Thursday, December 31, 2020

तब 1930 में शुक्ल परिवार भिलाई में बनाने 
जा रहा था टाटा की तरह निजी स्टील प्लांट


भिलाई में स्टील प्लांट की दमदारी से पैरवी कर 
रविशंकर ने पूरा किया था अपने भांजे का सपना



बूढ़ापारा रायपुर स्थित निवास में रमेशचंद्र शुक्ल के साथ 
भिलाई में स्टील प्लांट लगाने के लिए तत्कालीन सेंट्रल प्राविंस एंड बरार प्रांत के मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल ने जो दृढ़ता दिखाई थी, उसके पीछे एक मजबूत आधार उनके दिवंगत भांजे की एक अध्ययन रिपोर्ट थी। 

दरअसल भिलाई में निजी स्टील प्लांट लगाने की योजना शुक्ल के भांजे बालाप्रसाद तिवारी की थी लेकिन इस भांजे की असमय मौत के चलते योजना पर 1920-30 के दौर में अमल नहीं हो पाया, फिर स्वतंत्र भारत में शुक्ल ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के समक्ष दृढ़ता से भिलाई के दावे को रखा और तब कहीं भिलाई में स्टील प्लांट की स्थापना हो पाई।

31 दिसंबर को रविशंकर शुक्ल की पुण्यतिथि के मौके पर उनके पौत्र रमेशचंद्र शुक्ल ने यह रोचक जानकारी एक मुलाकात के दौरान दी। रविशंकर शुक्ल के बड़े बेटे अंबिकाचरण शुक्ल के सुपुत्र रमेशचंद्र शुक्ल अपने बूढ़ापारा रायपुर स्थित पैतृक निवास में रहते हैं। 

आज भी उनके निवास में स्व. रविशंकर शुक्ल के दौर की कई दुर्लभ निशानी मौजूद है। यहां 12 दिसंबर 2020 की दोपहर मेरी उनसे उनके निवास पर मुलाकात हुई। उनके कमरे में दीवार पर स्व. शुक्ल की बड़ी सी तस्वीर लगी है।

वहीं बीते दौर का रेडियो, रिकार्ड प्लेयर, बेल रिकार्डर से लेकर बाद के दौर के टेप रिकार्ड और वीसीआर भी मौजूद हैं। इन दुर्लभ निशानियों के बीच 85 वर्षीय रमेशचंद्र शुक्ल ने अपने दादा (जिन्हें वह 'बाबा' कहते हैं) पर विस्तार से बातचीत की। इस दौरान उन्होंने जो कुछ कहा, सब उन्हीं के शब्दों में- 


टाटा की रिपोर्ट के आधार पर योजना बनाई थी बालाप्रसाद ने 

एक जुलाई 1956 को भिलाई स्टील प्रोजेक्ट निर्माण स्थल सोंठ गांव में रविशंकर शुक्ल 

तब भिलाई में टाटा के स्तर का विशाल निजी स्टील प्लांट लगाने की तैयारी हमारे परिवार की थी। हमारे बाबा के भांजे बालाप्रसाद तिवारी तब टाटा स्टील में इंजीनियर थे और उनके पास 1888 से 1905 की अवधि में दल्ली राजहरा से रावघाट तक भारतीय भू-सर्वेक्षण विभाग (जीएसआई) व टाटा स्टील द्वारा कराए गए सर्वे की पूरी रिपोर्ट थी। 

तब 1905 तक टाटा स्टील ने यहां स्टील प्लांट इसलिए नहीं लगाया था क्योंकि यहां आसपास पानी का कोई बड़ा बांध जैसा स्त्रोत नहीं था। हालांकि इसके बाद 1920 आते-आते तांदुला बांध बना।

इस दौर में बालाप्रसाद तिवारी टाटा स्टील से छुट्टी लेकर अक्सर रायपुर आते थे। यहां से उन्होंने दल्ली राजहरा तक पूरा सर्वे किया था और भिलाई गांव के आस-पास निजी स्टील प्लांट स्थापित करने रिपोर्ट तैयार की थी।


हो चुकी थी वित्तीय व्यवस्था और दूसरी तैयारी भी 

शुक्ल निवास में पुराना रेडियो और बेल टेप रिकार्डर 

तब तक हमारे बाबा भी देश के राजनीतिक परिदृश्य में स्थापित हो चुके थे। ऐसे में हमारा परिवार इस स्टील प्लांट को लेकर बेहद उत्साहित था। 
सब कुछ टाटा के स्तर का होने जा रहा था। वित्तीय व्यवस्था और दूसरी तैयारी भी हो चुकी थी लेकिन नियति को कुछ और मंजूर था।1930 में बेहद कम उम्र में नौजवान बाला प्रसाद तिवारी की आकस्मिक मृत्यु हो गई।
हमनें अपने पिता अंबिकाचरण शुक्ल से कई बार सुना था कि बाबा अपने सभी बच्चों से भी ज्यादा अपने भांजे बालाप्रसाद को चाहते थे। बालाप्रसाद की शख्सियत बिल्कुल अंग्रेजों जैसी थी। बाबा जहां 6 फीट 1 इंच ऊंचे थे तो उनके भांजे उनसे भी 2 इंच ऊंचे थे। 

भांजे की मौत ने कर दिया था दुखी, मेहता ने निभाई अहम भूमिका 

शुक्ल को भिलाई का ब्ल्यूप्रिंट दिखाते श्रीनाथ मेहता

जब बालाप्रसाद तिवारी की आकस्मिक मौत हुई तो हमारे बाबा इतने ज्यादा दुखी हुए कि उन्होंने अपना सिर दीवार पर दे मारा था। 

बालाप्रसाद तिवारी की वह सर्वे रिपोर्ट यहीं बूढ़ापारा रायपुर के निवास में सुरक्षित थी लेकिन बाद के दौर में हमारे चाचा विद्याचरण शुक्ल के लोगों ने इस रिपोर्ट का महत्व नहीं समझा और उसे रद्दी में फिंकवा दिया।

वैसे इसी रिपोर्ट के आधार पर हमारे बाबा ने अपने विश्वस्त आईसीएस आफिसर श्रीनाथ मेहता से विस्तृत सर्वे करवा कर तीन वाल्यूम में रिपोर्ट तैयार करवाई थी।

जिसके आधार पर उन्होंने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के समक्ष भिलाई के दावे को मजबूती से रखा था। मेहता को उनके इसी उल्लेखनीय कार्य की वजह से भिलाई स्टील प्रोजेक्ट का पहला जनरल मैनेजर बनाया गया।


बाबा ने कहा था-'भिलाई' लेकर लौटूंगा नहीं तो मेरी लाश आएगी

हमारे बाबा मध्य भारत में लगने वाले स्टील प्लांट के लिए भिलाई के दावे को लेकर इस कदर आश्वस्त थे कि उन्होंने इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के सामने भी जिद पकड़ ली। 

सीपी एंड बरार के मुख्यमंत्री बनते ही बाबा ने भिलाई के पक्ष में श्रीनाथ मेहता से नए सिरे से दावा रिपोर्ट तैयार करवाई। इस बीच प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू मध्य भारत का स्टील प्लांट विभिन्न वजहों से कुछ माह टालने की मन:स्थिति में थे। वह दुर्गापुर का काम पहले शुरू करवाना चाहते थे।

तब मध्यभारत में अलग-अलग जगह से स्टील प्लांट लगाने की मांग भी उठ रही थी और कुछ लोग इसे विवादित करवा कर पूरी योजना ही ठंडे बस्ते में डलवाना चाह रहे थे। बाबा को यह सब पता लगा तो अपने सेक्रेट्री श्रीनाथ मेहता बुलाया और रातों-रात टेलीप्रिंटर पर अपने प्लान को फिर से तैयार करवा कर दिल्ली भिजवाया। इसके बाद मेहता को लेकर वह दिल्ली गए। 

जाने से पहले बाबा अपने परिवार और विधायकों के बीच बोलकर गए थे कि-''मैं भिलाई स्टील प्रोजेक्ट मंजूर करवा कर लौटूंगा नहीं तो दिल्ली से मेरी लाश आएगी।'' दिल्ली में वह प्रधानमंत्री से मिले और उन्हें बताया कि-मध्य भारत सबसे पिछड़ा इलाका है और यहां के विकास के लिए सबसे पहले भिलाई गांव के पास ही प्लांट लगना चाहिए। नेहरू उनकी दलीलों से सहमत हुए और इस तरह भिलाई स्टील प्रोजेक्ट को सबसे पहले मंजूरी मिली।

बाबा हमेशा पक्षधर थे माटीपुत्रों के 

भिलाई निर्माण स्थल में शुक्ल, साथ में हैं पुरतेज सिंह

भिलाई स्टील प्रोजेक्ट मंजूर होने के बाद नए मध्यप्रदेश का गठन एक नवंबर 1956 को हुआ तो बाबा इसके पहले मुख्यमंत्री हुए और वे भिलाई के काम को लेकर बेहद उत्साहित थे।
उन्होंने श्रीनाथ मेहता और पुरतेज सिंह समेत अपने सर्वश्रेष्ठ अफसरों को यहां डेप्युटेशन पर पहले ही भेज दिया था। जिससे कि भिलाई का काम पूरी गति से हो।

सीपी एंड बरार के मुख्यमंत्री रहते हुए बाबा 1 जुलाई 1956 को निर्माण कार्य का जायजा लेने भिलाई आए थे। बाबा हमेशा कहते थे कि भिलाई कारखाने में रोजगार का पहला हक मध्यप्रदेश के माटीपुत्रों का है। इसके लिए उन्होंने नियम भी बनवाने की कोशिश की कि 80 प्रतिशत माटीपुत्र और 20 प्रतिशत अन्य राज्य के लोगों को नौकरी मिलेगी।

लेकिन तब के अफसरों की लॉबी ऐसा नियम बनने नहीं देना चाहती थी। वहीं भिलाई में बैठे कुछ अफसर जानबूझ कर स्थानीय लोगों को सरप्लस बताते हुए उनकी छंटनी भी कर देते थे।

इसी बीच 31 दिसंबर 1956 को बाबा का निधन भी हो गया। तब हम लोग सुनते थे कि इसी मुद्दे पर भिलाई स्टील प्रोजेक्ट के पहले जनरल मैनेजर श्रीनाथ मेहता ने इस्तीफा दे दिया था।

श्रीनाथ मेहता एक बहुत ही सुलझे हुए काबिल अफसर थे। मुझे याद है उन्हें कुत्ते पालने का बड़ा शौक था। एक दफा भिलाई में 32 बंगले में उनसे मिलने विद्याचरण शुक्ल के साथ मैं भी गया था। तब उनके बंगले के बरामदे 6-7 कुत्ते घूम रहे थे। 

नौजवानों से भी ज्यादा फुर्तीले थे रविशंकर शुक्ल 

नए मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते हुए शुक्ल

एक बार ऐसा हुआ कि बाबा, हम, हमारे चाचा गिरिजा चरण नागपुर से रायपुर आ रहे थे।

 तब हम नागपुर में लॉ कॉलेज में पढ़ रहे थे। बाबा सुबह ४ बजे से उठ जाते थे और नहा धो कर पूजा व ध्यान के साथ चंदन टीका लगाकर अपनी छड़ी और दुपट्टा लेकर निकलते थे।

तब बाबा मुख्यमंत्री के  तौर पर अमरावती-अकोला का दौरा करके नागपुर आए और हम चाचा- भतीजा को साथ लेकर रायपुर के लिए सड़क से रवाना हुए। मुझे याद है तब  हम लोग रात २ बजे राजनांदगांव पहुंचे।

 वहां बाबा की प्रशासनिक बैठक थी और जनसामान्य से भी उन्हें मिलना था। रास्ते भर बाबा ड्राइवर को टोकते  जा रहे थे कि-तुम हमको देर कराओगे जरा जल्दी चलाओ। हम लोग जब रात को 2 बजे पहुंचे तो रेस्ट हाउस में आराम कुर्सी दिख गई।

हम और हमारे चाचा जवान होने के बावजूद थक के चूर हो चुके थे। इसलिए दोनों आराम कुर्सी में निढाल होकर गिर गए। जबकि दूसरी तरफ हमारे बाबा एकदम तरोताजा दिखाई दे रहे थे।

हम लोगों को झपकी आ रही थी तो उन्होंने ताड़ लिया और पुलिस वालों को बोले कि ये लड़के थोड़ा आराम कर लें। जब तक मैं मीटिंग में हूं, मुझे इतनी सिक्योरिटी की जरूरत नहीं है, तुम इन्हें लेकर आ जाना, मैं अपनी गाड़ी में चलता हूं। इसके बाद बाबा चले गए।

अपने आलोचक के लिए सह्रदयता थी उनके दिल में 

भिलाई में प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के हाथों प्रतिमा अनावरण 28 जनवरी 2002

बाबा जब मुख्यमंत्री थे तो उन दिनों राजनांदगांव में एक बड़े वामपंथी नेता रूइकर हुआ करते थे। रूइकर यहां बंगाल नागपुर कॉटन (बीएनसी) मिल में श्रमिक राजनीति करते थे लेकिन मध्यप्रदेश और पूर्ववर्ती सीपी-बरार की राजनीति में भी उनका अच्छा खासा दखल था।
उनकी राजनीतिक शैली ऐसी थी कि वह हमेशा बाबा को खूब बुरा कहते थे। हर बात पर वह बाबा को कटघरे में खड़ा करते थे। उस रात जब हम लोग राजनांदगांव सर्किट हाउस से बाबा की बैठक की जगह पहुंचे तो वहां मैनें देखा कि रूइकर की पत्नी आई हुई है। वह बाबा से मिली और बेहद दुखी होकर बताया कि उनके पति की राजनीति की वजह से घर में फाके पड़ रहे हैं।

सब कुछ सुन कर बाबा बेहद दुखी हो गए और अपने सेक्रेट्री से बोले लाओ मेरी चेक बुक। तुरंत उन्होंने 5 हजार रूपए का चेक काटकर रूईकर की पत्नी को दिया और बोले-बेटी, तुम घबराओ मत मैं अभी हूं और जरूरत पड़े तो मुझे संपर्क करना। तब हम लोग बड़े हैरान थे कि जो आदमी उनको हमेशा गाली बकता रहता है, उसके परिवार के साथ बाबा इतनी उदारता का व्यवहार कर रहे हैं।

बाबा के आदर्श अनुकरणीय थे। भिलाई की स्थापना में उनका योगदान हमेशा याद किया जाएगा। 28 जनवरी 2002 को तत्कालीन प्रधानमंत्री  अटल बिहारी बाजपेयी ने भिलाई के सेक्टर-9 में बाबा की प्रतिमा का अनावरण किया था। यह बाबा के योगदान को नमन करने का एक स्तुत्य प्रयास था। 

विद्याचरण और मिनीमाता ने भी स्थानीयता की आवाज उठाई

विद्याचरण शुक्ल-मिनी माता

बाबा रविशंकर शुक्ल के निधन के बाद के दिनों में विद्याचरण शुक्ल और मिनीमाता संसद में छत्तीसगढ़ का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, तब इन दोनों सांसदों ने भिलाई सहित तमाम उद्योगों में स्थानीय लोगों की नौकरी सुरक्षित रखने आवाज उठाई थी।

दोनों सांसद भी चाहते थे कि सार्वजनिक उपक्रमों में 80 प्रतिशत भर्ती स्थानीय हो। इसके विपरीत भिलाई मेें तो स्थानीय लोगों की उपेक्षा हो रही रही थी वहीं 1966 में कोरबा में शुरू हुई भारत एल्युमिनियम कंपनी (बाल्को) में तो अफसरों ने मिल कर इस नियम को ही उल्टा कर दिया। वहां 20 प्रतिशत स्थानीय और 80 प्रतिशत अन्य राज्यों से भर्ती होने लगी।

तब मिनीमाता ने इसका पुरजोर विरोध किया था। हालांकि बाल्को में उत्पादन शुरू होने के दौर में मिनीमाता स्थानीय लोगों को नौकरी दिलाने आवाज उठा रही थीं। 

 इसी बीच 1972 में मिनीमाता का एक प्लेन क्रैश में निधन हो गया। बाद के दिनों में मैनें भी रेलवे में स्थानीय भर्ती की मांग को लेकर आंदोलन किया था। हमारा आंदोलन डब्ल्यूआरएस कालोनी में चला था।

हरिभूमि में प्रकाशित मेरी स्टोरी 

 


Wednesday, December 16, 2020

 तनाव से भरे थे वह अढ़ाई घंटे, जब हमनेें 
बंगबंधु मुजीब को सुरक्षित ढाका पहुंचाया


 16 दिसंबर विजय दिवस पर विशेष 


बांग्लादेश निर्माण के बाद बंगबंधु शेख मुजीब को ढाका लेकर 
गई भारतीय टीम में शामिल थे एयरफोर्स जवान वीके मुहम्मद 


वायुसेना के जवान वीके मुहम्मद तब और अब
16 दिसंबर हर भारतीय के लिए गौरव का दिन रहता है, जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की दृढ़ इच्छाशक्ति की बदौलत देश की सेना ने अपने अदम्य साहस का परिचय देते हुए एक नए देश बांग्लादेश के निर्माण में सार्थक भूमिका निभाई। 

16 दिसंबर 1971 को भारत के साथ बुरी तरह हारने के बाद पाकिस्तान की सेना ने अपने 94 हजार पाकिस्तानी सैनिक, छह महिने के राशन और 8 महिने के युद्ध के हिसाब से असलाह व हथियार के साथ आत्मसमर्पण कर दिया था।

 भारत-पाक युद्ध की इस गौरव गाथा की एक कड़ी इस्पात नगरी भिलाई में भी है। कम ही लोग जानते हैं कि बांग्लादेश निर्माण के बाद बंगबंधु शेख मुजीब को सुरक्षित ढाका पहुंचाने में वैशाली नगर भिलाई में निवासरत वायुसेना के जवान वीके मुहम्मद ने एक अहम भूमिका निभाई थी। 

एयरफोर्स से सेवानिवृत्ति के बाद अब स्टील इंडस्ट्री को तरक्की देने में अपनी भूमिका का निर्वहन कर रहे वीके मुहम्मद ने बांग्लादेश युद्ध से जुड़े अपने अनुभव विजय दिवस के मौके पर कुछ इस तरह साझा किए-

1964 में भारतीय वायुसेना में मेरा चयन हुआ और ट्रेनिंग के बाद हेलीकॉप्टर स्क्वाड में ग्राउंड इंजीनियर के तौर पर सेवा की शुरूआत की। इसके बाद 1965 में भारत-पाक युद्ध के दौरान देश सेवा का मौका मिला। फिर 1971 के भारत-पाक का युद्ध तो हम लोगों के लिए बिल्कुल नया अनुभव था। जब दो देशों के युद्ध के बाद तीसरे देश बांग्लादेश का निर्माण हुआ।


94 हजार सैनिकों के साथ दुनिया का सबसे बड़ा आत्मसमर्पण

पाकिस्तानी फौज का आत्मसमर्पण 16 दिसंबर 1971
भारत और पाकिस्तान के बीच 3 दिसंबर 1971 को शुरू हुआ युद्ध 16 दिसंबर 1971 को अपनी परिणति पर पहुंचा। जब फील्ड मार्शल मानेकशॉ ने पाकिस्तानी फौज को हमारी भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण को मजबूर कर दिया। 

पाकिस्तानी जनरल अमीर अब्दुल्लाह खां नियाजी ने 94 हजार पाकिस्तानी सैनिक, छह महिने के राशन और 8 महिने के युद्ध के हिसाब से असलाह व हथियार के साथ भारतीय पक्ष के मेजर जनरल जगजीत सिंह अरोरा के समक्ष आत्ममर्पण कर दिया। यह तब दुनिया का सबसे बड़ा आत्मसर्पण था। 

इस पूरे युद्ध में हम लोग एमआई-4 श्रेणी के 6 हैलीकॉप्टर के साथ आर्मी को सहायता देने संबद्ध किए गए थे। युद्ध के 7 वें दिन हम लोगों को जख्मी और लहूलुहान जवानों को युद्ध क्षेत्र से सुरक्षित क्षेत्र ले जाने का मौका मिला। 

युद्ध के बारे में एक फौजी होने के नाते मुझे यह बात दुखी करती है कि इस युद्ध के दौरान हमारे भारतीय सैनिकों के बलिदान का कोई आंकलन नहीं किया गया। यहां तक कि स्वतंत्र बांग्लादेश ने भी इस तथ्य को स्वीकार नहीं किया। हालांकि इसके बावजूद हम लोग कंधे से कंधा मिलाकर लड़े। ऐसा मौका दोबारा नहीं आया। यह हमारी नियति थी।


लंदन से दिल्ली होते हुए ढाका ले जाया गया बंगबंधु को

ढाका रवाना होने से पहले शेख मुजीब नई दिल्ली में

16 दिसंबर 1971 को हमारी सेना युद्ध जीत चुकी थी और पाकिस्तानी फौज के आत्मसमर्पण के बाद चारों तरफ जीत का माहौल था लेकिन इसके बाद बांग्लादेश निर्माण में भी भारतीय भूमिका का निर्वहन होना था। तब शेख मुजीब पाकिस्तान में लाहौर जेल में बंद थे। 
उनकी जान के संभावित खतरे को देखते हुए उन्हें पाकिस्तान-बांग्लादेश के बजाए किसी तीसरे देश में भेजने की नीति के तहत उन्हें लंदन भेज दिया गया। इधर बांग्लादेश को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिलते ही वहां पहली सरकार के गठन की प्रक्रिया शुरू हुई।

 ऐसे में शेख मुजीब को लंदन से ढाका पहुंचाने की जवाबदारी भारतीय पक्ष थी। मुजीब लंदन से सीधे नई दिल्ली पहुंचे तो हम एयरफोर्स के लोग इस पूरे आपरेशन का एक हिस्सा थे। अब हमें दिल्ली से ढाका तक उन्हें सुरक्षित ले जाना था। 

वह 10 जनवरी 1972 का दिन था, जब ढाका जाने के लिए मुजीब भारतीय विमान में सवार हुए। उनके साथ उनके कुछ साथी थे। सभी आपस में बांग्ला में ही बात कर रहे थे।

 इनके साथ भारतीय पक्ष से भी सेना, गुप्तचर ब्यूरो सहित सुरक्षा में लगे लोग भी शामिल हुए। हमारी जवाबदारी मुजीब के इस विशेष विमान को आसमान में सुरक्षा प्रदान करना था। हम लोग अपने हेलीकॉप्टर में सवार हुए और इसके बाद हमारा सफर शुरू हुआ। करीब 2:30 घंटे लगे हमें ढाका पहुंचने में लेकिन यह पूरा समय बेहद तनाव भरा था। हर पल अनहोनी की आशंका थी।

 हालांकि हम सब सुरक्षित ढाका पहुंचे और वहां के एयरपोर्ट पर तो अद्भुत नजारा था। चारों तरफ हजारों की तादाद में लोग अपने बंगबंधु शेख मुजीब का स्वागत करने खड़े थे।

 हम लोगों ने अपनी ड्यूटी पूरी कर वहां से विदा ली और मुजीब अपने बांग्लादेशी लोगों के बीच बड़ी तेजी से बढ़ते चले जा रहे थे। वह नजारा आज भी मैं नहीं भूल पाया।


शिमला समझौता और बेनजीर 

इस युद्ध के बाद 2 जुलाई 1972 को पाकिस्तानी प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो और भारतीय प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी शिमला समझौते के लिए इकट्ठा हुए। 

उस घटनाक्रम का भी मैं गवाह रहा हूं। तब मेरी पोस्टिंग शिमला में ही थी। मुझे याद है तब 17 वर्षीय बेनजीर भुट्टो शिमला में बड़े आराम से शॉपिंग करते हुए घूम रही थी। ऐसा लग रहा था कि वो किसी पिकनिक पर आई हैं।

शेख मुजीब और उनके परिवार का दुखद अंत

शेख मुजीब अपने परिवार के साथ 
वीके मुहम्मद बताते हैं कि युद्ध के बाद के घटनाक्रम में भी बांग्लादेश के मामलों में भारतीय सेना की भूमिका महत्वपूर्ण रही। बांग्लादेश के राष्ट्रपति शेख मुजीब के खिलाफ उनका विरोधी गुट वहां की सेना के साथ मिल कर साजिशें रच रहा था। 

इसकी सूचना भारत सरकार को थी और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने निजी तौर पर शेख मुजीब को फोन कर चेताया था कि उन्हें उनकी ही सुरक्षा में लगे लोगों से जान का खतरा है।

 लेकिन शेख मुजीब ने हमेशा इस चेतावनी को हल्के में लेते हुए कहा कि ये सब हमारे बच्चे हैं, ऐसा कुछ नहीं करेंगे। इधर भारत सरकार शेख मुजीब की सुरक्षा को लेकर चिंतित थी।

 ऐसे में हम लोगों को हाई अलर्ट पर रखा गया था। हमें भारत सरकार का निर्देश था कि आपात स्थिति में तत्काल ढाका जा कर शेख मुजीब और उनके परिवार को हिंदोस्तान लाना पड़ सकता है। हमारी एयरफोर्स इसके लिए तैयार थी, हम लोगों की छुट्टिया रद्द कर दी गई थीं।

हम अपने तैयारी में थे लेकिन बदकिस्मती से 15 अगस्त 1975 को सुबह 5:30 से 6 बजे के बीच ढाका के राष्ट्रपति भवन में सेना के लोगों ने ही विद्रोहियों के साथ मिल कर राष्ट्रपति शेख मुजीब,उनकी पत्नी औप तीनों बेटों सहित परिवार के कुल 20 लोगों की हत्या कर दी। 

शेख मुजीब की दो बेटियां लंदन में रह रही थीं, इसलिए दोनों बच गईं। इनमें से बड़ी बेटी शेख हसीना आज बांग्लादेश की प्रधानमंत्री है। इस पूरे घटनाक्रम का एक ददर्नाक संयोग यह है कि 1975 में इंदिरा गांधी की चेतावनी को मुजीब हल्के से ले रहे थे और जब ऐसी ही स्थिति 1984 में भारत में बनीं तो इंटेलिजेंस की रिपोर्ट के बावजूद खुद इंदिरा गांधी ने अपने अंगरक्षकों को हटाने से इनकार कर दिया था, जिसके चलते वह भी अपनों की गोली का शिकार हुईं।


इंदिरा गांधी के एयरफोर्स के हेलीकॉप्टर से जाने पर हुआ था हंगामा

प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी हेलीकॉप्टर में
वीके मुहम्मद को वायुसेना की सेवा के दौरान देश-विदेश के कई वीवीआईपी के साथ सफर का अनुभव है। लेकिन इनमें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ के घटनाक्रम आज  भी   नहीं भूल पाए हैं। वह बताते हैं- 1967 में राजस्थान प्रदेश कांग्रेस कमेटी के चुनाव था और इंदिरा जी एयरफोर्स के हेलीकॉप्टर से जयपुर पहुंची। संयोग से इस हेलीकॉप्टर पर मैं तैनात था। इस घटना के बाद संसद से लेकर देश भर में खूब हंगामा हुआ। सवाल उठाए गए कि किसी राजनीतिक दल के कार्यक्रम में प्रधानमंत्री एयरफोर्स की सेवा कैसे ले सकती हैं ? 

विपक्ष की मांग पर जांच भी शुरू हुई लेकिन बाद में प्रधानमंत्री के तौर पर वायुसेना के हेलीकॉप्टर के इस्तेमाल का नियम बन गया। दूसरी बार कुछ ऐसा हुआ कि वड़ोदरा में पोस्टिंग के दौरान मैं परिवार सहित रह रहा था। 

पत्नी के साथ मुहम्मद बड़ोदरा के दिनों में
पारिवारिक कार्यवश केरल जाने के लिए मैनें छुट्टी का आवेदन दिया तो मेरी छुट्टी सीधे बड़ोदरा के कलेक्टर ने कैंसिल कर दी। 

किसी को कुछ समझ नहीं आया कि एयरफोर्स के जवान की छुट्टी कलेक्टर ने कैसे कैंसिल कर दी।

 फिर बाद में मुझे बताया गया कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी बड़ोदरा आ रही हैं और श्रीमती गांधी और मेरी पत्नी का ब्लड ग्रुप एक ही है। पूरे बड़ोदरा में इस ब्लड ग्रुप वाले गिनती के 7 लोग थे और एहतियात के तौर पर हम लोगों को रोका गया था। 

खैर, प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी की ड्यूटी में जब भी मैं रहा, उनके सद्व्यवहार को कभी भूल नहीं पाया। वह हमेशा हेलीकॉप्टर से उतरते वक्त न सिर्फ हाल-चाल पूछती थीं बल्कि भोजन करते वक्त हम लोगों का भी पूरा ख्याल रखती थीं।


दुश्मनों के दो साइबर जेट ध्वस्त कर शहादत पाई थी निर्मलजीत ने

परमवीर चक्र विजेता के सम्मान में जारी डाक टिकट
परमवीर चक्र विजेता शहीद फ्लाइंग ऑफिसर निर्मलजीत सिंह की शहादत को देश आज भी नमन करता है।

 हम एयरफोर्स वाले भी उनकी कुरबानी को भूल नहीं पाए हैं। निर्मलजीत से हम लोगों का बहुत ज्यादा लगाव होने की खास वजह यह थी कि उनके पिता फ्लाइट लेफ्टिनेंट तरलोक सिंघ सेखों हमारे बॉस हुआ करते थे। चंडीगढ़ में पोस्टिंग के दौरान बालक निर्मलजीत अक्सर हम लोगों के साथ बैडमिंटन खेलने आया करते थे।

 फिर 1967 में वह एयरफोर्स से जुड़ गए और 1971 के युद्ध में उन्होंने अपने अदम्य साहस का परिचय देते हुए दुश्मन फौज के दो साइबर जेट विमानों को ध्वस्त कर शहादत पाई थी।

 14 दिसंबर 1971 को उनकी शहादत हुई और भारत सरकार उनके इस अदम्य साहस के लिए उन्हें मरोणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया।


वीके मुहम्मद ने अपने बारे में बताया

केरल में त्रिशूर जिले के कुडंगलूर गांव में मेरा जन्म हुआ। पिता कादर कुंजी मुसलियार (इमाम) थे। खानदान में ज्यादातर लोग इमाम हुए हैं।  पिता ने मुझे बचपन में तालीम देने घर में बिठाया तो अरबी और मलयालम साथ-साथ लिखना पढ़ऩा भी सिखाया। कम उम्र में ही मैनें कुरआन शरीफ हिफ्ज (कंठस्थ) कर लिया था और रमजान के महिने में रात की विशेष नमाज (तरावीह) भी पढ़ाया करता था। 

1965 में मैं वायुसेना से जुड़ा। 17 साल तक वायुसेना में रहने के दौरान मुझे 1965 और 1971 के युद्ध के अलावा राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री और देश-विदेश की कई विशिष्ट हस्तियों को लाने ले जाने और प्राकृतिक आपदाओं के दौरान राहत कार्य में भागीदारी का अवसर मिला। 

1979 में सेना से सेवानिवृत्ति के बाद एक इंजीनियरिंग फर्म से जुड़ गया। उनका भिलाई स्टील प्लांट में एक कंस्ट्रक्शन का काम चलता था। तब भिलाई आना-जाना लगा रहता था। 

ऐसे में 1986 में मुझे भिलाई स्टील प्लांट ने सीधे जुडऩे का प्रस्ताव दिया और तब से भिलाई के विकास में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भूमिका निभा रहा हूं।

 भिलाई मलयाला ग्रंथशाला, श्रीनारायण गुरु समाजम, नृत्यति कला क्षेत्रम व केरला समाजम जैसी शैक्षणिक व सांस्कृतिक संस्थाओं से भी जुड़ा हूं। वहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संचालित संस्था यूनिवर्सल कन्फेडरेशन ऑफ श्री नारायण गुरू का वाइस चेयरमैन हूं।


x

Friday, November 20, 2020

 अनुराग की 'लुडो' में भिलाई, सुपेला, 

धमतरी और सेंट थामस का मैजिक




इस्पात नगरी भिलाई में पले-बढ़े फिल्मकार अनुराग बसु की इस दीपावली रिलीज हुई फिल्म 'लुडो' में कलाकार भले ही मुंबई के हैं लेकिन अलग-अलग किरदार में ढले इन कलाकारों से अनुराग ने भिलाई, सुपेला, धमतरी और सेंट थामस का जिक्र बखूबी करवाया है। 

अनुराग बसु ने पंकज त्रिपाठी, अभिषेक बच्चन, राजकुमार राव और आदित्य राय कपूर सहित ढेर सारे कलाकारों के लेकर बनाई इस फिल्म में अपने शहर और अपने बचपन के परिवेश को शामिल करना नहीं भूले हैं।
अनुराग अपनी पहले की भी तमाम फिल्मों में अपने शहर भिलाई का जिक्र करते रहे हैं। इसे और विस्तारित करते हुए अनुराग ने 'लुडो' में अलग-अलग दृश्यों में भिलाई और छत्तीसगढ़ को याद किया है। 

12 नवंबर 2020 को ओटीटी प्लेटफार्म पर रिलीज के बाद से दर्शकों की प्रशंसा बटोर रही 'लुडो' में स्थानीयता वाले संवाद की वजह से भिलाई और छत्तीसगढ़ के दर्शक भावनात्मक रूप से जुड़ रहे हैं।

 ज्यादातर युवा दर्शक ऐसे दृश्यों के स्क्रीन शॉट सोशल मीडिया पर वायरल कर रहे हैं, जिन दृश्यों में भिलाई-छत्तीसगढ़ का उल्लेख है। फेसबुक, इंस्टाग्राम से लेकर ट्विटर तक में ऐसे दृश्य घूम रहे हैं जिसमें किरदार स्थानीय क्षेत्रों का उल्लेख करते हैं।

अनुराग बसु ने इस फिल्म में 4 अलग-अलग कहानियों को एक कड़ी में पिरोते हुए पेश किया है। इनके अलग-अलग दृश्यों में अनुराग ने भिलाई से जुड़े संवाद बुलवाए हैं। एक दृश्य में सत्तु भाई का किरदार निभा रहे पंकज त्रिपाठी पूछते हैं कि धमतरी से भिलाई वाले रोड में गए थे क्या मैडम के साथ?

एक दृश्य में पति अपनी पत्नी के सामने स्वीकारोक्ति करते हुए सुपेला चौक में रहने वाली महिला शांभवी का जिक्र कर रहा है तो एक अन्य दृश्य में नायक पूछ रहा है कि भिलाई की रहने वाले हो? वहीं एक अन्य दृश्य में जेल से लौट चुके अभिषेक बच्चन को पत्नी बता रही है कि बेटी बड़ी हो गई है और सेंट थामस में एडमिशन करवा दिया है। 

अनुराग बसु ने 'लुडो' में एक किरदार से संवाद बुलवाया है कि-कुछ रिश्तों में लॉजिक नहीं होता सिर्फ मैजिक होता है। भिलाई से अपने रिश्ते का कुछ ऐसा ही मैजिक अनुराग ने 'लुडो' में दिखाया है। 

फिल्म को जहां डार्क कॉमेडी के रूप में लोग पसंद कर रहे हैं वहीं इसमें तीखा राजनीतिक व्यंग्य भी शामिल है। जिसके स्क्रीन शॉट सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हैं। खास तौर पर 'नेशन वांट्स टू नो' वाला दृश्य।
अनुराग ने 'लुडो' की कहानी चार रंगों की गोटी को प्रतीक बना कर पेश की है। जिसमें प्यार और गुस्से की प्रतीक लाल रंग की गोटी अभिषेक बच्चन की, शांति,खुशी और धूप की प्रतीक पीली गोटी आदित्य रॉय कपूर की, आशावाद और पवित्रता की प्रतीक नीले रंग की गोटी रोहित सराफ और पियरले माने की और अप्रत्याशित घटना की प्रतीक हरे रंग की गोटी राजकुमार राव की कहानी है। 

वहीं पंकज त्रिपाठी पूरी कहानी को आगे बढ़ाने वाला पासा हैं। वहीं अनुराग ने 60 के दशक की भगवान दादा की फ़िल्म 'अलबेला' के 'किस्मत की हवा कभी गरम कभी नरम' गाने का भी फिल्म में बेहतरीन इस्तेमाल किया है।

लुडो में शामिल संवाद ...


अनुराग बसु ने अपनी फिल्म 'लुडो' के जिन दृश्यों में स्थानीयता का समावेश किया है, उन्हें खूब पसंद किया जा रहा है। फिल्म में कुछ प्रमुख संवाद इस तरह से हैं-

1. ''एक बात बताओ भिलाई धमतरी की तरफ गए थे क्या मैडम को लेकर? हां सर, गया था... बस-बस उधर का ही होटल है।''
2. ''उससे जाकर मिल लेना, वहां रहती है सुपेला चौक पर, महिला एवं समाज कल्याण चलाती है।''

3. ''आप यहां.? आप तो भिलाई से हैं..? वो मैं यहां पर 6 महीने के लिए एक इंटर्नशिप के लिए आई हूं।''
4. 'यह पुराना सर्टिफिकेट है उसका, लास्ट ईयर सेंट थॉमस में डाल दिया है, जाओ मिल लो जाकर उससे।''


अपने पिता की रंगकर्म शैली को देते रहे हैं आदरांजलि

'लुडो' में यमराज के किरदार में अनुराग बसु


अनुराग बसु की अपनी अलग शैली है। जो उनकी हर फिल्म में नजर आती है। यह शैली उन्हें विरासत में मिली है। जिसे उन्होंने बचपन में अपने पिता स्व. सुब्रत बोस और मां दीपशिखा बोस को नेहरू हाउस सेक्टर-1 में थियेटर करते हुए देखा था।

 इसका सिनेमा में विस्तार करते हुए अनुराग ने फिर एक बार सूत्रधार शैली में 'लुडो' का निर्माण किया है। इस फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाने सूत्रधार के रूप में अनुराग बसु खुद आधुनिक यमराज के रूप में नजर आए हैं। 

इस यमराज के माध्यम से ही कहानी का फ्रेम दर फ्रेम विस्तार होते जाता है। इसके पहले अनुराग ने अपनी फिल्म 'लाइफ इन ए मेट्रो' में भी रंगमंच की इसी सूत्रधार शैली का इस्तेमाल किया था।

 बसु परिवार के रंगकर्म को करीब से जानने वाले इस्पात नगरी के लोग बताते हैं कि स्व. सुब्रत बोस अपने नाटक में कहानी को आगे बढ़ाने सूत्रधार जरूर रखते थे। तब ऐसा किरदार नवलदास मानिकपुरी निभाया करते थे। अब अनुराग बसु उसी शैली को सिनेमाई रंग देते हुए नए ढंग से प्रस्तुत कर रहे हैं।

पत्रकारिता के स्टूडेंट की अनुराग बसु से

यादगार मुलाकात और 'लुडो' में सेंट थॉमस


आमदी नगर हुडको में अनुराग बसु के साथ पत्रकारिता के स्टूडेंट (18 सितंबर-2017)


अनुराग बसु की फिल्म 'लुडो' में भिलाई, सुपेला व धमतरी के डायलॉग तो हैं ही साथ में एक डॉयलाॅग में सेंट थॉमस काॅलेज का भी जिक्र है। यह डॉयलाॅग थोड़ा चौंकाता भी है।
हालांकि खुद मेरे लिए और हमारे सेंट थॉमस कॉलेज रुआबांधा पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के स्टूडेंट के लिए यह वाकई में सरप्राइज जैसा ही है। इसके पहले भिलाई सेक्टर-2 के मानसिक नि:शक्त विद्यालय 'मुस्कान' के नाम को लेते हुए दादा (अनुराग बसु) ने 2013 में अपनी फिल्म 'बरफी' में 'मुस्कान' स्कूल दिखाया था। वैसे सेक्टर-2 के 'मुस्कान' स्कूल से बसु परिवार का आत्मीय नाता भी है। 
ऐसे में दादा ने 'बरफी' का स्टोरी आइडिया भले ही मुंबई के किसी मूक-बधिर स्कूल की किसी बच्ची को देखकर लिया लेकिन जहन में उनका अपना शहर भिलाई तो था ही। लिहाजा वहां 'मुस्कान' था तो अब साल 2020 में उनकी 'लुडो' के एक संवाद  में सेंट थॉमस है।
हालांकि सेंट थामस नाम शामिल करने के पीछे की वास्तविकता हो सकता है कुछ और भी जो जो दादा जानते हों। लेकिन हमारे सेंट थामस कॉलेज परिवार लोगों के लिए खुश होने की वजह तो है ही। यहां पिछले 4 साल से पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग में मैं अतिथि प्राध्यापक के तौर पर संलग्न हूं। 
किस्सा मुख्तसर यह है कि बसु साल 2017 में भिलाई आए थे रूंगटा इंजीनियरिंग कॉलेज में टेडेक्स टॉक में हिस्सा लेने। तब मैनें उनसे अपने सेंट थॉमस कॉलेज चल कर पत्रकारिता के स्टूडेंट को मार्गदर्शन देने का आग्रह किया था।
हालांकि इसमें कुछ दिक्कतें भी आईं। तब दादा के पास रविवार 17 सितंबर का दिन था, जिसमें उन्हें अपने दोस्त की फैक्ट्री में विश्वकर्मा पूजा में शामिल होना था। 
वहीं रविवार होने की वजह से कॉलेज में भी छुट्टी थी। अंतत: सोमवार 18 सितंबर सुबह-सुबह तय यह हुआ कि कुछ चुनिंदा स्टूडेंट को लेकर मैं हुडको स्थित उनके बड़े पिताजी के घर 11:30 बजे तक पहुंच जाऊं। वहीं मुलाकात और बात कर लेंगे।
इसके बाद मैनें तीनों साल के स्टूडेंट में से कुछ को बुलाया और हम सब जा पहुंचे हुडको। यहां करीब घंटे भर तक दादा ने अनौपचारिक बातचीत की। इसी के साथ एक बात और जहन में आ रही है, दादा ने 'लुडो' में कुछ संवाद के माध्यम से आज के मीडिया पर जबरदस्त कटाक्ष किया है। सोशल मीडिया पर एक वर्ग मीडिया से जुड़े डॉयलॉग को अनुराग कश्यप का लिखा हुआ बताकर मजे ले रहा है। जबकि हकीकत में ऐसा नहीं है। 

ऐसा इसलिए क्योंकि 18 सितंबर 2017 को जब हम लोग दादा के साथ बैठे तो तब भी उन्होंने मीडिया को लेकर कुछ ऐसी ही टिप्पणी की थी, जो अब संवाद के तौर पर 'लुडो' में शामिल हैं। खासकर एक बहुचर्चित संवाद- ''जब सरकार नहीं कहना चाहती तो हम मीडिया से कहलवा लेती है...नेशन वांट्स टू नो..''
खैर, तब पत्रकारिता के स्टूडेंट से दादा ने मीडिया के स्वरूप को लेकर दादा ने काफी कुछ कहा था। मैं दावा तो नहीं करता लेकिन मुमकिन है, तब बातचीत करते दादा के मन में कहीं सेंट थॉमस कॉलेज का नाम घर कर गया होगा और उन्होंने इसे अपनी फिल्म 'लुडो' में इस्तेमाल कर हम लोगों को खुशी मनाने का मौका दे दिया।
 इस यादगार मुलाकात के दौरान मेरे साथ पत्रकारिता के स्टूडेंट में अमिताभ शर्मा, रोमन तिवारी, सबा खान, साक्षी सैनिक, विनायक सिंह, अभिषेक यादव, कृष्णा दुबे, चंद्रकिशोर और अमित खरे थे। 
हम सबके लिए तब दादा के साथ घंटे भर बैठना यादगार पल रहा और अब 'लुडो' में सेंट थॉमस का जिक्र तो हम सब के लिए एक सरप्राइज है ही। इसलिए शुक्रिया दादा, इस सरप्राइज के लिए...

हरिभूमि में प्रकाशित स्टोरी

 

Tuesday, September 15, 2020

नेहरू की सौगात हरा-भरा भिलाई 



छत्तीसगढ़ विधानसभा की त्रैमासिक पत्रिका
 'विधायन' में प्रकाशित मेरा आलेख 


 मुहम्मद जाकिर हुसैन 

भिलाई स्टील प्रोजेक्ट के निर्माणाधीन स्थल पर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू 16 दिसंबर 1957

देश की आजादी के बाद सार्वजनिक उपक्रमों की स्थापना में प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का दृष्टिकोण बिल्कुल साफ था। वे औद्योगिक तीर्थों की स्थापना के साथ एक आधुनिक भारत की नींव रख रहे थे, जिसमें देशवासी पूरी दुनिया के साथ कदम से कदम मिला कर चल सकें। 
 अपने इसी नजरिए की वजह से जवाहरलाल नेहरू ने पंचवर्षीय योजना की शुरूआत की। जिसमें पहली पंचवर्षीय योजना 1951 से 1956 में देश के चहुमुखी विकास के लिए औद्योगिक क्रांति का सूत्रपात कर दिया गया था। वार्षिक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 2.1 था और इस प्रथम योजना में 3.6 प्रतिशत की विकास दर हासिल की गई। 
 इसके बाद दूसरी पंचवर्षीय योजना मेें 4800 करोड़ रूपए के प्रावधान के साथ 4.5 फीसदी विकास दर हासिल की गई। इस दूसरी पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत देश के बुनियादी ढांचे को मजबूत बनाने तीन प्रमुख स्टील प्लांट की स्थापना को मंजूरी दी गई। जिसके अंतर्गत तत्कालीन तत्कालीन सोवियत संघ की सहायता से तब के मध्यप्रदेश के छत्तीसगढ़ अंचल में भिलाई, जर्मनी की सहायता से ओडिशा में राउरकेला और इंग्लैंड की सहायता से पश्चिम बंगाल मेेंं दुर्गापुर में फौलाद बनाने के कारखाने लगे। 
 इन तीनों कारखानों की स्थापना में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने बेहद दिलचस्पी दिखाई। इनमें भिलाई स्टील प्रोजेक्ट को लेकर नेहरू कुछ ज्यादा ही भावनात्मक थे क्योंकि यह भारत के अनन्य मित्र सोवियत संघ की सहायता से स्थापित हो रहा था। यह नेहरू की ही दूरंदेशी थी कि उन्होंने भिलाई की स्थापना के साथ एक ऐसे विश्वस्तरीय शहर की परिकल्पना की, जहां सब कुछ नियोजित ढंग से हो। 
इसलिए यहां जो शहर बसा उसमें न सिर्फ नागरिक सुविधाओं का ध्यान रखा गया बल्कि पर्यावरण को लेकर भी पूरी गंभीरता बरती गई। भिलाई स्टील प्लांट के लिए लौह अयस्क खदान के तौर पर दल्ली राजहरा की खदाने आवंटित की गई लेकिन यह जवाहरलाल नेहरू की दूरदृष्टि थी कि उन्होंने भिलाई के भविष्य और पर्यावरण संरक्षण व जैव विविधता का भी पूरा ध्यान रखा। इस वजह से उन्होंने भिलाई का भविष्य सुरक्षित रखने दल्ली राजहरा से 85 किमी दूर रावघाट लौह अयस्क भंडार पूरा का पूरा भिलाई स्टील प्लांट के लिए सुरक्षित करवा दिया था।
 जिससे कि भिलाई के लिए अंधाधुंध खनन के बजाए सुरक्षित ढंग से खनन संभव हो सके। भिलाई टाउनशिप के नियोजन की बात करें तो जवाहरलाल नेहरू के दृष्टिकोण से ही संभव हो पाया कि यहां आवासों-सड़कों व अन्य निर्माण के साथ बड़े पैमाने पर खाली जमीन छोड़ी गई, जहां तब से पौधारोपण शुरू किया गया। नतीजतन आज हम हरा-भरा भिलाई देखते हैं। जवाहरलाल नेहरू की की इस दूरदृष्टि को बाद के दौर में उनके खानदानी व राजनीतिक वारिस रहे भूतपूर्व प्रधानमंत्री द्वय इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने भी भिलाई को ऊंचाईंयां देने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी।

 नेहरू का नजरिया और रविशंकर शुक्ल की सूझबूझ 

 छत्तीसगढ़ विधानसभा की शोध पत्रिका 'विधायन' अंक-19, जुलाई-सितम्बर-2020 

जिस वक्त भिलाई का ब्लूप्रिंट बन रहा था, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने एक विश्व स्तरीय टाउनशिप की अवधारणा रखी थी। उनकी बातों से तत्कालीन मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल भी पूरी तरह सहमत थे। 
 यही वजह है कि जवाहरलाल नेहरू के दृष्टिकोण के अनुरूप रविशंकर शुक्ल ने चुन-चुन ऐसे अफसरों को प्रतिनिुयुक्ति पर भिलाई स्टील प्रोजेक्ट में भेजा, जो एक शहर की बसाहट में अपना श्रेष्ठ योगदान दे सकते थे। इनमें सबसे पहला नाम तत्कालीन मध्यप्रदेश के पुनर्वास आयुक्त श्रीनाथ मेहता (आईसीएस) का आता है। 
मेहता को भिलाई स्टील प्रोजेक्ट का जनरल मैनेजर बनाया गया। उनके साथ ही मध्यप्रदेश के मुख्य अभियंता (जल संसाधन) पुरतेज सिंह को भिलाई का डिप्टी चीफ इंजीनियर बना कर भेजा गया। मेहता ने जहां अपने प्रशासनिक कौशल की वजह से भिलाई में भू-अधिग्रहण, पुनर्वास और राहत के कार्य को अंजाम दिया वहीं पुरतेज सिंह ने अपने तकनीकी कौशल का इस्तेमाल भिलाई के पर्यावरण को बेहतर बनाने में किया।
 पुरतेज सिंह के नेतृत्व में भिलाई स्टील प्रोजेक्ट के लिए शिवनाथ नदी तट पर पहला एनीकट बनाया गया और पहली बार शिवनाथ नदी से ब्लास्ट फर्नेस-1 के निर्माण स्थल तक के लिए पाइप लाइन बिछाई गई। पुरतेज सिंह के नेतृत्व में समूचे टाउनशिप की प्लानिंग में हर सेक्टर में पानी की पाइप लाइन और पानी टंकी की व्यवस्था की गई। 
इसी तरह पूरे शहर से निकलने वाले अपशिष्ट जल के शोधन के लिए कुटेलाभाठा में आक्सीडेशन पॉंड का निर्माण भी पुरतेज सिंह की निगरानी में हुआ। यह समूचे देश का ऐसा पहला आक्सीडेशन पांड था, जिसमें टाउनशिप से निकलने वाले गंदे पानी को प्राकृतिक रूप से बैक्टीरिया डाल कर सूरज की रोशनी के साथ होने वाली रसायनिक क्रिया से साफ किया जाता था। इस आक्सीडेशन पांड से शोधन के उपरांत मिलने वाले पानी का इस्तेमाल खेतों में किया जाता रहा। इसी तरह भिलाई के पर्यावरण को बेहतर बनाए रखने में तत्कालीन मध्यप्रदेश के एक और अफसर सरदार बीरम सिंह का अहम योगदान रहा है। 
वरिष्ठ पत्रकार (स्व.) बसंत कुमार तिवारी उन दिनों के गवाह रहे हैं। उन्होंने इस संदर्भ में विस्तार से कुछ इस तरह बताया था- मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल ने वन विभाग के सरदार बीरम सिंह को जिम्मा दिया था भिलाई में हरियाली लाने का। तब टाउनशिप की योजना बनाते समय तीन प्रमुख सड़कों की परिकल्पना की गई तो इनके नाम तय नहीं थे। एक जुलाई 1956 को मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल भिलाई स्टील प्रोजेक्ट की प्रगति का मुआयना करने आए। 
उन्होंने रायपुर से हम दो-तीन पत्रकारों को भी साथ लिया। उस वक्त सिंगल ट्रैक ही रेलवे पटरी थी। पावर हाउस के पास पटरियों से थोड़ी दूर प्रस्तावित सेक्टर-1 के हिस्से में मुख्यमंत्री शुक्ल ने भूमिपूजन किया। इसके बाद खुद मुख्यमंत्री शुक्ल, हम पत्रकारों और एक-दो अतिथियों (कुल छह लोगों) ने यहां बनने वाली प्रस्तावित सड़क के दोनों ओर तीन-तीन पौधे लगाए। बाद में इसी आधार पर इसे सिक्स ट्री एवेन्यू कहा जाने लगा। 
इसके बाद टाउनशिप के बीच में सेंट्रल एवेन्यू की परिकल्पना की गई और कारखाने से लगे हिस्से की सड़क के दोनों ओर चूंकि तब भी काफी बड़े-बड़े पेड़ थे इसलिए उसे फारेस्ट एवेन्यू का नाम दिया गया। सरदार बीरम सिंह ने समूचे टाउनशिप के साथ सिक्स-ट्री, सेंट्रल और फारेस्ट एवेन्यू की हरा-भरा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। खास तौर पर सिक्स ट्री एवेन्यू में पेड़ लगाते समय इस बात का ध्यान रखा गया कि सामने पटरियों पर दौड़ते कोयले के इंजन का धुआं टाउनशिप में प्रदूषण न फैलाए। 

 भिलाई में कारखाना और टाउनशिप का नियोजन 

प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भिलाई, राउरकेला और दुर्गापुर स्टील प्रोजेक्ट को लेकर इतने ज्यादा उत्साहित थे कि पूरे कार्य की निगरानी सीधे उनके प्रधानमंत्री कार्यालय से होती थी। तब हर शनिवार रात 8:30 बजे का समय प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा सुरक्षित रखा जाता था, जिसमें हॉट लाइन पर खुद जवाहरलाल नेहरू भिलाई, राउरकेला और दुर्गापुर के जनरल मैनेजर से बात करते थे और पूरे कार्य की साप्ताहिक समीक्षा करते थे। इसमें कारखाना निर्माण की समीक्षा तो होती थी, साथ ही टाउनशिप को लेकर भी जवाहरलाल नेहरू अपने जरूरी सुझाव देते थे। उनके सुझाव का ही नतीजा था कि जब कारखाना निर्माण शुरू हुआ तो हर यूनिट में पौधारोपण के लिए पर्याप्त जगह रखी गई और ऐसी ही व्यवस्था टाउनशिप निर्माण के दौरान भी की गई। 
 भिलाई के शुरूआती दौर के वास्तुविद भा. वा. नांदेड़कर को आज भी वह दिन नहीं भूलते जब देश के प्रधानमंत्री के नेतृत्व में भविष्य के भारत की नींव रखी जा रही थी। नांदेड़कर उन दिनों को याद करते हुए बताते हैं- मैंने 19 जून 1957 को भिलाई स्टील प्रोजेक्ट में वास्तुविद के पद से अपनी सेवा की शुरुआत की। तब तक सेक्टर-1,भिलाई हाउस व 32 बंगला के लिए शिवनाथ नदी से पेयजल की व्यवस्था हो चुकी थी। वहीं सेक्टर-10 व भिलाई होटल निर्माणाधीन थे। 
एक निर्जन स्थान पर किस तरह भिलाई टाउनशिप की प्लानिंग की गई यह बेहद रोचक तथ्य है। शुरूआती दौर में एक मिलियन टन प्लांट के मैनपावर को देखते हुए 35 हजार आवासों की जरुरत थी। तब काफी कर्मचारी दुर्ग में रहते थे और इतने मकान दुर्ग में निर्माण करवाना संभव नहीं था। टाउनशिप की जो शुरुआती प्लानिंग राजदान-मोदी आर्किटेक्ट ने तैयार की थी। 
 उसके मुताबिक मरोदा टैंक को आधार मानते हुए दोनों हिस्सों में टाउनशिप का निर्माण होना था। लेकिन बाद में उसे बदल कर मुंबई-हावड़ा रेल लाइन को केंद्र मानते हुए पटरी के दोनों तरफ टाउनशिप की प्लानिंग की गई। संभवत: इसमें प्रधानमंत्री कार्यालय की राय को मानते हुए फैसला लिया गया था। ऐसे में पटरी के एक तरफ समानांतर तीन मुख्य मार्ग (आज के सिक्स ट्री,सेंट्रल व फारेस्ट एवेन्यू) बनाए गए। 
ठीक वैसे ही जैसे शरीर में इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाडिय़ां होती है। सुषुम्ना जो मध्य (सेंट्रल एवेन्यू) में दौड़ती है। इसके एक तरफ कर्मभूमि (कारखाना जाने) फारेस्ट एवेन्यू व दूसरी तरफ हास्पिटल (32 बंगला का पुराना दवाखाना)जाने सिक्स ट्री एवेन्यू बनाई गई। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के सामने तब टाटा स्टील प्लांट की गार्डन सिटी का उदाहरण भी था। ऐसे में केंद्र सरकार के सुझावों को शामिल करते हुए भिलाई को वनाच्छादित शहर के रूप में विकसित करने की परिकल्पना की गई थी। जिसके लिए एक एकड़ में 10 मकानों की प्लानिंग की गई। 
इस तरह हर एक सेक्टर में 3 हजार मकान और एक हजार आवास के पीछे एक प्राथमिक शाला व दो हजार आवास के पीछे एक उच्चतर माध्यमिक शाला का निर्माण किया गया। चूंकि भिलाई के आस-पास कोई अन्य इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं था इसलिए हर सेक्टर में हायर सेकेंडरी स्कूल, मार्केट, हेल्थ सेंटर,स्लाटर हाउस, कम्यूनिटी हाल व अन्य सुविधाएं दी गई। शुरुआती दौर में 32 बंगला के बंगला नं. 32 और सेक्टर-1 के सड़क नं. 4 में हेल्थ सेंटर शुरु किया गया।
 तब आस्था के केंद्र के रूप में सेक्टर-2 और सेक्टर-9 के हनुमान मंदिर ही थे। बाद में सेक्टर-6 की प्लानिंग धार्मिक स्थलों के लिए की गई और वहां सभी धर्मों के अराधना स्थलों को जगह आबंटित की गई। हर एक सेक्टर नागरिक सुविधाओं के मामले में पूर्ण रहे इसका पूरा ध्यान रखा गया, जिसके चलते प्रत्येक सेक्टर मेें स्कूल, अस्पताल व शॉपिंग सेंटर बनाए गए। 
 इसके साथ ही टाउनशिप के ठीक मध्य मेें टाउनशिप के वृहद व्यवसायिक केंद्र की परिकल्पना को मूर्त रूप देते हुए दिल्ली के कनॉट प्लेस की तर्ज पर सिविक सेंटर बनाया गया। टाउनशिप में पहले चरण में एकल या युग्म आवास बनाए गए। फरवरी 1960 में जब सोवियत संघ के नेता निकिता ख्रुश्चेव भिलाई यात्रा पर आए तो उन्होंने लंच के दौरान अनौपचारिक रुप से टाउन प्लानिंग के बारे में बात की। उन्होने अपने समाजवादी नजरिए से मल्टी स्टोरी आवास बनाने का सुझाव दिया जिससे भविष्य के विस्तारीकरण में ज्यादा से ज्यादा लोग टाउनशिप में रह सके।
 उनका यह सुझाव दिल्ली के दखल से कुछ दिन बाद भिलाई मेें अमल में लाया गया और सेक्टर-6 व 7 सहित विभिन्न सेक्टर्स में बहुमंजिला आवास बनाए गए। भिलाई में हरियाली का महत्व आज इसी बात से समझा जा सकता है कि जब 16 दिसंबर 1957 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु पहली बार भिलाई यात्रा पर आए।
 उनके साथ बर्मा के प्रधानमंत्री ऊ-नू भी थे। इन विशिष्टï अतिथियों के सम्मान में भिलाई हाउस मेें सांस्कृतिक कार्यक्रम रखा गया। जिसमें एक बैले की प्रस्तुति हुई। देश की तरक्की दिखाने के लिए प्रस्तुत किए जा रहे इस बैले के मंच पर पाश्र्व में बनाई गई पेंटिंग मेरी थी।
 इसमें मैनें हरियाली के बीच उभरता हुआ कारखाना और टाउनशिप दिखाने की कोशिश की थी। मेरी इस पेंटिंग की अतिथियों सहित तमाम लोगों ने खूब तारीफ की। तब जिस हरियाली की परिकल्पना की गई थी, उसे आज मूर्त रूप में देखकर समझ में आता है कि हमारे देश के नेतृत्वकर्ता कितने दूरअंदेशी थे।

 जवाहरलाल नेहरू का छत्तीसगढ़ और भिलाई दौरा 

 प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का न सिर्फ भिलाई बल्कि समूचे छत्तीसगढ़ से आत्मीय रिश्ता था। भिलाई का निर्माण देश की स्वतंत्रता के उपरांत हुआ लेकिन जवाहरलाल नेहरू का छत्तीसगढ़ अंचल पहले भी आना होता रहा है। दस्तावेजों के मुताबिक 13 अप्रैल 1930 को रायपुर में महाकोशल राजनीतिक परिषद् का आयोजन किया गया था अधिवेशन की अध्यक्षता करने जवाहरलाल नेहरू रायपुर आने वाले थे। 
वे इलाहाबाद से रायपुर के लिए रवाना भी हो गए किंतु इरादतगंज में वे गिरफ्तार कर लिए गए। अंतत: 15 अप्रैल 1936 को उनका प्रथम छत्तीसगढ़ आगमन हुआ। उनका पहला पड़ाव महासमुंद था। उनके स्वागत के लिए रायपुर से रविशंकर शुक्ल, ठाकुर प्यारेलाल सिंह और द्वारिकाप्रसाद मिश्र आदि नेता महासमुंद पहुंचे। 
ठाकुर प्यारेलाल सिंह महाकोशल कांग्रेस कमेटी के मंत्री थे और रविशंकर शुक्ल रायपुर डिस्ट्रिक्ट कौंसिल के अध्यक्ष थे। तब 1935 के अधिनियम के अनुसार चुनाव हो रहे थे। ऐसे में यह जवाहरलाल नेहरू का चुनावी दौरा था। तब रायपुर, दुर्ग और बिलासपुर से काग्रेस के उम्मीदवार मैदान में थे। 15 अप्रैल को रायपुर पहुंच कर जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रीय विद्यालय में डिस्ट्रिक्ट कौंसिल द्वारा आयोजित सप्तम वार्षिक अधिवेशन को संबोधित किया था।
 रायपुर में तब उन्होंने लारी स्कूल (सप्रे शाला) मैदान में 'आजादी का आर्थिक आधार' विषय पर आयोजित सभा को भी संबोधित किया था। इसके बाद स्वतंत्र भारत में जवाहरलाल नेहरू 1951 के आम चुनाव में प्रचार के लिए छत्तीसगढ़ अंचल पहुंचे थे। यहां उन्होंने 8 दिसंबर 1951 को रायपुर कटोरातालाब के विशाल मैदान में चुनावी सभा को सम्बोधित किया था। फिर प्रथम आम चुनाव के बाद 8 मार्च 1954 को उनका रायपुर आगमन हुआ था। यहां से वे बस्तर प्रवास पर गए थे।

ऐसे पड़ी भिलाई परियोजना की नींव 

 यह वह दौर था,जब भिलाई परियोजना अपने गर्भ में थी। तब भिलाई परियोजना के जन्म की पृष्ठभूमि भी बेहद रोचक है। दरअसल स्वाधीनता के बाद प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सार्वजनिक क्षेत्र में एकीकृत इस्पात संयंत्रों की स्थापना की जरूरत को साफ तौर पर महसूस किया। इस दिशा में भारत सरकार ने 'हिन्दुस्तान स्टील लिमिटेड' का 19 जनवरी 1954 में गठन किया। इसके बाद 2 फरवरी, 1955 को सोवियत तकनीक से 10 लाख टन इस्पात उत्पादन की क्षमता वाले इस्पात संयंत्र की स्थापना के लिये पुरोगामी समझौता हुआ। 
यह इस्पात कारखाना कहां लगाया जाये इसको लेकर एकमत राय उभर कर नहीं आ रही थी। भारी कश्मकश और कोशिशों के बाद भिलाई में इस्पात संयंत्र की स्थापना के लिये सहमति हुई। सारे प्रयासों के बाद 14 मार्च 1955 को अंतत: दुर्ग जिले के भिलाई को इस कारखाने के लिये चुना गया और इसके बाद ही निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ हो पाई। 
 मध्य प्रदेश का एक आर्थिक रूप से पिछड़ा आदिवासी अंचल को इसके लिये चुना गया था और यह पिछड़ा अंचल और कोई नहीं आज का औद्योगिक तीर्थ 'भिलाई' है। इस औद्योगिक तीर्थ के अपने इस स्वप्न को साकार होते देखने जवाहर लाल नेहरू भिलाई आते रहे। उनका पहला दौरा 16 दिसम्बर 1957 को हुआ। जब भिलाई स्टील प्रोजेक्ट अपनी निर्माण अवस्था में था। तब उनके साथ बर्मा के प्रधानमंत्री ऊ-नू और किशोरवय के राजीव गांधी भी थी। तब प्रधानमंत्री नेहरू ने सिर्फ कारखाना निर्माण का जायजा नहीं लिया था बल्कि उनकी नजर निर्माणाधीन टाउनशिप में भी थी। टाउनशिप में तब सेक्टर-1,4,9 और 10 तेजी से बन रहे थे।
 वहीं 32 बंगला और भिलाई हाउस में अफसर रह रहे थे। मजदूरों के लिए 4 कैम्प बनाए गए थे। जिसमें से 1 व 2 तो आज भी मौजूद है, वहीं कैम्प-3 बोरिया क्षेत्र में था, जहां बाद में 40 लाख टन परियोजना के तहत प्लेट मिल स्थापित हुई वहीं कैम्प-4 पुरैना क्षेत्र में था। प्रधानमंत्री नेहरू को तब सेक्टर-1 के कुछ बन चुके आवासों को दिखाया गया था। यहां नेहरू काफी देर रुके रहे और इन मकानों के साथ लगाए गए पेड़-पौधों की पहल की उन्होंने तारीफ की।
 इसके बाद उनका अगला दौरा अक्टूबर 1960 के अंतिम सप्ताह में हुआ, तब पूरा का पूरा नेहरू मंत्रिमंडल रायपुर में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अधिवेशन में हिस्सा लेने आया हुआ था। जवाहरलाल नेहरू इस सिलसिले में 28 अक्टूबर से 30 अक्टूबर तक पूरे तीन दिन रायपुर में रुके थे। वहां उन्होंने 30 अक्टूबर को दाऊ कल्याण सिंह (डी.के.) सरकारी अस्पताल के नए भवन का उद्घाटन भी किया था। लेकिन रायपुर दौरे से पहले 27 अक्टूबर को प्रधानमंत्री नेहरू दिन भर भिलाई में रहे। 
उन्होंने यहां नवनिर्मित रेल एंड स्ट्रक्चरल मिल का उद्घाटन किया तथा एक सभा को संबोधित भी किया था। इसके बाद उनका आंशिक दौरा 14 फरवरी 1962 को हुआ। तब नेहरू चुनाव प्रचार के सिलसिले में ओडिशा जा रहे थे और दिल्ली से वे भिलाई के नंदिनी एयरोड्रम पहुंचे। यहां उनका स्वागत करने आम जनता खड़ी थी। उन्होंने सबका अभिवादन स्वीकार किया और नंदिनी एयरोड्रम के एक कमरे में भिलाई स्टील प्लांट के अफसरों से कारखाने के कामकाज की जानकारी ली, कुछ जरूरी हिदायतें दी और इसके बाद वायुसेना के प्लेन से ओडिशा के लिए रवाना हो गए। 
 जवाहरलाल नेहरू का आखिरी छत्तीसगढ़ दौरा 14-15 मार्च 1963 को हुआ था। तब पहले दिन 14 मार्च को उन्होंने रायपुर में कई कार्यक्रमों में हिस्सा लिया था। यहां उन्होंने शासकीय इंजीनियरिंग कॉलेज भवन का उद्घाटन किया। जिसे वर्तमान में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी (एनआईटी) का दर्जा मिल चुका है। इस दिन रायपुर म्युनिसिपल कमेटी की ओर से जवाहरलाल नेहरू को मानपत्र भेंट किया गया। अपने अभिनंदन पर 14 मार्च को उन्होंने राजकुमार कॉलेज के विद्यार्थियों को भी संबोधित किया। इसके अगले दिन वे भिलाई पहुंचे थे। जहां उन्होंने कारखाना देखने के बाद एक आमसभा को संबोधित किया था। 

 जहां इंदिरा ने लगाया था पौधा, वह सिविक सेंटर कहलाया इंदिरा प्लेस

 यह बांग्लादेश निर्माण के बाद एक लोकप्रिय जननेता बन कर उभरी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का दौर था। तब बांग्लादेश निर्माण और पाकिस्तान की करारी हार के चलते इंदिरा गांधी अपनी लोकप्रियता के चरम पर थीं। 16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान के पराजय स्वीकार कर लेने के बाद जब औपचारिक तौर पर बांग्लादेश का गठन हो गया तो भिलाई स्टील प्लांट मैनेजमेंट ने अपनी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को एक अनूठा उपहार देने का फैसला लिया था। 
 तब के जनरल मैनेजर (स्व.) पृथ्वीराज आहूजा ने बीते दशक में इन पंक्तियों के लेखक को तफसील से बताया था कि कैसे नई दिल्ली के कनॉट प्लेस की तर्ज पर बनाए गए भिलाई के मार्केट सिविक सेंटर को इंदिरा प्लेस का नाम देना तय हुआ था। आहूजा के मुताबिक चूंकि यहां साल 1963 में अपने पहले भिलाई प्रवास के दौरान इंदिरा गांधी ने पौधा लगाया था और एक आमसभा को भी संबोधित किया था, इसलिए तत्कालीन हिंदुस्तान स्टील लिमिटेड (एचएसएल) मैनेजमेंट की सहमति से सिविक सेंटर का नाम बदल कर इसे इंदिरा प्लेस रखना तय हुआ।
 इस दिशा में तमाम औपचारिकताओं और मंजूरी के बाद कार्यक्रम बना कि इंदिरा प्लेस का लोकार्पण खुद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी करेंगी। इसके लिए तारीख भी तय हो गई और कार्यक्रम भी। लेकिन ऐन वक्त पर 26 जनवरी की व्यस्तता को देखते हुए प्रधानमंत्री का भिलाई दौरा टल गया और (स्व. आहूजा के मुताबिक) प्रधानमंत्री कार्यालय की मंजूरी के बाद तय हुआ कि जनरल मैनेजर आहूजा ही इस विशेष पट्टिका का अनावरण कर दें। इस तरह 25 जनवरी 1972 से सिविक सेंटर का नाम बदल कर इंदिरा प्लेस कर दिया गया। 

 भिलाई ने पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में किए अनूठे कार्य 

 प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपने जिस वैश्विक दृष्टिकोण से भिलाई की स्थापना की थी, उसका मान इस शहर ने हमेशा रखा। प्रारंभ से ही भिलाई ने पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में ऐसे कदम उठाए कि आज 60 साल से ज्यादा की उम्र का हो रहा यह लघु भारत हरियाली से आच्छादित है। यहां का पर्यावरण संरक्षण किसी भी औद्योगिक नगरी के लिए एक मिसाल है। 
आईए जानते हैं कि भिलाई ने पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में कौन-कौन से प्रमुख कदम उठाए, जिनसे आज इस शहर की आबोहवा हमेशा साफ रहती है। 

 पानाबरस परियोजना ने किया भिलाई का कायाकल्प

 तत्कालीन मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री प्रकाशचंद्र सेठी के कार्यकाल में 24 जुलाई 1975 को मध्यप्रदेश राज्य वन विकास निगम अस्तित्व में आया। इस निगम का उद्देश्य वनों की उत्पादन क्षमता में त्वरित गति से वृद्धि करने के लिए तेजी से बढऩे वाली बहुमूल्य औद्योगिक/व्यापारिक कार्यों के लिए उपयोगी प्रजातियों का रोपण करना था। 
 इसी तरह गहन वन प्रबंध पद्धति से वनों की उत्पादन क्षमता एवं गुणवत्ता में सुधार लाना तथा राज्य में वानिकी गतिविधियों के लिए सक्षम योजनाएं तैयार कर वित्तीय संस्थानों से ऋण एवं अतिरिक्त धनराशि प्राप्त करना, बिगड़े वनों का सुधार, पौधारोपण, जलग्रहण क्षेत्र उपचार एवं क्षतिपूरक पौधारोपण करना भी उद्देश्य में शामिल था। 
 वन विकास निगम के अधीन शुरू की गई पानाबरस परियोजना ने इस्पात नगरी भिलाई को हरा-भरा बनाए रखने में बड़ा योगदान दिया है। इस परियोजना के अंतर्गत वर्ष 1975 से अब तक हर साल लाखों की संख्या में पौधारोपण कर औद्योगिक क्षेत्र भिलाई को हरा-भरा बनाने में मुहिम जारी है।नवगठित छत्तीसगढ़ राज्य में भी यह निगम पूर्व प्रावधानों के अनुसार कार्यरत है। जिसका गठन 2001 में किया गया था। 
 जैव विविधता का संरक्षण भिलाई इस्पात संयंत्र ने प्लांट, टाउनशिप और माइंस में जैव-विविधता के संरक्षण के लिए शुरुआती वर्षों से बड़े पैमाने पर पौधारोपण अभियान चलाया है। जिसमें अब तक 56 लाख से अधिक पेड़ लगाए जा चुके हैं, इनमें बीएसपी का प्लांट क्षेत्र, टाउनशिप और माइन्स को वानिकी क्षेत्र के रूप में बदल दिया गया है, यहां वनस्पतियों और जीवों की विविधता को आश्रय दिया गया है। इसमें हाल के वर्षों में टाउनशिप के अंदर बागवानी विभाग द्वारा लगाए गए 40,000 पेड़ भी शामिल हैं। 
गौरतलब है कि 1989 के बाद से बागवानी विभाग द्वारा टाउनशिप में 22.5 लाख से अधिक पेड़ लगाए गए हैं। वर्ष 2019-20 के दौरान, टाउनशिप और इसके परिधीय क्षेत्रों में 47,438 पौधे लगाए गए, जिन्होंने हरियाली बिखेरने में योगदान दिया। छत्तीसगढ़ राज्य वन विकास निगम के सहयोग से परिधीय क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर सड़क के किनारे पौधारोपण किया जा रहा है।
छत्तीसगढ़ राज्य शासन द्वारा संचालित छत्तीसगढ़ राज्य हरा-भरा योजना के अंतर्गत वर्ष 2008 में भिलाई इस्पात संयंत्र द्वारा छत्तीसगढ़ राज्य वन विकास निगम के सहयोग से तीन लाख पेड़ लगाए जा चुके हैं। 
 बीएसपी द्वारा अपनी निगमित सामाजिक उत्तरदायित्व (सीएसआर) गतिविधि के तहत छत्तीसगढ़ राज्य वन विकास निगम के माध्यम से वर्ष 2006-07 से 2016-17 के बीच कुल 310 किलोमीटर सड़क के किनारे रोपण का कार्य पूरा होने के बाद सड़क किनारे और भी पौधारोपण जारी है।
 इससे पहले 1990 से 1995 तक, नंदिनी, अहिवारा, बेमेतरा, बेरला क्षेत्रों आदि में पौधारोपण किया गया था। 2016-17 में बीएसपी ने जगदलपुर में 50 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में काजू के पौधों का रोपण किया।
 भिलाई ही नहीं आसपास का भी ध्यान भिलाई इस्पात संयंत्र सिर्फ भिलाई शहर का ही ध्यान नहीं रखता बल्कि बीएसपी मैनेजमेंट की फिक्र आसपास के गांव को लेकर भी है। इसी कड़ी में निगमित सामाजिक उत्तरदात्वि विभाग द्वारा पिछले पांच वर्षों में 150 किलोमीटर सड़क मार्ग पर तीन लाख से भी अधिक पौधों का रोपण किया गया है।
 इस योजना के अंतर्गत दुर्ग-धमधा, गुंडरदेही-धमतरी, धमधा-बेमेतरा, दुर्ग-जालबांधा, कुम्हारी-अहिवारा-बेमेतरा जैसे मुख्य मार्गों सहित 21 मार्गों पर पौधारोपण के कार्य को पूर्ण किया गया है।
पूर्व में लगाए गए पौधे अब वृक्ष बन गए हैं और इन मार्गों की शोभा बढ़ाते हुए पर्यावरण संरक्षण में अपना योगदान दे रहे हैं। पर्यावरण संरक्षण की दिशा में किए गए प्रयास के अंतर्गत इन वृक्षों में नीम, आंवला, खमार, अर्जुन आदि के पौधों को 150 किलोमीटर के सड़क मार्ग पर लगवाया गया है। अब ये वृक्ष उस सड़क की शोभा बढ़ाते हुए लहलहा रहे है। इस योजना से न केवल छत्तीसगढ़ राज्य को हरा-भरा किया जा रहा है बल्कि पर्यावरण संतुलन भी बना हुआ है।

 खूबसूरत जंगल में तब्दील हो चुका है भिलाई स्टील प्लांट 

 भिलाई स्टील प्लांट की स्थापना के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सूझबूझ का ही नतीजा है कि शुरूआती दौर में ही यहां पौधारोपण पर पूरा ध्यान दिया गया। इसकी वजह से अब संयंत्र का पूरा का पूरा क्षेत्र एक खूबसूरत जंगल में तब्दील हो चुका है। ऐसे में कई बार कुछ प्रमुख इकाइयों के बीच यह अनुमान लगाना मुश्किल होता है कि यहां जंगल में कारखाना है या कारखाने में जंगल। 
यहां कारखाना और टाउनशिप के निर्माण क्षेत्र में पौधों का संचयी रोपण 30 लाख से अधिक है जबकि दल्ली राजहरा, नंदिनी और हिर्री माइंस में यह 22 लाख से अधिक है। वर्ष 2008-09 के दौरान 50,000 जैटरोफा के पौधे सहित 65,000 पौधे विशेष अभियान के तहत लगाए गए हैं। 
भिलाई स्टील प्लांट के अंदर सिर्फ खूबसूरत जंगल ही नहीं बल्कि पांच बड़े गार्डन हैं। वहीं टाउनशिप 15 बड़े गार्डन है। इसके अलावा मुख्य सड़क (सेंट्रल एवेन्यू) सहित सभी सेक्टरों में पंक्तिबद्ध लगाए गए पेड़ पूरे शहर को एक अलग आभा देते हैं। टाउनशिप में 167 एकड़ में फैला भारत-रूस मैत्री का प्रतीक मैत्री बाग पूरे शहर के पर्यावरण को समृद्ध करता है।

 यूपीए शासनकाल में क्लाइमेट चेंज पर दिखाई गंभीरता

 भिलाई इस्पात संयंत्र ने अपने आधुनिकीकरण और विस्तार कार्यों के बाद विभिन्न गैसों के उत्सर्जन की प्रक्रिया में होने वाले परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए कार्बन और जल फुटप्रिंट अध्ययन का कार्य भी आरंभ किया। यह 2008 में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की पहल पर शुरू हुए प्राइम मिनिस्टर्स नेशनल एक्शन प्लान फॉर क्लाइमेट चेंज जैसी योजनाओं को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय और आंचलिक नीतियों को लागू करने के उद्देश्य से किया गया।
 इसी दिशा में प्रोडक्ट कार्बन फुटप्रिंट अध्ययन 2012-13 में आईआईटी मुंबई के सहयोग से अत्याधुनिक साफ्टवेयर का उपयोग करते हुए किया गया। इसी तरह भिलाई इस्पात संयंत्र द्वारा वॉटर फुटप्रिंट अध्ययन भी आईआईटी मुंबई के सहयोग से की गई।
 इसका लक्ष्य मात्रात्मक जल पदचिह्न मूल्यांकन (क्वान्टिटेटिव वॉटर फुटप्रिंट एसेसमेंट) तैयार करना था। भिलाई इस्पात संयंत्र ने 2012-13 में यूएनआईडीओ और पर्यावरण और वन मंत्रालय के सहयोग से पीसीबीज के सुरक्षित डिस्पोजल की योजना भी लागू की है। 
यह योजना पूरे देश में अपनी तरह की एक महत्वपूर्ण परियोजना है जो न सिर्फ सेल के लिए मददगार साबित हो रही है बल्कि पीओपीज की रोकथाम के लिए स्टॉकहोम कन्वेन्शन को लागू करने के साथ ही सम्पूर्ण भारतीय उद्योग और भारत सरकार के लिए भी मददगार हो रही है। दूषित जल को इस्तेमाल लायक बनाने यहां संचालित है प्रणाली भिलाई स्टील प्लांट की स्थापना के दौरान टाउनशिप से निकलने वाले सीवरेज के दूषित जल का उपचार कर उसे खेती के इस्तेमाल योग्य बनाने कुटेलाभाठा में पहला विशिष्ट सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) लगाया गया था।
 वर्तमान में यहां भिलाई आईआईटी का निर्माण होना है और यह एसटीपी करीब दशक भर पहले से बंद किया जा चुका है। लेकिन इसकी जगह टाउनशिप में दूसरे स्थानों पर एसटीपी बनाए जा चुके हैं, जिनसे जल संरक्षण की गतिविधियों को समुचित प्रोत्साहन मिला है। 
 इसके लिए सेक्टर-5 फारेस्ट एवेन्यू पर 30 एमएलडी (मिलियन लीटर प्रतिदिन) सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट स्थापित किया जा चुका है। वर्तमान में सीवरेज से निकलने वाले जल को सीवरेज पंप हाउस में एकत्र कर इन्हे पास बने तालाबों में भेजा जाता है। जहां धूप में पानी के प्राकृतिक उपचार के बाद इसे आगे इस्तेमाल के लिए भेजा जाता है।
 भिलाई स्टील प्लांट में आवासीय क्षेत्रों के सीवरेज पानी का उपचार करने के लिए वर्तमान में कुल 4 ऑक्सीकरण तालाब हैं जो कि घर के कर्मचारी हैं। सेक्टर-1 से 10 तक के आवासीय क्षेत्रों का सीवरेज का पानी सुपेला पंप हाउस के माध्यम से कुटेलाभाठा ऑक्सीकरण तालाब में भेजा जाता था लेकिन अब इसे सेक्टर-5 में बने नए एसटीपी में भेजा जाता है। अस्पताल सेक्टर, सेक्टर 9 मुख्य अस्पताल और हुडको क्षेत्र का सीवरेज पानी रायपुर नाका तालाब में भेजा जाता है। 
 भिलाई रिफ्रैक्टरी प्लांट (अब एसआरयू) के पास एक और ऑक्सीडेशन तालाब है, जो मरोड़ा, रिसाली और रुआबांधा आवासीय क्षेत्रों से सीवरेज का पानी इकट्ठा करता है। जहां से बीएसपी अब औद्योगिक उपयोग के लिए पानी की री-साइक्लिंग कर रहा है। 
 इस पंप हाउस में ऑक्सीकरण तालाब से मरोदा-1 जलाशय (प्लांट का कूलिंग पॉन्ड) तक पंप करने के लिए एक नया पंप हाउस स्थापित किया गया है, जहां से भिलाई स्टील प्लांट के इस्तेमाल के लिए पानी का दोबारा उपयोग किया जाता है।
 इसके अलावा भिलाई स्टील प्लांट टाउनशिप क्षेत्रों में वर्षा जल संचयन और भूजल रिचार्जिंग के लिए कदम उठा रहा है। वर्क्स एरिया के अंदर, प्लेट मिल ने पहले ही वर्षा-जल संचयन द्वारा पानी के संरक्षण के लिए पर्याप्त उपाय किए हैं। 

 उत्कृष्ट है बीएसपी का पर्यावरण प्रबंधन

 भिलाई इस्पात संयंत्र को कारखाना, टाउनशिप और दल्ली माइंस में उत्कृष्ट पर्यावरण प्रबंधन प्रणाली के लिए पर्यावरण प्रबंधन प्रणाली मानक आईएसओ:14001 से सम्मानित किया जा चुका है। बीएसपी ने एक एकल प्रमाणित एजेंसी मेसर्स डीएनवी द्वारा एकीकृत प्रबंधन प्रणाली (आईएमएस) का प्रमाणपत्र प्राप्त किया है। यह भारतीय इस्पात प्राधिकरण (सेल) में सर्वप्रथम और कुछ कॉर्पोरेट संस्थानों में से एक है। 
 कारखाना के क्षेत्र में भी उत्कृष्ट पर्यावरण प्रबंधन भिलाई इस्पात संयंत्र के महत्वाकांक्षी 70 लाख टन सालाना हॉट मेटल उत्पादन की आधुनिकीकरण और विस्तार परियोजना के तहत सभी इकाइयाँ अब उत्पादन में शामिल हो चुकी हैं और सभी पर्यावरण प्रबंधन के दृष्टिकोण की अत्याधुनिक तकनीकों से लैस हैं।
 इनसे न केवल उत्पाद की गुणवत्ता में सुधार आया है और सेल-बीएसपी की उत्पाद श्रृंखला व्यापक बनी है बल्कि पर्यावरण को बेहतर करने में भी योगदान दिया है। मॉडेक्स इकाइयों में कार्यान्वित की जाने वाली अत्याधुनिक तकनीकों में से कुछ प्रमुख का उल्लेख कर सकते हैं - कोक ओवन बैटरी 11: कोक ड्राई कूलिंग प्लांट (सीडीसीपी), एचपीएलए सिस्टम, हाइड्रो जेट डोर क्लीनर, लीक प्रूफ ओवन डोर, सीडीसीपी से उत्सर्जन नियंत्रण, भाप और बिजली उत्पादन ब्लास्ट फर्नेस 8: कार्य क्षेत्र की वायु गुणवत्ता में सुधार के लिए स्टॉक हाउस और कास्ट हाउस डी-डस्टिंग सिस्टम, भट्ठी के शीर्ष गैस दबाव का उपयोग करके स्वच्छ बिजली उत्पादन के लिए शीर्ष वसूली टर्बाइन, कास्ट हाउस ग्रैन्यूलेशन सिस्टम, स्टोव हीट रिकवरी, स्लैग दर में कमी के लिए प्रौद्योगिकी आदि। स्टील मेल्टिंग शॉप 3: माध्यमिक उत्सर्जन नियंत्रण प्रणाली, एलडी-गैस धारक नई रोलिंग मिल्स (यूआरएम और बीआरएम): कम एनओएक्स और एसओ 2 बर्नर, ऊर्जा कुशल चलने वाले बीम भट्टियां, कम शोर वाले मोटर और साउंड प्रूफ पुलपिट्स। 
पावर और ब्लोइंग स्टेशन-2: उत्सर्जन को कम करने के लिए ईंधन के रूप में स्वच्छ द्वि-उत्पाद गैसों का उपयोग। उपरोक्त स्वच्छ प्रौद्योगिकियों के अलावा, सभी इकाइयां स्थानीय जल उपचार और रीसाइक्लिंग प्रणालियों से सुसज्जित हैं। 
उपरोक्त स्वच्छ प्रौद्योगिकियों के कार्यान्वयन ने विशिष्ट उत्सर्जन स्तरों में कमी, विशिष्ट जल की खपत, शोर प्रदूषण, ठोस अपशिष्ट उपयोग में सुधार / पुनर्चक्रण और कार्य क्षेत्र वायु गुणवत्ता में समग्र सुधार के लिए अग्रणी संयंत्र के पर्यावरण प्रदर्शन को बहुत बढ़ाया है।

 2019-20 के दौरान पर्यावरण संबंधी पहल जल संरक्षण

 बीएसपी ने पहले ही विशिष्ट जल खपत में वैश्विक सर्वोत्तम मानकों को प्राप्त कर लिया है। जीरो डिस्चार्ज कंपनी बनने और जल संरक्षण की दिशा में किए जा रहे प्रयासों के तहत भिलाई स्टील प्लांट (बीएसपी) में जल प्रबंधन के कई क्षितिजों को संबोधित करने के लिए समग्र दृष्टिकोण का प्रयास किया जा रहा है। 
 उपचार के बाद जल संरक्षण, रिसायकल और पुन: उपयोग पर मुख्य रूप से जोर है। साथ ही पानी का इष्टतम उपयोग, रिसाव व वाष्पीकरण आदि के कारण होने वाले नुकसान को कम करना बेहतर जल प्रबंधन के लिए अन्य प्रमुख क्षेत्र हैं। 
 वर्ष 2018-19 और 2019-20 पानी की खपत में कमी के लिए की गई पहल उत्कृष्ट रही है। बीएसपी आउटलेट-ए से लगभग 3500 क्यूबिक प्रति घंटा की रीसाइक्लिंग को बढ़ाने में सक्षम है। यह आउटलेट-ए के होल्डिंग तालाब में डिसिल्टिंग कार्य करने के द्वारा प्राप्त किया गया था।
 आउटलेट-सी और आउटलेट-बी से अपशिष्टों के पुनर्चक्रण के अनुबंधों पर भी हस्ताक्षर किए गए हैं। उपरोक्त के अलावा, मौजूदा 30 एमएलडी संयंत्र में सीवेज के पानी की रीसाइक्लिंग के लिए एक और योजना को भी अंतिम रूप दिया गया है। 
चालू वित्त वर्ष में उपरोक्त पुनर्चक्रण योजनाओं के कार्यान्वयन से लगभग 3000 क्यूबिक प्रति घंटा की जल बचत होगी। सौर ऊर्जा का भी इस्तेमाल कर पर्यावरण को समृद्ध कर रहा बीएसपी भिलाई आज सिर्फ पौधारोपण कर या अपशिष्ट जल का प्रबंधन कर ही पर्यावरण को समृद्ध नहीं कर रहा है बल्कि प्राकृतिक स्त्रोत सौर ऊर्जा का भी इस्तेमाल कर कृत्रिम रूप से बिजली उत्पादन से होने वाले पर्यावरणीय दुष्प्रभाव को भी कम कर रहा है। 
 बीएसपी ने अपने गेस्ट हाउस भिलाई निवास में बिजली की आंतरिक खपत को पूरा करने के लिए फोटोवोल्टिक सोलर पैनल्स (2 गुणित 100 केवीए) की स्थापना की है। यह सेल का सबसे पहला सोलर पॉवर प्लांट है। पर्यावरण प्रबंधन विभाग, नगर इलैक्ट्रिकल अभियाँत्रिकी विभाग एवं सम्पर्क एवं प्रशासन विभाग द्वारा भिलाई निवास की आंतरिक बिजली संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए ऐसी ही परियोजना इस्पात भवन में भी स्थापित किए जाने की तैयारी है।
 इसी तरह 15 गुणित 20 केवीए की एक और सौर ऊर्जा इकाई की स्थापना के लिए स्थान के चयन को अंतिम रूप दिए जाने का कार्य जारी है। वितरण लाइसेंसी होने कारण भिलाई इस्पात संयंत्र के नगर इलैक्ट्रिकल अभियाँत्रिकी विभाग द्वारा कुल ऊर्जा खपत का 5 प्रतिशत गैर परंपरागत ऊर्जा स्त्रोतों जैसे सौर ऊर्जा से लेने की बाध्यता है। 
इसलिए इस दिशा में कार्य जारी है। इस फोटोवोल्टिक सोलर पैनल्स (2 गुणित 100 केवीए) के फलस्वरूप न सिर्फ भिलाई इस्पात संयंत्र को आर्थिक बचत हो रही है बल्कि कार्बन डाइआक्साईड के उत्सर्जन में भी कमी आई और प्राकृतिक संसाधनों की बचत भी हो रही है। भिलाई निवास में सोलर पॉवर सिस्टम की स्थापना के साथ भिलाई इस्पात संयंत्र नेशनल सोलर मिशन से सीधे जुड़ गया है। 

छत्तीसगढ़ विधानसभा की पत्रिका 'विधायन' का लोकार्पण 

 

विधानसभा अध्यक्ष डॉ चरणदास महंत और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने 28 अगस्त 2020 को छत्तीसगढ़ विधानसभा परिसर स्थित विधानसभा अध्यक्ष के कक्ष में छत्तीसगढ़ विधानसभा की शोध पत्रिका 'विधायन' के नवीनतम अंक का विमोचन किया। इस अवसर पर नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक, राजस्व मंत्री जयसिंह अग्रवाल एवं विधानसभा के प्रमुख सचिव चंद्रशेखर गंगराड़े भी उपस्थित थे। 
विधानसभा अध्यक्ष और मुख्यमंत्री ने इस अवसर पर विधानसभा पर केन्द्रित वृत्तचित्र का भी विमोचन करते हुए इसकी डीवीडी जारी की। उल्लेखनीय है कि अविभाजित मध्यप्रदेश में शोध पत्रिका 'विधायन' का प्रकाशन होता था। 
छत्तीसगढ़ राज्य गठन के पश्चात छत्तीसगढ़ विधानसभा में 'विधायन' नाम से पत्रिका का प्रकाशन वर्ष 2001 से प्रारंभ हुआ। विगत 10 वर्षों से इस पत्रिका का प्रकाशन स्थगित था।
 पिछले एक वर्ष से विधानसभा अध्यक्ष डॉ. चरणदास महंत की रुचि, निर्देश एवं मार्गदर्शन पर अब नियमित रूप से 'विधायन' के प्रकाशन का कार्य प्रारंभ किया गया है। 'विधायन' के जिस अंक का विमोचन किया गया है। वह 'पर्यावरण' पर केंद्रित है। वर्तमान समय में विश्वव्यापी महामारी कोरोना ने पूरे विश्व को झकझोर दिया है। 
ये संकट प्रकृति एवं पर्यावरण के साथ मानव द्वारा लंबे समय तक की जाने वाली लापरवाही एवं छेड़छाड़ का परिणाम है। इसेे ध्यान में रखते हुए विधानसभा अध्यक्ष डॉ. महंत ने 'विधायन' का वर्तमान अंक 'विधायन' पर केंद्रित करने हेतु निर्देशित किया था। 19 मई 2020 को इस पत्रिका के नियमित प्रकाशन हेतु संपादक मंडल का गठन किया गया।
 जिसमे विधानसभा अध्यक्ष डॉ. चरणदास महंत के द्वारा वरिष्ठ पत्रकार व साहित्यकार सतीश जायसवाल,बिलासपुर को कार्यकारी संपादक मनोनीत किया गया। संपादक मंडल में 5 अन्य सदस्य भी मनोनित किए गए हैं जिनमें आकाशवाणी,दूरदर्शन के सेवानिवृत्त निदेशक मो. हसन खान, वरिष्ठ पत्रकार व साहित्यकार शंकर पाण्डेय, प्रेम पाठक,शोभा यादव एवं प्रियंका कौशल शामिल हैं। 
 'विधायन' के इस अंक में पर्यावरण प्रदूषण, ओजोन परत एवं ग्रीनहाउस जैसे विषयों पर देश भर के वरिष्ठ विशेषज्ञों के उच्च स्तरीय लेख प्रकाशित किए गए हैं। इस पत्रिका में प्रकाशित होने वाले लेख संदर्भ एवं शोध करने वाले छात्रों के लिए लाभदायक होंगे।

 

Sunday, August 30, 2020

भारत-चीन सम्बन्ध और हमारा भिलाई


1962 के भारत-चीन युद्ध से लेकर आज के तनाव के हालात 
तक, भिलाई ने हमेशा अपनी भूमिका बढ़ चढ़ कर निभाई 

1962 में भिलाई स्टील प्लांट का प्रवेश द्वार  (मेन गेट ) 

मई 2020 के पहले हफ़्ते से लद्दाख क्षेत्र में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी)  पर भारत और चीन के बीच तनाव की स्थिति बनी हुई है। 15-16 जून 2020 की दरमियानी रात गलवान घाटी में भारत-चीन सैनिकों के बीच 'घंटों चले संघर्ष में 20 भारतीय सैनिकों की शहादत हुई और 76 अन्य घायल हुए।.इसके बाद से सीमा पर तनाव के हालत हैं। 
भारत सरकार ने चीन के सॉफ्टवेयर पर प्रतिबन्ध लगाने के अलावा आर्थिक  मोर्चे पर भी बड़े चीनी ठेकों  लगाने की कार्रवाई की है। इस बीच दोनों देशों के रिश्तों के बीच तनाव के हालत में इस्पात नगरी भिलाई की भूमिका की पड़ताल करना प्रासंगिक होगा। 1962 के भारत-चीन युद्ध से लेकर आज के तनाव के हालात तक, भिलाई ने हमेशा अपनी भूमिका बढ़ चढ़ कर निभाई है।
चीन से हमारे छत्तीसगढ़ के रिश्तों की बात तो हजारों बरस पहले महान चीनी यात्री ह्वेनसांग छत्तीसगढ़ के सिरपुर आया था और आज भी भिलाई हो या छत्तीसगढ़ का कोई और कोना, कहीं भी चीनियों की मौजूदगी एक सामान्य घटना ही है।
वैसे बीते दशक में कोरबा में चीन की निर्माणाधीन चिमनी गिरने से दिया दर्द छत्तीसगढ़वासी नहीं भूले हैं। जब कोरबा शहर में वेदांत समूह की भारत एल्युमिनियम कंपनी (बाल्को) के निर्माणाधीन बिजलीघर में 23 सितंबर 2009 अपराह्न करीब 3 बजकर 50 मिनट हुए हादसे में 40 मज़दूर मारे गए थे। बिजलीघर बनाने का ठेका चीन की कंपनी शांडोंग इलेक्ट्रिक पावर कॉरपोरेशन (सेप्को) को दिया गया था और इस कंपनी के लगभग 80 इंजीनियर और मज़दूर यहां काम कर रहे थे।
वहीँ भिलाई स्टील प्लांट की बात करें तो यहाँ भी काम के सिलसिले में चीनियों आना-जाना लगा रहा है। वैसे देश के दूसरे शहरों की तरह दांत के डाक्टरों वाले कुछ चीनी परिवार भिलाई दुर्ग में बरसों से रहते आएं है। हालांकि अब इन लोगों ने भारतीय नागरिकता ले ली है। लेकिन एक सवाल थोड़ा परेशान करता है कि देश के अलग-अलग शहरों में दांतों के ज्यादातर डाक्टर चीनी मूल के ही क्यों होते हैं?
खैर,इस बीच बात भिलाई स्टील प्लांट की। सार्वजनिक उपक्रम बीएसपी के स्थापना काल 1955 से 1991 में मुक्त अर्थव्यवस्था के दौर से पहले तक यहां शत प्रतिशत तकनीक तत्कालीन सोवियत संघ (आज का रूस) की इस्तेमाल हुई।
लेकिन, 1991 के बाद फिजा बदली और सोवियत संघ टूटने के बाद भिलाई जैसे सार्वजनिक उपक्रम में दूसरे देशों की तकनीक भी शामिल की जाने लगी। जिसमें पहला बड़ा निवेश जापान की मित्सुई कंपनी का था, जिसने यहां सिंटर प्लांट-3 बनाया। हालांकि इस दौर में चीन भी एक प्रतिद्वंदी था लेकिन तब ठेका जापान को मिला था।
लेकिन चीन ने देश भर की तरह भिलाई में भी निवेश के लिए कोशिशें बरकरार रखीं। इस दिशा में 18 जुलाई 1994 को चीन के धातु उद्योग मंत्रालय में उपमंत्री यू.झीचून के नेतृत्व में एक प्रतिनिधि मंडल भिलाई आया। इस प्रतिनिधिमंडल ने यहां निवेश की संभावनाएं टटोली थी।
इसके बाद तब छोटे स्तर पर भले ही कुछ साजो-सामान व कलपुर्जे भेज कर चीन तसल्ली भले ही कर रहा होगा लेकिन उसे बड़ा मौका बीते दशक में भिलाई की 70 लाख टन विस्तारीकरण परियोजना में मिला। यहां चीन ने बड़ा निवेश किया है। जिसमें एक प्रमुख इकाई स्टील मेल्टिंग शॉप-3 की सेकंडरी रिफाइनरी यूनिट है,जो शत-प्रतिशत चीनी तकनीक पर है।
मई 2020 में इसी यूनिट में लिक्विड स्टील से भरा लैडल पंक्चर हो गया था। जिसमें कोई जनहानि नहीं हुई। इस हादसे की जांच चल रही है इसलिए फिलहाल किसी नतीजे पर पहुंचना जल्दबाजी होगी। 

भारत-चीन युद्ध के समय भिलाई में जज़्बा ऐसा उमड़ा कि छह 
माह तक अपनी तनख्वाह से सेना को योगदान भेजते रहे कर्मी 

भिलाई होटल और सिविक सेंटर में इंदिरा गाँधी, साथ में हैं जनरल मैनेजर सुकू सेन (1963 )

1962-63 मेेंं युद्ध की परिस्थिति में भिलाई स्टील प्लांट के कर्मियों ने न सिर्फ सर्वाधिक डेढ़ लाख रूपए राष्ट्रीय रक्षा कोष में दिए थे बल्कि स्काउट और एनसीसी क पृष्ठभूमि से आए नौजवान कर्मियों ने मोर्चे पर जाने देश के प्रधानमंत्री को पत्र तक लिख दिया था।
वो दौर ऐसा था, जब एक लाख रूपए बोलने पर भी सोचना पड़ता होगा। इसलिए तब ''लाख टके की बात'' जैसा जुमला और ''सवा लाख की लाटरी भेजो अपने भी नाम जी'' जैसा गाना खूब चलता था।
वो दौर ऐसा था जब भिलाई स्टील प्लांट में न्यूनतम वेतन 40-50 रूपए और अधिकतम 450-500 रूपए होता था। इस दौर में देश भर से अपना भविष्य बनाने भिलाई आए नौजवानों के दिल में जज्बा था, अपने देश के लिए कुछ कर गुजरने का।
ऐसे में भिलाई के लोगों ने राष्ट्रीय रक्षा कोष में पूरे डेढ़ लाख रूपए समर्पित किए थे। उन दिनों एक तोला सोना 97 रूपए का था तो उस लिहाज से तब का एक लाख आज के लगभग 3.5 करोड़ रूपए से भी ज्यादा था।
चीन ने युद्ध छेड़ा 20 अक्टूबर 1962 को और इसके बाद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने रेडियो पर आकर सब कुछ साफ-साफ बता दिया। उन्होंने देशवासियों से सहयोग मांगा तो घरों से सारी जमा पूंजी और जेवरात तक लोगों ने हंसते-हंसते दे दिए। तब ऐसे माहौल में भिलाई स्टील प्लांट के कर्मी भला कैसे पीछे रहते।
भारत सरकार ने अपने सभी सरकारी कर्मियों से नवंबर माह के वेतन से एक-एक दिन की तनख्वाह राष्ट्रीय रक्षा कोष में स्वैच्छित तौर पर मांगी थी। लेकिन भिलाई स्टील प्लांट के कर्मियों ने कहा- नहीं, हमारे देश पर मुसीबत आई है तो हम पीछे नहीं हट सकते और फिर क्या था ज्यादातर ने छह माह तक तनख्वाह काटे जाने का घोषणापत्र भर दिया।
भारत-चीन युद्ध तो नवंबर 62 में खत्म हो गया लेकिन देश आर्थिक मोर्चे पर फिर नए सिरे से खड़े होने की तैयारी में जुट गया। ऐसे में भिलाई के कर्मियों ने तब अपनी तनख्वाह और आपसी सहयोग से डेढ़ लाख रूपए जुटाए।
तब भिलाई स्टील प्लांट के जनरल मैनेजर सुकू सेन थे, जो कि पूर्व में बंगाल की क्रांतिकारी गतिविधियों में संलग्न अनुशीलन पार्टी से भी संबद्ध रहे थे। स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रियता की वजह से उनकी प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से काफी नजदीकियां थी।
इस वजह से जब भिलाई स्टील प्लांट की तरफ से राष्ट्रीय रक्षा कोष में दान समर्पण का मौका आया तो सुकू सेन ने सीधे प्रधानमंत्री नेहरू से संपर्क साधा। इसके बाद कार्यक्रम भी तय हो गया लेकिन ऐन वक्त पर दिल्ली में अतिव्यस्तता के चलते जवाहरलाल नेहरू भिलाई नहीं आ सके और उन्होंने प्रतिनिधि के तौर पर अपनी बेटी इंदिरा गांधी को भिलाई भेजा था।
इंदिरा तब न तो मंत्री थी ना ही सांसद। लेकिन युद्ध की परिस्थिति में भारत सरकार द्वारा बनाई गई राष्ट्रीय रक्षा परिषद में वह एक सदस्य जरूर थी। इस नाते इंदिरा 9 फरवरी 1963 को भिलाई आई। जहां उन्होंने सिविक सेंटर में एक विशाल जनसभा को संबोधित किया था।
इस दौरान जनरल मैनेजर सुकू सेन व उनकी पत्नी इला सेन ने भिलाई बिरादरी की ओर से डेढ़ लाख रूपए का चेक राष्ट्रीय रक्षा कोष के लिए इंदिरा गांधी को सौंपा था। तब इंदिरा ने भिलाई स्टील प्लांट का दौरा भी किया था और आफिसर्स एसोसिएशन की तरफ से आयोजित एक समारोह में कार्यक्रम में शामिल हुई थी।
बीएसपी के रिटायर अफसर और हुडको निवासी वीएन मजुमदार बताते हैं-तब भिलाई में सारे नौजवान कर्मी थे और सभी के दिल में देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा था। इसलिए कर्मियों ने स्वेच्छा से न सिर्फ छह माह तक हर माह एक दिन का वेतन देने का घोषणा पत्र भरा था बल्कि ऐसे कर्मी जो एनसीसी-स्काउट की पृष्ठभूमि से आए थे, उन्होंने सीमा के मोर्चे पर उतरने बाकायदा प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और रक्षामंत्री को खत लिखे थे।
मजुमदार के मुताबिक तब अफसरों की तनख्वाह ही 200 से 500 रूपए तक होती थी, इसके बावजूद लोगों में देश के कुछ कर गुजरने का जज्बा था। उन्होंने बताया कि युद्ध के दौरान भिलाई स्टील प्लांट में एक भी दिन उत्पादन बाधित नहीं हुआ और ना ही कभी ब्लैक आउट की स्थिति आई। बल्कि इसके विपरीत 1962-63 में तब रिकार्ड उत्पादन हुआ था।

रहि ले ले,तोर हम करबो दवाई रे....चीन पर
1962 में लिख रही थी छत्तीसगढिय़ा कलम


आज जिस तरह भारत-चीन सीमा पर तनाव के हालात हैं, करीब-करीब ऐसे ही गंभीर हालात 58 साल पहले 1962 में बने थे। तब अक्टूबर-नवंबर महीने में भारत-चीन युद्ध हुआ था।
ऐसे संवेदनशील समय में दुर्ग-भिलाई के कविजन वीर रस की कविताएं लिखकर देश का मनोबल बढ़ा रहे थे। इन कवियों में दुर्ग के कोदूराम 'दलित' का नाम प्रमुख है। वहीं भिलाई स्टील प्लांट में सेवा दे रहे कई प्रमुख कवियों ने भी चीन को ललकारते हुए अपनी कलम चलाई थी।
भिलाई के कवियों की रचनाएं तब बाद में भिलाई स्टील प्लांट ने छपवा कर संसद तक में बंटवाई थी। यही वह दौर था जब छत्तीसगढ़ी की पहली फिल्म 'कहि देबे संदेस' का निर्माण चल रहा था और इस आपदा के दौर को निर्माता-निर्देशक मनु नायक ने अपनी सूझबूझ से अवसर में बदल दिया था।

कोदूराम 'दलित' मुखर थे चीन के खिलाफ

पहले बात जनकवि कोदूराम 'दलित' की। भारत-चीन के संबंधों को लेकर दलित बेहद संवेदनशील थे। दलित की यह रचना दुर्ग जिला भारत सेवक समाज ने तब प्रकाशित की थी, अब उनके सुपुत्र अरूण कुमार निगम ने फेसबुक पर भी इसे पोस्ट किया है, जिसे इन दिनों शेयर किया जा रहा है। दलित ने उस वक्त लिखा था-
अरे बेशरम चीन, समझे रहेन तोला परोसी के नाता-म,
अपन बँद-भाई रे,नारा लगाइस-हिन्दी चीनी भाई के
औ करम करे लगिस, निठुर कसाई के,
रहि ले ले,तोर हम करबो दवाई रे...।
अरे बेशरम चीन, समझे रहेन तोला
परोसी के नाता-म, अपन बँद-भाई रे
का जानी कि कपटी-कुटाली तैं ह एक दिन
डस देबे हम्मन ला, डोमी साँप साहीं रे ।
बघवा के संग जूझे, लगे कोल्हिया निपोर
दीखत हवे कि तोर आइगे हे आई रे
लड़ाई लड़े के रोग, डाँटे हवै बहुँते तो
रहि ले-ले तोर हम, करबो दवाई रे।
अरे दगादार चीन, जान गे जगत हर
खोड़िलपना ला तोर चाऊ एन लाई के
नारा लगाइस-हिन्दी चीनी भाई के औ
करम करे लगिस, निठुर कसाई के
मेड़ो ला हमार हथिया के आज रेंधिया-ह
डर बतावत हवै, हमला लड़ाई के
टोर देबो हाड़ा-गोड़ा, बैरी के अउर हम
खप्पर मा भर देबो, चण्डी देवी दाई के।

एक बार फिर हारा रावण आया है कैलाश उठाने

भिलाई स्टील प्लांट में तब लेबर इंस्पेक्टर और बाद के दिनों में जनसंपर्क अधिकारी रहे रमाशंकर तिवारी ने चीन के खिलाफ अपनी रचना में लिखा था-
आज देश पर घिर आए काले ये विनाश के बादल
नई फसल को फिर से बैरी-दुश्मन मुड़कर ताक रहा है
एक बार फिर हारा रावण आया है कैलाश उठाने-
लुटी हुई हिम्मत की साथी, हारी हिकमत आंक रहा है
बरबादी की हवा अभी तो बस कल ही गुजरी थी सिर से
और लौट आया है दुश्मन ले नापाक इरादे फिर से 
शायद है इस बार साथियों, कोई चाल चलेगा ओछी
इसलिए होशियार दोस्तो, आज कमर हम कस लें फिर से
जो जवानियां जूझ रहीं सीमा पर उनको लडऩे दो तुम
अरे उन्हें जीवित रखने को काम और बस काम करो तुम 
तेज करो निर्माण, चलाओ अरे प्रगति के चाक चलाओ
झोंको ईंधन झोंको भाई, जुटे रहो तुम लौह गलाओ
एक स्वेद की बूंद खून के सौ कतरों सी अजर अमर है
अगर रहे मजबूत भाईयों तो ताकत में कहां कसर है
उनको दो विश्वास, तुम्हारे पीछे सारा देश खड़ा है
हम त्यागी हैं, तुम बलिदानी सबसे उपर देश बड़ा है
अफवाहों का गला घोंट दो, मन भयभीत न होने पाए 
रहे न बाकी एक स्वार्थी, मूल्य न कोई बढऩे पाए
हाथ न रोको जब तक साथी दुर्दिन अपने बीत न जाएं
हिंसा के बदनाम तरीके, अरे तिरंगा जीत न लायें
और खेत की फसल संभालो, जोतो बंजर कोना-कोना
क्या मां भी खामोश रहेगी मचलेगा जब श्याम सलोना
सोना चांदी गहने जेवर, मां बहिनों के कंगन-नुपूर
इन्हें न रखो, करो न्यौछावर आज देश की आजादी पर
स्नेहदान दो, स्वर्णदान दो, रक्तदान से हटो न पीछे
यह गौतम अशोक की धरती हम 'दधीचि' हैं,रहें न पीछे
हम मशीन के चालक साधक, पर मशीनगन ले सकते हैं
बिगड़ गए एक बार तो समझो ब्याज चौगुना ले सकते हैं
हमको तो आदत है साथी, पहिला वार झेलते हैं हम
मगर दूसरा दांव हमारा पहिला और आखिर रहा है
और तीसरे की गुंजाइश? अब ऐसी मसल नहीं हैं
झुक कर जी लें! अरे असंभव, अपनी ऐसी नसल नहीं है।

चाचा जी न करना चिंता तुम, सारे चीनी चट जाएंगे

बीएसपी शिक्षा विभाग में पदस्थ रहे ज्वाला प्रसाद पटेरिया ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को संबोधित करते हुए लिखा था-
प्रिय चाचा को आश्वासन
 चाचा जी न करना चिंता तुम, सारे चीनी चट जाएंगे।
हमे भेज दो शीघ्र भेज दो, हम सीमा पर जाएंगे।।
 अभी सुना है चाचा हमनें चिंतित हो तुम-
फिकर न करना किसी बात की जिंदा हैं हम 
यदि कारण है सीमा पर फिर से चीनी जुट आए हैं 
उसे जन्म से, बड़े स्वाद से बच्चे खाते आए हैं
 इसलिए न चिंता करना तुम सारे चीनी चट जाएंगे।। 
हमें भेज दो...
चीनी संकट के कारण यदि माथे पर पड़ जाएगा बल
 फिर न संभाले-संभलेगा यद वीर बहादुर बच्चों का दल
 चढ़ दौड़ पड़ेंगे उच्च हिमालय के बर्फानी शिखरों पर 
हुंकारेंगे तो चल जाएगा आरा अरि के सीनों पर
इस फौलादी नगरी के हैं बच्चों के फौलादी सीने 
झेल शत्रु की गोली, उसकी कर देंगे टेढ़ी संगीनें।।2।।
वीर शिवाजी और प्रताप की लक्ष्मी की संतान हैं हम
विंध्य हिमालय के साये में पले, बढ़े, खेले हैं हम 
पवनपुत्र हैं हमीं जलाकर रख देंगे चाऊ की लंका 
भीमसेन हैं पान करेंगे रक्त माओ का
न इसमें शंका कदम बढ़ेगा फिर न रुकेगा 
पेकिंग तक धावा मारेंगे 
छका छका दुश्मन को धोखे का मजा चखाएंगे ।।3।।
अगर कहीं मुरझा जाएंगी, तेरे गुलाब की पंखुरियां
देकर दिल का खून रखेंगे हम रंजित वे पंखुरियां
 खाकर हम सब कसम तेरे उस लाल गुलाबी फूल की
और तिरंगे झंडे की, भारत माता की धूल की।।
याद दिला देंगे दुश्मन को उसकी अपनी भूल की 
भुला सके न याद युगों तक हम बच्चों के शूल की।।
 इसलिए न करना चिंता तुम 
सारे चीनी चट जाएंगे।
हमें भेज दो शीघ्र भेज दो, हम सीमा पर जाएंगे।।

जियो, जियो अय हिंदुस्तान

वहीं बीएसपी कर्मी एमके चटर्जी ने भारतीय सेना के शौर्य का बयान करते हुए लिखा था-

जियो-जियो अय हिंदुस्तान
हम नवीन उजियाले हैं, गंगा यमुना हिंद महासागर के हम रखवाले हैं।
तन, मन, धन तुम पर कुर्बान जियो, जियो, अय हिंदुस्तान।
हम सपूत उनके जो नर थे, अनल और मधु के मिश्रण
जिनमें नर का तेज प्रखर था, भीतर था नारी का मन।
एक नयन संजीवन जिसका, एक नयन था हलाहल
जितना कठिन खड्ग था कर में उतना ही अंतर कोमल
थर-थर तीनों लोक कांपते थे जिनकी ललकारों पर
स्वर्ग नाचता था रण में, जिनकी पवित्र तलवारों पर
हम उन वीरों की संतान, जियो-जियो अय हिंदुस्तान
हम शिकारी विक्रमादित्य हैं, अरिदल को दलने वाले,
रण में जमीं नहीं दुश्मन की लाशों पर चलने वाले।
हम अर्जुन, हम भीम, शांति के लिए जगत में जीते हैं
मगर शत्रु हठ करे अगर तो लोहू वक्ष का पीते हैं।
हम हैं शिवा प्रताप, रोटियां भले घास की खाएंगे,
मगर किसी जुल्मी के आगे मस्तक नहीं झुकाएंगे।
देंगे जान, नहीं ईमान, जियो-जियो अय हिंदुस्तान।
जियो-जियो अय देश , कि पहरे पर ही जगे हुए हैं हम,
बन-पर्वत हर तरफ चौकसी में ही लगे हुए हैं हम
हिंद-सिंधु की कसम, कौन इस पर जहाज ला सकता है:
सरहद के भीतर कोई दुश्मन कैसे आ सकता है?
पर की हम कुछ नहीं चाहते, अपनी किंतु, बचाएंगे,
जिसकी उंगली उठी उसे हम यमपुर को पहुंचाएंगे।
हम प्रहरी यमराज समान, जियो, जियो अय हिंदुस्तान
जियो, जियो अय हिंदुस्तान
जाग रहे हम वीर जवान, जियो, जियो अय हिंदुस्तान
हम प्रभात की नई किरण हैं, हम दिन के आलोक नवल
हम नवीन भारत के सैनिक, धीर, वीर, गंभीर, अचल
हम प्रहरी ऊंचे हिमाद्री के, सुरभि स्वर्ग की लेते हैं,
हम हैं शांति दूत धरती के , छांह सभी को देते हैं
वीर प्रसु मां की आंखों के,

संसद में बांटी गई थी 'पोएट्स ऑफ भिलाई'



भिलाई के इन युवा कवियों की रचनाएं तब बेहद चर्चा मेें थी। भारत-चीन युद्ध के अगले वर्ष 1963 बीएसपी के तत्कालीन जनरल मैनेजर इंद्रजीत सिंह ने इस्पात नगरी के विभिन्न भाषा के रचनाकारों की कविताएं 'पोएट्स ऑफ भिलाई' के नाम से प्रकाशित करवाई थी।

जिसमें चीन को ललकारती यह रचनाएं भी शामिल की गई थी। इस संग्रह में शामिल रहे वरिष्ठ साहित्यकार दानेश्वर शर्मा बताते हैं कि तब 'पोएट्स ऑफ भिलाई' की प्रतियां भिलाई में सभी कर्मियों को बांटी गई थी।

इसके अलावा दिल्ली में सभी सांसदों को भेजी गई थी। बाद में इन कविताओं की तारीफ में सांसद और राष्ट्रकवि की उपाधि से विभूषित रामधारी सिंह दिनकर ने एक पत्र भिलाई के कर्मियों को लिखा था।

'आपदा को अवसर' में बदला था मनु नायक ने


1963 में मनु नायक द्वारा 'कहि देबे संदेस' के लिए फिल्माया गया भिलाई स्टील प्लांट का दृश्य 

पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म 'कहि देबे संदेस' बनाने वाले फिल्मकार मनु नायक ने भारत-चीन 
युद्ध 1962 के दौरान आपदा को अवसर में बदल दिया था। दरअसल तब युद्ध के दिनों में सार्वजनिक स्थलों की फोटोग्राफी और फिल्मोग्राफी प्रतिबंधित थी। वहीं मनु नायक को अपनी इस फिल्म में छत्तीसगढ़ की तरक्की दिखाने भिलाई स्टील प्लांट का एक दृश्य शूट करना बेहद जरूरी था।
इस दौरान इंग्लैंड से आने वाली कच्ची फिल्म की राशनिंग भी थी। ऐसे में बिना फिल्म बरबाद किए और बगैर रि-टेक के उन्हें यह दृश्य शूट भी करना था।
नायक बताते हैं-तब आज का बोरिया गेट नहीं था और पूरा कारखाना खुला-खुला सा था। फिर भी एहतियात के तौर पर वह एक मालवाहक में अपना कैमरा छिपा कर पहुंचे थे और दिन में सेक्टर-4 के हिस्से में मालवाहक खड़ा कर उन्होंने चुपचाप यह सीन शूट कर लिया था। जिसे मुंबई जाकर फिल्म में 'दुनिया के मन आघू बढ़ गे' गीत में जोड़ा गया।

भारत-चीन बातचीत का प्रतिधित्व करने वाले 
भिलाई की शान लेफ्टिनेंट जनरल हरिंदर सिंह

हरिंदर सिंह (लाल घेरे ) की में सेक्टर-10 स्कूल की तस्वीर, सौजन्य -दीपांकर दास 

इस्पात नगरी भिलाई में पले-बढ़े और वर्तमान में लेफ्टिनेंट जनरल हरिंदर सिंह को भारतीय सेना के प्रतिनिधि के तौर पर चीनी सेना के अधिकारी मेजर जनरल लियू लिन के साथ 6 जून की तय बातचीत का जिम्मा सौंपा गया। इस प्रतिनिधि मंडल के बीच आगे भी कई दौर की बातचीत हुई। 
ऐसे में हरिंदर सिंह की चर्चा देश-विदेश के मीडिया में खूब हुई  है। लद्दाख में जारी भारत-चीन गतिरोध को खत्म करने भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले लेफ्टिनेंट जनरल हरिंदर सिंह लेह स्थित 14वीं कॉप्र्स के कमांडर के तौर पर पिछले साल अक्टूबर 2019 में जवाबदारी संभाली थी। इस्पात नगरी भिलाई वासियों के लिए यह गर्व की बात है की उनका हमारे शहर से नाता है।

सेक्टर-8 स्ट्रीट-21 में रहे और सीनियर सेकंडरी स्कूल सेक्टर-10 से 1981 में पढ़ कर निकले हरिंदर सिंह ने भारतीय सेना में अब तक बेहद उल्लेखनीय सेवा दी है
उनके पिता दिवंगत सरदार गुरूनाम सिंह भिलाई स्टील प्लांट के शुरूआती दौर के इंजीनियरों में से थे और मर्चेंट मिल से प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए थे। बहन नरिंदर कौर यहां डीपीएस रिसाली में शिक्षिका हैं,बहनोई हरदयाल सिंह बीएसपी के रिटायर जीएम (इलेक्ट्रिकल) हैं। वहीं छोटे भाई कर्नल रविंदर सिंह भी सेना के माध्यम से देश सेवा कर रहे हैं। उनके  स्कूल के सहपाठियों में बीएसपी में कार्यरत और प्रख्यात ड्रमर दीपांकर दास का नाम प्रमुख है।

चीन पर प्रतिबन्ध के दौर में भिलाई से निकली ‘चिंगारी’ 


भारत सरकार के टिकटॉक सहित चीन के विभिन्न मोबाइल ऐप पर प्रतिबंध के बीच इस्पात नगरी भिलाई के पले-बढ़े युवा सुमीत घोष की टीम के बनाए ‘चिंगारी’ ऐप की धूम मची हुई है। देखते ही देखते करोड़ों की तादाद में देश भर से इस स्वदेशी ऐप को लोग डाउनलोड कर रहे हैं। भिलाई में रह रहे सुमीत और उनकी टीम पर आज पूरे देश और दुनिया की निगाहें हैं।
देश के प्रतिष्ठित उद्योगपति आनंद महिंद्रा ने पिछले महीने एक ट्विट कर  सुमीत और उनकी टीम की हौसला अफजाई की थी। महिंद्रा ने अपने ट्विट में कहा था- मैंने कभी अपने मोबाइल में टिक टॉक डाउनलोड नहीं किया। लेकिन चिंगारी को डाउनलोड किया है। इसके बाद से ‘चिंगारी’ ऐप को और ज्यादा हवा मिली और देखते ही देखते पूरे देश में भिलाई से निकला यह अविष्कार छा गया। को-फाउंडर व चीफ प्रोडक्ट आफिसर सुमीत घोष और उनकी टीम ने ‘चिंगारी’ ऐप का निर्माण आज नहीं बल्कि दो साल पहले किया था। उनके साथ छत्तीसगढ़ के अलावा ओडिशा और कर्नाटक के पेशेवर आईटी विशेषज्ञ भी इस टीम में हैं। नवंबर 2018 में इसे गूगल प्ले स्टोर पर अधिकृत तौर पर जारी किया गया था। तब से लोग इसे डाउनलोड भी कर रहे थे लेकिन तीन दिन पहले जैसे ही भारत सरकार ने टिकटॉक सहित चीन के अलग-अलग मोबाइल ऐप पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा की तो लोगों ने एक विकल्प के रूप में ‘चिंगारी’ ऐप पर नजर दौड़ाई। 
सुमीत के पिता श्यामल घोष पेशे से कारोबारी हैं। सुमीत की स्कूली शिक्षा डीपीएस भिलाई में हुई और इसके बाद उन्होंने भिलाई इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी से 2007 में कंप्यूटर साइंस में डिग्री ली। इसके बाद टीसीएस में जॉब की और 2009 में अपनी खुद की कंपनी भिलाई में शुरू की। बीआईटी दुर्ग में कंप्यूटर साइंस के प्रोफेसर सुदीप भट्टाचार्य बताते हैं कि सुमीत घोष कॉलेज के दिनों में भी अपनी धुन में लगे रहते थे और दूसरे स्टूडेंट से काफी अलग थे।
 तब भी सुमीत ने कई साफ्टवेयर बनाए थे, जिसे नामी कंपनियों ने खरीदा था। प्रो. सुदीप भट्टाचार्य ने बताया कि सुमीत ने खुद पहल करते हुए अपनी साफ्टवेयर कंपनी के माध्यम से बीआईटी में मशीन लर्निंग पर रिसर्च सेंटर शुरू किया है। जिसमें बीआईटी में मशीन लर्निंग पर रिसर्च के लिए सुमीत की कंपनी तीन साल के लिए हुए इस करार के तहत हर साल 10 लाख रूपए दे रही है। इससे कंप्यूटर साइंस में शोध को बढ़ावा मिला है। प्रो. सुदीप ने बताया कि सुमीत की वजह से आईटी सेक्टर में भिलाई का नाम चर्चा में आ रहा है। सुमीत अपनी कोशिशों के तहत अब स्मृति नगर में पहला निजी साफ्टवेयर टेक्नालॉजी पार्क विकसित कर रहे हैं। जिससे भविष्य में आईटी के क्षेत्र में भिलाई की एक अलग पहचान बनेगी।

भारत चीन सीमा पर क्या मतलब है गुलाम
रसूल गालवन और दौलत बेग ओल्डी का..?

नितीश ओझा की फेसबुक वाल से 

गालवन घाटी-इस चर्चित घाटी को जानने के पहले जान लेते हैं फ्रांसिस यंगहसबैंड को। भारत के गवर्नर लार्ड कर्जन ने रूसी प्रभाव को कम करने तथा तिब्बत को ब्रिटिश प्रभाव में लाने के उद्देश्य से यंग हस्बैण्ड (Young Husband) नामक सैनिक अधिकारी की कमान में ब्रिटिश भारतीय सेना को तिब्बत भेजा ।
अब ये रूसी प्रभाव क्या था ? सत्रहवीं से लेकर बीसवीं सदी तक तक एक ऐसा घटनाक्रम जिसमे रूस समस्त एशिया (भारत समेत) पर अपना प्रभाव जमाना चाहता था। अंग्रेज़ी में ब्रिटेन तथा रूस की इस औपनिवेशिक द्वंद्व को ग्रेट गेम के नाम से जाना जाता है जो द्वितीय विश्वयुद्ध तक चला।
इसी दौरान चीन ने भी तिब्बत और मंगोलिया पर अपना प्रभुत्व जमाना चालू कर दिया था और लहासा पर नियंत्रण कर 7वें दलाई लामा का चयन स्वयं किया।
चीन के इस प्रभाव को समझने के लिए यंगहसबैंड हिमालय समेत कश्मीर, तिब्बत, चीन के अनेक भागों का दौरा करता है फिर काराकोरम, पामिर, हिंदुकुश इत्यादि का मैप भी बनाता है, इसकी इस सेवा से खुश होकर तत्कालीन गवर्नर डफरिन इसे मेडल इत्यादि देते हैं और यह फिर Royal Geographical Society का सदस्य बंनता है फिर आगे प्रेसिडेंट भी ।
इसी दौरान गिलगित के हुंजा प्रांत के लोग यारकन्द नदी के (लद्दाख के आगे सिल्क रूट) पास ब्रिटिश व्यापारियों पर हमले करते हैं, जिसे यंगहसबैंड गोरखा टुकड़ी के साथ मिलकर समाप्त करता है फिर आगे ये लद्दाख का भी भ्रमण करता है, एक्सप्लोर करने के लिए ।
यंगहसबैंड के इस लद्दाख भ्रमण मे उसका सामना लद्दाख के कुछ लुटेर्रों से भी होता है जो लद्दाख के गालवन नदी के आस पास कबीले बनाकर रहते थे फिर कश्मीर के डोगरा राजाओं के सहयोग से उन लुटेरों का सफाया किया जाता है, इस दौरान बहुत सारे गालवान कबीले के लोग नजदीकी क्षेत्रों मे भागकर जान बचाते हैं।
इन्ही मे से एक लड़का यंगहसबैंड का दोस्त बनता है जिसका नाम था गुलाम रसूल गालवन । कहते हैं कि रसूल के पूर्वज भेड़ों के घुमंतू चरवाहे थे और उसी मे से एक लुटेरा हो गया था जिसका नाम था कर्रा गालवन – कर्रा का अर्थ काला और गलवान का अर्थ लुटेरा ।
एक विचार यह भी है कि इसी गुलाम रसूल के नाम पर नदी का नाम गालवन पड़ा, क्यूंकी उसी ने पहली बार इस नदी के बारे में यंगहसबैंड को बताया था । कुछ शोध बताते हैं कि यह गालवान लोग मूलतः कश्मीर के नहीं थे, बल्कि यह दम नामक घुमंतू जनजाति थी जो कालांतर मे सेंट्रल एशिया से कश्मीर आई थी, ये लोग कश्मीरी राजाओं के घोड़े / काफ़िले लूट लिया करते थे।
गुलाम रसूल गाडविन आस्टिन के साथ भी रहता है, वही गाडविन आस्टिन जिनके नाम पर के2 पर्वत चोटी है। यह गुलाम रसूल लंबे समय तक यंगहसबैंड के साथ रहता तो है ही, अनेक भाषाएँ भी सीखता है। इस घुमक्कड़ी के दौरान सर डूरंड के आदेश पर (पाकिस्तान अफगानिस्तान के बीच की रेखा इन्ही डूरंड के नाम पर है और फुटबाल का डूरंड कप भी) यंगहसबैंड बाल्टिस्तान का दौरा करता है और वहाँ रशियन दखल को रोकता है ।
यंगहसबैंड की इस कुशलता से प्रभावित होकर तात्कालिन गवर्नर लार्ड कर्ज़न उसे तिब्बत का कमिश्नर बनाते हैं । यंगहसबैंड फिर तिब्बत मे ब्रिटिश शासन का प्रभुत्व जमाता है, और तिब्बत मे ब्रिटिश राज्य को बनाए रखने के उद्देश्य में लगभग 5000 से ज्यादा बौद्ध भिक्षुकों की हत्या करता है फिर शासन क़ाबिज़ रहता है।
इस कार्य से प्रसन्न होकर उसे ‘Knight Commander’, ‘Order of the Star of India’ और क़ैसर ए हिन्द अवार्ड से नवाजा जाता है। यह वही समय था जब कलकत्ता मे विक्टोरिया मेमोरियल बन रहा था। एंग्लो तिब्बत ट्रीटी भी यही यंगहसबैंड की ही देन थी।
इस दौरान गुलाम रसूल गालवन उसके साथ रहते रहते एक किताब भी लिखता है जिसका नाम सर्वेंट ऑफ साहिब्स है, इस किताब का शुरुआती हिस्सा फ्रांसिस यंगहसबैंड ने ही लिखा जिसमे ब्रिटिश भारत और चीनी साम्राज्य के बीच सीमा के बारे में भी बताया है। लेह में आज भी कुछ लोग रहते हैं जो स्वयं को गुलाम रसूल गालवन का वंशज बताते हैं।
1962 की जंग के दौरान भी 14000 फीट ऊंची गालवन नदी का यह क्षेत्र जंग का प्रमुख केंद्र रहा है। गालवन घाटी लद्दाख में एलएसी पर स्थित है। यह वही अक्साई इलाका है, जिसे चीन ने अपने कब्जे में ले रखा है, 1962 की जंग में गालवन घाटी में गोरखा सैनिकों की पोस्ट को चीनी सेना ने 4 महीने तक घेरे रखा था, 33 भारतीयों की जान गई थी।
मुगल वंश के संस्थापक बाबर के नाना युनूस खान के पोते सुल्तान सईद खान ने 9 कबीलों का समूह बनाकर एक प्रांत मुगलिस्तान की स्थापना की थी, यरकंद नदी के समीप से, यह सईद खान स्वयं को तैमूर का वंशज कहता था,
इसी के अंतर्गत आने वाले लद्दाख और काराकोरम के नजदीक स्थित दौलत प्रांत के नाम पर, लद्दाख मे भारत सरकार द्वारा निर्मित सड़क, हवाई पट्टी का नाम दौलत बेग है । इस प्रांत मे बाल्टी जाति के लोग रहते हैं और यह भी गालवन के नजदीक है।
दौलत बेग ओल्डी अत्यंत चर्चित है जिसका तुर्की भाषा मे अर्थ होता है वह जगह बड़े बड़े सूरमा की भी मौत हो जाये। यह दुनिया की सबसे ऊंची हवाई पट्टी है।