Saturday, January 15, 2022


एक कारखाने के बनने की कथा और अंतर्कथा 

-जाहिद खान, शिवपुरी (मध्यप्रदेश)

समीक्षक जाहिद खान अपने निवास पर

‘वोल्गा से शिवनाथ तक’ छत्तीसगढ़ के विश्व प्रसिद्ध ‘भिलाई स्टील प्लांट’ पर केन्द्रित दिलचस्प और तमाम दस्तावेजी जानकारियों से भरी एक मुकम्मल किताब है। लेखक-पत्रकार मुहम्मद जाकिर हुसैन की यह शानदार किताब एक अलग ही शिल्प में लिखी गई है। 

कहीं ये किताब ‘भिलाई स्टील प्लांट’ के गौरवशाली इतिहास के बारे में सूक्ष्म जानकारियां देती है, तो कहीं इस प्लांट से जुड़े रूसी और भारतीय इंजीनियर-अधिकारियों के संस्मरण, इस्पात नगरी के बनने और उनके संघर्षमय जीवन की झलकियां दिखलाते हैं। किताब के कुछ अध्याय सीधे-सीधे रिपोर्ताज की शक्ल में हैं, तो अनेक महत्वपूर्ण लोगों के साक्षात्कार से प्लांट की अंतर्कथा मालूम चलती है। 

हां, किताब में देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के तीन ऐतिहासिक भाषण भी शामिल हैं, जो उन्होंने अलग-अलग वक्त में ‘भिलाई स्टील प्लांट’ के दौरे के दौरान दिए थे। अपने एक भाषण में नेहरू ने भिलाई को मुल्क की तरक्की और खुशहाली की बुनियाद बतलाया था। उनका यह दावा बाद में सच साबित हुआ।

फरवरी, 1960 को सोवियत संघ के तत्कालीन प्रधानमंत्री निकिता सरगेयेविच खु्रश्चेव के दो दिवसीय दौरे का भी लेखक ने किताब में तफ्सील से जिक्र किया है। यह जानना भी बेहद जरूरी होगा कि भिलाई कारखाने के निर्माण के पीछे नेहरू के साथ-साथ ख्रुश्चेव की बड़ी भूमिका थी। अगर खु्रश्चेव दिलचस्पी नहीं लेते, तो यह कारखाना आकार नहीं लेता। किताब में शामिल अनेक तस्वीरें, हमें उस दौर में ले जाती हैं, जब इस कारखाने का विस्तार हो रहा था। 

प्रकाशित समीक्षा

कुल मिलाकर ‘भिलाई स्टील प्लांट’ की स्थापना और इसके विकास को अच्छी तरह से जानना-समझना है, तो ‘वोल्गा से शिवनाथ तक’ एक मददगार किताब है। जो अथक शोध, धैर्य और परिश्रम के साथ लिखी गई है। हिंदी में इस तरह का काम बहुत कम हुआ है। 

अलबत्ता, मुहम्मद जाकिर हुसैन जरूर इस तरह का काम पहले भी कर चुके हैं। इस किताब से पहले इस्पात नगरी भिलाई पर साल 2012 में उनकी एक और महत्वपूर्ण किताब ‘भिलाई-एक मिसाल’ आई थी, जो काफी चर्चा में रही।

 वोल्गा नदी, अविभाजित रूस की जीवनरेखा रही है, तो शिवनाथ नदी छत्तीसगढ़ की। विश्व की सारी आधुनिक सभ्यताएं, नदी किनारे विकसित हुईं। भिलाई, शिवनाथ नदी के किनारे तो नही है, लेकिन इस नदी से ‘भिलाई स्टील प्लांट’, के लिए पानी की आपूर्ति हुई और एक आधुनिक शहर अस्तित्व में आया। जिसकी संस्कृति मिली-जुली है

प्रकाशित समीक्षा

रशियन टेक्नालॉजी, वर्क कल्चर और छत्तीसगढ़ी संस्कृति से मिलकर भिलाई में एक ऐसी संस्कृति बनी जो बेजोड़, बेमिसाल है। किताब में जितने भी इंटरव्यू हैं, चाहे वे रूसियों के हों या फिर भारतीयों के इनमें एक दूसरे के प्रति गहरी दोस्ती, मुहब्बत, एहतराम और यकीन झलकता है। 

किताब का सबसे दिलचस्प हिस्सा, ऐसे दंपतियों के इंटरव्यू हैं, जिनमें पति भारतीय और पत्नी रशियन हैं। इन इंटरव्यू से मालूम चलता है कि मुहब्बत, किसी देश-दुनिया की दीवार और बंधनों को नहीं मानती। लेखक ने किताब में उस अनुबंध को भी शामिल किया है, जो भारत सरकार और सोवियत संघ के बीच हुआ था।

अनुबंध से मालूम चलता है कि परियोजना के लिए दोनों सरकारों के बीच उस वक्त क्या-क्या अहम करार हुए थे। छोटे-छोटे अध्यायों में बंटी ‘वोल्गा से शिवनाथ तक’ की कोई कमी की यदि बात करें, तो जितना संजीदा कंटेन्ट है, उसके बरक्स किताब की छपाई बेहद निम्न स्तर की है। 

किताब बिल्कुल टेक्स्ट बुक की तरह लगती है। प्रकाशक ने पेपरबैक किताब का दाम तो पांच सौ रुपए रखा है, लेकिन क्वालिटी थोड़ी सी भी देने की कोशिश नहीं की है। जबकि किताब की मांग को देखते हुए, एक साल के अंदर इसका दूसरा संस्करण आ गया है।

शीर्षक: वोल्गा से शिवनाथ तक

लेखक:मुहम्मद जाकिर हुसैन

समीक्षक-जाहिद खान, महल कॉलोनी, शिवपुरी मप्र 

मोबाईल 94254 89944 

मूल्य : 500 (पेपरबैक संस्करण), 

प्रकाशक : सर्वप्रिय प्रकाशन, नई दिल्ली

------ 

 लोहे का बदन... लोहे का कारखाना 

गर छूने से नहीं सिहरता तो मेरे किस काम का

-पीयुष कुमार, रामानुजगंज छत्तीसगढ़ 

इंसानी सभ्यता की बड़ी पहचान उसकी बनाई तामीर है। मिस्र के पिरामिड्स से लेकर सिंधु सभ्यता और और आज शंघाई की गगनचुम्बी इमारतों को देखकर यह बेहतर समझा जा सकता है। सभ्यता के इस विकास क्रम में स्टील का सबसे बड़ा योगदान है। 

यह इस्पात कैसे बनता है और इसमें लोहे के साथ पसीना, दिमाग और जज्बात किस तरह घुले मिले हैं उसकी यह अलहदा सी कहानी है जिसे भिलाई के पत्रकार लेखक मुहम्मद जाकिर हुसैन ने 'वोल्गा से शिवनाथ तक' में बयान किया है। 

राहुल सांकृत्यायन आज होते तो उन्हें खुशी होती कि 'वोल्गा से गंगा' के अलावा एक धारा शिवनाथ (नदी) तक भी बह चली है, वह धारा जिसने देश की आज़ादी के बाद उसके भविष्य को थामकर रखने के लिए बुनियाद दी। 

जी हां, यह किताब रूस के सहयोग से 1955 में स्थापित भिलाई इस्पात संयंत्र की स्थापना और प्रक्रिया पर आधारित है जिसमें लोहे को इस्पात में बदलने में लगे जज्बातों का पानी मिला हुआ है। भिलाई इस्पात संयंत्र की स्थापना रूस के सहयोग से हुई थी। 

ऐसे में रूसी इंजीनियरों का भिलाई आना और उनके यहां रम जाने के किस्से पढऩा अद्भुत एहसास कराते हैं। इन किस्सों में एक ओर जहां भिलाई इस्पात संयंत्र के विकास क्रम में हुई हर बात जो भट्टी के अंदर के ताप से रूबरू कराती है, वहीं साथ मिलकर काम करने से उपजे इंसानी रिश्तों की तरलता भी साथ साथ बहती है। गौरतलब है कि कई रूसी महिलाओं ने यहीं भारतीय पुरुषों के साथ विवाह कर यहीं घर बसा लिया है जिनमे से कई जोड़ों का तस्वीर सहित इसमें जिक्र है। 

पहली-दूसरी पंचवर्षीय योजनाओं में बने औद्योगिक तीर्थों की खास बात यह है कि हर जगह वे एक लघु भारत का निर्माण करते हैं। छत्तीसगढ़ के भिलाई की भी यही कहानी है। यह बोकारो, राऊरकेला जैसे शहर के लोग और रेलवे में जिनके पिता या दादाजी कार्यरत रहे हैं, वे भी बेहतर महसूस कर सकते हैं। 

विशेष ढंग से बनी कालोनियां, पार्क, अस्पताल, स्कूल, पेड़ पौधे और मार्केट इन्हें बाकी जगहों से अलग करते हैं। यह किताब देश के बुनियादी विकास का एक दस्तावेज है। औद्योगिक नगरीयकरण में श्रम, सहकार और विभिन्न सांस्कृतिक पहचानों में गुंथे समाज को साहित्यिक विधाओं और विमर्शों में जगह नहीं मिली है, इस लिहाज से यह किताब इस कमी को पूरा करती है और प्रेरित करती है कि हर ऐसी जगहों को उसके मिजाज बदलने से पहले ही दर्ज कर लिया जाए। लेखक को इस किताब के लिए बधाई।

 सुझाव है कि आप भी यह किताब जरूर पढ़ें ताकि पता लगे कि साहित्य में कविता कहानी से अलग भी कोई दुनिया है। 

संपर्क-+918839072306 

----------

एक खुशहाल मुल्क बनने का ब्यौरा इस किताब में 

 -पल्लव चटर्जी, भिलाई छत्तीसगढ़

'वोल्गा से शिवनाथ तक' के लेखक मुहम्मद ज़ाकिर हुसैन को मैं मुबारकबाद देता हूं। उन्होंने अपनी पुस्तक में तत्कालीन रुसी प्रधानमंत्री खुशचेव तथा भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जी के मित्रतापूर्ण संबंध और भिलाई में आधुनिक भारत के लौह इस्पात संयंत्र निर्माण कार्य पूरा कर इस्पात उत्पादन सम्भव बनाने का ब्यौरा दिया है। 

केवल कृषि प्रधान देश नहीं हमें कुछ नये ख्वाब देखना होगा। देश में खनिज पदार्थ का इस्तेमाल करके नये तकनीकी शिक्षा को अपनाकर देश को स्वाबलंबी बनाने हेतु भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने यह विचार व्यक्त किए। 

उनके इस विचार को किस प्रकार रुसी भाईयों ने वास्तव में परिणत किया उसका बिस्तारपूर्वक उल्लेख लेखक ने अपनी किताब में किया है। दोस्ती बढी, प्रेम बढ़ा दो बड़े देशों के बीच। विश्व में आधुनिक भारत का लोहा मनवाया रूसी मित्रता ने। धीरे धीरे एक खुशहाल मुल्क बनाने का विवरण इस पुस्तक में मिलता है। इस पुस्तक को पढ़कर मुझे बेहद संतुष्टि मिला।

 मैं मोहम्मद जाकिर हुसैन के उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूं। 

संपर्क -+918109303936

Friday, January 14, 2022

 

वोल्गा से शिवनाथ तक एक अभूतपूर्व दस्तावेज,पठनीय ग्रंथ 

 

समीक्षक-डॉ. परदेशी राम वर्मा 

 

मैं अतीत को जीत,जीत की पहली एक किरण हूँ,

 भारत के आते भविष्य का मैं मंगलाचरण हूँ। 

बदल रहा यह देश विश्व को मैंने दिखा दिया है,

 मैं भिलाई का नगर कि मैंने जीना सिखा दिया है। 


उपरोक्त पंक्तियां दिवंगत रमाशंकर तिवारी द्वारा रचित हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र के जनसम्पर्क विभाग में प्रमुख थे। भिलाई इस्पात संयंत्र के शुरूआती दौर में कुछ ऐसे कर्मचारी और अधिकारी यहाँ आये जिन्होंने साहित्य के क्षेत्र में भी यश प्राप्त किया। 

दानेश्वर शर्मा,रविशंकर शुक्ल, रमाशंकर तिवारी,मोहन भारती और केशव पाण्डे जैसे कवि चढ़ती जवानी के दिनोंं में यहाँ आये और आगे चलकर वे अपने अपने क्षेत्रों के दिग्गज कहलाये। केशव पाण्डे जनवादी लेखक संघ दुर्ग जिला के अध्यक्ष बने। दानेश्वर शर्मा लिटररी क्लब के अध्यक्ष बने और मोहन भारतीय ने प्रतिष्ठित जैनी पत्रिका का एक दशक तक संपादन किया। इनमें केशव पाण्डे, मोहन भारतीय और रमाशंकर तिवारी अब हमारे बीच नहीं हैं। 

समीक्षक और लेखक 

प्रसिद्ध पत्रकार और सेंट थॉमस कालेज भिलाई के पत्रकारिता विभाग में शिक्षाविद् मुहम्मद जाकिर हुसैन द्वारा लिखित पुस्तक 'वोल्गा से शिवनाथ तक' में भिलाई नगर की वंदना का रमाशंकर तिवारी लिखित यह गीत महत्व के साथ प्रकाशित है। 

जाकिर छत्तीसगढ़ के जिम्मेदार और प्रतिष्ठित युवा पत्रकार हैं। नई पीढ़ी के जिन पत्रकारों ने अपना विशिष्ट स्थान बनाया जाकिर उनमें से एक प्रमुख नाम है। वे अपने दायित्वों को निबाहते हुए पुस्तक लेखन भी करते हैं। अब तक उनकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। 'वोल्गा से शिवनाथ तक' उनकी तीसरी पुस्तक है।

वरिष्ठ साहित्यकार रवि श्रीवास्तव की टिप्पणी वीडियो पर

निश्चित रूप से शीर्षक राहुल सांकृत्यायन की किताब 'वोल्गा से गंगा' की तर्ज पर है लेकिन 'वोल्गा से शिवनाथ तक' इस शीर्षक में ही पूरी किताब की आंतरिक सामग्री के सम्बन्ध में लेखक ने अपना उद्देश्य स्पष्ट कर दिया है। पुस्तक लेखन में सदैव शीर्षक चयन का विशेष महत्व होता है।

विशेषकर किसी विशेष संदर्भ को केन्द्र में रखकर लिखी गई किताब में तो शीर्षक का चयन पाठक को जुडऩे का आमंत्रण ही देती है। वोल्गा रूस की नदी है शिवनाथ छत्तीसगढ़ के दुर्ग नगर के पास बहने वाली नदी है। शिवनाथ नदी से जुड़ा है दुर्ग शहर जिसके पास ही भिलाई नगर यह नया नगर आबाद हुआ। रूसी भाषा में दोस्ती को द्रुगे कहा जाता है। 

वरिष्ठ पत्रकार दिवाकर मुक्तिबोध की टिप्पणी वीडियो पर

आश्चर्य तथ्य यह है कि छत्तीसगढ़ी में भी इसे दु्रग या दुरूग ही कहते हैं। छत्तीसगढ़ी और रूसी की दोस्ती भी दु्रगे शब्द में निहित है। भारत और रूस ने मिलकर भिलाई इस्पात संयंत्र को खड़ा किया। यह द्रुग अर्थात दोस्ती की मिसाल भी है। जवाहर लाल नेहरू ने इस तरह के नए उद्योग नगरी को भारत का नया तीर्थ कहा। विनोबा भावे ने भिलाई कारखाने को भलाई कारखाना कहा।

 जाकिर इससे पहले 'भिलाई एक मिसाल' और इस्पात नगरी के प्रसिद्ध रंगकर्मी सुब्रत बसु पर 'फौलादी रंगकर्मी सुब्रत बसु' पुस्तक भी लिख चुके हैं। जाकिर हिन्दी और उर्दू के अच्छे जानकार हैं। उनके पास आमफहम सर चढ़कर बोलने वाली भाषा है। वे कल्याण महाविद्यालय के छात्र हैं। उन्होंने इतिहास में एमए किया है। वे बाकायदा पत्रकारिता में डिग्री के साथ सक्रिय हैं। 

वरिष्ठ पत्रकार डॉ. हिमांशु द्विवेदी की टिप्पणी वीडियो

अपनी अब तक की दो दशक की पत्रकारिता में उन्हें दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, सांध्य दैनिक छत्तीसगढ़ और हरिभूमि में कार्य का अनुभव है। 'हरिभूमि' में ही लगातार पन्द्रह दिनों तक उनका कॉलम 'वोल्गा से शिवनाथ तक' शीर्षक से प्रकाशित हुआ। जिसमें प्रकाशित सभी साक्षात्कार रूसी दम्पत्तियों के थे जो भिलाई में ही बस गए हैं। 

पुस्तक में पहला लेख है 'ऐसे साकार हुआ भिलाई'। इस प्रथम लेख में जाकिर ने 1955 से लेकर 1961 तक के संघर्ष भरे दिनों का खाका खींचा है। इसमें 1932 में आये इस सिलसिले के महत्वपूर्ण प्रस्ताव का जिक्र भी है। किस तरह 1945 में आयरन एण्ड स्टील पैनल बना, कब से हुआ भिलाई कारखाने के लिए भूमि अधिग्रहण और पंचवर्षीय योजना में भारत सरकार ने किस तरह 1952 में देश में इस्पात की खपत की दिशा में ठोस चिंतन किया। फिर सोवियत संघ से संबंध बने, धीरे-धीरे भिलाई के सामने आ रही अड़चने हटीं। 1953 में पंडित रविशंकर शुक्ल ने ऐलान कर दिया था कि वे भिलाई के पक्ष में केंद्र सरकार के सामने दृढ़ता से बात रखेंगे।

प्रथम संस्करण के विमोचन अवसर का वीडियो

 10 सितम्बर 1954 की बैठक में सोवियत संघ से सहयोग लेने का प्रस्ताव पारित हुआ। 2 फरवरी 1955 को 10 लाख टन हाट मेटल सालाना उत्पादित करने हेतु संयंत्र लगाने हेतु सोवियत संघ और भारत के बीच समझौता हुआ। धीरे-धीरे लाल मिट्टी, डासा कन्हार वाली धरती जिसे धान का कटोरा कहा जाता है वहाँ भिलाई इस्पात संयंत्र आकार लेने लगा। रूस ठंडा मुल्क हैं और वहाँ से विशेषज्ञ भिलाई आये जो बरसात और गर्मी के मौसम में खूब अपना रंग दिखाता है।

द्वितीय संस्करण के विमोचन अवसर का वीडियो

यहाँ खूब बारिश भी होती है और गर्मी भी अधिक पड़ती है। रूसी विशेषज्ञ ठंडे माहौल में रहने के आदी थे। उन्हें मौसम, भाषा, भोजन और अन्य परिस्थितियों से समझौता करना पड़ा। लेकिन एक बड़े उद्देश्य के लिए समर्पित इस्पात सेनानियों ने यहाँ धीरे-धीरे उत्साह का वातावरण बना दिया। 'द्रुगे' अर्थात दोस्ती ने विशाल कारखाने को बहुत कम समय में खड़ा कर दिया। 

मैत्री बाग भिलाई नगर में इसी दोस्ती को महत्व देते हुए बनाया गया। जहाँ संस्थापकों की प्रतिमा भी लगाई गई है। 1 जुलाई 1956 को मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल भिलाई आए। उसके बाद देश के मूर्धन्य नेतागण लगातार भिलाई आये। जवाहर लाल नेहरू, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, विनोबा भावे से लेकर नेहरू जी के साथ छुटपन में भिलाई आये राजीव गांधी भी बाद में प्रधानमंत्री के रूप में भिलाई आये। देश के जाने माने कलाकार, साहित्यकार भिलाई आये। 

श्रमिक संघर्ष ने यहाँ अपनी पहचान बनाई। भिलाई नगर में इण्टक, सीटू के बीच लगातार प्रतिद्वंद्विता रही मगर सभी श्रम संघों ने भिलाई मेें दोस्ताना माहौल बनाने का यत्न किया। इण्टक यूनियन के महासचिव रहे रवि आर्य कालान्तर में भिलाई के विधायक भी बने। शुरूआती दौर की हर परिस्थिति पर जाकिर ने इस पुस्तक में लेखन करने का प्रशंसनीय प्रयास किया है।

परी पुरोहित का स्वप्रेरणा से बनाया वीडियो मेरी किताब पर

 शुरू में भोजन और निवास के लिए यहाँ सुविधा नहीं थी। ऐसे दौर में पुरोहित होटल ने यहाँ सबसे पहले इस दिशा में काम किया। सेक्टर-1 में और कैम्प-1 में पुरोहित होटल स्थापित कर सेवा का कीर्तिमान रचा गया। तब बड़े-बड़े ठेकेदार पुरोहित होटल (लॉज) में ही ठहरते थे। मित्तल जैसे स्टील किंग भी यहीं ठहरे। 

बी के, बी.ई.सी, सिम्पलेक्स के रूप में बाद में फैक्ट्री लगाने वाले लोग तब ठेका लेने के लिए आते थे और पुरोहित लॉज में ही आसरा पाते थे। धीरे-धीरे सेक्टर-1 बना फिर अन्य सेक्टर बने। भिलाई नगर का पहली सिनेमा चित्रमंदिर सिविक सेंटर में तैयार किया गया। नेहरू सांस्कृतिक सदन बना। मड़ोदा टैंक ने भी आकार लेना शुरू किया। शिक्षा के केंद्र बने। 

1961 में छत्तीसगढ़ कल्याण समिति बनी। इस समिति ने भिलाई में आये युवा कमर्चारियों के लिए आगे की पढ़ाई के लिए महाविद्यालय प्रारंभ किया। स्व. रामेश्वर प्रसाद मिश्रा एवं तोरन सिंह ठाकुर के साथ कल्याण समिति के सदस्योंं ने सेक्टर 2 में पहले यहां रात्रिकालीन महाविद्यालय प्रारंभ किया। बाद में यह नियमित कल्याण महाविद्यालय 14 एकड़ जमीन पर सेक्टर-7 में आकार ग्रहण करता चला गया ।

 नेहरू चिकित्सालय ने यहाँ अपार यश अर्जित किया। इसी कारखानें से जुड़ी हैं पद्मभूषण तीजन बाई। विदेशी 64 मंचों पर पंथी के प्रदर्शन से देश का नाम रोशन कर चुके स्व. देवदास बंजारे भिलाई स्टील प्लांट के कर्मचारी थे। वे गुरू बाबा घासीदास के समतावादी संदेश को लेकर रूस, जापान, इंग्लैण्ड अमेरिका गए। उन्होंने हबीब तनवीर के प्रसिद्ध नाटक चरण दास चोर में काम कर अपार यश प्राप्त किया। 

जाकिर ने इन सबको अपनी किताब में यथोचित महत्व दिया है। अलेक्सेई निकोलाई कोसिजिन सोवियत संघ के मंत्री परिषद के उपाध्यक्ष के हाथों 1961 में भारत रूस मैत्री के प्रतीक स्तम्भ (ओबेलिस्क) की आधार शिला रखी गई। इसी प्रतीक स्तम्भ में एक तरफ जवाहरलाल नेहरू की पंक्ति अंकित हैं कि-'भिलाई भारत के भविष्य का शुभ शगुन एवं प्रतीक हैं।' दूसरी तरफ तत्कालीन रूसी प्रधानमंत्री खुश्चेव की पंक्ति है कि-'भारत-रूस की मैत्री भिलाई इस्पात संयंत्र की तरह मजबूत हो'।

 भिलाई इस्पात संयत्र की गतिविधियों एवं उपलब्धियों की ज्यादातर शानदार फोटोग्राफी हरीश जाधव जी द्वारा की गई है। इनकी फोटोग्राफी की कई प्रदशर्नी भी लगी है। देश की चर्चित पत्रिकाओं ने उनके द्वारा खीची गई फोटो को आदर के साथ प्रकाशित किया है। 

जाकिर ने अपनी किताब में 'टाइम कैप्स्यूल' का भी जिक्र किया है, जो 25 दिसम्बर 1965 को ब्लास्ट फर्नेस-4 की नींव में डाला गया। इस पुस्तक से गुजरते हुए मुझे एक शख्स के द्वारा रचित कीतिर्मानों को पढ़कर सुखद आश्चर्य हुआ। विजय सिंह पाराशर तत्कालीन सुपरिन्टेण्डेण्ट ब्लास्ट फर्नेस भिलाई इस्पात संयंत्र ने भी अपना अनुभव साझा किया है। वे नेहरू नगर में रहते हैं। पाराशर मेरी बहू के दादा जी हैं। मैं उन्हें विभिन्न पारिवारिक समारोहों में उनकी अग्रगामी भूमिका के कारण ही जानता और सम्मान देता था। इस पुस्तक से यह जानकारी मिली कि भिलाई इस्पात संयंत्र में काबिल इंजीनियर के रूप में उन्होंने महत्वपूर्ण सेवायें दी हैं। पुस्तक में 121वें पृष्ठ में उनके योगदान का विशेष जिक्र जाकिर ने किया है। 

पुस्तक में जाकिर ने सभी प्रबंध निदेशक, रूसी प्रमुखों के साथ विशेषज्ञों को याद किया है। इस पुस्तक में जनरल मैनेजर जी. जगतपति के नाम प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के पत्र को भी प्रकाशित किया गया है, जो एक विशेष पत्र है। यह पत्र बताता है कि देश के विकास के लिए चिंतित रहने वाले बड़े लोग किस तरह चौकन्ने होकर हर उपलब्धि का ध्यान रखकर उससे सम्बन्धित लोगों की हौसला अफजाई करते थे। 

शिवराज जैन राजनांदगांव में जन्मे,पढ़े-लिखे पहले छत्तीसगढिय़ा इन्जीनियर थे जो बाद में प्रबंध निदेशक और फिर सेल के अध्यक्ष भी बने। चर्चित जनरल सुपरिन्टेण्डेंट कुलवंत सिंह नागी का भी इस पुस्तक में जिक्र है जिन्होंने एक विशेष अवसर पर शिवराज जैन तथा रशियन विशेषज्ञ मिखाइलोविच को पंजाब की परंपरागत पगड़ी पहनाकर सम्मान दिया था। भारत और रूस के बीच राजनायिक सम्बन्धों के 70 वर्षीय इतिहास को महत्व देते हुए भिलाई से इंडिया-रशिया फ्रैंडशिप मोटर रैली 20 फरवरी 18 को निकाली गई। भिलाई में रूसी महिलाओं ने अपने लिए जीवन साथी चुना। उनके सुखद दाम्पत्य जीवन के ब्यौरे को भी बहुत आत्मीयता के साथ इस ग्रंथ में संग्रहित किया गया है।

 रूस में नेहरू, लता और राजकपूर खूब प्रसिद्ध रहे हैं। जाकिर ने रूसी लोगोंं के साक्षात्कारों के माध्यम से इस सन्दर्भ में रोचक जानकारियाँ दी हैं। इस ग्रंथ में एक मार्मिक कहानी प्रदीप पुरतेज सिंह की है। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में जन सम्पर्क विभाग में उपप्रमुख थे। उनका प्रेम रूसी महिला से था। उन्होंने रूसी महिला के माता-पिता को राजी करने का प्रयत्न भी किया लेकिन विकलांग पुरतेज सिंह को देखकर वे लोग राजी नहीं हुए। इस तरह तान्या त्सालगावा एवं प्रदीप सिंह की प्रेमकथा का दुखद अंत हुआ।

 रूसी भाषा के जानकार दुभाषिए विष्णु प्रभाकर तोपखानेवाले का किस्सा भी कम रोचक नहीं है। वे रूसी भाषा में प्रवीण थे। रूसियों ने उन्हें खूब सम्मान एवं अपनत्व दिया। 'वोल्गा से शिवनाथ तक' एक ऐसी किताब है जिसमें एक कारखाने के जन्म की कहानी है। उसका बचपन और उसकी जवानी के किस्से भी इस कृति में है। छत्तीसगढ़ प्रान्त की आंतरिक विशेषता, यहाँ के लोगों की सहजता, देश भर से आये श्रमिकों से जुड़े उनके प्रान्तोंं की तस्वीरें किताब के हर्फ-हर्फ में है। 

भिलाई नगर में विभिन्न प्रान्तों से आये समुदायों ने अपना भवन बनाया। पूरा देश यहाँ अपनी विशेषताओं केसाथ मिल जाता है। भिलाई इस्पात संयंत्र के हर अगुवा ने कुछ नया करने का प्रयास किया। यहाँ पर्यावरण के क्षेत्र में मैनेजिंग डायरेक्टर विक्रांत गुजराल ने विशेष काम किया। उनके समय में लगाये गए पेड़ों के कारण भिलाई नगर अन्य मैदानी नगरों की तुलना में ठंडा रहता है। छत्तीसगढ़ के उदार मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने उत्तर प्रदेश, बिहार के छठ पर्व पर छुट्टी देकर छत्तीसगढ़ की उदारता का प्रमाण प्रस्तुत कर दिया है । 

विभिन्न प्रान्तों से भिलाई आये कमर्चारियों, व्यवसायियों तथा उनके बच्चों ने विभिन्न क्षेत्रों में कीर्तिमान रचकर सबको प्रेरित किया है। यह पुस्तक संतुलित विचार और समग्र जानकारी, प्रमाणित आंकड़ों एवं ऐतिहासिक महत्व की घटनाओं के आलेखन के कारण बेहद महत्वपूर्ण बन पड़ी है। कल्पना के बदले यथार्थ और सुनी सुनाई बातों के बदले प्रामाणिक इतिहास को आधार बनाकर लेखक जाकिर ने ऐसी किताब को आकार दिया है जो उसे भिलाई और देश से प्रेम करने वाले पाठक के लिए इसे बेहद उपयोगी किताब बनाती है। वोल्गा से शिवनाथ पठनीय और संग्रहणीय पुस्तक हैं। 

विमोचन अवसर पर मुख्यमंत्री त्रयी अजीत जोगी, भूपेश बघेल और डॉ. रमन सिंह के साथ अतिथिगण (7 फरवरी 2019)

शीर्षक - वोल्गा से शिवनाथ तक

मूल्य - 500.00 रू. 

प्रकाशक- सर्वप्रिय प्रकाशन कश्मीरी गेट चर्च रोड, नई दिल्ली 

 लेखक - मुहम्मद जाकिर हुसैन

 समीक्षक- डॉ. परदेशी राम वर्मा 

संपर्क- लेखक-9425558442 समीक्षक-9827993494

 ----------

Thursday, January 6, 2022

 भिलाई हादसे पर इंसानी रिश्तों को बयां करती

 36 साल पुरानी डायरी मिली कोलकाता में

 

-একটি দুর্যোগ-ঝটিকার করুন কাহিনী-

-एक दुर्योग-आहत कर देने वाली कहानी-


भिलाई में 1986 में हुए कोक ओवन ब्लास्ट हादसे के दौरान एक परिवार 

की वेदना दर्ज की पड़ोसी ने, बसु परिवार खोज रहा अपने पुराने पड़ोसी को 

 

(मुहम्मद जाकिर हुसैन) 

डायरी का अंश और स्व.बीना रानी बोस मजमुदार
भिलाई स्टील प्लांट के लिए 6 जनवरी 1986 का दिन ऐसा पहला बड़ा हादसा लेकर आया था जिसमें 9 कर्मवीरों की जान चली गई थी, वहीं 48 कर्मचारी घायल हुए थे। 

इस हादसे के जख्म आज 36 साल बाद भी प्रभावित परिवारों के लिए हरे ही हैं। इस बीच कोलकाता में इस हादसे पर 36 साल पुरानी एक दुर्लभ डायरी मिली है।

वर्ष 1985-86 में सेक्टर-6 एमजीएम स्कूल के पास स्ट्रीट-74 क्वार्टर नंबर 6 ए में निवासरत तपन कुमार बोस मजुमदार भिलाई स्टील प्लांट के एनर्जी मैनेजमेंट विभाग (ईएमडी) में पदस्थ थे। 

उनकी वयोवृद्ध मां बीना रानी बोस मजमुदार की लिखी इस डायरी में একটি দুর্যোগ ঝটিকার করুন কাহিনী (एक्टि दुर्जोग झोटिकार कोरुण कहिनी) यानि ''एक दुर्योग, आहत कर देने वाली कहानी'' शीर्षक से अपने आवास के ठीक सामने रहने वाले ईएमडी के कर्मी एम. शंकर राव परिवार के साथ संबंधों और 6 जनवरी 1986 के हादसे व उसके बाद के घटनाक्रम को बेहद संवेदनशीलता के साथ उकेरा है।

डॉ. सुस्मिता
लेखिका बीना रानी तो अब इस दुनिया में नहीं है लेकिन उनकी पौत्री और कोलकाता विश्वविद्यालय में इतिहास की प्रोफेसर डा. सुस्मिता बसु मजुमदार को जब घर के पुराने सामान में यह डायरी हाथ लगी तो उन्हें लगा कि किसी हादसे का ऐसा मर्मांतक ब्यौरा दुनिया,खासकर भिलाई और छत्तीसगढ़ के वासियों के सामने जरूर आना चाहिए।

 डॉ. सुस्मिता ने अपनी दादी की इस डायरी में लिखी मूल बांग्ला इबारत को पढ़ते हुए हिंदी अनुवाद का आडियो मुझे भेजा था। जिसे मैनें अक्षरों में ढाल कर आप लोगों के समक्ष रखने की कोशिश की है। इस डायरी का हिंदी अनुवाद आंशिक संशोधन के साथ यहां है। इस पूरी स्टोरी के लिए कैरिकेचर प्रख्यात कार्टूनिस्ट बीवी पांडुरंगा राव का बनाया हुआ है।  


सन्नाटे से भरी सुबह, जब एक ट्रक रुका हमारे घर के सामने 

वह सन्नाटे से भरी एक सुबह थी, जब एक ट्रक आकर हमारे घर के सामने रुका। देखते ही देखते घर के सामने ढेर सारी भीड़ इकट्‌ठा हो गई। 

ट्रक से चंदू के पिता एम. शंकर राव का शव उतारा गया। उनके घर में बगीचे के सामने स्लैब जैसा बना था उस पर शव रखा गया। एम. शंकर राव का निधन हम सब के लिए यह बहुत ही ह्रदयविदारक घटना थी। 

उनके दो बेटे थे 3-4 साल का चंदू यानि एम. चंद्रशेखर और उसका बड़ा भाई 10 साल का राजा यानि एम. राजशेखर। तेलुगू भाषी राव परिवार बहुत ही खुशहाल और सुखी दंपति थे। चंदू नर्सरी जाने लगा है वहीं राजा 5 वीं पढ़ता है। 

हमारे घर के ठीक सामने का उनका घर है। एक सुदर्शन व्यक्तित्व और हंसता-खेलता परिवार चंदू के पापा एम. शंकर राव की उम्र 29 साल थी वो बहुत ही सुदर्शन व्यक्तित्व वाले पुरुष और बहुत ख्यातिलब्ध थे। 

 

सलीकेदार रहन-सहन और बेहद विनम्र व्यवहार

हमारी पूरी स्ट्रीट में शंकर राव बेहद जानदार शख्सियत थे, हमेशा लोगों की मदद को तत्पर रहते थे। वह बहुत ही अच्छे इंसान थे। उनकी पत्नी का नाम एम. उमा राव था।

 शंकर राव को देखते हुए कोई भी यह कह सकता था कि वो बेहद संस्कारी व्यक्ति थे। उनके घर की सादगी से भरी साज-सज्जा और फर्नीचर को देखकर कोई भी कह सकता है कि कितना सलीकेदार रहन-सहन था उनका। वैसे उनका व्यवहार भी बेहद विनम्र था।

 उनकी पत्नी उमा भी बेहद शांत, शिष्टाचारी और गौरवर्णी थी। वह बहुत ही मीठा बोलती थी। उस वक्त हम स्ट्रीट-74 के 6 ए में नए आए हुए थे और हमारी सबसे ज्यादा करीबी ठीक सामने रहने वाले एम. शंकर राव परिवार के साथ हो गई थी। बेहद संस्कारी परिवार था उनका  और उमा से तो हम सास-बहू का बहुत अच्छा संबंध हो गया था। वो कुछ भी पकाती तो हमारे घर में जरूर देती। हम सब को बहुत ही प्यार करती थी। खास कर मेरी पौत्री मामोन (सुस्मिता) को बहुत पसंद करती थी। 

जब भी किसी चीज की जरूरत होती तो मुझे बुला कर ले जाती। उमा मुझे अम्मा कहती थी। हम लोग बहुत ही करीबी थे। उनका बड़ा बेटा राजा तो बेहद सलीकेदार था जब भी नजर पड़ती तो हमेशा नमस्ते करता था। अपने बच्चों को बहुत ही अच्छे संस्कार मां-बाप ने दिए थे। कहते हैं ना अगर पिता-माता अच्छे हो तो बच्चे भी उतने ही अच्छे और संस्कारी होते हैं। इतना सुखी परिवार कई बार देखने को नहीं मिलता है।

 

 हम टीवी देखने गए तो उमा ने सर्कस जाना त्याग दिया 

एक दिन ऐसा हुआ कि हमारे यहां का टेलीविजन खराब हो गया और उस दिन रविवार शाम को फिल्म का प्रसारण होता था। मेरी बहू का नाम भी उमा है। चंदू की मां का नाम भी उमा है। मेरी बहू उमा ने कहा कि मूवी देखने चंदू के घर चलते हैं।

 हम सकुचाते हुए उनके घर गए। उनके ड्राइंग रूम में कलर टीवी था। चंदू की मां ने देखा तो खुश हो गई और खूब आव-भगत की। हम बैठकर मूवी देखने लगे तो थोड़ी ही देर में चंदू के पापा आए और चंदू और राजा को लेकर सर्कस देखने गए। 

लगा कि शायद हमारे बैठने की वजह से बाहर तो नहीं जा रहे हैं। मैनें अपनी बहू उमा से पूछा कि हमारी वजह से चंदू की मां जा नहीं पाई? पर चंदू की मां उमा ने हमें इसका एहसास नहीं होने दिया बिल्कुल भी। लेकिन हम लोग स्थिति को भांप गए थे कि हमारी वजह से चंदू की मां सर्कस देखने नहीं जा पाई। हमेशा की तरह वह बहुत ही अच्छे से पेश आई। वह बेहद गुणी थी। वह अक्सर सिलाई-कढ़ाई करते भी दिखती थी। वह सलमा सितारा लगाकर बहुत अच्छा एम्ब्रायडरी कर सकती थी।

 टीवी पर मूवी देखने के बाद मैनें आग्रह किया कि सलाई-कढ़ाई देखना चाहती हूं तो उन्होंने अपना पूरा काम दिखाया। वो खाना बहुत अच्छा बनाती थी। आज वो सर्कस जाने वाला और एम्ब्राइडरी दिखाने वाला दिन बहुत याद आ रहा है। 

 

वीणा वादिका थी उमा, हमारे साथ जाती थी बाजार 

राव परिवार दक्षिण भारतीय संगीत परंपरा में ढला हुआ था। उमा बहुत अच्छा वीणा वादन करती थीं। उनके घर में एक खुबसूरत सी विचित्र वीणा थी। एक दिन मुझे लगा कि चंदू की मां का वीणा वादन सुनूंगी।

 अक्सर चंदू की मां हमारे घर आती थी। तेलुगूभाषी होने के बावजूद उनकी हिंदी बहुत अच्छी थी। उनकी डायनिंग टेबल पर एक बहुत ही खुबसूरत एक्वेरियम था। एक दिन चंदू की मां उमा ने आकर बताया कि उनके ससुर आ रहे हैं। उनके चेहरे पर बेहद खुशी झलक रही थी। 

सेक्टर-4 का बोरिया बाजार (1986)
उमा ने बताया कि उनके ससुर की तबीयत बहुत ज्यादा खराब है, इसलिए चंदू के पापा हैदराबाद जाकर ला रहे हैं। उनका टेलीग्राम आया है कि कल ही आ रहे हैं। 

इसके बाद हम सास-बहू सेक्टर-4 के बोरिया बाजार जा रहे थे तो चंदू की मां उमा भी सामान खरीदने एक बैग लेकर हमारे साथ हो ली। उसने बहुत सी सब्जियां और फल खरीदे। परिवार में खुशियां ही खुशियां आ गई थी दादाजी के आने से। अगले ही दिन उनके ससुर आए, वह काफी वृद्ध लंबे से गोरे सुपुरुष  थे। 

उनको देखकर लग रहा है कि बेहद संस्कारी परिवार का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह शायद अक्टूबर-1985 की बात है। चंदू के दादाजी के आने से यह परिवार और भी सुखी दिखने लगा। उनके घर का माहौल जैसे और खुशनुमा हो गया है। 

दादाजी बोले आज खाना मत बनाओ तो वो सब मिल कर बाहर होटल में डिनर के लिए गए। जब वो जा रहे थे तो उनके परिवार को देखकर बहुत अच्छा लग रहा था। चंदू के दादाजी यहां की ठंड की वजह से भिलाई में ज्यादा दिन रह नहीं पाए। 

 

 भिलाई की ठंड सहन नहीं हुई तो हैदराबाद चले गए थे दादाजी 

शायद उनके दो बेटे थे और शंकर राव छोटे बेटे थे। वो यहां 15-20 दिन रुक कर बड़े बेटे के पास चले गए कि भिलाई की ठंड उन्हें सूट नहीं कर रही थी। तब कौन बता सकता था कि इतना सुखी परिवार जिसमें दादा-पिताजी-बच्चे इतना हंस बोल रहे हैं, यह पल उनकी दुनिया में लौट कर फिर कभी नहीं आएगा? 

कौन जानता था कि नियति का ऐसा परिहास होगा। चंदू के दादाजी के दो बेटे थे। बड़ा बेटा हैदराबाद में रहता था। हैदराबाद में उनका परिवार आर्थिक तौर पर बहुत ही सुदृढ़ था। एम. शंकर राव को भिलाई स्टील प्लांट ज्वाइन किए हुए महज 5-6 साल ही हुए थे। 

 

भाई-भाभी के आने की तैयारी में बनाया था केक 

ये छोटा सा परिवार इतना सुखी परिवार था कि इसे बयां नहीं कर सकते कि अचानक से काले बादलों की तरह विपदा इस परिवार पर आ पड़ेगी। दिसंबर-1985 की बात है, जब चंदू की मां अपने हाथ से बनाया हुआ केक लेकर आई और मुझसे बोली-देखिए मेरा केक कितना अच्छा बना है। बहुत दिनों के बाद भैया-भाभी आ रहे हैं। उनके लिए तैयारी कर रही हूं।

 उमा के चेहरे का भाव देख कर हम सब को बेहद खुशी हो रही थी। वो लोग भी बहुत खुश थे। फिर उमा के भाई-भाभी आए तो वो लोग साथ में अक्सर आते-जाते थे। 

 

...और आ गई वो मनहूस घड़ी, घनघना उठा फोन

ये संसार बिल्कुल अनिश्चित है रेत की तरह है कभी भी यह संसार ढह सकता है। इतना प्यारा घरौंदा नियति ने कैसे तोड़ डाला।

 फिर आई वो मनहूस घड़ी 6 जनवरी भिलाई सुबह 9-10 बजे के बीच हमारे तमिल पड़ोसी के घर फोन आया। उनके घर बेटा-बहू और मां रहते थे। 

खबर थी कि कोक ओवन में बड़ा एक्सीडेंट हो गया है और चंदू के पापा गंभीर रूप से आहत है। हम लोगों को बहुत ज्यादा पता नहीं था कि क्या हो रहा है। हमारे यहां और चंदू के यहां काम करने वाली बाई एक ही थी। उसने बताया तो हम लोग देखे।

 तब पड़ोसी के घर चंदू की मम्मी फोन पर बात कर रही थी और भी बहुत से लोग आ रहे हैं। उसी वक्त प्लांट से दो लोग आकर खबर दिए कि चंदू के पापा को हास्पिटल लेकर गए हैं। 

 

 बुरी तरह डरे हुए थे हम भी


बसु परिवार मैत्रीबाग भिलाई में
इस हादसे से हम सब भी बुरी तरह डरे हुए थे क्योंकि मेरा बेटा तपन कुमार बसु मजुमदार भी ईएमडी में होने की वजह से अक्सर कोक ओवन आते-जाते रहता था। ऐसे में हम भी चिंतित थे कि उस एक्सीडेंट में वह भी तो नहीं हैं। हमने भी फोन करने और पता लगाने की कोशिश की। 

इस बीच चंदू के मामा तुरंत ही हास्पिटल निकल गए। बाद में फोन पर उमा के भाई ने पूरा ब्यौरा बताया कि शंकर राव काफी जल चुके थे। हम सब फोन पर संपर्क कर रहे थे।

 हमें भी कुछ सूझ नहीं रहा था औऱ् बदहवास होकर हम लोग भी तपन की खबर ले रहे थे। हम भी पागलों की तरह बीएसपी के फोन पर संपर्क करने की कोशिश कर रहे थे लेकिन हमारा फोन नहीं लग रहा था।

 उम्मीद पर जी रहे थे हम सब

लगातार फोन करते हुए हमनें बहुत कोशिश की लेकिन कोई खबर नहीं आई। मैनें उस दिन देखा कि अनिश्चतता में जीना कितना कठिन होता है। जब तक तपन नहीं आए, हम लोग भी बेहद परेशान थे। इस बीच हम सभी चंदू की मां को दिलासा दे रहे थे। 

कुछ देर बाद चंदू की मां अस्पताल चली गई। फिर हमें पता चला कि चंदू के पापा ठीक हो जाएंगे। हालांकि चंदू के पिता शंकर राव करीब 10 दिनों तक जूझते रहे। चंदू के पापा को पता नहीं था कि मौत उन्हें यूं ही इस तरह से खींच कर ले जाएगी।

 इस वजह से उन्होंने चंदू की मां को बोला था कि मेरे या तुम्हारे पिता को मत बताना क्योंकि उन्हें पूरा यकीन था कि वो पूरी तरह ठीक हो जाएंगे।

 

 मकर संक्रांति के दिन उमा का चेहरा बयां कर रहा था हालात

आज 14 जनवरी है जिसे बंगालियों में दधि संक्रांति भी कहा जाता है। इस दिन हम उत्सब मनाया करते हैं। तेलुगू संस्कृति में भी इसे खूब अच्छी तरह धूम-धाम से मनाते हैं। 

उधर अस्पताल में भर्ती चंदू के पिता ने मना किया हुआ था कि मेरे व अपने पिता को हादसे के बारे में मत बताना और उनको आने भी मत कहना। बंगालियों की तरह तेलगुओं में मकर संक्रांति वाला दिन बहुत ही महत्वपूर्ण दिन है। बंगालियों की दुर्गा पूजा की तरह तेलुगू परिवार इसे धूमधाम से मनाते हैं। 

तो संक्रांति वाले उस दिन उमा एक थाली में हल्दी कुमकुम पान सुपारी मिठाई डालकर लेकर आई। उस दिन उमा का चेहरा देखकर समझ मेें आ रहा था कि किस तरह से उनका चेहरा करूणा और विषाद से भरा हुआ था। उनका दुख हम सब समझ रहे थे। 

लेकिन फिर भी त्यौहार का दिन था तो जो करना चाहिए वो कर रही थी। बहुत ही अजीब सा माहौल था कि उनके भैया-भाभी आए थे कि उनके साथ यहीं संक्रांति मनाएंगे। कितने सारे सपने देखे होंगे उन्होंने इस त्यौहार के दिन को लेकर। लेकिन भाग्य का कितना बड़ा परिहास है कि बिना बादल के बिजली कड़की और इस परिवार पर गिर गई।

 

 हंसते-खेलते परिवार पर गिर पड़ी बिजली

 15 जनवरी 1986 सुबह सचमुच बिजली गिर पड़ी। हालांकि इसके दो दिन पहले से ही चंदू के पापा की तबीयत काफी बिगड़ गई थी। शंकर राव की बिगड़ती हालत को देखते हुए डाक्टरों ने घर वालों को बता दिया था।

ऐसे में एक दिन पहले ही उमा के पिता और ससुर भिलाई आ गए थे। फिर भी वो शंकर राव को अस्पताल में नहीं देख पाए क्योंकि शंकर राव तब आईसीयू में थे। उन्हें देखने मिला तो शंकर राव का मृत शरीर।

 शंकर राव उन दिनों मौत से लड़ते रहे और लड़ते-लड़ते आखिर चले ही गए। 15 जनवरी की रात को उन्होंने आखिरी सांस ली उसके बाद सुबह उनका शव लाया गया।

 

 गमगीन माहौल में, जब शंकर राव का शव आया

 

सेक्टर-6 में स्ट्रीट-74 का 6ए और सामने का आवास

16 जनवरी की सुबह माहौल बेहद गमगीन था, जब शंकर राव का शव घर लाया गया। चंदू के दादाजी, नानाजी, नानीजी, कई रिश्तेदार और भिलाई स्टील प्लांट के आफिसर-कर्मचारी बहुत से लोग वहां इकट्‌ठा हो गए थे। सुबह 10 बजे एक ट्रक आकर रुका। 

सभी आंसू भरी आंखों से इस घड़ी का इंतजार कर रहे थे। तब तक ढेर सारे लोग वहां जमा हो गए थे। हम लोगों की हिम्मत नहीं हो रही थी कि वहां पास में जाएं। उनका शव एक सफेद कपड़े में लिपटा हुआ था। 

शव को अंदर घर में नहीं ले जाया गया बल्कि वहीं चबूतरे पर रखा गया जो बगीचे में बना था। उनका बड़ा बेटा राजा जो कि सिर्फ 10 साल का था उसे देखने हीं दिया गया। मामून (मेरी पौत्री सुस्मिता) और राजा दोनों अंदर बैठे हुए थे। हम लोगों ने उन्हें ड्राइंग करने दिया था। जिससे उनका ध्यान उस तरफ न जाए और वह बाहर न निकले। 

अबोध बच्चों को क्या मालूम उनका संसार लुट गया उसे क्या पता था कि उसका इतना बड़ा सर्वनाश हो चुका है। छोटे से निष्पाप शिशु को पता नहीं था कि क्या हो गया है। 

 

फूलों की वो शैय्या और हमारी आंखों से ओझल हो गया ट्रक

कुछ ही देर में चंदू को लेकर उसके मामा हमारे घर आए और आकर भीतर से राजा को लेकर बाहर आए। दोनों बच्चों को पिता का पांव छूने बोला गया। उन्हे क्या पता था कि उनका रखवाला नहीं रहेगा। इस तरह से विधि का विधान है। धीरे-धीरे ट्रक हम सब की आंखों से ओझल होता गया। 

शंकर राव को सफेद फूलों के बिछौने पर ले जाया गया। यह बेहद दर्दनाक नजारा था। उनकी यह शैया भी फूल की ही है जिस पर आखिरी बार यात्रा हो रही है। एक वो फूल से सजी सेज थी जिसमें उन दोनों का मधुर मिलाप हुआ था। कितना वेदना दायक है इस शैय्या को देखना। कितना निष्ठुर है यह समय। 

 

राव परिवार की शिद्दत से तलाश है डॉ. सुस्मिता को 

 डॉ. सुस्मिता ने बताया कि भिलाई से कोलकाता आने के बाद राव परिवार से संपर्क नहीं हो पाया। स्व. शंकर राव की जगह उनकी पत्नी एम. उमा राव को सेल के हैदराबाद आफिस में अनुकंपा नियुक्ति मिली थी। इसके बाद हमें ज्यादा जानकारी नहीं मिल पाईं। 

डॉ. सुस्मिता के मुताबिक वह उमा आंटी और उनके दोनों बेटों चंद्रशेखर और राजशेखर का पता लगाने की कोशिश कर रही हैं। अगर राव परिवार फिर से मिल जाता है तो वह अपनी दादी की इस डायरी में लिखे भाव उस परिवार के साथ साझा करना चाहती हैं। 

वहीं भिलाई स्टील प्लांट प्रबंधन से मिली जानकारी के अनुसार एम. उमा राव ने 31 मार्च 2004 को भिलाई स्टील प्लांट के परचेस विभाग से जूनियर असिस्टेंट के पद से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ली थी। तब उनका पूरा पता 7-1-644/32, सुंदर नगर हैदराबाद 500038 दर्ज था। फिलहाल राव परिवार से कोई संपर्क नहीं हो पाया है। 

 

बांग्लादेश से सुकमा और फिर भिलाई, बस्तर जाने

तीन दिन तक बैलगाड़ी का सफर भी तय किया 

डा. रमणीमोहन-बीना रानी

दादी बीना रानी बोस मजमुदार ने सिर्फ एक हादसा या पड़ोसी की संवेदना को ही अपनी डायरी में दर्ज नहीं किया है बल्कि उनकी डायरी में उनके अपनी निजी जीवन से जुड़ी भी कई बातें हैं।

उनकी पौत्री डॉ. सुस्मिता बसु मजुमदार उस डायरी के पन्ने खोलते हुए बताती हैं-इसमें दादी ने बांग्लादेश से बस्तर के सुकमा में आकर बसने की कहानी का रोचक ब्यौरा दिया है, साथ ही यह भी बताया है कि किस तरह वह तीन दिन तक लगातार बैलगाड़ी का सफर तय कर जगदलपुर से सुकमा पहुंची थी। 

डायरी में उन्होंने लिखा है कि किस तरह से एक ''अंजान'' व्यक्ति (विवाहोपरांत) के साथ बांग्लादेश से कोलकाता, कोलकाता से रायपुर, फिर रायपुर से बस से जगदलपुर और जगदलपुर से बैलगाड़ी में तीन दिन में सुकमा का सफर तय किया था। 

डॉ. सुस्मिता बताती हैं-उनके दादा डॉ. रमणीमोहन बोस मजुमदार पेशे से चिकित्सक (सर्जन) थे। अपने विद्यार्थी जीवन में उन्होंने केमेस्ट्री में टॉप किया था, तब उन्हें जर्मनी जाकर अध्यन का मौका मिला था। लेकिन घर की आर्थिक परिस्थिति के चलते वह जर्मनी नहीं पाए। इसके बाद दादाजी ने डाक्टरी की पढ़ाई की और कोलकाता में प्रेक्टिस की। 

दादाजी सोनारपुर शासकीय हास्पिटल में पदस्थ थे। इसी दौरान उनके पास सुकमा (बस्तर) के जमींदार के मुंशी अपना उपचार कराने आया करते थे। मुंशी जी जब ठीक हो गए तो उन्होंने ही सुकमा में आने का प्रस्ताव दिया। इसके बाद दादाजी और दादाजी सुकमा पहुंचे और यहां कई साल तक रहे। इसके बाद पापा जब भिलाई स्टील प्लांट की सेवा से संबद्ध हुए तो परिवार 1961 में भिलाई आ गया। दादी बीना रानी बोस मजुमदार का निधन जनवरी 1992 में भिलाई में हुआ था।

क्या हुआ था 6 जनवरी 1986 को 

 यहां हुआ था भीषण विस्फोट

भिलाई स्टील प्लांट की कोक ओवन बैटरी-6 में 6 जनवरी 1986 की सुबह जोर का विस्फोट हुआ था। 

इस हादसे में कोक ओवन, मेंटनेंस एंड रिपेयर ग्रुप, कंस्ट्रक्शन एंड हैवी मेंटनेंस, सेफ्टी और फायर ब्रिगेड के 48 कर्मी घायल हुए थे। 

वहीं 9 कर्मियों-अफसर की मौत हो गई थी। इन मृतकों में त्रिलोकनाथ गैस सेफ्टी आपरेटर, जवाहर लाल टंडन हवलदारी एनएमआर, आरके दास प्रबंधक कोक ओवंस, तेजू राजभर फिटर, ऊर्जा प्रबंधन विभाग, एम शंकर राव उपप्रबंधक कोक ओवंस, ओपी ठाकुर फिटर एमिल मिंज फिटर और एसके बनर्जी चार्जमैन सभी ऊर्जा प्रबंधन विभाग से और ओपी जांगिड़ उपप्रबंधक कोक ओवंस शामिल हैं।


हरिभूमि भिलाई-दुर्ग संस्करण-6 जनवरी 2022