजू) गंजू को अपनी ढाई वर्षीय बच्ची मोना के साथ रातों रात घर छोड़ना पड़ा। जल्दबाजी में बैग में कुछ कपड़े ही रख पाए थे और साथ रह गया था पारिवारिक एल्बम। 

कश्मीर की याद आती है तो बच्चों को दिखाते हैं पुराना एलबम

गंजू परिवार 2012 में (साभार-फेसबुक)

तेज गंजू अब यहां भिलाई में एक शीतल पेय कंपनी में क्षेत्रीय प्रबंधक हैं, लेकिन उनके पास अपने घर की निशानी के रूप में एक एल्बम ही बचा है। 

जब भी गंजू दंपत्ति को अपने कश्मीर की याद आती है तो अपने बच्चों 7 वर्षीय अभिनव और 15 वर्षीय मोना को याद से एल्बम दिखाते हैं कि ऐसा था हमारा कश्मीर। पाकिस्तान राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ की भारत यात्रा को लेकर गंजू दंपत्ति का मानना है कि इससे कश्मीर समस्या हल होने वाली नहीं। गंजू कहते हैं दोनों देशों के बीच वार्ता कहां तक सफल होगी कहना मुश्किल है।

हालांकि वह कहते हैं, यह तय है कि यह बातचीत और जनरल मुशर्रफ का दौरा सिर्फ गेट टू गेदर हो कर रह जाए। जब तक केंद्र सरकार और कश्मीरियों के लिए भी कोई गुंजाईश नहीं है। अब यह आने वाला वक्त ही बताएगा कि पाकिस्तानी राष्ट्रपति मुशर्रफ के भारत दौरे से हमें क्या हासिल होता है।

 

 आज हम कश्मीर जाएं तो शायद नहीं पहचान पाएंगे अपनी ही गलियां

सत्थू बरबरशाह का एक मंदिर

श्रीमती गंजू कहती है चूंकि हमारा बचपन वहीं गुजरा और हम बड़े भी वहीं हुए इसलिए हम कश्मीर को तो भूल नहीं सकते।हालात ऐसे बना दिए गए कि हमें अपनी जमीन छोड़नी पड़ी।

आज भी मन करता है कि हम अपने घर जाएं लेकिन, सच्चाई यह है कि अगर हम किसी तरह वहां पहुंच भी गए तो उन गलियों को भी अब नहीं पहचान पाएंगे। क्योंकि, हमारा अतीत बहुत पीछे छूट चुका है। दहशतगर्दों ने तो वहां की गलियों तक को तहस-नहस कर दिया है। श्रीमती गंजू बताती है-जिस रात हम लोगों ने कश्मीर को अलविदा कहा उसके पहले से ही विषम परिस्थिति निर्मित हो रही थी। घर छोडऩे के 3 दिन पहले 21 जनवरी को सत्थु बरबरशाह में हमारे मकान के सामने से एक विशाल रैली निकाली।

रैली में शामिल लोग मुंह में कपड़ा बांधे हुए और हथियार पकड़े हुए थे। इन अलगाववादियों को मकसद दहशत फैलाना था और जिसमें वो सफल भी हुए। इसका बुरा असर दोनों समुदाय पर पड़ा। हमें विस्थापित होना पड़ा। तब जो हमारे साथ हुआ, हम नहीं चाहेंगे किसी और के साथ हो। 

वह कहती है दूसरे कश्मीरी पंडितों की तरह हमने अपना घर, जमीन, जायजाद सब कुछ वहीं छोड़ दिया और अपनी जान बचाकर किसी तरह वहां से निकले। उस मंजर को याद कर आज भी हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

गंजू एक बक्से में रखे कपड़े और जूते दिखाते हुए बताते हैं आज भी इसे हम हिफाजत से रखे हुए हैं। जिस रात हम लोगा वहां से निकले थे इसी पोशाक में थे। आज भी हमें अपने सत्थू बरबरशाह की वो गलियां याद आती हैं। 

 

 ईद में हमारे घर चूल्हा नहीं जलता था और महाशिवरात्रि पर उनके घर 

श्रीनगर के हजरतबल दरगाह व शंकराचार्य मंदिर में ईद और महाशिवरात्रि 

तेजकृष्ण गंजू कहते हैं हमारा कश्मीर तो वाकई जन्नत था लेकिन, दहशतगर्दों ने उसे दोजख बना दिया। 

वह बताते हैं कश्मीरी पंडितों और मुसलमानों में इतनी एकता थी कि ईद में हमारे घर चूल्हा नहीं जलता और महाशिवरात्रि के दिन मुसलमानों के यहां। दोनों एक ही थाली में खाते थे।

गंजू कहते हैं कश्मीर में आतंकवाद के लिए वहां के मुसलमान कतई दोषी नहीं हैं क्योंकि वहां तो आतंकवादियों के नाम पर पाकिस्तानी, अफगानिस्तानी और सूडानी लड़ रहे हैं और यह लोग धर्म के नाम पर इन लोगों को इस्तेमाल करना चाहते है। 

इसका नतीजा यह हुआ कि बच्चों के हाथों में क्लाश्निकोव (एके-47) थमाए गए। आज आम कश्मीरी आतंकवाद से तंग आ चुका है। हमें वहां रह रहे आम कश्मीरियों के बारे में भी जानना चाहिए।

हमारा आम कश्मीरी तो चाहता है कि हिंदू भाई फिर उसका पड़ोसी बन जाए। डल झील के शिकारों में कोई हलचल नहीं है, शिकारे वाला इंतेजार कर रहा है कि कोई तो सैलानी आए। यह हम सब की बदनसीबी है।

 

'सिलसिला' के वो यादगार दिन, अब सब पीछे छूट गया

सिलसिला में अमिताभ-रेखा व कश्मीर में शूटिंग के दौरान निर्देशन करते यश चोपड़ा

कश्मीर में हिंदी व अन्य फिल्मों के निर्माण से संबद्ध रहे गंजू ने श्रीनगर दूरदर्शन में भी अपनी सेवाएं दी। 

वहीं उनके लिखे अधिकांश नाटक आल इंडिया रेडियो से प्रसारित हुए हैं जिसके लिए वे सम्मानित भी हो हो चुके हैं। लेकिन अब यह सब पीछे छूट गया। 

वह बताते हैं- यश चोपड़ा की फिल्म 'सिलसिला' की शूटिंग के दौरान कश्मीर में उन्हें प्रोडक्शन विभाग में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी गई थी। तब डायरेक्टर यश चोपड़ा, कलाकारों में अमिताभ बच्चन, रेखा, जया और टीम के सभी सदस्यों से अच्छी जान पहचान हो गई थी।

'सिलसिला' की टीम के सभी लोग तब कश्मीर खूब घूमे थे। इस फिल्म में "देखा एक ख़्वाब" गीत को नीदरलैंड के केयूकेनहोफ़ ट्यूलिप गार्डन और पहलगाम के कुछ हिस्सों में में शूट किया गया था।

गंजू कहते हैं- बात सिर्फ 'सिलसिला' की ही नहीं बल्कि 75-80 के दौर में जितनी भी फिल्मों की शूटिंग हमारे कश्मीर में हुई, वहां किसी न किसी रूप में मेरी भागीदारी रहती थी। 

 फिर ज्यादातर फिल्मों की टीम हमारे होटल में ही रुकती थी। इस वजह से सबसे मिलना होता था। वह कहते हैं अब तो वहां ऐसा माहौल ही नहीं रहा कि कोई उन खूबसूरत वादियों को अपने कैमरे में उतारे और कोई फिल्म बनाए। 

 

कश्मीर से निकल कर हम लोगों ने पहली बार देखा क्या होती है गरीबी

हरिभूमि भिलाई -13 जुलाई 2001

गंजू कहते हैं-कभी तो लगता है जन्नत को छोड़ हम दोजख में आ गए। कश्मीर से बाहर निकल कर हम लोगों ने पहली बार देखा और जाना कि गरीबी क्या होती है। 

 छत्तीसगढ़ में हमें कोई मदद नहीं मिली सरकारी स्तर पर वर्तमान में हाउसिंग बोर्ड औद्योगिक क्षेत्र निवासी गंजू कहते हैं जो कश्मीरी अपना घर-बार छोड़कर आए हैं उनको सरकार से भी कुछ नहीं मिलता।

अपने कटु अनुभव बताते हुए श्रीमती गंजू कहती है जिस वक्त हम कश्मीर छोड़ नागपुर के बाद यहां आए, जिला प्रशासन से तीन महीने तक मात्र 200-200 रूपए की मदद मिली। फिर उसी दौरान केंद्र सरकार द्वारा प्राथमिकता और मेरिट के आधार पर नौकरी के लिए गई अनुशंसा की मेरी फाईल आज तक कलेक्टोरेट में घूम रही है।

12 साल से नौकरी का पता नहीं है। गंजू कहते हैं दूसरे राज्यों में कश्मीर से आए लोगों को सहायता राशि के तौर पर 3-3 हजार रूपए मिलते हैं। पूरे छत्तीसगढ़ में तीन परिवार हैं लेकिन सरकार उनकी ओर बिल्कुल भी ध्यान नहीं देती। 

गंजू कहते हैं विडंबनाएं तो बहुत हैं इसके बाद भी हमें यहीं रहना है क्योंकि हम चाह कर भी अपने कश्मीर नहीं जा सकते। हम तो किसी तरह अपने आप को समझा चुके हैं लेकिन अब हमारे बच्चे तो हमारी उस जमीन के बारे में कुछ जानते ही नहीं। हम नहीं जानते कि हम कब अपनी जमीन में वापस लौट सकेंगे। 

नोट:- पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ की भारत यात्रा के दौरान हरिभूमि भिलाई संस्करण में दुर्ग-भिलाई में रह रहे कश्मीरी परिवारों का इंटरव्यू 10 जुलाई 2001 से लगातार 15 दिन तक प्रकाशित हुआ। यह इंटरव्यू उसी श्रृंखला का हिस्सा है। शेष कड़ियां आप यहां नीचे लिंक को क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

मेरा कश्मीरनामा-1

मेरा कश्मीरनामा-2

मेरा कश्मीरनामा-3 

Thursday, March 24, 2022

मेरा कश्मीरनामा-3

 

हमनें बड़े भाई को आतंकी हमले में खोया, हमारे घर पर घास 

उग आई और आर्मी बैठी है, इससे बड़ी त्रासदी क्या होगी..? 

 

 हास्पिटल सेक्टर में निवासरत दूदा दंपति को उम्मीद कश्मीर में फिर लौटेंगे वो बहार वाले दिन


मुहम्मद जाकिर हुसैन 

वो 90 वाला खौफनाक दौर था, भिलाई स्टील प्लांट के उपमहाप्रबंधक (डीजीएम) रामकृष्ण दूदा उस रोज अपने घर में टेलीविजन देख रहे थे और उनकी पत्नी और भिलाई महिला महाविद्यालय सेक्टर-9 की प्राचार्य डॉ. संतोष कौल दूदा किचन में व्यस्त थी।

 किसी काम से श्रीमती दूदा बाहर निकली तो टीवी पर खबर आ रही थी कि सुप्रसिद्ध कश्मीरी साहित्यकार सर्वानंद कौल प्रेमी की उनके नौजवान बेटे वीरेंद्र कौल प्रेमी सहित आतंकवादियों ने बर्बरतापूर्वक हत्या कर दी है। यह दर्दनाक वाकया 30 अप्रैल 1990 का है। 

बकौल श्रीमती दूदा-मेरे कदम वहीं रूक गए, कुछ समझ में नहीं आया कि प्रेमी जैसे साहित्यकार, जो कि सभी वर्गों में समानरूप से लोकप्रिय थे, भी दहशतगर्दी का शिकार हो गए। उन्होंने कई धार्मिक व ऐतिहासिक ग्रंथों का कश्मीरी में अनुवाद किया था। उस रात हम लोग खाना नहीं खा सके। 

आतंकियों के शिकार सर्वानंद कौल 'प्रेमी' और मीर वाइज फारुख शाह

तब तो यह सिलसिला चल निकला था। हम लोग सर्वानंद प्रेमी के कत्ल से सदमे में थे कि कुछ ही दिन के बाद 21 मई 1990 को कश्मीर में सर्वमान्य धार्मिक नेता मीर वाइज फारुख शाह को भी आतंकियों ने अपनी गोली का निशाना बना दिया। 

आरके दूदा कहते हैं-उस दौर में हमनें अपने बड़े भाई को भी आतंकी हमले में खो दिया और प्रेमी जैसे साहित्यकार व मीर वाइज जैसे अमनपसंद लोगों के कत्ल ने हमें अपने भाई को खोने जैसा दुख दिया। दूदा दंपति आज भी हैरान है कि प्रेमी-मीर वाइज की तरह शांति प्रिय लोग ही क्यों लगातार दहशतगर्दी का शिकार हुए। 

अब चूंकि आगामी दिनों में (15 जुलाई 2001 को) पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ की भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के साथ आगरा में शिखर वार्ता तय है इसलिए दूदा दंपत्ति भी उत्सुक है, लेकिन बहुत ज्यादा उत्साहित नहीं है। 

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कश्मीर पर दोनों देशों को देनी होगी कुरबानी, तब हल होगा मसला

दूदा दंपति-साभार फेसबुक

आरके दूदा कहते हैं जिस तरह दूर क्षितिज पर हमें जमीन-आसमान मिलते दिखाई देते हैं लेकिन, वास्तव में जमीन-आसमान मिलते नहीं है वहीं हाल दोनों मुल्क के बीच का है। 

बीते 50-52 साल में दानों देशों के रिश्तों में जो उतार-चढ़ाव आए है वह सिर्फ एक शिखर वार्ता से तो हल होने वाला नही। हां, यह जरूर है कि कम से कम दोनों मुल्क आपसी तकरार भूल कर एक टेबल पर बात करने तैयार हुए हैं।

 इससे रिश्तों में सुधार जरूर आएगा और सीमा पर तनाव कम होगा। दूदा कहते हैं कि दूसरे मामलों में भले ही समझौते हो जाएं लेकिन, कश्मीर मसले पर बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं है क्योंकि यह मसला बहुत पेचीदा हो गया है फिर बातचीत में निरंतरता रहनी चाहिए और दोनों देशों को कुछ ना कुछ कुर्बानी देनी पड़ेगी। इसके बाद ही हम किसी नतीजे की उम्मीद कर सकते हैं। 

 

सिर्फ हिंदू ही नहीं मुसलमान भी मारा गया, आम कश्मीरी भटक रहा 

जनरल मुशर्रफ द्वारा हुर्रियत कांफ्रेंस को दावतनामा भेजने के मसले पर श्रीमती दूदा कहती हैं कि हम यह नहीं कहते कि आप हुर्रियत को बुलाएं बल्कि होना यह चाहिए कि कश्मीरी को बुलाएं जिसमें सभी वर्ग हो। आरके दूदा का कहना हैं दहशतगर्दी से कश्मीर में सिर्फ हिंदू ही पीडि़त नहीं था बल्कि वहां का मुसलमान भी मारा गया और घर छोडऩे विवश हुआ।

आज वहां भाड़े के आतंकवादियों के नाम से सूडान और अफगानिस्तान जैसे मुल्कों से आए लोग अपने पैर जमा रहे हैं और कश्मीरी अपने ही मुल्क में भटक रहा है। श्रीनगर के करीब करणनगर की रहने वाली श्रीमती दूदा व जवाहर नगर के आरके दूदा को अपना कश्मीर भुलाए नहीं भूलता। 

 

साझी थी हमारी महाशिवरात्रि और ईद की खुशियां

कश्मीरी महिलाएं परंपरागत वेशभूषा में (आर्काइवल फोटो)

आरके दूदा कहते हैं-हम कश्मीरी लोग तो रूहानी तौर पर काफी ऊपर थे। हमारा रहन-सहन, मेल-जोल सब एक आदर्श था।

वह बताते है हमको तो कभी भी हिंदु-मुस्लिम में फर्क पता नहीं चला। बचपन से हम देखते आ रहे थे कि घर में हमारे मुस्लिम परिवार रहता था।

फिर महाशिवरात्रि, जो कि हमारा सबसे बड़ा त्योहार होता है, में हमें सबसे पहली मुबारकबाद मुहल्ले के मुस्लिम परिवारों से मिलती थी। मुसलमान ईद के दिन का तबर्रूक सबसे पहले अपने हिंदू भाई के घर देता था। 

बचपन में हम सुनते थे और यह इतिहास भी है कि आजादी की जंग हिंदु-मुसलमान दोनों ने इकट्ठे लड़ी थी। लेकिन अब जो हालात बिगड़ गए है उसके लिए हम किसे जिम्मेदार ठहराएं। 

 

14 अगस्त का दिन, जब हमारे परिवार पर कहर टूटा

दूदा कहते हैं हमने जो खोया ईश्वर करे किसी को ऐसा दिन देखने ना मिले। वह बताते है स्वतंत्रता दिवस के ठीक एक दिन पूर्व 14 अगस्त 1997 को आतंकवादी अपनी पूर्व घोषणा पर कायम थे। 

हमारे बड़े भाई कन्हैयालाल दूदा नियमित दिन की तरह सुबह उठे और श्रीनगर जाने बस पर सवार हुए। बस थोड़ी ही दूर गई थी कि आतंकवादियों ने बस यात्रियों को अपना निशाना बना लिया। 

दूदा अपने भाई की तस्वीर दिखाते हुए कहते हैं इस तरह हम कश्मीरियों ने ना जाने कितने ही अपनों को खोया है। श्रीमती दूदा कहती है अब 13 बरस हो गए है, हम अपने घर नहीं जा पाए है। 

बीच में खबर मिली की करणनगर और जवाहर नगर के हमारे घरों में घास उग आई है और वहां मिलिट्री बैठी हुई है अब इससे बड़ी त्रासदी क्या होगी। 

फिर भी हम इस उम्मीद पर कायम हैं कि एक न एक दिन घाटी में अमन लौटेगा। हम लोगों ने 80 के दौर तक जो दिन देखें हैं, हमारी आने वाली पीढ़ी भी वैसे ही बहार के दिन देख पाएगी। 

 

..तब आखिरी बार इकट्‌ठा हुआ था हमारा पूरा परिवार

कश्मीरी पंडित परिवार (आर्काइवल फोटो)

श्रीमती दूदा बताती हैं-हर साल मई-जून आता है तो हमको अपने घर की याद आती है। लेकिन फिर ध्यान आता है कि अब वहां हमारा कोई नहीं है।

जब हम 12 बरस पहले (1990 में) श्रीनगर गए थे तब आखिरी बार हमारा पूरा परिवार इकट्ठा हुआ था। 

उसी दौरान कश्मीरी साहित्यकार सर्वानंद कौल प्रेमी से भी आखिरी मुलाकात हुई थी। अब तो वहां वीराना है। सिर्फ भाड़े के विदेशी आतंकवादी है बाकी वहां के रहवासी तो पलायन कर चुके हैं। 

श्रीमती दूदा कहती है अब जबकि भारत-पाक वार्ता होने वाली है तो पाकिस्तान के साथ विभिन्न मुद्दों पर बात करने के अलावा हमें आयात-निर्यात बढ़ाने और युद्धबंदियों की रिहाई पर भी बात खुल कर बात करनी चाहिए। 

आरके दूदा कहते है दहशतगर्दी से सभी तंग आ चुके हैं। अब जबकि अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में बदलाव आ चुका है। जर्मनी जैसा देश एक हो चुका है। भारत और पाकिस्तान जो कि एक ही संस्कृति के पोषक हैं, के लिए क्या जर्मनी से सबक लेने का वक्त नहीं आ गया है?

 

आज भी हम पंडितों को अपने कश्मीरी मुसलमानों पर पूरा भरोसा

परंपरागत कश्मीरी नृत्य

रामकृष्ण दूदा का कहना है कि कुछ अरसे से घाटी में हालात बदले हैं लेकिन, यह नाकाफी है। अभी भी सूरत ऐसी नहीं कि कश्मीरी पंडित वापस अपने घर लौट सकें। 

आज भी कश्मीरियों को सुरक्षा की गारंटी कोई नहीं दे सकता। सार्क समिट एक अच्छी पहल है, बातचीत आगे भी होगी लेकिन सरकारों के अलावा इसमें आम कश्मीरी को भी जोडऩा होगा। 

जब शांति के लिए जनता एक साथ बैठेगी तो हल जरूर निकलेगा। इसके अलावा आज जरूरत है, घाटी में जो हथियारों, गोला बारूद का जखीरा है उसे नष्ट करके मेजर ऑपरेशन चलाया जाए। दूदा कहते हैं कि आज भी कश्मीरी पंडित वापस अपने घर लौटना चाहते हैं।

क्योंकि यह जमीनी हकीकत है कि आज भी कश्मीरी पंडित को अपने कश्मीरी मुसलमान पर ही ज्यादा भरोसा है ना कि दूसरे समुदाय पर। इसलिए हर कश्मीरी को कश्मीरियत का उसूल निभाना होगा और सरकारों को दृढ़ इच्छा शक्ति का सबूत देना होगा। 

 

रद्द किया जाए कश्मीर में बेची गई तमाम संपत्ति का करार

हरिभूमि 12 जुलाई 2001

दूदा का कहना हैकि अब मुफ्ती मोहम्मद सईद की सरकार को सबसे पहले यह कदम उठाना चाहिए कि कश्मीरी पंडितों ने आतंक के दौर में जो संपत्ति बेच दी है उसका करार रद्द किया जाए और संपत्ति बेचने पर पाबंदी लगा दी जाए।

क्योंकि 15-16 साल में पंडितों और मुसलमानों ने जो भुगता है वह वापस तो नहीं आ सकता लेकिन इससे दोनों समुदायों को इकट्‌ठा रहने का मौका मिलेगा। 

वह कहते हैं कि अभी भी वहां की सरकार गंभीर नजर नहीं आती है। पिछले साल वनधामा नरसंहार में 45 लोग मारे गए, उनके एक-एक परिजनों को सरकारी नौकरी का वायदा किया गया था लेकिन साल बीतने के बाद भी सारे प्रभावित लोग बदहाल हैं।

आज तक किसी को नौकरी नहीं मिली इससे लोगों में असंतोष है। सरकार को लोगों का विश्वास जीतना होगा। जो शाख टूट चुकी है उस पर फिर से बहार लाने दृढ़ इच्छा शक्ति का परिचय देना होगा। 

 

 हमारे परिवार के कई लोग आतंक की भेंट चढ़े, वहां तो

 मुसलमानों को भी नहीं बख्शा आतंकियों ने:निर्मला देवी 

उम्र के आखिरी पड़ाव में श्रीमती निर्मला देवी कौल की सिर्फ एक ख्वाहिश है। वह चाहती है किसी न किसी तरह कश्मीर में अमन कायम हो। 

श्रीमती संतोष कौल दूदा की मां निर्मला देवी आज के हालात के लिए किसी को दोष नहीं देना चाहती, फिर भी कहती है जो हुआ सो हुआ, ईश्वर सबको सद्बुद्धि दे। दरअसल श्रीमती कौल ने आतंकवाद की आंधी झेली है। 

वह बताती हैं कि मैं सिर्फ एक अटैची में कपड़े रखकर अपनी बेटी के घर आई थी। पीछे घर में आतंकवादियों ने आग लगा दी। अब वहां तो राख भी नहीं बची होगी, क्योंकि बात 15 बरस पुरानी है। 

श्रीमती संतोष कौल बताती हैं कि उस हादसे के बाद परिवार के कई लोग आतंकवाद की भेंट चढ़ गए। इससे मम्मी बहुत ज्यादा अवसाद में आ गई थीं। 

निर्मला देवी कहती हैं- घाटी में कश्मीरी पंडितों को सुनियोजित तरीके से निकाला गया था, ताकि हमारी जमीन जायदाद पर कब्जा कर सकें, लेकिन कश्मीरी पंडितों के निकलने के बाद आतंकवादी वहां बच गए मसलमानों को भी जेहाद के नाम पर निशाना बना रहे हैं।

वह कहती हैं कि हालात अगर सामान्य होते नजर आए तो कश्मीरी पंडित वापस लौट सकते हैं। लेकिन इसके लिए राज्य और केंद्र सरकार में दृढ़ इच्छा शक्ति का होना बेहद जरूरी है।

 जम्मू कश्मीर की पिछली सरकारों को आड़े हाथों लेते हुए बगैर नाम लिए वह कहती हैं कि शायद 'वो' सबसे अयोग्य मुख्यमंत्री थे जिन्हें यह नहीं मालूम था कि उनके स्टेट में क्या हो रहा है।

खास बात:-दूदा दंपति से इंटरव्यू 13 जुलाई 2001 को और श्रीमती निर्मला देवी का इंटरव्यू 13 जनवरी 2004 को 'हरिभूमि' में प्रकाशित हुआ था। फिलहाल दूदा दंपति भिलाई छोड़ कर अन्यत्र बस गए हैं। 

मेरा कश्मीरनामा-1

मेरा कश्मीरनामा-2 

मेरा कश्मीरनामा-4

 

Sunday, March 20, 2022

मेरा कश्मीरनामा-2

 

आंखों के सामने कश्मीरी भाई का खून देखा 

तो तीन दिन छिपते-छिपाते भिलाई लौट आया

 

श्रीनगर की हजरत बल दरगाह, शोपियां कस्बे में सेब की फसल औऱ वहां के मौजूदा हालात

मुहम्मद जाकिर हुसैन

 बात 1990 की है। आतंकवाद से झुलसते कश्मीर से ज्यादातर कश्मीरी पंडित पलायन कर रहे थे। भिलाई इस्पात संयंत्र में बतौर अफसर सेवा दे रहे पुष्कर नाथ सत्थु को जम्मू के करीब शोपयान कस्बे में अपने पैतृक निवास में रखे कुछ जरूरी कागजात लाने की याद आई। भिलाई में जम्मू पहुंच सत्थु शोपयान के लिए पैदल ही निकल पड़े।

इस दौरान सत्थु किसी तरह काजीगुंड पहुंचे थे कि ठीक उनके सामने एक कश्मीरी युवक आतंकवादियों की गोली का शिकार हो गया। अपनी आंखों के सामने एक कश्मीरी मुस्लिम भाई का बहता खून देख सत्थु तुरंत उल्टे पांव जम्मू की ओर लौट पड़े। 

 

चरार-ए-शरीफ में मत्था टेकने और अपने सेबों

 के बाग फिर से देखने की ख्वाहिश रह गई अधूरी

सत्थु दंपति (2018) फेसबुक

भिलाई के सत्थु परिवार की दिली ख्वाहिश थी कि एक बार परिवार सहित अपने पुरखों के घर शोपियान जाएं। 
अपने सेब के बागों में बेफिक्र होकर घूमें और हजरत बल में शुक्राना अदा करने माथा टेक आएं। अफसोस, उनकी यह ख्वाहिश पूरी नहीं हो पाई।

अपनी श्रृंखला कश्मीरनामा के लिए पुष्करनाथ सत्थु से बात करने उनके रुआबांधा वाले घर में मैं बैठा था तो यह सब बताते हुए वह बेहद परेशान लग रहे थे। फिर भी उन्होंने खुद को संभाला और तफसील से बात की। सत्थु बताने लगे कि तब किसी तरह छिपते-छिपाते तीन दिन के पैदल सफर के बाद मुझे सेना के एक ट्रक में पनाह मिली। 

तब कहीं वापस सही-सलामत भिलाई पहुंच पाया। कई बार तो लगता था कि जान बच पाएगी या नहीं। पैदल सफर जारी रहा। 

इस दौरान मैनें कई जगह कत्लो-गारत का खौफनाक मंजर देखा। हमारे सारे रिश्तेदार तो वहां से निकल चुके थे लेकिन वहां जो बाकी हमारे कश्मीरी भाई रह रहे थे मुझे उनके बारे में सोच कर दहशत होने लगी कि इनकी सलामती की गारंटी कौन लेगा? हमारे कश्मीर तो पंडित और मुसलमान सब इकट्‌ठे रहते थे फिर किसकी नजर लग गई समझ नहीं आता।

सत्थु कहते हैं- उस आखिरी सफर के बाद हमारे लिए कश्मीर ऐसा हो गया मानो हमने इसे सिर्फ किस्से कहानियों में ही जाना हो। यह बताते हुए पुष्करनाथ सत्थु की आंखें छलक गईं। वह कहने लगे-आज हमारी यादों में जिंदा है हमारा अपना शोपयान कस्बा।

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अब पुराने फोटोग्राफ्स देख नम हो जाती हैं आंखें 

हमारी बातों के बीच अपना पारिवारिक एलबम दिखाते हुए सत्थु कहने लगे-अभी ज्यादा दिन की बात नहीं है, जब हम लोग अपने पूरे परिवार के साथ शोपयान और पहलगाम गए थे। 1983 के इस सफर की गवाह फोटोग्राफ्स देख कर आज भी हमारे परिवार की आंखें नम हो जाती है। 

सत्थु कहते हैं-वहां तो हमारा सब कुछ लूट गया। यहां जो जमा पूंजी थी उसे हमने वहां मकान बनाने में लगा दी थी। वहां तो कुछ रहा नहीं अब भविष्य की चिंता सता रही है कि भिलाई स्टील प्लांट से रिटायरमेंट के बाद हम कहां जाएंगे। 

हमारी बातचीत में शामिल होते हुए सत्थु की पत्नी फुला सत्थु कहती हैं आज हम अपनी जड़ों से इतने कट गए हैं कि हमारे बच्चे अब नहीं जानते कि कश्मीरियत क्या है, हमारी परंपरा क्या है? 

एक अच्छी शुरूआत है बाजपेयी-मुशर्रफ में बातचीत

रूआबांधा निवासी सत्थु दंपत्ति का पुत्र संजय चेन्नई में साफ्टवेयर इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा है व पुत्री सुप्रिया स्नातकोत्तर की छात्रा है। इस शिक्षित परिवार के मुखिया पुष्कर नाथ सत्थु कहते हैं जनरल मुशर्रफ भारत आ रहे हैं और बाजपेयी साहब से बातचीत भी करेंगे। 

शिखर वार्ता की तैयारियां चल रही हैं। यह बेहतर कदम है और इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है। खुशी की बात है कि दोनों देश बातचीत के लिए राजी तो हैं।

लेकिन, बातचीत से किसी चमत्कार की उम्मीद नहीं है क्योंकि अगर कोई सोचे कि कश्मीर समस्या एक बातचीत से हल हो जाएगी तो यह गलत है। हां, यह एक अच्छी शुरुआत है। अब कश्मीर की समस्या कोई आज की तो नहीं है। आधी सदी से ज्यादा का अरसा हमने इसका हल ढूंढने में ही बिता दिया।  


1951 के पहले का दर्जा दें तो कुछ बात बनें 

हरिभूमि भिलाई 11 जुलाई 2001

बातों के दौरान पुष्करनाथ सत्थु कहते हैं यह एक पेचीदा मामला है और किसी फार्मूले पर सभी पक्ष संतुष्ट हो जाएगें ऐसा नहीं लगता। मेरी राय में अगर कश्मीर को 1951 के पहले का दर्जा देने से समस्या हल हो सकती है तो सरकार को जरूर पहल करनी चाहिए। 

जहां तक हुर्रियत काफ्रेंस की मुशर्रफ से मुलाकात का सवाल है तो हमें यह समझना चाहिए हुर्रियत समूचे कश्मीरियों की प्रतिनिधि संस्था नहीं है। कश्मीर में और भी लोग हैं और भारत सरकार को सभी पक्षों को बराबर मानना चाहिए। 

सत्थु के पुत्र संजय का कहना है कि उन्हें बाजपेयी-मुशर्रफ वार्ता से बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं है क्योंकि सबसे पहले दोनों देशों को मानना होगा कि कश्मीर एक कोर इश्यु है तभी कुछ बात बनेगी। फिर अभी मुशर्रफ का अपने देश के कट्टरपंथियों पर कोई नियंत्रण नहीं है। पाकिस्तान में वैसे भी हुक्मरान कोई भी हो वहां सेना का दखल सबसे अहम होता है। पुष्करनाथ कहते हैं-हमें उम्मीद तो है कि कुछ बेहतर हो सकता है। क्योंकि हम सभी चाहते हैं कश्मीर अपने घर लौटना। 1990 के बाद से हम सब इंतजार कर रहे हैं कि वह दिन कब आएगा, जब हम अपने घर लौटेंगे। 

 

हमारी पहचान बचाने 'पनुन कश्मीर' को मंजूरी दे सरकार

 जब तक भारत सरकार कश्मीर के आम लोगों को संतुष्ट नहीं रख सकती कश्मीर में शांति संभव नहीं। अपने बेटे की बातों से इत्तेफाक रखते हुए पुष्करनाथ सत्थु कहते हैं कि कश्मीरी पंडितों का जो पनून कश्मीर आंदोलन है यदि उसके अनुसार भी भारत सरकार हम लोगों को एक निश्चित क्षेत्र पूर्ण संरक्षण के साथ दे तो शायद हमारी पहचान बच सकती है। 

वह कहते हैं-दिल्ली सरकार कश्मीरी पंडितों को आवास व अन्य सुविधा दिलाने प्राथमिकता देती है ऐसी ही पहल छत्तीसगढ़ सरकार को करनी चाहिए। 

सत्थु बताते हैं- 1960 में मेरा भिलाई आना हुआ और यह सोच कर यहीं रूक गया कि नौकरी के बीच छुट्टी में घर जाता रहूंगा फिर रिटायरमेंट करीब है पर शोपयान में अपना कोई रहा नहीं। 


स्विटजरलैंड से भी बेहतर था हमारा शोपियान

अहरबल की खुबसूरत वादी (सौजन्य-जिला प्रशासन शोपियान)

सत्थु कहते हैं-हमारा शोपियान तो स्विटजरलैंड से भी बेहतर था लेकिन, ना जाने किसकी नजर लग गई। 

पहले मैं जब भी छुट्टियों में जाता था तो घर से 20-25 मील दूर चरारे शरीफ दरगाह जरूर जाता था और भिलाई लौटते अपने घर के बाग के प्रसिद्ध सेब लाता था। 

फुला सत्थु कहती हैं-हम फिर अपने बागान के सेब खाना चाहते हैं और चरारे शरीफ में मत्था टेकना चाहते है। पुष्करनाथ सत्थु चुप हो गए, क्योंकि उनके पास कोई जवाब नहीं है। 

यह इंटरव्यू जुलाई 2001 का है। बाद के दिनों में 1-2 मरतबा उनसे मिलना हुआ। सोशल मीडिया पर भी सत्थु परिवार बेहद सक्रिय रहा है। अफसोस, पुष्करनाथ सत्थू अब हमारे बीच नहीं हैं। 2 जनवरी 2019 में उनका भिलाई में निधन हो गया।

मेरा कश्मीरनामा-1

मेरा कश्मीरनामा-3 

मेरा कश्मीरनामा-4