Thursday, January 6, 2022

 भिलाई हादसे पर इंसानी रिश्तों को बयां करती

 36 साल पुरानी डायरी मिली कोलकाता में

 

-একটি দুর্যোগ-ঝটিকার করুন কাহিনী-

-एक दुर्योग-आहत कर देने वाली कहानी-


भिलाई में 1986 में हुए कोक ओवन ब्लास्ट हादसे के दौरान एक परिवार 

की वेदना दर्ज की पड़ोसी ने, बसु परिवार खोज रहा अपने पुराने पड़ोसी को 

 

(मुहम्मद जाकिर हुसैन) 

डायरी का अंश और स्व.बीना रानी बोस मजमुदार
भिलाई स्टील प्लांट के लिए 6 जनवरी 1986 का दिन ऐसा पहला बड़ा हादसा लेकर आया था जिसमें 9 कर्मवीरों की जान चली गई थी, वहीं 48 कर्मचारी घायल हुए थे। 

इस हादसे के जख्म आज 36 साल बाद भी प्रभावित परिवारों के लिए हरे ही हैं। इस बीच कोलकाता में इस हादसे पर 36 साल पुरानी एक दुर्लभ डायरी मिली है।

वर्ष 1985-86 में सेक्टर-6 एमजीएम स्कूल के पास स्ट्रीट-74 क्वार्टर नंबर 6 ए में निवासरत तपन कुमार बोस मजुमदार भिलाई स्टील प्लांट के एनर्जी मैनेजमेंट विभाग (ईएमडी) में पदस्थ थे। 

उनकी वयोवृद्ध मां बीना रानी बोस मजमुदार की लिखी इस डायरी में একটি দুর্যোগ ঝটিকার করুন কাহিনী (एक्टि दुर्जोग झोटिकार कोरुण कहिनी) यानि ''एक दुर्योग, आहत कर देने वाली कहानी'' शीर्षक से अपने आवास के ठीक सामने रहने वाले ईएमडी के कर्मी एम. शंकर राव परिवार के साथ संबंधों और 6 जनवरी 1986 के हादसे व उसके बाद के घटनाक्रम को बेहद संवेदनशीलता के साथ उकेरा है।

डॉ. सुस्मिता
लेखिका बीना रानी तो अब इस दुनिया में नहीं है लेकिन उनकी पौत्री और कोलकाता विश्वविद्यालय में इतिहास की प्रोफेसर डा. सुस्मिता बसु मजुमदार को जब घर के पुराने सामान में यह डायरी हाथ लगी तो उन्हें लगा कि किसी हादसे का ऐसा मर्मांतक ब्यौरा दुनिया,खासकर भिलाई और छत्तीसगढ़ के वासियों के सामने जरूर आना चाहिए।

 डॉ. सुस्मिता ने अपनी दादी की इस डायरी में लिखी मूल बांग्ला इबारत को पढ़ते हुए हिंदी अनुवाद का आडियो मुझे भेजा था। जिसे मैनें अक्षरों में ढाल कर आप लोगों के समक्ष रखने की कोशिश की है। इस डायरी का हिंदी अनुवाद आंशिक संशोधन के साथ यहां है। इस पूरी स्टोरी के लिए कैरिकेचर प्रख्यात कार्टूनिस्ट बीवी पांडुरंगा राव का बनाया हुआ है।  


सन्नाटे से भरी सुबह, जब एक ट्रक रुका हमारे घर के सामने 

वह सन्नाटे से भरी एक सुबह थी, जब एक ट्रक आकर हमारे घर के सामने रुका। देखते ही देखते घर के सामने ढेर सारी भीड़ इकट्‌ठा हो गई। 

ट्रक से चंदू के पिता एम. शंकर राव का शव उतारा गया। उनके घर में बगीचे के सामने स्लैब जैसा बना था उस पर शव रखा गया। एम. शंकर राव का निधन हम सब के लिए यह बहुत ही ह्रदयविदारक घटना थी। 

उनके दो बेटे थे 3-4 साल का चंदू यानि एम. चंद्रशेखर और उसका बड़ा भाई 10 साल का राजा यानि एम. राजशेखर। तेलुगू भाषी राव परिवार बहुत ही खुशहाल और सुखी दंपति थे। चंदू नर्सरी जाने लगा है वहीं राजा 5 वीं पढ़ता है। 

हमारे घर के ठीक सामने का उनका घर है। एक सुदर्शन व्यक्तित्व और हंसता-खेलता परिवार चंदू के पापा एम. शंकर राव की उम्र 29 साल थी वो बहुत ही सुदर्शन व्यक्तित्व वाले पुरुष और बहुत ख्यातिलब्ध थे। 

 

सलीकेदार रहन-सहन और बेहद विनम्र व्यवहार

हमारी पूरी स्ट्रीट में शंकर राव बेहद जानदार शख्सियत थे, हमेशा लोगों की मदद को तत्पर रहते थे। वह बहुत ही अच्छे इंसान थे। उनकी पत्नी का नाम एम. उमा राव था।

 शंकर राव को देखते हुए कोई भी यह कह सकता था कि वो बेहद संस्कारी व्यक्ति थे। उनके घर की सादगी से भरी साज-सज्जा और फर्नीचर को देखकर कोई भी कह सकता है कि कितना सलीकेदार रहन-सहन था उनका। वैसे उनका व्यवहार भी बेहद विनम्र था।

 उनकी पत्नी उमा भी बेहद शांत, शिष्टाचारी और गौरवर्णी थी। वह बहुत ही मीठा बोलती थी। उस वक्त हम स्ट्रीट-74 के 6 ए में नए आए हुए थे और हमारी सबसे ज्यादा करीबी ठीक सामने रहने वाले एम. शंकर राव परिवार के साथ हो गई थी। बेहद संस्कारी परिवार था उनका  और उमा से तो हम सास-बहू का बहुत अच्छा संबंध हो गया था। वो कुछ भी पकाती तो हमारे घर में जरूर देती। हम सब को बहुत ही प्यार करती थी। खास कर मेरी पौत्री मामोन (सुस्मिता) को बहुत पसंद करती थी। 

जब भी किसी चीज की जरूरत होती तो मुझे बुला कर ले जाती। उमा मुझे अम्मा कहती थी। हम लोग बहुत ही करीबी थे। उनका बड़ा बेटा राजा तो बेहद सलीकेदार था जब भी नजर पड़ती तो हमेशा नमस्ते करता था। अपने बच्चों को बहुत ही अच्छे संस्कार मां-बाप ने दिए थे। कहते हैं ना अगर पिता-माता अच्छे हो तो बच्चे भी उतने ही अच्छे और संस्कारी होते हैं। इतना सुखी परिवार कई बार देखने को नहीं मिलता है।

 

 हम टीवी देखने गए तो उमा ने सर्कस जाना त्याग दिया 

एक दिन ऐसा हुआ कि हमारे यहां का टेलीविजन खराब हो गया और उस दिन रविवार शाम को फिल्म का प्रसारण होता था। मेरी बहू का नाम भी उमा है। चंदू की मां का नाम भी उमा है। मेरी बहू उमा ने कहा कि मूवी देखने चंदू के घर चलते हैं।

 हम सकुचाते हुए उनके घर गए। उनके ड्राइंग रूम में कलर टीवी था। चंदू की मां ने देखा तो खुश हो गई और खूब आव-भगत की। हम बैठकर मूवी देखने लगे तो थोड़ी ही देर में चंदू के पापा आए और चंदू और राजा को लेकर सर्कस देखने गए। 

लगा कि शायद हमारे बैठने की वजह से बाहर तो नहीं जा रहे हैं। मैनें अपनी बहू उमा से पूछा कि हमारी वजह से चंदू की मां जा नहीं पाई? पर चंदू की मां उमा ने हमें इसका एहसास नहीं होने दिया बिल्कुल भी। लेकिन हम लोग स्थिति को भांप गए थे कि हमारी वजह से चंदू की मां सर्कस देखने नहीं जा पाई। हमेशा की तरह वह बहुत ही अच्छे से पेश आई। वह बेहद गुणी थी। वह अक्सर सिलाई-कढ़ाई करते भी दिखती थी। वह सलमा सितारा लगाकर बहुत अच्छा एम्ब्रायडरी कर सकती थी।

 टीवी पर मूवी देखने के बाद मैनें आग्रह किया कि सलाई-कढ़ाई देखना चाहती हूं तो उन्होंने अपना पूरा काम दिखाया। वो खाना बहुत अच्छा बनाती थी। आज वो सर्कस जाने वाला और एम्ब्राइडरी दिखाने वाला दिन बहुत याद आ रहा है। 

 

वीणा वादिका थी उमा, हमारे साथ जाती थी बाजार 

राव परिवार दक्षिण भारतीय संगीत परंपरा में ढला हुआ था। उमा बहुत अच्छा वीणा वादन करती थीं। उनके घर में एक खुबसूरत सी विचित्र वीणा थी। एक दिन मुझे लगा कि चंदू की मां का वीणा वादन सुनूंगी।

 अक्सर चंदू की मां हमारे घर आती थी। तेलुगूभाषी होने के बावजूद उनकी हिंदी बहुत अच्छी थी। उनकी डायनिंग टेबल पर एक बहुत ही खुबसूरत एक्वेरियम था। एक दिन चंदू की मां उमा ने आकर बताया कि उनके ससुर आ रहे हैं। उनके चेहरे पर बेहद खुशी झलक रही थी। 

सेक्टर-4 का बोरिया बाजार (1986)
उमा ने बताया कि उनके ससुर की तबीयत बहुत ज्यादा खराब है, इसलिए चंदू के पापा हैदराबाद जाकर ला रहे हैं। उनका टेलीग्राम आया है कि कल ही आ रहे हैं। 

इसके बाद हम सास-बहू सेक्टर-4 के बोरिया बाजार जा रहे थे तो चंदू की मां उमा भी सामान खरीदने एक बैग लेकर हमारे साथ हो ली। उसने बहुत सी सब्जियां और फल खरीदे। परिवार में खुशियां ही खुशियां आ गई थी दादाजी के आने से। अगले ही दिन उनके ससुर आए, वह काफी वृद्ध लंबे से गोरे सुपुरुष  थे। 

उनको देखकर लग रहा है कि बेहद संस्कारी परिवार का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह शायद अक्टूबर-1985 की बात है। चंदू के दादाजी के आने से यह परिवार और भी सुखी दिखने लगा। उनके घर का माहौल जैसे और खुशनुमा हो गया है। 

दादाजी बोले आज खाना मत बनाओ तो वो सब मिल कर बाहर होटल में डिनर के लिए गए। जब वो जा रहे थे तो उनके परिवार को देखकर बहुत अच्छा लग रहा था। चंदू के दादाजी यहां की ठंड की वजह से भिलाई में ज्यादा दिन रह नहीं पाए। 

 

 भिलाई की ठंड सहन नहीं हुई तो हैदराबाद चले गए थे दादाजी 

शायद उनके दो बेटे थे और शंकर राव छोटे बेटे थे। वो यहां 15-20 दिन रुक कर बड़े बेटे के पास चले गए कि भिलाई की ठंड उन्हें सूट नहीं कर रही थी। तब कौन बता सकता था कि इतना सुखी परिवार जिसमें दादा-पिताजी-बच्चे इतना हंस बोल रहे हैं, यह पल उनकी दुनिया में लौट कर फिर कभी नहीं आएगा? 

कौन जानता था कि नियति का ऐसा परिहास होगा। चंदू के दादाजी के दो बेटे थे। बड़ा बेटा हैदराबाद में रहता था। हैदराबाद में उनका परिवार आर्थिक तौर पर बहुत ही सुदृढ़ था। एम. शंकर राव को भिलाई स्टील प्लांट ज्वाइन किए हुए महज 5-6 साल ही हुए थे। 

 

भाई-भाभी के आने की तैयारी में बनाया था केक 

ये छोटा सा परिवार इतना सुखी परिवार था कि इसे बयां नहीं कर सकते कि अचानक से काले बादलों की तरह विपदा इस परिवार पर आ पड़ेगी। दिसंबर-1985 की बात है, जब चंदू की मां अपने हाथ से बनाया हुआ केक लेकर आई और मुझसे बोली-देखिए मेरा केक कितना अच्छा बना है। बहुत दिनों के बाद भैया-भाभी आ रहे हैं। उनके लिए तैयारी कर रही हूं।

 उमा के चेहरे का भाव देख कर हम सब को बेहद खुशी हो रही थी। वो लोग भी बहुत खुश थे। फिर उमा के भाई-भाभी आए तो वो लोग साथ में अक्सर आते-जाते थे। 

 

...और आ गई वो मनहूस घड़ी, घनघना उठा फोन

ये संसार बिल्कुल अनिश्चित है रेत की तरह है कभी भी यह संसार ढह सकता है। इतना प्यारा घरौंदा नियति ने कैसे तोड़ डाला।

 फिर आई वो मनहूस घड़ी 6 जनवरी भिलाई सुबह 9-10 बजे के बीच हमारे तमिल पड़ोसी के घर फोन आया। उनके घर बेटा-बहू और मां रहते थे। 

खबर थी कि कोक ओवन में बड़ा एक्सीडेंट हो गया है और चंदू के पापा गंभीर रूप से आहत है। हम लोगों को बहुत ज्यादा पता नहीं था कि क्या हो रहा है। हमारे यहां और चंदू के यहां काम करने वाली बाई एक ही थी। उसने बताया तो हम लोग देखे।

 तब पड़ोसी के घर चंदू की मम्मी फोन पर बात कर रही थी और भी बहुत से लोग आ रहे हैं। उसी वक्त प्लांट से दो लोग आकर खबर दिए कि चंदू के पापा को हास्पिटल लेकर गए हैं। 

 

 बुरी तरह डरे हुए थे हम भी


बसु परिवार मैत्रीबाग भिलाई में
इस हादसे से हम सब भी बुरी तरह डरे हुए थे क्योंकि मेरा बेटा तपन कुमार बसु मजुमदार भी ईएमडी में होने की वजह से अक्सर कोक ओवन आते-जाते रहता था। ऐसे में हम भी चिंतित थे कि उस एक्सीडेंट में वह भी तो नहीं हैं। हमने भी फोन करने और पता लगाने की कोशिश की। 

इस बीच चंदू के मामा तुरंत ही हास्पिटल निकल गए। बाद में फोन पर उमा के भाई ने पूरा ब्यौरा बताया कि शंकर राव काफी जल चुके थे। हम सब फोन पर संपर्क कर रहे थे।

 हमें भी कुछ सूझ नहीं रहा था औऱ् बदहवास होकर हम लोग भी तपन की खबर ले रहे थे। हम भी पागलों की तरह बीएसपी के फोन पर संपर्क करने की कोशिश कर रहे थे लेकिन हमारा फोन नहीं लग रहा था।

 उम्मीद पर जी रहे थे हम सब

लगातार फोन करते हुए हमनें बहुत कोशिश की लेकिन कोई खबर नहीं आई। मैनें उस दिन देखा कि अनिश्चतता में जीना कितना कठिन होता है। जब तक तपन नहीं आए, हम लोग भी बेहद परेशान थे। इस बीच हम सभी चंदू की मां को दिलासा दे रहे थे। 

कुछ देर बाद चंदू की मां अस्पताल चली गई। फिर हमें पता चला कि चंदू के पापा ठीक हो जाएंगे। हालांकि चंदू के पिता शंकर राव करीब 10 दिनों तक जूझते रहे। चंदू के पापा को पता नहीं था कि मौत उन्हें यूं ही इस तरह से खींच कर ले जाएगी।

 इस वजह से उन्होंने चंदू की मां को बोला था कि मेरे या तुम्हारे पिता को मत बताना क्योंकि उन्हें पूरा यकीन था कि वो पूरी तरह ठीक हो जाएंगे।

 

 मकर संक्रांति के दिन उमा का चेहरा बयां कर रहा था हालात

आज 14 जनवरी है जिसे बंगालियों में दधि संक्रांति भी कहा जाता है। इस दिन हम उत्सब मनाया करते हैं। तेलुगू संस्कृति में भी इसे खूब अच्छी तरह धूम-धाम से मनाते हैं। 

उधर अस्पताल में भर्ती चंदू के पिता ने मना किया हुआ था कि मेरे व अपने पिता को हादसे के बारे में मत बताना और उनको आने भी मत कहना। बंगालियों की तरह तेलगुओं में मकर संक्रांति वाला दिन बहुत ही महत्वपूर्ण दिन है। बंगालियों की दुर्गा पूजा की तरह तेलुगू परिवार इसे धूमधाम से मनाते हैं। 

तो संक्रांति वाले उस दिन उमा एक थाली में हल्दी कुमकुम पान सुपारी मिठाई डालकर लेकर आई। उस दिन उमा का चेहरा देखकर समझ मेें आ रहा था कि किस तरह से उनका चेहरा करूणा और विषाद से भरा हुआ था। उनका दुख हम सब समझ रहे थे। 

लेकिन फिर भी त्यौहार का दिन था तो जो करना चाहिए वो कर रही थी। बहुत ही अजीब सा माहौल था कि उनके भैया-भाभी आए थे कि उनके साथ यहीं संक्रांति मनाएंगे। कितने सारे सपने देखे होंगे उन्होंने इस त्यौहार के दिन को लेकर। लेकिन भाग्य का कितना बड़ा परिहास है कि बिना बादल के बिजली कड़की और इस परिवार पर गिर गई।

 

 हंसते-खेलते परिवार पर गिर पड़ी बिजली

 15 जनवरी 1986 सुबह सचमुच बिजली गिर पड़ी। हालांकि इसके दो दिन पहले से ही चंदू के पापा की तबीयत काफी बिगड़ गई थी। शंकर राव की बिगड़ती हालत को देखते हुए डाक्टरों ने घर वालों को बता दिया था।

ऐसे में एक दिन पहले ही उमा के पिता और ससुर भिलाई आ गए थे। फिर भी वो शंकर राव को अस्पताल में नहीं देख पाए क्योंकि शंकर राव तब आईसीयू में थे। उन्हें देखने मिला तो शंकर राव का मृत शरीर।

 शंकर राव उन दिनों मौत से लड़ते रहे और लड़ते-लड़ते आखिर चले ही गए। 15 जनवरी की रात को उन्होंने आखिरी सांस ली उसके बाद सुबह उनका शव लाया गया।

 

 गमगीन माहौल में, जब शंकर राव का शव आया

 

सेक्टर-6 में स्ट्रीट-74 का 6ए और सामने का आवास

16 जनवरी की सुबह माहौल बेहद गमगीन था, जब शंकर राव का शव घर लाया गया। चंदू के दादाजी, नानाजी, नानीजी, कई रिश्तेदार और भिलाई स्टील प्लांट के आफिसर-कर्मचारी बहुत से लोग वहां इकट्‌ठा हो गए थे। सुबह 10 बजे एक ट्रक आकर रुका। 

सभी आंसू भरी आंखों से इस घड़ी का इंतजार कर रहे थे। तब तक ढेर सारे लोग वहां जमा हो गए थे। हम लोगों की हिम्मत नहीं हो रही थी कि वहां पास में जाएं। उनका शव एक सफेद कपड़े में लिपटा हुआ था। 

शव को अंदर घर में नहीं ले जाया गया बल्कि वहीं चबूतरे पर रखा गया जो बगीचे में बना था। उनका बड़ा बेटा राजा जो कि सिर्फ 10 साल का था उसे देखने हीं दिया गया। मामून (मेरी पौत्री सुस्मिता) और राजा दोनों अंदर बैठे हुए थे। हम लोगों ने उन्हें ड्राइंग करने दिया था। जिससे उनका ध्यान उस तरफ न जाए और वह बाहर न निकले। 

अबोध बच्चों को क्या मालूम उनका संसार लुट गया उसे क्या पता था कि उसका इतना बड़ा सर्वनाश हो चुका है। छोटे से निष्पाप शिशु को पता नहीं था कि क्या हो गया है। 

 

फूलों की वो शैय्या और हमारी आंखों से ओझल हो गया ट्रक

कुछ ही देर में चंदू को लेकर उसके मामा हमारे घर आए और आकर भीतर से राजा को लेकर बाहर आए। दोनों बच्चों को पिता का पांव छूने बोला गया। उन्हे क्या पता था कि उनका रखवाला नहीं रहेगा। इस तरह से विधि का विधान है। धीरे-धीरे ट्रक हम सब की आंखों से ओझल होता गया। 

शंकर राव को सफेद फूलों के बिछौने पर ले जाया गया। यह बेहद दर्दनाक नजारा था। उनकी यह शैया भी फूल की ही है जिस पर आखिरी बार यात्रा हो रही है। एक वो फूल से सजी सेज थी जिसमें उन दोनों का मधुर मिलाप हुआ था। कितना वेदना दायक है इस शैय्या को देखना। कितना निष्ठुर है यह समय। 

 

राव परिवार की शिद्दत से तलाश है डॉ. सुस्मिता को 

 डॉ. सुस्मिता ने बताया कि भिलाई से कोलकाता आने के बाद राव परिवार से संपर्क नहीं हो पाया। स्व. शंकर राव की जगह उनकी पत्नी एम. उमा राव को सेल के हैदराबाद आफिस में अनुकंपा नियुक्ति मिली थी। इसके बाद हमें ज्यादा जानकारी नहीं मिल पाईं। 

डॉ. सुस्मिता के मुताबिक वह उमा आंटी और उनके दोनों बेटों चंद्रशेखर और राजशेखर का पता लगाने की कोशिश कर रही हैं। अगर राव परिवार फिर से मिल जाता है तो वह अपनी दादी की इस डायरी में लिखे भाव उस परिवार के साथ साझा करना चाहती हैं। 

वहीं भिलाई स्टील प्लांट प्रबंधन से मिली जानकारी के अनुसार एम. उमा राव ने 31 मार्च 2004 को भिलाई स्टील प्लांट के परचेस विभाग से जूनियर असिस्टेंट के पद से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ली थी। तब उनका पूरा पता 7-1-644/32, सुंदर नगर हैदराबाद 500038 दर्ज था। फिलहाल राव परिवार से कोई संपर्क नहीं हो पाया है। 

 

बांग्लादेश से सुकमा और फिर भिलाई, बस्तर जाने

तीन दिन तक बैलगाड़ी का सफर भी तय किया 

डा. रमणीमोहन-बीना रानी

दादी बीना रानी बोस मजमुदार ने सिर्फ एक हादसा या पड़ोसी की संवेदना को ही अपनी डायरी में दर्ज नहीं किया है बल्कि उनकी डायरी में उनके अपनी निजी जीवन से जुड़ी भी कई बातें हैं।

उनकी पौत्री डॉ. सुस्मिता बसु मजुमदार उस डायरी के पन्ने खोलते हुए बताती हैं-इसमें दादी ने बांग्लादेश से बस्तर के सुकमा में आकर बसने की कहानी का रोचक ब्यौरा दिया है, साथ ही यह भी बताया है कि किस तरह वह तीन दिन तक लगातार बैलगाड़ी का सफर तय कर जगदलपुर से सुकमा पहुंची थी। 

डायरी में उन्होंने लिखा है कि किस तरह से एक ''अंजान'' व्यक्ति (विवाहोपरांत) के साथ बांग्लादेश से कोलकाता, कोलकाता से रायपुर, फिर रायपुर से बस से जगदलपुर और जगदलपुर से बैलगाड़ी में तीन दिन में सुकमा का सफर तय किया था। 

डॉ. सुस्मिता बताती हैं-उनके दादा डॉ. रमणीमोहन बोस मजुमदार पेशे से चिकित्सक (सर्जन) थे। अपने विद्यार्थी जीवन में उन्होंने केमेस्ट्री में टॉप किया था, तब उन्हें जर्मनी जाकर अध्यन का मौका मिला था। लेकिन घर की आर्थिक परिस्थिति के चलते वह जर्मनी नहीं पाए। इसके बाद दादाजी ने डाक्टरी की पढ़ाई की और कोलकाता में प्रेक्टिस की। 

दादाजी सोनारपुर शासकीय हास्पिटल में पदस्थ थे। इसी दौरान उनके पास सुकमा (बस्तर) के जमींदार के मुंशी अपना उपचार कराने आया करते थे। मुंशी जी जब ठीक हो गए तो उन्होंने ही सुकमा में आने का प्रस्ताव दिया। इसके बाद दादाजी और दादाजी सुकमा पहुंचे और यहां कई साल तक रहे। इसके बाद पापा जब भिलाई स्टील प्लांट की सेवा से संबद्ध हुए तो परिवार 1961 में भिलाई आ गया। दादी बीना रानी बोस मजुमदार का निधन जनवरी 1992 में भिलाई में हुआ था।

क्या हुआ था 6 जनवरी 1986 को 

 यहां हुआ था भीषण विस्फोट

भिलाई स्टील प्लांट की कोक ओवन बैटरी-6 में 6 जनवरी 1986 की सुबह जोर का विस्फोट हुआ था। 

इस हादसे में कोक ओवन, मेंटनेंस एंड रिपेयर ग्रुप, कंस्ट्रक्शन एंड हैवी मेंटनेंस, सेफ्टी और फायर ब्रिगेड के 48 कर्मी घायल हुए थे। 

वहीं 9 कर्मियों-अफसर की मौत हो गई थी। इन मृतकों में त्रिलोकनाथ गैस सेफ्टी आपरेटर, जवाहर लाल टंडन हवलदारी एनएमआर, आरके दास प्रबंधक कोक ओवंस, तेजू राजभर फिटर, ऊर्जा प्रबंधन विभाग, एम शंकर राव उपप्रबंधक कोक ओवंस, ओपी ठाकुर फिटर एमिल मिंज फिटर और एसके बनर्जी चार्जमैन सभी ऊर्जा प्रबंधन विभाग से और ओपी जांगिड़ उपप्रबंधक कोक ओवंस शामिल हैं।


हरिभूमि भिलाई-दुर्ग संस्करण-6 जनवरी 2022




28 comments:

  1. बहुत ही मार्मिक विवरण। ऐसे इतिहासकारों को सलाम जिन्होंने शब्दो में समय को बांध कर रखा।

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  2. अति मार्मिक और बेहतरीन

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  3. अत्यंत दुखद घटना थी वह
    मैंने भिलाई इस्पात संयंत्र हॉस्पिटल सेक्टर 9hospital jan 1987 में ज्वाइन किया
    मेरे पति के बैच के 1973 बैच के ज्वाइन किए बहुत से सेक्टर 6 B1 टाइप में रहते थे
    अक्सर हम लोग वहां जाते थे

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  4. बड़ा हादसा, अच्छी जानकारी

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  5. Manveeya Riston aur samvednaon ko ujagar karti Hridayaparshi satya ghatana adharit kahabi maine Bachpan me inme se ek vyakti shri Das ka shav dekha tha hamare pichhe street me rahte the bahut ki karun drishya tha wo

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  6. मार्मिक एवम हृदयस्पर्शी चित्रण

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  7. बहुत मार्मिक डायरी लेखन ।
    दिल छू गया।

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  8. बहुत अपनी सी कहानी है ये ,जैसे की अपने बीच की ही घटना है ,बहत ही मार्मिक

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  9. बहुत ही हृदय स्पर्शी घटना। मुझे प्लांट ज्वाइन किए मा दो महीने हुए थे

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  10. सभी कोको ओवन के वीर कर्मियों को सादर नमन एवं भावपूर्ण श्रद्धांजलि

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  11. Very sad story of a BSP Family who lost his member working in BSP due to that Coke Oven Accident! I can remember that Coke Oven accident of 1986 when I was at the starting of my career as an Executive of BSP. Dadi-Jee had depicted the day to day story of her neighboring family of Sector-6 in a very sensitive way. She also told the horrible situation of the victim's house after the deadly accident had occurred. After so many years, I cannot remember the name of Mr. Sankar Rao, but my humble respect for him who lost his valuable life for the process of production of steel in Bhilai. My humble respects also for all victims who had lost their lives in that Coke Oven accident (1986) as well as in some other accidents of Bhilai Plant occurred afterward. - S N Biswas.

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  12. बहुत ही मार्मिक कहानी और चित्रण

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  13. Yes even I remember the accident .My father was in cokeovens,but fortunately he was on leave that day.But the loss of his colleagues made him weak and sad

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  14. बहुत ही हृदय विदारक एवं सारगर्भित आलेख। धन्यवाद

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  15. मानो आंखों देखी है। भिलाई खुद भी वो तारीख़ नहीं भूल सकता है। आपने बहुत अच्छा किया जो इस पोस्ट से रूबरू कराया। आभार 🙏🏻

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