Wednesday, January 16, 2019

हमने जाकर देख लिया है रहगुजर के आगे भी,

रहगुजर ही रहगुजर है रहगुजर के आगे भी....


इमदादखानी घराने के प्रतिनिधि और प्रख्यात सितार नवाज

उस्ताद शाहिद परवेज से एक मुलाकात


मुहम्मद जाकिर हुसैन

गीनरूम  में उस्ताद से रूबरू 
जाने-माने सितारवादक उस्ताद शाहिद परवेज का मानना है कि कला की दुनिया में कोई मंजिल नहीं होती। इसलिए वे खुद भी इस राह पर किसी मंजिल की तलाश के बजाए सिर्फ अपनी राह चल रहे हैं। उस्ताद के मुताबिक अच्छा संगीत किसी भी स्वरूप में हो सकता है,बस लोगों को अच्छा लगना चाहिए। वे शास्त्रीय संगीत में किसी भी तरह के मेल (फ्यूजन) के खिलाफ भी है।
यहां केबीआर बिमलअर्पण संगीत समारोह के दूसरे दिन का आयोजन 12 जनवरी 2019 शुक्रवार की शाम भिलाई इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी (बीआईटी) सभागार में हुआ। समारोह मेें उस्ताद शाहिद परवेज का सितारवादन तय किया गया था, लिहाजा अपनी प्रस्तुति से करीब आधा घंटा पहले उस्ताद अपने हवाई सफर के बाद रायपुर होते हुए भिलाई पहुंचे। जाहिर है सफर की थोड़ी थकान भी थी और उस्ताद की तबीयत भी कुछ नासाज थी। इसके बावजूद साज और उस्ताद दोनों अपनी तैयारी में थे। उनके पहुंचते ही उनके चाहने वालों का मिलने के लिए तांता लग गया।

इस बीच मुख्य आयोजक डॉ. सुष्मिता बसु मजुमदार अपनी टीम के साथ उस्ताद का स्वागत करने पहुंची। डॉ. सुष्मिता ने उस्ताद को बताया कि उन्होंनें पहली बार 1982 में उन्हें भिलाई में सुना था और इसके बाद से दिल में कहीं एक बात थी कि भिलाई में ही कभी ना कभी उस्ताद का एक प्रोग्राम जरूर करवाना है और आज ये मुराद पूरी हो गई। यह सुन कर उस्ताद भी मुस्कुरा दिए।

खैर, उस्ताद से मिलने वालों के हुजूम के बीच मैनें अपना परिचय दिया और छोटी सी बातचीत की गुजारिश की। हालांकि उस्ताद अपनी तबीयत को लेकर थोड़ा परेशान थे। इसके बावजूद उन्होंने कहा कि ठीक है, मैं 10 मिनट दूंगा। ग्रीन रूम में ही मिलने वालों को बाहर करने के बाद उनके संगतकार और भिलाई से ही राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने वाले वरिष्ठ तबला नवाज पार्थसारथी मुखर्जी की मौजूदगी में थोड़ी हड़बड़ी में उनसे रिकार्डेड बातचीत शुरू हुई। जो यहां सवाल-जवाब की शक्ल में-


0 आज के दौर इटावा (इमदादखानी) घराना  किस  तरह अपनी अहमियत बरक़रार रखे हुए है ?


उस्ताद इनायत खां और प बिमलेन्दु मुखर्जी 
00 हमारा घराना सितार के हिसाब से सबसे पुराना घराना है। मैं सातवीं पीढ़ी का प्रतिनिधि हूं। दौर तो हमेशा बदलता रहता है, लेकिन हमारी कोशिश है कि अपने घराने की स्थापित परंपराओं को बरकरार रखते हुए हम नई पीढ़ी को तैयार करें। हमारे घराने में सभी बड़े सितारनवाज हुए हैं। हमारे बुजुर्ग इमदाद खां साहब के बेटे वाहिद खान और इनायत खान हुए। इनमें वाहिद खान के बेटे हफीज खान और अजीज खान थे। वहीं इनायत खान के बेटे विलायत खान हुए हैं। उस्ताद हफीज खान बाद के दौर में हिंदी फिल्मों के लोकप्रिय पाश्र्वगायक एच. खान मस्ताना के नाम से जाने गए। वहीं मेरे वालिद उस्ताद अजीज खान ने हिंदी फिल्मों में बतौर संगीतकार अपना योगदान दिया।
 हमारी मौजूदा पीढ़ी में शुजाअत खान,हिदायत खान,निशात खान, इरशाद खान, वजाहत खान और मेरे बेटे शाकिर खान सहित तमाम लोग संगीत की सेवा कर रहे हैं। हमारे घराने के एक और बुजुर्ग पं. बिमलेंदु मुखर्जी थे। पं. मुखर्जी भिलाई स्टील प्लांट के माइंस में जनरल मैनेजर रहे और उन्होंने सितार और संगीत को परवान चढ़ाने में आखिरी सांस तक अपना योगदान दिया। पं. मुखर्जी के बेटे पं. बुधादित्य मुखर्जी आज इमदादखानी घराने के प्रतिनिधि के तौर पर पूरी दुनिया में जाने जाते हैं। पं. बिमलेंदु मुखर्जी के बुलावे पर ही मुझे 1982 और 1986 में भिलाई के सुधि श्रोताओं के समक्ष सितार वादन पेश करने का मौका मिला था और आज उन्हीं के नाम पर आयोजित समारोह में मैं फिर एक बार यहां के सुधि श्रोताओं के समक्ष हूं। जहां तक हमारे घराने की अहमियत की बात है तो इस पर हम घराने वाले लोग क्या कहें? यह तो लोग बताएंगे तो बेहतर।


0आज शास्त्रीय संगीत के समक्ष कैसी चुनौतियां देखते हैं?

00 आज आप चुनौती की बात करें तो अब हमारे संगीत को मूल स्वरूप में जिंदा रखना मुश्किल होता जा रहा है। इसमें इसमें मिलावट आ रही है और ज्यादा फ्यूजन हो रहे हैं। मेरा मानना है कि चाहे फिल्मी हो या गैर फिल्मी, पहले का म्यूजिक इतना अच्छा था कि उसमें लगता ही नहीं था कि क्लासिकल नहीं हो रहा है। मेरा मानना है कि अच्छा म्यूजिक वही है जो दिल को छुए वो चाहे मुंबई का हो चाहे क्लासिकल। मैं समझता हूं कि हर घराने की जो रिवायत है वो बिल्कुल सीधा रास्ता है, उसमें चलना चैलेंज नहीं होता। बल्कि चैलेंज होता है टेढ़े रास्ते पर चलना। जो हमारा ट्रेडिशन है उसे कायम रखना चैलेंज सीधा रास्ता है। उसमें गलत करना चैलेंज है मेरे हिसाब से।


0आम तौर पर कुछ संगीतज्ञ नई-नई राग-बंदिशों की रचना करते हैं या फिर पुराने साज को मॉडिफाई कर नया साज बनाते हैं, इस पर आपका क्या नजरिया है?

00 हमारे घराने में जो कुछ भी प्रयोग या बदलाव किए गए हैं, वो सब परंपरा के दायरे में रहकर और उसके मूल स्वरूप को बदले बिना किए गए हैं। हम कभी नहीं चाहेंगे कि हमारे घराने की जो खासियत है, उसकी जड़ें ही खत्म हो जाएं। इसलिए कुछ नया देने के नाम पर तोड़-फोड़ में हमारा यकीन नहीं है। म्यूजिक या कोई भी आर्ट है वो परिवर्तनशील है, उसका मिजाज ही बदलाव का है इसलिए वो बदलेगा ही। लेकिन बदलाव एक दायरे में हो तो बेहतर है। जहां तक साज में बदलाव या नया कोई साज बनाने की बात है तो हम लोगों ने प्रयोग तो किए लेकिन कभी ऐसा प्रयोग नहीं किया कि हमारे साज का मूल स्वरूप ही खत्म हो जाए।


0अपने उस्ताद वालिद मरहूम को कैसे याद करते हैं?


उस्ताद अज़ीज़ खां 
00 मेरे वालिद उस्ताद अजीज खान एक बड़े सितार नवाज तो थे ही लेकिन उन्हें धुनें बनाने का शौक था। लिहाजा उन्होंने बंबई फिल्मी दुनिया का रुख किया और उन्होंने हीर-रांझा (1948), इंतजार के बाद (1949), परिवर्तन (1949), बीवी (1950),पुतली (1950),एक्टर (1952), धूपछांव (1954), डंका (1954) और चलता पुर्जा (1958) सहित उस जमाने की कई महत्वपूर्ण फिल्मों में संगीत दिया था। इनमें कुछ फिल्मों में अकेले अजीज हिंदी या अजीज खान के नाम से संगीत दिया तो कुछ में उन्होंने जोड़ी में संगीत दिया। मसलन संगीतकार खय्याम के साथ उन्होंने रामू एंड श्यामू के नाम से संगीत दिया।


0 लेकिन संगीतकार खय्याम के जोड़ीदार तो रहमान वर्मा (अब्दुल रहमान) थे और इन दोनों ने शर्मा जी-वर्मा जी के नाम से कई फिल्मों में संगीत दिया था?

00 देखिए,जो मुझे जानकारी है वही बता रहा हूं। मानना नही मानना आपकी बात है,लेकिन मेरा भी सुन लीजिए। मुझे जो जानकारी है,उसके मुताबिक उन्होंने खैय्याम साहब के साथ रामू एंड श्यामू और वर्मा जी-शर्मा जी के नाम से म्यूजिक दिया। जिसमे श्यामू और शर्माजी खैय्याम साहेब के नाम थे ।वहीं आज के मशहूर तबला नवाज उस्ताद जाकिर हुसैन के पिता उस्ताद अल्लारखा खां के साथ उन्होंने एआर कुरैशी-अजीज हिंदी के नाम से संगीत दिया। बंबई में उनका फिल्मी करियर परवान चढ़ ही रहा था कि हमारे दादा हुजूर वाहिद खान साहब ने उन्हें वापस बुला लिया। क्योंकि तब मेरी तालीम का दौर शुरू होना था। हमारे दादा का मानना था कि फिल्मों के बजाए उन्हें अपने घराने पर ध्यान देना चाहिए। उस जमाने में अपने स्थापित करियर को छोड़कर घर लौटना एक बड़ी कुरबानी थी, जो मेरे वालिद ने दी। आज मैं जो कुछ भी हूं उनकी उस कुरबानी की वजह से ही हूं।


0...क्या आपको भी अपने वालिद की तरह कोई कुरबानी अपनी अगली पीढ़ी के लिए देनी पड़ी?

00 मेरे वालिद फिल्मों में गए तो वो उनका शौक था। वहां उन्होंने खूब काम भी किया लेकिन हम लोग घराने तक ही सीमित रहे। जो बेहतर बन सका पहले भी किए और आज भी कर रहे हैं। हां, हमने कोशिश की कि इधर-उधर करने बजाए अपने ही घराने की रिवायतों को मजबूती से पकड़ कर रखें। इसे आप कुरबानी भी कह सकते हैं कि हम बाहर कहीं नहीं गए और जो अपने उस्तादों से सीखा, उसे ही हमनें अपने बच्चो (शागिर्दों) को सिखाया। अब नई पीढ़ी की जिम्मेदारी र्है कि अब वो इसे कैसे सहेज कर रखेंगी।


0आज आपके परिवार से कोई फिल्मों में जाए तो क्या आप इससे सहमत होंगे?

00 संगीत में रहकर 50 तरह के काम हो सकते हैं। एक ही तरह का काम तो कभी होता नहीं। कोई तय करता है कि गुरू बन जाएं, किसी ने सिखाना शुरू कर दिया। कोई प्रचार करता तो कोई म्यूजिकोलाजिस्ट बन जाता है। म्यूजिक में रहकर दूसरे विभाग में चले जाता है इसमें कोई हर्ज नहीं है। संगीत की खिदमत तो हजार तरीके से की जा सकती है। इसलिए इसमें सहमत-असहमत होने का सवाल नहीं है।


0आपके परिवार से फिल्मों में बड़े गायक खान मस्ताना हुए हैं। उनका आखिरी वक्त हाजी अली दरगाह में भीख मांगते हुए गुजरा। ऐसे हालात पर आपका क्या नजरिया है?


उस्ताद हफ़ीज़ खां उर्फ़
एच खान मस्ताना 
00 मेरे वालिद के सगे बड़े भाई उस्ताद हफीज खान थे। वे 40-50 के दौर में एच खान मस्ताना के नाम से फिल्मों के बड़े गायकों में से एक थे। एक दौर ऐसा भी था, जब वो मुख्य गायक थे और कोरस में मुहम्मद रफी गा रहे थे। फिर एक दौर ऐसा भी आया कि उन्होंने रफी साहब के साथ कई गीत भी गाए जिनमें वतन की राह में वतन के नौजवां शहीद हो (शहीद) गीत आज भी सुनाई देता है। उनके कुछ लोकप्रिय गीतों में दूर हटो ऐ दुनिया वालों (किस्मत), जिंदगी है प्यार से (सिकंदर), हम अपने दर्द का किस्सा (मुकाबला) और बुलबुल मेें हैं नग्मे तेरे (लैला मजनूं) शामिल हैं। उन्होंने कुछ फिल्मों में अभिनय भी किया था। वो अपने जमाने में बहुत बड़े गायक थे। कई बार आपने देखा होगा बहुतों के साथ ऐसा होता है कि उनका आखिरी वक्त बड़ी मुश्किल में कटता है, तो ऐसा उनके साथ भी हुआ ये कोई बड़ी बात नहीं है। जिंदगी में ऐसा होते रहता है।


0आपने तीन साल की उम्र से संगीत में शुरूआत की और आज 60 बसंत देख चुके हैं। अब तक का कुल जमा हासिल क्या रहा? क्या मंजिल मिल गई?
00 देखिए, किसी भी फन या कला को किसी दायरे में नहीं बांधा जा सकता बल्कि अनलिमिटेड है। तीन साल की उम्र में जब मुझे मेरे वालिद उस्ताद अजीज खान ने छोटा सा सितार हाथ में थमाया तो वो एक शुरूआत थी, तब से आज तक बस सफर जारी है। मेरा यह मानना है कि यहां आपकी कोई मंजिल तो होती ही नहीं होती सिर्फ रास्ता होता है, जिसमें चलते जाना है। आप जितना चलते जाओगे उतना ही आगे जाओगे। अगर मुझे रुकना होता तो मैं माप लेता कि मुझे कहा रुकना है और कहां तक पहुंच गया हूं। इसलिए मेरी जिंदगी का कुल जमा अमल इस शेर की तरह है कि ''हमने जाकर देख लिया है रहगुजर (रास्ते) के आगे भी, रहगुजर ही रहगुजर है रहगुजर के आगे भी।''

टिप्पणी-इस बातचीत के दौरान उस्ताद अजीज खान के फिल्मी सफर पर उस्ताद शाहिद परवेज के बताए तथ्यों से असहमति थी। खास कर उन्होंने हीर-रांझा फिल्म में उन्होंने खय्याम साहब के साथ उनके पिता के संगीत की बात कही थी। हालांकि तथ्य कुछ और हैं। 
वेबसाइट में मौजूद जानकारियों के मुताबिक 1948 की फिल्म हीर-रांझा के तीन संगीतकार थे। अजीज हिंदी (उस्ताद अजीज खान) इस फिल्म के पहले संगीतकार थे और उनके बाद कुछ गीतों को शर्माजी-वर्माजी (खय्याम-रहमान वर्मा) ने संगीतबद्ध किया था। इसी तरह बहुत खोजने के बाद भी मुझे ऐसा कोई संदर्भ नहीं मिला, जिसमें अजीज खान -खय्याम की जोड़ी का मिलकर रामू एंड श्यामू के नाम से संगीत देने का जिक्र हो। इसी तरह एक वेबसाइट पर ही जानकारी मिली कि उस्ताद शाहिद परवेज के बड़े अब्बा और अपने जमाने के लोकप्रिय गायक खान मस्ताना की मौत 1972 में हाजी अली दरगाह के रास्ते में भिखारियों की टोली के बीच हुई थी। सुधि पाठक अगर इस पर कुछ और रौशनी डालना चाहें तो स्वागत है।
© mzhbhilai 16119

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