तनाव से भरे थे वह अढ़ाई घंटे, जब हमनेें
बंगबंधु मुजीब को सुरक्षित ढाका पहुंचाया
16 दिसंबर विजय दिवस पर विशेष
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वायुसेना के जवान वीके मुहम्मद तब और अब |
16 दिसंबर 1971 को भारत के साथ बुरी तरह हारने के बाद पाकिस्तान की सेना ने अपने 94 हजार पाकिस्तानी सैनिक, छह महिने के राशन और 8 महिने के युद्ध के हिसाब से असलाह व हथियार के साथ आत्मसमर्पण कर दिया था।
भारत-पाक युद्ध की इस गौरव गाथा की एक कड़ी इस्पात नगरी भिलाई में भी है। कम ही लोग जानते हैं कि बांग्लादेश निर्माण के बाद बंगबंधु शेख मुजीब को सुरक्षित ढाका पहुंचाने में वैशाली नगर भिलाई में निवासरत वायुसेना के जवान वीके मुहम्मद ने एक अहम भूमिका निभाई थी।
एयरफोर्स से सेवानिवृत्ति के बाद अब स्टील इंडस्ट्री को तरक्की देने में अपनी भूमिका का निर्वहन कर रहे वीके मुहम्मद ने बांग्लादेश युद्ध से जुड़े अपने अनुभव विजय दिवस के मौके पर कुछ इस तरह साझा किए-
1964 में भारतीय वायुसेना में मेरा चयन हुआ और ट्रेनिंग के बाद हेलीकॉप्टर स्क्वाड में ग्राउंड इंजीनियर के तौर पर सेवा की शुरूआत की। इसके बाद 1965 में भारत-पाक युद्ध के दौरान देश सेवा का मौका मिला। फिर 1971 के भारत-पाक का युद्ध तो हम लोगों के लिए बिल्कुल नया अनुभव था। जब दो देशों के युद्ध के बाद तीसरे देश बांग्लादेश का निर्माण हुआ।
94 हजार सैनिकों के साथ दुनिया का सबसे बड़ा आत्मसमर्पण
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पाकिस्तानी फौज का आत्मसमर्पण 16 दिसंबर 1971 |
पाकिस्तानी जनरल अमीर अब्दुल्लाह खां नियाजी ने 94 हजार पाकिस्तानी सैनिक, छह महिने के राशन और 8 महिने के युद्ध के हिसाब से असलाह व हथियार के साथ भारतीय पक्ष के मेजर जनरल जगजीत सिंह अरोरा के समक्ष आत्ममर्पण कर दिया। यह तब दुनिया का सबसे बड़ा आत्मसर्पण था।
इस पूरे युद्ध में हम लोग एमआई-4 श्रेणी के 6 हैलीकॉप्टर के साथ आर्मी को सहायता देने संबद्ध किए गए थे। युद्ध के 7 वें दिन हम लोगों को जख्मी और लहूलुहान जवानों को युद्ध क्षेत्र से सुरक्षित क्षेत्र ले जाने का मौका मिला।
युद्ध के बारे में एक फौजी होने के नाते मुझे यह बात दुखी करती है कि इस युद्ध के दौरान हमारे भारतीय सैनिकों के बलिदान का कोई आंकलन नहीं किया गया। यहां तक कि स्वतंत्र बांग्लादेश ने भी इस तथ्य को स्वीकार नहीं किया। हालांकि इसके बावजूद हम लोग कंधे से कंधा मिलाकर लड़े। ऐसा मौका दोबारा नहीं आया। यह हमारी नियति थी।
लंदन से दिल्ली होते हुए ढाका ले जाया गया बंगबंधु को
ढाका रवाना होने से पहले शेख मुजीब नई दिल्ली में |
16 दिसंबर 1971 को हमारी सेना युद्ध जीत चुकी थी और पाकिस्तानी फौज के आत्मसमर्पण के बाद चारों तरफ जीत का माहौल था लेकिन इसके बाद बांग्लादेश निर्माण में भी भारतीय भूमिका का निर्वहन होना था। तब शेख मुजीब पाकिस्तान में लाहौर जेल में बंद थे। उनकी जान के संभावित खतरे को देखते हुए उन्हें पाकिस्तान-बांग्लादेश के बजाए किसी तीसरे देश में भेजने की नीति के तहत उन्हें लंदन भेज दिया गया। इधर बांग्लादेश को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिलते ही वहां पहली सरकार के गठन की प्रक्रिया शुरू हुई।
ऐसे में शेख मुजीब को लंदन से ढाका पहुंचाने की जवाबदारी भारतीय पक्ष थी। मुजीब लंदन से सीधे नई दिल्ली पहुंचे तो हम एयरफोर्स के लोग इस पूरे आपरेशन का एक हिस्सा थे। अब हमें दिल्ली से ढाका तक उन्हें सुरक्षित ले जाना था।
वह 10 जनवरी 1972 का दिन था, जब ढाका जाने के लिए मुजीब भारतीय विमान में सवार हुए। उनके साथ उनके कुछ साथी थे। सभी आपस में बांग्ला में ही बात कर रहे थे।
इनके साथ भारतीय पक्ष से भी सेना, गुप्तचर ब्यूरो सहित सुरक्षा में लगे लोग भी शामिल हुए। हमारी जवाबदारी मुजीब के इस विशेष विमान को आसमान में सुरक्षा प्रदान करना था। हम लोग अपने हेलीकॉप्टर में सवार हुए और इसके बाद हमारा सफर शुरू हुआ। करीब 2:30 घंटे लगे हमें ढाका पहुंचने में लेकिन यह पूरा समय बेहद तनाव भरा था। हर पल अनहोनी की आशंका थी।
हालांकि हम सब सुरक्षित ढाका पहुंचे और वहां के एयरपोर्ट पर तो अद्भुत नजारा था। चारों तरफ हजारों की तादाद में लोग अपने बंगबंधु शेख मुजीब का स्वागत करने खड़े थे।
हम लोगों ने अपनी ड्यूटी पूरी कर वहां से विदा ली और मुजीब अपने बांग्लादेशी लोगों के बीच बड़ी तेजी से बढ़ते चले जा रहे थे। वह नजारा आज भी मैं नहीं भूल पाया।
शिमला समझौता और बेनजीर
इस युद्ध के बाद 2 जुलाई 1972 को पाकिस्तानी प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो और भारतीय प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी शिमला समझौते के लिए इकट्ठा हुए।
उस घटनाक्रम का भी मैं गवाह रहा हूं। तब मेरी पोस्टिंग शिमला में ही थी। मुझे याद है तब 17 वर्षीय बेनजीर भुट्टो शिमला में बड़े आराम से शॉपिंग करते हुए घूम रही थी। ऐसा लग रहा था कि वो किसी पिकनिक पर आई हैं।
शेख मुजीब और उनके परिवार का दुखद अंत
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शेख मुजीब अपने परिवार के साथ |
इसकी सूचना भारत सरकार को थी और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने निजी तौर पर शेख मुजीब को फोन कर चेताया था कि उन्हें उनकी ही सुरक्षा में लगे लोगों से जान का खतरा है।
लेकिन शेख मुजीब ने हमेशा इस चेतावनी को हल्के में लेते हुए कहा कि ये सब हमारे बच्चे हैं, ऐसा कुछ नहीं करेंगे। इधर भारत सरकार शेख मुजीब की सुरक्षा को लेकर चिंतित थी।
ऐसे में हम लोगों को हाई अलर्ट पर रखा गया था। हमें भारत सरकार का निर्देश था कि आपात स्थिति में तत्काल ढाका जा कर शेख मुजीब और उनके परिवार को हिंदोस्तान लाना पड़ सकता है। हमारी एयरफोर्स इसके लिए तैयार थी, हम लोगों की छुट्टिया रद्द कर दी गई थीं।
हम अपने तैयारी में थे लेकिन बदकिस्मती से 15 अगस्त 1975 को सुबह 5:30 से 6 बजे के बीच ढाका के राष्ट्रपति भवन में सेना के लोगों ने ही विद्रोहियों के साथ मिल कर राष्ट्रपति शेख मुजीब,उनकी पत्नी औप तीनों बेटों सहित परिवार के कुल 20 लोगों की हत्या कर दी।
शेख मुजीब की दो बेटियां लंदन में रह रही थीं, इसलिए दोनों बच गईं। इनमें से बड़ी बेटी शेख हसीना आज बांग्लादेश की प्रधानमंत्री है। इस पूरे घटनाक्रम का एक ददर्नाक संयोग यह है कि 1975 में इंदिरा गांधी की चेतावनी को मुजीब हल्के से ले रहे थे और जब ऐसी ही स्थिति 1984 में भारत में बनीं तो इंटेलिजेंस की रिपोर्ट के बावजूद खुद इंदिरा गांधी ने अपने अंगरक्षकों को हटाने से इनकार कर दिया था, जिसके चलते वह भी अपनों की गोली का शिकार हुईं।
इंदिरा गांधी के एयरफोर्स के हेलीकॉप्टर से जाने पर हुआ था हंगामा
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी हेलीकॉप्टर में |
विपक्ष की मांग पर जांच भी शुरू हुई लेकिन बाद में प्रधानमंत्री के तौर पर वायुसेना के हेलीकॉप्टर के इस्तेमाल का नियम बन गया। दूसरी बार कुछ ऐसा हुआ कि वड़ोदरा में पोस्टिंग के दौरान मैं परिवार सहित रह रहा था।
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पत्नी के साथ मुहम्मद बड़ोदरा के दिनों में |
किसी को कुछ समझ नहीं आया कि एयरफोर्स के जवान की छुट्टी कलेक्टर ने कैसे कैंसिल कर दी।
फिर बाद में मुझे बताया गया कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी बड़ोदरा आ रही हैं और श्रीमती गांधी और मेरी पत्नी का ब्लड ग्रुप एक ही है। पूरे बड़ोदरा में इस ब्लड ग्रुप वाले गिनती के 7 लोग थे और एहतियात के तौर पर हम लोगों को रोका गया था।
खैर, प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी की ड्यूटी में जब भी मैं रहा, उनके सद्व्यवहार को कभी भूल नहीं पाया। वह हमेशा हेलीकॉप्टर से उतरते वक्त न सिर्फ हाल-चाल पूछती थीं बल्कि भोजन करते वक्त हम लोगों का भी पूरा ख्याल रखती थीं।
दुश्मनों के दो साइबर जेट ध्वस्त कर शहादत पाई थी निर्मलजीत ने
परमवीर चक्र विजेता के सम्मान में जारी डाक टिकट |
हम एयरफोर्स वाले भी उनकी कुरबानी को भूल नहीं पाए हैं। निर्मलजीत से हम लोगों का बहुत ज्यादा लगाव होने की खास वजह यह थी कि उनके पिता फ्लाइट लेफ्टिनेंट तरलोक सिंघ सेखों हमारे बॉस हुआ करते थे। चंडीगढ़ में पोस्टिंग के दौरान बालक निर्मलजीत अक्सर हम लोगों के साथ बैडमिंटन खेलने आया करते थे।
फिर 1967 में वह एयरफोर्स से जुड़ गए और 1971 के युद्ध में उन्होंने अपने अदम्य साहस का परिचय देते हुए दुश्मन फौज के दो साइबर जेट विमानों को ध्वस्त कर शहादत पाई थी।
14 दिसंबर 1971 को उनकी शहादत हुई और भारत सरकार उनके इस अदम्य साहस के लिए उन्हें मरोणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया।
वीके मुहम्मद ने अपने बारे में बताया
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1965 में मैं वायुसेना से जुड़ा। 17 साल तक वायुसेना में रहने के दौरान मुझे 1965 और 1971 के युद्ध के अलावा राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री और देश-विदेश की कई विशिष्ट हस्तियों को लाने ले जाने और प्राकृतिक आपदाओं के दौरान राहत कार्य में भागीदारी का अवसर मिला।
1979 में सेना से सेवानिवृत्ति के बाद एक इंजीनियरिंग फर्म से जुड़ गया। उनका भिलाई स्टील प्लांट में एक कंस्ट्रक्शन का काम चलता था। तब भिलाई आना-जाना लगा रहता था।
ऐसे में 1986 में मुझे भिलाई स्टील प्लांट ने सीधे जुडऩे का प्रस्ताव दिया और तब से भिलाई के विकास में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भूमिका निभा रहा हूं।
भिलाई मलयाला ग्रंथशाला, श्रीनारायण गुरु समाजम, नृत्यति कला क्षेत्रम व केरला समाजम जैसी शैक्षणिक व सांस्कृतिक संस्थाओं से भी जुड़ा हूं। वहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संचालित संस्था यूनिवर्सल कन्फेडरेशन ऑफ श्री नारायण गुरू का वाइस चेयरमैन हूं।
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Mohd sir apke bare mein it na San jankari bahuy khudhi Hui Allah aapko khoob tarakki de
ReplyDeleteMohd Sir, hats off for your service to the nation. May GOD give courage to serve the nation. 🇮🇳🙏
ReplyDeleteबढ़िया जानकारी जिससे अब तक मैं भी वंचित रहा..आपकी खोजी पत्रकारिता को सलाम !
ReplyDeleteMohammad bhai you are visionary for Bhilians
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