Friday, June 22, 2018

भिलाई की मिनी का सेक्टर-10 के एक 
मकान से एसबीआई चीफ तक का सफर 

अरूंधति भट्टाचार्य से खास मुलाकात, बातें नोटबंदी के दिन की और उनके बचपन के भिलाई की, साथ ही भिलाई एंथम के नजारे 

मुहम्मद जाकिर हुसैन 
भिलाई निवास में विशेष इंटरव्यू 9 जून 2018
इस्पात नगरी भिलाई में अपना बचपन बिताने वाली ''मिनी'' ने स्कूल की एक आज्ञाकारी शिष्या से भारतीय स्टेट बैंक की पहली महिला चीफ बनने तक के सफर में संघर्ष और सफलता का एक लंबा दौर देखा है।

भिलाई से उन्हें बचपन में भी बेहद लगाव था और आज भी उनका यह लगाव बरकरार है। यही वजह है कि जब भी उन्हें भिलाई ने बुलाया वह बिना देरी किए चली आईं।

 एसबीआई चीफ रहते हुए ऐसे दो मौके आए जब अरूंधति भट्टाचार्य के भिलाई प्रवास की तैयारियां पूरी हो चुकी थीं लेकिन अन्य व्यस्तताओं के चलते वे नहीं आ पाईं। इसके बाद अपने कार्यकाल के आखिरी साल 7 अप्रैल 2017 को उनका 53 साल बाद भिलाई आना हुआ। तब उन्होंने भिलाई में कुछ घंटे गुजारे।

उनकी सेवानिवृत्ति के बाद फिर एक मौका आया जब 9 जून 2018 को भिलाईयंस ने उन्हें याद किया। मौका था भिलाई की भावना से भरपूर भिलाई एंथम के लोकार्पण का। अरूंधति न सिर्फ भिलाई एंथम का हिस्सा बनीं बल्कि पूरे कार्यक्रम में भी मौजूद रहीं।

इस बार भी अरूंधति सीमित समय के लिए आईं थी, लिहाजा उन्होंने अपने व्यस्ततम समय में से कुछ पल खास इस इंटरव्यू के लिए निकाले। इस दौरान उनकी शर्त थी कि बैंकिंग से जुड़े नीतिगत मामलों पर वे बात नहीं करेंगी। लिहाजा उन्होंने भिलाई में बिताए दिनों से लेकर कुछ अपने करियर और कुछ अन्य विषयों पर बात की। पहले अरूंधति भट्टाचार्य का परिचय, फिर एक्सक्लुसिव इंटरव्यू और उसके बाद 7 अप्रैल 2017 के उनके भिलाई प्रवास की कुछ झलकिया।

पिता प्रोजेक्ट इंजीनियर और माता होम्योपैथी की चिकित्सक
18 मार्च 1956 को जन्मीं अरूंंधति भट्टाचार्य का बचपन इस्पात नगरी भिलाई के 4 ए, स्ट्रीट-26, सेक्टर-10 में गुजरा। परिवार में उन्हें सब मिनी कह कर पुकारते थे। पिता प्रद्युम्न कुमार मुखर्जी भिलाई स्टील प्लांट में प्रोजेक्ट इंजीनियर थे। जिनका बाद के दिनों में बोकारो स्टील प्लांट तबादला हो गया था। माता कल्याणी मुखर्जी होम्योपैथी की कुशल चिकित्सक थीं।

इंग्लिश प्राइमरी स्कूल सेक्टर-9 (अब ईएमएमएस-9) से प्राइमरी और इंग्लिश मीडियम हायर सेकंडरी स्कूल सेक्टर-7 (अब बीएसपी सीनियर सेकंडरी स्कूल-7) से 7 वीं के बाद उन्होंने आगे की पढ़ाई सेंट जेवियर स्कूल बोकारो और फिर जादवपुर यूनिवर्सिटी के लेडी ब्रेबोर्न कॉलेज से पूरी की।

22 साल की उम्र में प्रोबेशनरी आफिसर के तौर पर सितंबर 1977 को उन्होंने एसबीआई की सेवा ज्वाइन की।7 अक्टूबर 2013 को उन्होंने स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की 24 वीं और महिला के तौर पर पहली चेयरमैन का पदभार संभाला। अक्टूबर 2016 में उनकी सेवानिवृत्ति होनी थी लेकिन केंद्र सरकार ने उन्हें एक वर्ष का सेवाविस्तार दिया।

इसके बाद 6 अक्टूबर 2017 को वह एसबीआई चीफ के पद से सेवानिवृत्त हुईं। उनके परिवार में पति प्रीतिमॉय भट्टाचार्य आईआईटी खडग़पुर के सेवानिवृत्त प्रोफेसर और बेटी सुकृता भट्टाचार्य हैं।

प्रधानमंत्री की घोषणा के डेढ़ घंटे पहले हम लोगों 
को बुला लिया गया, बाद में दिखाए  2 हजार के नए नोट
नोटबंदी का फैसला इस कदर गोपनीय था कि देश के सारे बैंक के प्रमुखों को आम जनता के साथ ही टेलीविजन प्रसारण से इस बारे में पता लगा था। 8 नवंबर 2016 की दोपहर मुझे भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के डिप्टी गवर्नर के ऑफिस से फोन आया कि शाम को 6:30 बजे आवश्यक बैठक रखी गई है। जब मैनें एजेंडा के बारे में पूछा तो उनकी निज सचिव ने कहा कि बैठक में ही जानकारी दी जाएगी और इसके लिए कोई तैयारी की जरूरत नहीं है। इससे मुझे थोड़ी हैरानी हुई कि रिजर्व बैंक की आपात बैठक बगैर एजेंडा और बिना तैयारी के कैसे हो रही है? खैर, वहां देश के सभी बैंक के प्रमुख आने लगे।

उस रोज रिजर्व बैंक के गवर्नर नहीं थे, लिहाजा बैठक की अध्यक्षता कर रहे डिप्टी गवर्नर आए और उन्होंने भी इधर-उधर की बातें ही की। तब हममें से किसी को भी समझ नहीं आ रहा था कि आखिर क्या होने वाला है। ऐसे ही बातें करते-करते पौने 8 बज गए। तब रिजर्व बैंक के दूसरे अफसर भी बोर्ड रूम में आए। फिर 8 बजे प्रधानमंत्री का राष्ट्र के नाम संबोधन शुरू हुआ और हम सब की नजरें टेलीविजन पर टिक गईं। इस तरह पूरे देश के साथ हम लोगों को नोटबंदी के फैसले के बारे में पता चला।

ये असली नोट हैं,लोगों को यकीन कराना भी बड़ी चुनौती रही
प्रधानमंत्री की उद्घोषणा खत्म होते ही आगे की रणनीति के लिए आरबीआई ने बैठक ली। हमें सवा अरब की आबादी वाले अपने देश की 63 प्रतिशत करेंसी रद्द करने की दिशा में काम करना था।

इस दौरान हम लोगों को पहली बार 2 हजार के नए नोट दिखाए गए। हम लोगों ने नोट देखे तो चौंक गए क्योंकि ये नोट आकार में अब तक चल रहे नोट से काफी छोटे थे।ऐसे में एटीएम में बदलाव सहित तमाम बिंदुओं पर हम लोगों ने चर्चा की। तब तक 9:30 बज चुके थे। यहां से आफिस पहुंचने के बाद मैनें तुरंत बैठक बुलाई।

हम लोगों ने रात 12 बजे तक पूरी तैयारी की। तब हमारे अपने 56 हजार एटीएम थे। इनमें बदलाव सहित ढेर सारी तैयारियां करनी थी। अगले दिन फिर सुबह 6 बजे से नोटबंदी के मुताबिक नई व्यवस्था के लिए सारी तैयारियों को अमली जामा पहनाने वीडियो कान्फ्रेंस शुरू की गई। तब सबसे ज्यादा गोपनीयता 2 हजार के नए नोट को लेकर बरती गई थी। यहां तक कि करेंसी चेस्ट की जिम्मेदारी संभालने वालों को सख्त हिदायत दी गई  थी कि वो नए नोट के बारे में कहीं भी बात नहीं करेंगे और इसके लिए उनसे लिखित में डिक्लियरेशन ले लिया गया था।
 सबसे बड़ी दिक्कत तो गांव और दूर-दराज के इलाके में हुई। ऐसी जगह पर लोगों ने प्रधानमंत्री का लाइव टेलीकास्ट देखा नहीं था लिहाजा उन्हें नोटबंदी के बारे में पता नहीं था। जब ऐसे लोगों के हाथों में 2 हजार के नए नोट आए तो ये लोग इसे चूरन वाले नोट समझ रहे थे।

हमारे बैंक कर्मियों को यह भरोसा दिलाने में बड़ी मशक्कत करनी पड़ी कि ये असली वाले नोट हैं।

छह महीने में क्लास-1 पास हो गया हमारा बैच क्योंकि...
स्कूल के दिन, नीचे बैठे हुए स्टूडेंट में अरूंधति (घेरे में)
हमारा बैच सेक्टर-9 का इंग्लिश प्राइमरी स्कूल होने के साथ शुरू होने वाला पहला बैच था। तब हम लोगों को डेढ़ साल की अवधि में ही क्लास-1 और क्लास-2 पास कर दिया गया था।

कई बार मैं खुद सोचती थी कि इतनी जल्दी-जल्दी कैसे हम लोग पास हो गए। बाद में पता चला कि पहले साल हमारा सेशन देरी से शुरू हुआ था तो महज छह महीने में ही हम लोगों को क्लास-1 से पास आउट कर क्लास-2 में भेज दिया गया था। शायद ऐसा किसी दूसरे बच्चों के साथ नहीं हुआ होगा।

तब की एक और बात याद है मुझे, क्लास-1 में दाखिले के दौरान हम तमाम बच्चों की लिखित परीक्षा हुई थी। जिसमें मैनें अंग्रेजी में ए से जेड तो आसानी से लिख लिया लेकिन हिंदी में 'झ' लिखने में बहुत दिक्कत हुई थी।
इस पर टीचर ने उनको सुधार कर लिखना सिखाया। तब स्कूल में अंग्रेजी के अलावा किसी भी भाषा में बात करने पर पाबंदी थी यहां तक कि अंग्रेजी नहीं आती तो इशारों में समझाना होता था लेकिन उसे बोलना अंग्रेजी में ही होता था।

इससे हम सब क्लास 3 आते-आते अच्छी तरह अंग्रेजी बोलने-समझने लग गए। सेक्टर-10 में 1960 के दौर में तो सब कुछ खुला-खुला सा था। दूर तक खाली मैदान दिखते थे। अब मैं दूसरी बार भिलाई आई हूं तो दोनों बार वहां जाकर देखी। अब तो नजारा ही बदल गया है। बचपन में मुझे भिलाई होटल (निवास)का रैम्प बहुत ऊंचा लगता था लेकिन उम्र के हिसाब से नजरिया बदल जाता है।

अब तो वह रैम्प कुछ भी नहीं लगता। मैं बहुत छोटी थी तो हमारे माता-पिता को जरूरी सामान के लिए रायपुर जाना पड़ता था। फिर कुछ बड़ी हुई तो सुपेला जाने लगे। तब का सुपेला बाजार आज भी मेरी यादों में है। लेकिन आज मैं आते हुए देख रही सुपेला तो अब पूरी तरह बदल गया है।

भिलाई का कल्चर बना हमारी बुनियाद 
 कलेक्टर आर. शंगीता और बीएसपी सीईओ एम. रवि के साथ 
हम लोग जब स्कूल में दाखिल हुए तो किंडर गार्टन जैसा कुछ भी नहीं था। इसलिए स्कूल के बाद हम लोग सारा दिन खेलते रहते थे। मुझे याद नहीं आता कि कोई भी संडे सुबह 9 बजे के बाद या दोपहर में 2:30 बजे के बाद हम बच्चे घर में बैठे हों।

वो अलग तरह की लाइफ थी। तब एक छोटी सी कम्युनिटी थी। हर कोई एक दूसरे का खयाल रखता था। पड़ोस में रीता मेरी बेस्ट फ्रैंड थी। भिलाई के बहुत साल बाद मेरा रीता से परिचय फेसबुक से हुआ।

आज भी हम लोग बेस्ट फ्रैंड हैं। कुछ ऐसा ही माहौल हमें बोकारो में भी मिला। वहां हमारे पड़ोसी एक साउथ इंडियन थे। उनके यहां के बच्चे हमारे यहां खाना खाते थे और हम बच्चे उनके यहां का।

 तो ऐसे ही माहौल की वजह से हम लोग एक दूसरे का कल्चर बखूबी समझ पाए। भिलाई का कल्चर ही हम जैसे लोगों के करियर का बुनियाद बना। भिलाई में तब सोशल नेटवर्क बहुत बेहतरीन था। हमको ऐसी कोई भी छुट्टियां याद नहीं है, जहां हम किसी कल्चरल इवेंट की रिहर्सल नहीं कर रहे हों।

 छुट्टियों में स्ट्रीट की आंटी लोग या स्कूल की टीचर्स का हम बच्चों को लेकर रिहर्सल करवाना और छोटे-छोटे नाटक या डांस ड्रामा तैयार करवाना रेगुलर था। बोकारो में भी ऐसा माहौल हमें मिला। इसके बाद फिर टीवी आना शुरू हुआ तो इससे बहुत सी बातें खत्म होने लगी।

मां ने बचपन में दिया सबक 
एक सबक मुझे बचपन में अपनी मां से मिला था कि अगर गलती हमारी है तो हमें ही भुगतना होगा। मां ने स्कूल से मिलने वाले काम का समय पर पूरा करने की आदत हम सभी भाई-बहनों में डाली और किताबों का शौक पैदा किया। अक्सर जब पापा घर में कुछ पढऩे-लिखने का काम कर रहे होते थे तो पापा के बगल में ही हम भाई-बहनों की टेबल लगा दी जाती थी और उस दिन का होम वर्क उसी रात में कराया जाता था।

 मुझे याद है समर वेकेशन में कर्सिव राइटिंग का होमवर्क मिला था लेकिन स्कूल शुरू होने के पहले 3 दिन बचे थे और 60 पेज लिखना बचा रह गया था। मुझे बड़ी उम्मीद थी कि मां 50 पेज लिख देगी और मैं 10 पेज लिख लूंगी। लेकिन मां ने कहा कि लापरवाही तुम्हारी है तो तुम्हे ही करना होगा। इसके बाद मां ने मुझे अपने सामने लगातार तीन दिन बिठा कर रोज 20-20 पेज लिखवाए।

एक बच्ची की मौत ने मां को डाक्टर बना दिया
तब तो नया-नया भिलाई बन रहा था। उन दिनों इतनी ज्यादा चिकित्सा सुविधा की हम लोग कल्पना भी नहीं कर सकते थे। मुझे याद है सेक्टर-10 में हमारी स्ट्रीट 26 में ठीक सामने इंजीनियर संतोष कुमार पाल रहते थे। उनकी बेटी  अनिमा पाल सख्त बीमार हुई। अनिमा की मां असीमा पाल हमारे घर आईं और मां को बताने लगी कि यहां इलाज नहीं हो पा रहा है और डाक्टर ले कोलकाता ले जाने कह दिया है।

 इसके बाद वो लोग कोलकाता चले गए लेकिन अनिमा बच नहीं पाई। इस घटना से मां बहुत आहत हुई। उन्होंने कहा कि जब कोई सुविधा नहीं हो तो हमें अपनी मदद खुद करनी चाहिए। इसलिए उन्होंने होम्योपैथी की किताबें पढऩी शुरू की। वो रात-रात भर जागती थीं और किताबें पढ़ कर घर से ही होम्योपैथी की दवाएं देने लगीं।

 इसका नतीजा यह हुआ कि जब मुझे टाइफाइड हुआ तो मम्मी ने घर में ही होम्योपैथी की दवाइयों से मुझे ठीक कर दिया। बोकारो जाने के बाद मां की पहचान होम्योपैथी डाक्टर के तौर पर ज्यादा हुई। वो 90 साल तक जीवित रहीं और मृत्यु से तीन महीना पहले तक होम्योपैथी की दवाएं देती थीं।

हम लोगों पर दबाव नहीं था करियर को लेकर 
आज मुझे लगता है अब बच्चों पर सफलता को लेकर प्रेशर ज्यादा है। इससे उनमें बचपन की उमंग कम होते जा रही है। जबकि हम लोगों के वक्त ऐसा प्रेशर नहीं था कि असफल हुए तो आपकी जिंदगी खत्म हो गई या करियर तबाह हो गया। मैनें बैंकिंग सर्विस में जाने का लक्ष्य पहले से नहीं रखा था।

 हां जीवन में बहुत पहले एक इरादा जरूर कर लिया था कि 21 साल की होते तक मुझे इंडिपेंडेंट होना है। जब स्कूल पास आउट हुई तो पिताजी का रिटायरमेंट होने वाला था। उस समय उन्हें पेंशन तो नहीं मिलती थी। फिर हम युवाओं को तब पब्लिक-प्राइवेट सेक्टर में नौकरी मिलना मुश्किल था। अगर आपका कनेक्शन न हो जान पहचान न हो तो बंगाल जैसी जगह पर यह और भी मुश्किल था। ऐसे में ऑल इंडिया कंपीटेटिव एक्जाम से नौकरी मिलना मुझे सबसे आसान लगा।

इसलिए चुना आईएएस के बजाए बैंकिंग को 
मैं आईएएस के लिए यूपीएससी का फार्म भी ले आई थी लेकिन दिक्कत यह थी कि उसमें उन दिनों एक विषय लेना होता था जो अंग्रेजी या हिंदी साहित्य से अलग होना चाहिए था। मैं तब इंग्लिश लिट्रेचर लेकर पढ़ रही थी और दूसरे किसी विषय के लिए मुझे पूरी की पूरी पढ़ाई नए सिरे से करनी पड़ती। ऐसे में मैनें आईएएस का इरादा छोड़़ दिया और बैंक एक्जाम में बैठी।

इसमें उन दिनों तीन पेपर होते थे। इसमें इंग्लिश का पेपर मेरा अपना विषय होने की वजह से मेरे लिए आसान था। जनरल नॉलेज के लिए तब कंपटीशन मास्टर बुक होती थी और लॉजिक रीजनिंग की तैयारी मैनें खुद से की

तब शीर्ष पर नजर गई थी लेकिन बाद में...
इंटरव्यू के दौरान 9 जून 2018
बैंकिंग एक्जाम में सफलता के बाद हमारा बैच सितंबर 1977 से बतौर प्रोबेशनर दाखिल हुआ। तब हैदराबाद स्टाफ कॉलेज में इंडक्शन के दौरान सीनियर आकर हमें बता रहे थे कि एसबीआई में जितने भी चेयरमैन हुए हैं, वह सब यहीं आकर ज्वाइन किए हैं।

 तब उस रोज लगा कि मैं भी यहीं ज्वाइन कर रही हूं तो शीर्ष तक जरूर पहुंच जाऊंगी लेकिन यह एहसास सिर्फ उसी दिन था फिर उसके बाद तो पूरे 40 साल काम में ऐसे डूबे कि कभी ऐसा खयाल ही नहीं आया। तो हैदराबाद में बोला जरूर गया था लेकिन तभी से टारगेट कर रही थी ऐसा कुछ नहीं है।

इतना लंबा करियर देख कर कई बार लोग पूछते हैं कि 40 साल एक ही संस्थान में...बोर नहीं हो गए..? मेरा यह कहना है कि बैंक बहुत सारी जगह-जगह दूसरे ट्रांसफर करता है। हम एक जगह बैठे रहे ऐसा नहीं है।

 मुझे देश की चारों दिशाओं में सेवा का मौका मिला और विदेश में भी कई जिम्मेदारियां संभाली हैं। मैं मानती हूं कि बैंक में आपका करियर डेवलपमेंट अच्छी तरह से होता है। वहां आपको अलग-अलग क्षेत्र में अनुभव का अवसर मिलता है। मुझे रिटेल बैंकिंग और ट्रेजरी सहित अलग-अलग एरिया में काम करने मिला। नया बिजनेस शुरू करने का मौका मिला। इससे सभी क्षेत्र का अनुभव हो जाता है।

पूरे सेवाकाल में कई चैलेंज से रूबरू होने का मौका मिला। अगर आप चैलेंज को स्वीकार करते हैं और इससे पार पाने में खुद को इन्वाल्व रखते हैं तो इनसे उबरने पर सुकून मिलता है।

 मेरी नजर में बैंकिंग एक ऐसा सेक्टर है, जहां आप अगर अच्छी तरह से काम करेंगे तो आगे चल कर आपका हार्ड वर्क आपके करियर में जरूर दिखेगा। सफलता चाहे मेरी व्यक्तिगत हो या किसी की भी, मैं मानती हूं कि कुछ तो निश्चित तौर पर भाग्य की बात है। क्योंकि कोई कितना भी हार्ड वर्क कर ले लेकिन लक साथ न दे तो कुछ नहीं होता। लेकिन सच यह भी है कि लक ही सब कुछ नहीं होता आपको उसके लिए कोशिश भी करनी होती है। मैं खुशनसीब हूं कि मुझे परिवार, दोस्तों और समाज से बहुत सपोर्ट मिला।

जैसे ही कन्फर्म हुआ पहला फोन बेटी को लेकिन...
एसबीआई की चीफ बनना मेरे करियर का अहम मोड़ था। उस दिन जैसे ही मेरे नाम पर मुहर लगी, मैनें तुरंत अपनी बेटी सुकृता को फोन लगाया। मैनें बात शुरू ही की थी कि पीछे से इतने ज्यादा कॉल आने लगे कि पूरी बात करने का मौका नहीं मिला। खूब बधाईयां मिली। इसके बाद तो सफर काफी चुनौतीपूर्ण रहा।

 एक साल के एक्सटेंशन के बाद अक्टूबर 17 को मैं रिटायर हुई और फिलहाल एक साल का कूलिंग पीरियड है। जिसमें मैं अक्टूबर 2018 तक दूसरा कोई संस्थान ज्वाइन नहीं कर सकतीं। इस बीच शैक्षणिक संस्थानों में लेक्चर दे रही हूं। वहीं देश में उद्योग के क्षेत्र में निवेश करने वाले देशी-विदेशी निवेशकों को जरूरी सलाह भी दे रही हूं। वहीं आईआईएम संबलपुर और आईआईटी खडग़पुर के निदेशक मंडल (बोर्ड) में शामिल हूं। सामाजिक गतिविधियों में भी व्यस्तता रहती है।

मैनें रिटायरमेंट के बाद परिवार से वादा किया है कि शनिवार-रविवार हम सब इकट्ठा रहेंगे लेकिन कई बार यह वादा भी टूट जाता है।

एक सुर में भिलाई को बांधता है भिलाई एंथम 
भिलाई एंथम की लांचिंग 9 जून 2018
भिलाई में मेरा बचपन बीता है और अपने इस शहर के लिए जब सुष्मिता बसु मजुमदार ने भिलाई एंथम में मुझे शामिल होने प्रस्ताव दिया तो जाहिर है मुझे बहुत खुशी हुई। मेरा मानना है कि हमारे शहर भिलाई में शुरू से एक कम्युनिटी फीलिंग है, जिसे आगे बढ़ाना बहुत जरूरी है।

पिछले 60-65 साल से लोग यहां विभिन्न प्रांतों से आकर अपना योगदान दे रहे हैं। बहुत से लोग यहां से वापस लौट गए तो बहुतों ने भिलाई को ही अपना स्थाई निवास बना लिया। तो भिलाई एंथम एक ऐसा सुर है जो सभी भिलाईयन को एक सुर में बांधे रखता है।

टीम भिलाई एंथम एंड वेलफेयर सोसाइटी भिलाई के पीएनके मोहन, परोमिता दासगुप्ता, जयता दास, एजेड एजाज, एस. जयलक्ष्मी, सुदेशना भट्टाचार्य, विजय सरधी, शिबानी घोष, मीनल रस्तोगी, धवल मेहता व संजीव लाहिरी सहित तमाम लोगों का समर्पण इस एंथम में नजर आता है। भिलाई की सांस्कृतिक पहचान पद्मभूषण तीजन बाई का इस एंथम में होना हम सबके लिए गर्व की बात है।

बीएसपी के सीईओ एम. रवि के साथ अमित साना, पामेला जैन और प्रभंजय चतुर्वदी ने भी अपना योगदान दिया है। भिलाई से मुंबई जाकर स्थापित होने वाले फिल्मकार अनुराग बसु भी इसमें नजर आए हैं। यह सब कुछ टीम भिलाई एंथम की कड़ी मेहनत का नतीजा है। सुष्मिता और उनकी टीम ने एक बेमिसाल काम किया है। मैं समझती हूं बीते 60 सालों में भिलाई आकर बसने वाले और यहां से देश-विदेश जा कर तरक्की करने वाले भिलाईयंस के लिए यह एक आदरांजलि है। 
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 7 अप्रैल 2017 ....जब अरूंधति लौटीं अपनी बचपन के शहर में 
अपने क्लासरूम में बरसों बाद 
इस्पात नगरी भिलाई में अपना बचपन गुजारने वाली अरूंधति भट्टाचार्य का शुमार दुनिया की सर्वाधिक प्रभावशाली महिलाओं में किया जा चुका है।

भारतीय स्टेट बैंक की 24 वीं और महिला के तौर पर पहली चेयरमैन अरूंधति भट्टाचार्य यूं तो 7 अक्टूबर 2013 को पदभार संभालने के बाद से अपने बचपन के शहर भिलाई आना चाहती थीं। इसके लिए दो बार शहर में तैयारियां भी हो गईं थी लेकिन उनकी दूसरी व्यस्तताओं की वजह से दौरा टलते-टलते अंतत: 7 अप्रैल 2017 शुक्रवार को उनका भिलाई प्रवास संभव हो पाया। भिलाई आने के बाद वह अपने बचपन की दुनिया में खो सी गईं।
7 अप्रैल को भिलाई आते ही अरूंधति सीधे अपने बचपन के इंग्लिश प्राइमरी स्कूल (आज बीएसपी इंग्लिश मीडियम मिडिल स्कूल) सेक्टर-9 पहुूंची।  जहां स्कूल की दीवारों को निहारते हुए वह खो गईं। क्लास रूम में पहुंची, बेंच देखा। बिल्डिंग को निहारते हुए आगे बढ़ते वक्त बोलती रहीं...सब कुछ बदल गया।

मैं भूल गई, कहां बैठा करती थी। स्कूल ड्रेस में बच्ची ने हाथ जोड़कर स्वागत किया। उसके कंधे पर हाथ रखा और बोली, मेरी ड्रेस नीली और सफेद थी। आज हरी-सफेद हो गई। स्कूल के रजिस्टर को देखा और पहले बैच में रोल नंबर 119 देख चेहरे खिल गए। इसके बाद स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा का अनावरण किया। स्कूल में उनका स्वागत करने उनके सहपाठी डॉ. महीप भल्ला,डॉ. राकेश कोठारी, रंजीत मजूमदार,प्रणव मुखर्जी, जोसेफ कोशी और अनादिशंकर भी मौजूद थे।

50 साल बाद एक-दूसरे को देखने की खुशी सबके चेहरे पर साफ झलक रही थी। स्कूल में अरूंधति ने अपने बचपन की ढेर सारी बातें की। उन्होंने बच्चों और वहां मौजूद लोगों से बात करते हुए अपने दिन याद किए।

बहन का लगाया पौधा और भाई का कमरा...सब कुछ याद आया
 सेक्टर-10 के पुराने घर में भावुकता से भरे कुछ पल
स्कूल के कार्यक्रम के तुरंत बाद अरूंधति भट्टाचार्य सेक्टर-10 से स्ट्रीट-26 के  क्वार्टर 4 ए पहुंची। यहां इन दिनों भिलाई स्टील प्लांट के वित्त विभाग से रिटायर सीनियर मैनेजर एन. रामदासन व उनकी पत्नी एन. मणि रामदासन सपरिवार रहते हैं।

 अरूंधति ने यहां करीब 20 मिनट गुजारे। उनके साथ बीएसपी के सीईओ एम. रवि भी थे।

जनवरी 1967 में बोकारो जाने के पूरे 50 साल बाद अरूंधति अपने बचपन के घर में आकर बेहद भावुक हो गईं। उन्होंने घर का एक-एक कोना देखा और काफी देर तक दरो-दीवार को निहारती रहीं। यहां रह रहे रामदासन दंपति से उन्होंने बहुत कुछ पूछा और उन्हें बहुत कुछ बताया भी। अरूंधति अपने बचपन के किस्सों और इस घर से अपने लगाव को बेहद दिलचस्पी से साथ रामदासन दंपति के साथ शेयर किया। इस दौरान उन्होंने पड़ोसियों की भी जानकारी ली लेकिन 50 साल पहले के कोई भी परिवार उस स्ट्रीट में नहीं थे।

 4 ए में वर्तमान में रह रहे रामदासन दंपति ने बताया कि 7 अप्रैल को जब अरूंधति उनके घर आईं तो सबसे पहले आम का पेड़ देखने गई। इसे उनकी बहन अदिति ने लगाया था। इससे उनका इतना लगाव था कि एक बार देखने के बाद अंदर आईं और जाने से पहले फिर उस पेड़ को निहारती रही। हम लोगों ने कहा भी कि इसमें का आम तोड़ लीजिए तो उन्होंने कहा कि नहीं, ये मेरी बहन का लगाया हुआ पेड़ है इसका फल नहीं तोड़ूंगी।

 फिर उन्होंने यहां फोटो खिंचवाई। इसके बाद अंदर जाने पर वह बेडरूम को भी देखती रही। जहां उन्होंने बताया कि यहां उनके दिवंगत भाई अमित मुखर्जी की यादें जुड़ी हुई हैं। अपने घर में उन्होंने कोर्टयार्ड का हिस्सा और खास कर पीछे बनी हुई टंकी को भी देखा और बताने लगी कि इसमें हम भाई-बहन खूब डूबकी लगाते थे।तब किचन और कोर्टयार्ड काफी छोटा था लेकिन अब लीज पर लेने के बाद रामदासन परिवार ने इसे बड़ा कर दिया है लेकिन अरूंधति अपने उसी पुराने घर की सारी यादें हर कोने में तलाशती रहीं।

बैंकिंग में घट रही महिलाओं की भागीदारी
 इसके बाद अरूंधति भिलाई स्टील प्लांट के एक अन्य कार्यक्रम में हिस्सा लेने मानव संसाधन विकास (एचआरडी)विभाग पहुंची। यहां उन्होंने युवा इंजीनियरों से बातचीत की।एचआरडी में युवा इंजीनियरों के सवाल के जवाब में अरुंधति ने कहा कि सन 1970 से 80 के बीच के दौर में महिलाएं बहुत बड़ी संख्या में बैंकिंग सेवाओं में आती थी।

जब उन्होंने प्रोबेशनर के तौर पर ज्वाइन किया था तब यह अनुपात 50:50 का था लेकिन अब इसमें गिरावट आई है। अब एसबीआई में कुल वर्कफोर्स में  महज 4 फीसदी महिलाएं हैं। जबकि आबादी 50 प्रतिशत है इसे लेकर महिलाओं को जागरूक होना चाहिए और इसमें पुरुषों को भी साथ देना चाहिए। इस कार्यक्रम के बाद अरूंधति मुंबई के लिए रवाना हो गईं।

भिलाई की यादों ने बेचैन किया तो भेजा फोटोग्राफर 
अरूंधति भट्टाचार्य 7 अप्रैल को अल्प प्रवास पर भिलाई आईं थी और अपने बचपन के सेक्टर-10 स्थित मकान को देखने भी पहुंची थी। लेकिन, यहां से जाने के बाद भिलाई की यादें उन्हें इस कदर बेचैन कर रहीं थी कि अगले दिन फिर उन्होंने फोटोग्राफर भेजा और अपनी उन यादों से जुड़ी तमाम जगहों की फोटोग्राफी--वीडियोग्राफी करवाई। एसबीआई के स्थानीय अफसर फोटोग्राफर लेकर पहुंचे थे। जहां उन्होंने अरूंधति और उनकी बचपन की दोस्त रीता गांगुली (भट्टाचार्य) के घर की फोटोग्राफी-वीडियोग्राफी की।

यादें पड़ोसियों की और बातें पक्की सहेली की 
डॉ. एमएम मुखर्जी,सविता मुखर्जी नमिता दास डॉ. रीता भट्टाचार्य
स्ट्रीट-26 के 5 ए में तब बीएसपी के इंजीनियर बीजी गांगुली रहते थे। उनकी बेटी रीता गांगुली से अरूंधति की पक्की दोस्ती थी। कल की रीता गांगुली आज बनारस की मशहूर चिकित्सक डॉ. रीता भट्टाचार्य हैं। दोनों की दोस्ती आज भी कायम है।

डॉ. रीता ने फोन पर बताया कि हम दोनों का रिश्ता भिलाई से जुड़ा है, इसलिए हमारी ज्यादातर बातें हमेशा भिलाई की यादों को लेकर ही होती है। भिलाई जाने के पहले भी मिनी (अरूंधति का घर का नाम) ने फोन कर बताया था और कहा भी था कि अपने घर के साथ-साथ तुम्हारे घर में भी जाउंगी। हो सकता है उस दिन व्यस्तता के चलते 5 ए नहीं गईं होंगी लेकिन बाद में उनका मैसेज आया था कि फोटो भेज रही हूं। डॉ. रीता ने बताया कि वह बी सेक्शन में थीं और मिनी ए में लेकिन आस-पास घर होने की वजह से दोनों में पक्की दोस्ती रही।

हम दोनों का घर चूंकि पास-पास था, इसलिए दोनों घरों से हम दोनों की ढेरों यादें जुड़ी हुई हैं।अरूंधति का परिवार सेक्टर-10 के स्ट्रीट 26 में 4 ए मे रहता था। उनके घर के ठीक बगल  में 3 बी में डॉ. एमएम मुखर्जी परिवार सहित रहते थे। अब नेहरू नगर वासी वयोवृद्ध डॉ. मुखर्जी और उनकी पत्नी सविता मुखर्जी ने बताया कि अरूंधति को बचपन में सब मिनी पुकारते थे।

चूंकि मिनी तब बहुत ही छोटी थी, इसलिए उससे जुड़ी बातें अब याद नहीं है। श्रीमती मुखर्जी बताती हैं कि मिनी की मां कल्याणी मुखर्जी घर में होम्योपैथी की दवाएं देती थी और वो बांग्ला में कहानी-कविता बहुत अच्छा लिखती थी। कल्याणी बहुत ही मेलजोल वाली थीं।

क्लासमेट भी जुटे स्कूल में 
7 अप्रैल 2017 सेक्टर-9 स्कूल में अरूंधति अपने क्लासमेट के साथ।
अरूंधति भट्टाचार्य के सेक्टर-9 स्कूल पहुंचने की तैयारी शुरू होने के बाद उनके सारे क्लासमेट को भी जोडऩे भिलाई स्टील प्लांट मैनेजमेंट ने संपर्क किया था। उनके साथ क्लास 7 तक पढ़े बीएसपी के रिटायर डायरेक्टर (मेडिकल एंड हेल्थ) डॉ. महीप भल्ला के माध्यम से भिलाई में रह रहे क्लासमेट से संपर्क किया गया। इनमें से ज्यादातर इस कार्यक्रम में पहुंचे भी।

अरूंधति के क्लासमेट रहे नेहरू नगर निवासी डॉ. राकेश कोठारी के साथ भिलाई में रह रहे टीके जोसेफ और रंजीत मजुमदार को भी इस कार्यक्रम में आमंत्रित किया गया। अरूंधति के क्लासमेट रहे गोवा निवासी राजिंदर ज्ञानी ने बताया कि दो तीन मौके ऐसे आए थे, जब एलुमनी में उन्हें जोडऩे की कोशिश की गई थी। लेकिन व्यस्तता की वजह से वो भिलाई नहीं आ पाईं थी। अंतत: अब जाकर उनका कार्यक्रम तय हुआ तो हम सबके लिए खुशी की बात है।

अरूंधति का कार्यक्रम तय हुआ तो राजिंदर ज्ञानी भिलाई नहीं आ सके लेकिन उनके कुछ क्लासमेट कार्यक्रम में मौजूद थे। रजिंदर ज्ञानी बताते हैं कि कार्यक्रम में बहुत से साथी मौजूद थे। मेरी बहुत इच्छा थी कि इसी बहाने भिलाई पहुंच जाऊं लेकिन नहीं आ सका। इधर कार्यक्रम के दौरान सेक्टर-9 स्कूल में अरूंधति भट्टाचार्य अपने क्लासमेट के साथ बचपन की यादों में खो गईं। सभी का उन्होंने हालचाल पूछा।

इस तस्वीर में बाएं से प्रणब मुखर्जी, डॉ. राकेश कोठारी, डॉ. महीप भल्ला, अरूंधति, स्कूल की एचएम अपर्णा बनर्जी, अनादि शंकर विश्वास, दो अन्य व्यक्ति और अंत में रंजीत मजुमदार। इनमें से डॉ. राकेश कोठारी अब दिवंगत हो चुके हैं।