Thursday, August 8, 2019


भिलाई होटल से भिलाई निवास तक...आखिर इस 


निजीकरण या आउटसोर्सिंग की कोई हद है या नहीं...?
भिलाई होटल निर्माण के दौरान 1957 

मुहम्मद ज़ाकिर हुसैन 

एक सार्वजनिक उपक्रम को कैसे टुकड़ों में धीमी गति से निजीकरण की ओर धकेला जाता है, इसकी जीती जागती मिसाल भिलाई है। बात यहां भाजपा-कांग्रेस की नहीं बल्कि 90 के बाद आई आर्थिक नीतियों और उसे लागू करने के बहानों की है। आज जब 'सरकार बहादुर' की मर्जी स्टील अथारिटी ऑफ इंडिया के तीन स्टील प्लांट सेलम, भद्रावती और दुर्गापुर बेचने की है, तब भिलाई निवास जैसे एक आलीशान गेस्ट हाउस की क्या बिसात..?
भिलाई स्टील प्लांट में दो दशक में तेजी से विभागीय स्तर पर ठेकाकरण शुरू हुआ है। सिर्फ चंद कॉमरेड लोगों के विरोध से तो बात नहीं बनती, लिहाजा यह ठेकाकरण-निजीकरण दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। अब ताजा शिकार भिलाई की संस्कृति का प्रतीक रहा भिलाई होटल (भिलाई निवास) हुआ है। इस साल 17 जून से इसका संचालन इंडियन कॉफी हाउस (आईसीएच) को सौंप दिया गया है। मैनेजमेंट ने फिलहाल दोनों पक्षों के बीच करार की कॉपी सार्वजनिक नहीं की है और मुमकिन है आरटीआई में भी बहानेबाजी कर नहीं दी जाए।
लेकिन यह तो तय है कि 25 एकड़ में फैली करोड़ों की बिल्डिंग और इससे लगा पूरा का पूरा इंफ्रास्ट्रक्चर थाली में परोस कर आईसीएच को दे दिया है। स्थानीय मैनेजमेंट अपनी मजबूरी बताता है कि नई भर्ती बंद होने से इसका संचालन संभव नहीं हो पा रहा था। दिल्ली से हरी झंडी मिलने के बाद भिलाई निवास को आउटसोर्स करने हाल के 4-5 साल से कवायद चल रही थी। जो अब जाकर अपने अंजाम तक पहुंची है।
आज भिलाई निवास का नंबर आया है, कल मुमकिन है सेक्टर-9 अस्पताल और समूचे टाउनशिप को आउटसोर्स पर देने की भूमिका बनाई जाए। इसलिए सवाल उठाए बगैर चुपचाप अपनी बरबादी का तमाशा देखते रहिए।
अब चलते-चलते थोड़ी सी बात अपने इस भिलाई होटल की। टाउनशिप का मास्टर प्लान बनाया गया तो सेक्टर-10 में एक होटल का प्रावधान किया गया। होटल भी कोई 10-20 नहीं बल्कि पूरे 120 कमरे का। करीब 2.5 साल के रिकार्ड समय में इसका निर्माण पूरा हुआ और इसे भिलाई होटल का नाम दिया गया। 15 अगस्त 1958 को इसका उद्घाटन हुआ। इसके बाद से करीब 4 दशक तक यह कई प्रमुख भारतीय-रूसी राजनयिक मेहमानों का गवाह रहा। यहां की कैंटीन कभी स्टेटस सिंबाल हुआ करती थी। तब खर्च के लिहाज से जो अंदर नहीं जा सकते थे,वो बाहर से ही देखकर तसल्ली कर लेते थे।
लेकिन धीरे-धीर एक बेहतरीन गेस्ट हाउस भर्राशाही का शिकार होता गया। खासकर राज्य केंद्र सरकार के अफसरों के लिए यह चारागाह हो गया। बीएसपी मैनेजमेंट की नस दबा कर महीनों यहां के कमरों में टिके रहना, मुफ्त की दारू और मुफ्त का खाना आम बातें होने लगी। बहुत ज्यादा दिनों की बात नहीं है, जब रायपुर से एक महामहिम अपने लाव-लश्कर के साथ यहां ना सिर्फ खाना खाने आते थे, बल्कि पैक कराकर ले भी जाते थे। इसी दौर में एक सरकारी अफसर एक राजनीतिक दल की नेताइन के साथ यह रंगे हाथों धरे गए थे। पतन की ओर जाते भिलाई होटल को बचाने मैनेजमेंट ने सबसे पहले तो यहां की कैंटीन का संचालन बंद किया और इसका नाम बदल कर भिलाई होटल से भिलाई निवास किया। इसके बाद धीरे-धीरे यहां की सुविधाएं बंद की जाने लगी। अंतत: अब तीन साल के लिए भिलाई निवास को आईसीएच के हवाले कर दिया गया है।
भिलाई होटल का उद्घाटन 15 अगस्त 1958 
15 अगस्त 1958 को भिलाई होटल का उद्घाटन हुआ था। यह फोटो उसी वक्त का है। माइक पर चीफ इंजीनियर केआर सुब्बारमन और पास चश्मा लगाए बैठे जनरल मैनेजर एनसी श्रीवास्तव हैं। श्री श्रीवास्तव के ठीक पीछे सुप्रिंटेंडेंट ट्रेनीज कर्नल ताराचंद हैं। दूसरी फोटो में रूसी महिला के ठीक सामने माथे पर बिंदी लगाए श्रीमती नलिनी श्रीवास्तव बैठी हैं। यह फोटो मुझे नई दिल्ली में श्रीमती श्रीवास्तव ने अपने एलबम से दी थी।

नेहरू युग से आगे, अब कहाँ जा रहे हैं हम..?


वो साल 1954-55 का दौर था, जब प्रधानमंत्री नेहरू की सरकार दूसरी पंचवर्षीय योजना में दुर्गापुर, राउरकेला और भिलाई में नए स्टील प्लांट स्थापित करने की रूपरेखा बना रही थी। भिलाई के लिए सोवियत संघ (रूस), राउरकेला के लिए जर्मनी और दुर्गापुर के लिए ब्रिटेन ने आर्थिक सहायता को हाथ आगे बढ़ाया।
इस दौरान प्रख्यात उद्योगपति जमनालाल बजाज चाहते थे कि इनमें से कोई एक स्टील प्लांट सरकारी के बजाए निजी क्षेत्र के तौर पर उन्हें विदेशी मदद से स्थापित करने दिया जाए। जमनालाल बजाज का जोर दुर्गापुर के लिए था। लेकिन प्रधानमंत्री नेहरू ने उन्हें विनम्रतापूर्वक मना कर दिया।
दरअसल वो नेहरू युगीन मिश्रित अर्थव्यवस्था का दौर था। निजी और सरकारी हदों को नेहरू और तब के दूसरे बड़े नेता अच्छी तरह जानते थे। इसलिए तब की सरकारी नीतियों में निजी क्षेत्र को फलने-फूलने का मौका जरूर दिया लेकिन सरकारों ने अपनी जवाबदारी भी बखूबी निभाई।
इसका नतीजा हुआ कि भिलाई जैसे तमाम सार्वजनिक उपक्रमों में देश भर के लोगों को रोजगार मिला और देशवासियों का जीवन स्तर ऊंचा हुआ। हालांकि बाद के दौर में इसी नेहरू युगीन मॉडल में दीमक लगते गया।
ट्रेड यूनियन और मैनेजमेंट में बैठे लोगों ने अपने-अपने प्रांत के लोगों को ट्रेनों में भर-भरकर भिलाई, बोकारो और ऐसी दूसरी तमाम जगहों पर भेजा और पक्की नौकरी लगवाई। इसकी प्रतिक्रिया के चलते स्थानीयता की आवाज को बुलंद करते आंदोलन भी खड़े हुए।
फिर 90 के बाद जो हुआ और जो हो रहा है, वो सबके सामने है। आज सवाल निजीकरण, आउटसोर्सिंग या ठेकाकरण का नहीं है। सवाल सरकार की जवाबदारी का है। देश का नागरिक किसी उद्योगपति या किसी सोसाइटी संचालक को वोट देकर अपना कर्णधार नहीं चुनता है। इसलिए चुनी गई सरकार का दायित्व होता है कि वो अपनी जवाबदारी निभाए।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक चर्चित इंटरव्यू है, जिसमें वो कहते हैं कि ''सार्वजनिक उपक्रम तो मरने के लिए पैदा होता है।'' ये आधी हकीकत थी, पूरी कहानी ये है कि इसी इंटरव्यू में आगे वो बताते हैं कि कैसे उन्होंने इस धारणा को झूठ साबित किया और गुजरात में कुछ राज्य स्तर के शासकीय उपक्रमों को घाटे से उबारकर मुनाफे वाला बना दिया। तो ऐसा क्या हुआ कि गुजरात का दिमाग दिल्ली आकर शीर्षासन की मुद्रा में नजर आने लगा, जिसके चलते सार्वजनिक उपक्रमों को बेचने सूची जारी की जा रही है।
दरअसल, आज बड़ी चालाकी के साथ कुछ नैरेटिव सेट किए जा रहे हैं। हाल कुछ बरसों में मंत्री तो मंत्री सरकारी अफसर भी सार्वजनिक समारोहों में युवाओं से जानबूझ कर यह कह रहे हैं कि ''नौकरी मांगने वाले नहीं नौकरी देने वाले बनो।'' जाहिर सी बात है, स्थाई नौकरियां धीरे-धीरे खत्म की जा रही हैं। इसलिए बार-बार ऐसा भाषण देकर युवाओं के दिमाग में प्रोग्रामिंग की जा रही है, जिससे उसके अंदर नौकरी मांगने के बजाए नौकरी देने वाला बनने की खब्त सवार रहे।
इसी तरह एक और नैरेटिव सेट कर दिया गया है, जिसमेेंं पढ़ा-लिखा तबका यह मान चुका है कि सरकारी के बजाए प्राइवेट कंपनियां ही अच्छी सर्विस दे सकती हैं। इसी वजह से हम तमाम आउटसोर्स, निजीकरण और ठेकाकरण को चुपचाप स्वीकार करते चले जाते हैं। लेकिन इसके दूसरे पहलू निजी कंपनी के कर्मचारी की सामाजिक सुरक्षा पर हम ध्यान देना नहीं चाहते हैं। मेरा मानना है कि सरकार की जवाबदारी भी तो तय होना चाहिए कि आखिर आपको चुना किसलिए गया है। आप एक-एक कर सारी सरकारी सेवाएं और देश के बेशकीमती संसाधन निजी हाथों में सौंपते जाएं और पीछे एक अटपटा सा तर्क भी चिपका रहे कि स्टील प्लांट का काम स्टील बनाना और प्राफिट कमाना है ना कि इसके साथ अस्पताल-स्कूल चलाना।
आज भिलाई होटल का संचालन करने वाली संस्था इंडियन कॉफी हाउस के एक सहकारी संगठन होने की वजह से बहुत से साथियों को कोई बुराई नजर नहीं रही है। हो सकता है कि बहुत लोग चाहते हों कि सेक्टर-9 अस्पताल को कोई निजी सुपर स्पेशियालिटी अस्पताल की टीम आकर चलाए और ऐसे ही हमारे टाउनशिप के स्कूलों को कोई बड़ा ग्रुप ले ले, जिससे व्यवस्था बेहतर हो जाए। लेकिन सवाल ये है कि क्या इसी तर्क के आधार पर हम आगे हम लगातार प्रॉफिट कमाने वाले किसी स्टील किंग को भिलाई स्टील प्लांट सौंपने का भी स्वागत कर पाएंगे..? क्या ये काम सरकार का नहीं है कि वो अपनी जवाबदारी को समझे? व्यवस्था में जहां खामियां हैं, उसे दुरुस्त करे और सरकारी उपक्रमों के स्वरूप के बरकरार रखे। आखिर निजीकरण, आउटसोर्सिंग और ठेकाकरण किस हद तक होना चाहिए। इसकी कोई सीमा है कि नहीं?बेहतर सेवाओं की आस में हम सारे संसाधन निजी हाथों में सौंपते जाएंगे तो मुमकिन है आगे बेरोजगार युवाओं की फौज सोशल मीडिया और जमीन पर नफरत की क्रांति में ही उलझी रहेगी।
आज पावर हाउस रेलवे स्टेशन के सामने जवाहर मार्केट मेें जहां वाहन स्टैंड बनाया गया है, वहां कभी रोजगार कार्यालय हुआ करता था। देश भर से लोग यहां इस उम्मीद पर आते थे कि कारखाने में काम मिलेगा।लोग आते गए और रोजगार मिलता गया। फोटो में दूसरी तरफ पटरी पार सेक्टर-1 के मकान भी नजर रहे हैं। बाद में यह रोजगार कार्यालय दुर्ग के स्टेडियम में स्थानांतरित हो गया।