Sunday, August 30, 2020

भारत-चीन सम्बन्ध और हमारा भिलाई


1962 के भारत-चीन युद्ध से लेकर आज के तनाव के हालात 
तक, भिलाई ने हमेशा अपनी भूमिका बढ़ चढ़ कर निभाई 

1962 में भिलाई स्टील प्लांट का प्रवेश द्वार  (मेन गेट ) 

मई 2020 के पहले हफ़्ते से लद्दाख क्षेत्र में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी)  पर भारत और चीन के बीच तनाव की स्थिति बनी हुई है। 15-16 जून 2020 की दरमियानी रात गलवान घाटी में भारत-चीन सैनिकों के बीच 'घंटों चले संघर्ष में 20 भारतीय सैनिकों की शहादत हुई और 76 अन्य घायल हुए।.इसके बाद से सीमा पर तनाव के हालत हैं। 
भारत सरकार ने चीन के सॉफ्टवेयर पर प्रतिबन्ध लगाने के अलावा आर्थिक  मोर्चे पर भी बड़े चीनी ठेकों  लगाने की कार्रवाई की है। इस बीच दोनों देशों के रिश्तों के बीच तनाव के हालत में इस्पात नगरी भिलाई की भूमिका की पड़ताल करना प्रासंगिक होगा। 1962 के भारत-चीन युद्ध से लेकर आज के तनाव के हालात तक, भिलाई ने हमेशा अपनी भूमिका बढ़ चढ़ कर निभाई है।
चीन से हमारे छत्तीसगढ़ के रिश्तों की बात तो हजारों बरस पहले महान चीनी यात्री ह्वेनसांग छत्तीसगढ़ के सिरपुर आया था और आज भी भिलाई हो या छत्तीसगढ़ का कोई और कोना, कहीं भी चीनियों की मौजूदगी एक सामान्य घटना ही है।
वैसे बीते दशक में कोरबा में चीन की निर्माणाधीन चिमनी गिरने से दिया दर्द छत्तीसगढ़वासी नहीं भूले हैं। जब कोरबा शहर में वेदांत समूह की भारत एल्युमिनियम कंपनी (बाल्को) के निर्माणाधीन बिजलीघर में 23 सितंबर 2009 अपराह्न करीब 3 बजकर 50 मिनट हुए हादसे में 40 मज़दूर मारे गए थे। बिजलीघर बनाने का ठेका चीन की कंपनी शांडोंग इलेक्ट्रिक पावर कॉरपोरेशन (सेप्को) को दिया गया था और इस कंपनी के लगभग 80 इंजीनियर और मज़दूर यहां काम कर रहे थे।
वहीँ भिलाई स्टील प्लांट की बात करें तो यहाँ भी काम के सिलसिले में चीनियों आना-जाना लगा रहा है। वैसे देश के दूसरे शहरों की तरह दांत के डाक्टरों वाले कुछ चीनी परिवार भिलाई दुर्ग में बरसों से रहते आएं है। हालांकि अब इन लोगों ने भारतीय नागरिकता ले ली है। लेकिन एक सवाल थोड़ा परेशान करता है कि देश के अलग-अलग शहरों में दांतों के ज्यादातर डाक्टर चीनी मूल के ही क्यों होते हैं?
खैर,इस बीच बात भिलाई स्टील प्लांट की। सार्वजनिक उपक्रम बीएसपी के स्थापना काल 1955 से 1991 में मुक्त अर्थव्यवस्था के दौर से पहले तक यहां शत प्रतिशत तकनीक तत्कालीन सोवियत संघ (आज का रूस) की इस्तेमाल हुई।
लेकिन, 1991 के बाद फिजा बदली और सोवियत संघ टूटने के बाद भिलाई जैसे सार्वजनिक उपक्रम में दूसरे देशों की तकनीक भी शामिल की जाने लगी। जिसमें पहला बड़ा निवेश जापान की मित्सुई कंपनी का था, जिसने यहां सिंटर प्लांट-3 बनाया। हालांकि इस दौर में चीन भी एक प्रतिद्वंदी था लेकिन तब ठेका जापान को मिला था।
लेकिन चीन ने देश भर की तरह भिलाई में भी निवेश के लिए कोशिशें बरकरार रखीं। इस दिशा में 18 जुलाई 1994 को चीन के धातु उद्योग मंत्रालय में उपमंत्री यू.झीचून के नेतृत्व में एक प्रतिनिधि मंडल भिलाई आया। इस प्रतिनिधिमंडल ने यहां निवेश की संभावनाएं टटोली थी।
इसके बाद तब छोटे स्तर पर भले ही कुछ साजो-सामान व कलपुर्जे भेज कर चीन तसल्ली भले ही कर रहा होगा लेकिन उसे बड़ा मौका बीते दशक में भिलाई की 70 लाख टन विस्तारीकरण परियोजना में मिला। यहां चीन ने बड़ा निवेश किया है। जिसमें एक प्रमुख इकाई स्टील मेल्टिंग शॉप-3 की सेकंडरी रिफाइनरी यूनिट है,जो शत-प्रतिशत चीनी तकनीक पर है।
मई 2020 में इसी यूनिट में लिक्विड स्टील से भरा लैडल पंक्चर हो गया था। जिसमें कोई जनहानि नहीं हुई। इस हादसे की जांच चल रही है इसलिए फिलहाल किसी नतीजे पर पहुंचना जल्दबाजी होगी। 

भारत-चीन युद्ध के समय भिलाई में जज़्बा ऐसा उमड़ा कि छह 
माह तक अपनी तनख्वाह से सेना को योगदान भेजते रहे कर्मी 

भिलाई होटल और सिविक सेंटर में इंदिरा गाँधी, साथ में हैं जनरल मैनेजर सुकू सेन (1963 )

1962-63 मेेंं युद्ध की परिस्थिति में भिलाई स्टील प्लांट के कर्मियों ने न सिर्फ सर्वाधिक डेढ़ लाख रूपए राष्ट्रीय रक्षा कोष में दिए थे बल्कि स्काउट और एनसीसी क पृष्ठभूमि से आए नौजवान कर्मियों ने मोर्चे पर जाने देश के प्रधानमंत्री को पत्र तक लिख दिया था।
वो दौर ऐसा था, जब एक लाख रूपए बोलने पर भी सोचना पड़ता होगा। इसलिए तब ''लाख टके की बात'' जैसा जुमला और ''सवा लाख की लाटरी भेजो अपने भी नाम जी'' जैसा गाना खूब चलता था।
वो दौर ऐसा था जब भिलाई स्टील प्लांट में न्यूनतम वेतन 40-50 रूपए और अधिकतम 450-500 रूपए होता था। इस दौर में देश भर से अपना भविष्य बनाने भिलाई आए नौजवानों के दिल में जज्बा था, अपने देश के लिए कुछ कर गुजरने का।
ऐसे में भिलाई के लोगों ने राष्ट्रीय रक्षा कोष में पूरे डेढ़ लाख रूपए समर्पित किए थे। उन दिनों एक तोला सोना 97 रूपए का था तो उस लिहाज से तब का एक लाख आज के लगभग 3.5 करोड़ रूपए से भी ज्यादा था।
चीन ने युद्ध छेड़ा 20 अक्टूबर 1962 को और इसके बाद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने रेडियो पर आकर सब कुछ साफ-साफ बता दिया। उन्होंने देशवासियों से सहयोग मांगा तो घरों से सारी जमा पूंजी और जेवरात तक लोगों ने हंसते-हंसते दे दिए। तब ऐसे माहौल में भिलाई स्टील प्लांट के कर्मी भला कैसे पीछे रहते।
भारत सरकार ने अपने सभी सरकारी कर्मियों से नवंबर माह के वेतन से एक-एक दिन की तनख्वाह राष्ट्रीय रक्षा कोष में स्वैच्छित तौर पर मांगी थी। लेकिन भिलाई स्टील प्लांट के कर्मियों ने कहा- नहीं, हमारे देश पर मुसीबत आई है तो हम पीछे नहीं हट सकते और फिर क्या था ज्यादातर ने छह माह तक तनख्वाह काटे जाने का घोषणापत्र भर दिया।
भारत-चीन युद्ध तो नवंबर 62 में खत्म हो गया लेकिन देश आर्थिक मोर्चे पर फिर नए सिरे से खड़े होने की तैयारी में जुट गया। ऐसे में भिलाई के कर्मियों ने तब अपनी तनख्वाह और आपसी सहयोग से डेढ़ लाख रूपए जुटाए।
तब भिलाई स्टील प्लांट के जनरल मैनेजर सुकू सेन थे, जो कि पूर्व में बंगाल की क्रांतिकारी गतिविधियों में संलग्न अनुशीलन पार्टी से भी संबद्ध रहे थे। स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रियता की वजह से उनकी प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से काफी नजदीकियां थी।
इस वजह से जब भिलाई स्टील प्लांट की तरफ से राष्ट्रीय रक्षा कोष में दान समर्पण का मौका आया तो सुकू सेन ने सीधे प्रधानमंत्री नेहरू से संपर्क साधा। इसके बाद कार्यक्रम भी तय हो गया लेकिन ऐन वक्त पर दिल्ली में अतिव्यस्तता के चलते जवाहरलाल नेहरू भिलाई नहीं आ सके और उन्होंने प्रतिनिधि के तौर पर अपनी बेटी इंदिरा गांधी को भिलाई भेजा था।
इंदिरा तब न तो मंत्री थी ना ही सांसद। लेकिन युद्ध की परिस्थिति में भारत सरकार द्वारा बनाई गई राष्ट्रीय रक्षा परिषद में वह एक सदस्य जरूर थी। इस नाते इंदिरा 9 फरवरी 1963 को भिलाई आई। जहां उन्होंने सिविक सेंटर में एक विशाल जनसभा को संबोधित किया था।
इस दौरान जनरल मैनेजर सुकू सेन व उनकी पत्नी इला सेन ने भिलाई बिरादरी की ओर से डेढ़ लाख रूपए का चेक राष्ट्रीय रक्षा कोष के लिए इंदिरा गांधी को सौंपा था। तब इंदिरा ने भिलाई स्टील प्लांट का दौरा भी किया था और आफिसर्स एसोसिएशन की तरफ से आयोजित एक समारोह में कार्यक्रम में शामिल हुई थी।
बीएसपी के रिटायर अफसर और हुडको निवासी वीएन मजुमदार बताते हैं-तब भिलाई में सारे नौजवान कर्मी थे और सभी के दिल में देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा था। इसलिए कर्मियों ने स्वेच्छा से न सिर्फ छह माह तक हर माह एक दिन का वेतन देने का घोषणा पत्र भरा था बल्कि ऐसे कर्मी जो एनसीसी-स्काउट की पृष्ठभूमि से आए थे, उन्होंने सीमा के मोर्चे पर उतरने बाकायदा प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और रक्षामंत्री को खत लिखे थे।
मजुमदार के मुताबिक तब अफसरों की तनख्वाह ही 200 से 500 रूपए तक होती थी, इसके बावजूद लोगों में देश के कुछ कर गुजरने का जज्बा था। उन्होंने बताया कि युद्ध के दौरान भिलाई स्टील प्लांट में एक भी दिन उत्पादन बाधित नहीं हुआ और ना ही कभी ब्लैक आउट की स्थिति आई। बल्कि इसके विपरीत 1962-63 में तब रिकार्ड उत्पादन हुआ था।

रहि ले ले,तोर हम करबो दवाई रे....चीन पर
1962 में लिख रही थी छत्तीसगढिय़ा कलम


आज जिस तरह भारत-चीन सीमा पर तनाव के हालात हैं, करीब-करीब ऐसे ही गंभीर हालात 58 साल पहले 1962 में बने थे। तब अक्टूबर-नवंबर महीने में भारत-चीन युद्ध हुआ था।
ऐसे संवेदनशील समय में दुर्ग-भिलाई के कविजन वीर रस की कविताएं लिखकर देश का मनोबल बढ़ा रहे थे। इन कवियों में दुर्ग के कोदूराम 'दलित' का नाम प्रमुख है। वहीं भिलाई स्टील प्लांट में सेवा दे रहे कई प्रमुख कवियों ने भी चीन को ललकारते हुए अपनी कलम चलाई थी।
भिलाई के कवियों की रचनाएं तब बाद में भिलाई स्टील प्लांट ने छपवा कर संसद तक में बंटवाई थी। यही वह दौर था जब छत्तीसगढ़ी की पहली फिल्म 'कहि देबे संदेस' का निर्माण चल रहा था और इस आपदा के दौर को निर्माता-निर्देशक मनु नायक ने अपनी सूझबूझ से अवसर में बदल दिया था।

कोदूराम 'दलित' मुखर थे चीन के खिलाफ

पहले बात जनकवि कोदूराम 'दलित' की। भारत-चीन के संबंधों को लेकर दलित बेहद संवेदनशील थे। दलित की यह रचना दुर्ग जिला भारत सेवक समाज ने तब प्रकाशित की थी, अब उनके सुपुत्र अरूण कुमार निगम ने फेसबुक पर भी इसे पोस्ट किया है, जिसे इन दिनों शेयर किया जा रहा है। दलित ने उस वक्त लिखा था-
अरे बेशरम चीन, समझे रहेन तोला परोसी के नाता-म,
अपन बँद-भाई रे,नारा लगाइस-हिन्दी चीनी भाई के
औ करम करे लगिस, निठुर कसाई के,
रहि ले ले,तोर हम करबो दवाई रे...।
अरे बेशरम चीन, समझे रहेन तोला
परोसी के नाता-म, अपन बँद-भाई रे
का जानी कि कपटी-कुटाली तैं ह एक दिन
डस देबे हम्मन ला, डोमी साँप साहीं रे ।
बघवा के संग जूझे, लगे कोल्हिया निपोर
दीखत हवे कि तोर आइगे हे आई रे
लड़ाई लड़े के रोग, डाँटे हवै बहुँते तो
रहि ले-ले तोर हम, करबो दवाई रे।
अरे दगादार चीन, जान गे जगत हर
खोड़िलपना ला तोर चाऊ एन लाई के
नारा लगाइस-हिन्दी चीनी भाई के औ
करम करे लगिस, निठुर कसाई के
मेड़ो ला हमार हथिया के आज रेंधिया-ह
डर बतावत हवै, हमला लड़ाई के
टोर देबो हाड़ा-गोड़ा, बैरी के अउर हम
खप्पर मा भर देबो, चण्डी देवी दाई के।

एक बार फिर हारा रावण आया है कैलाश उठाने

भिलाई स्टील प्लांट में तब लेबर इंस्पेक्टर और बाद के दिनों में जनसंपर्क अधिकारी रहे रमाशंकर तिवारी ने चीन के खिलाफ अपनी रचना में लिखा था-
आज देश पर घिर आए काले ये विनाश के बादल
नई फसल को फिर से बैरी-दुश्मन मुड़कर ताक रहा है
एक बार फिर हारा रावण आया है कैलाश उठाने-
लुटी हुई हिम्मत की साथी, हारी हिकमत आंक रहा है
बरबादी की हवा अभी तो बस कल ही गुजरी थी सिर से
और लौट आया है दुश्मन ले नापाक इरादे फिर से 
शायद है इस बार साथियों, कोई चाल चलेगा ओछी
इसलिए होशियार दोस्तो, आज कमर हम कस लें फिर से
जो जवानियां जूझ रहीं सीमा पर उनको लडऩे दो तुम
अरे उन्हें जीवित रखने को काम और बस काम करो तुम 
तेज करो निर्माण, चलाओ अरे प्रगति के चाक चलाओ
झोंको ईंधन झोंको भाई, जुटे रहो तुम लौह गलाओ
एक स्वेद की बूंद खून के सौ कतरों सी अजर अमर है
अगर रहे मजबूत भाईयों तो ताकत में कहां कसर है
उनको दो विश्वास, तुम्हारे पीछे सारा देश खड़ा है
हम त्यागी हैं, तुम बलिदानी सबसे उपर देश बड़ा है
अफवाहों का गला घोंट दो, मन भयभीत न होने पाए 
रहे न बाकी एक स्वार्थी, मूल्य न कोई बढऩे पाए
हाथ न रोको जब तक साथी दुर्दिन अपने बीत न जाएं
हिंसा के बदनाम तरीके, अरे तिरंगा जीत न लायें
और खेत की फसल संभालो, जोतो बंजर कोना-कोना
क्या मां भी खामोश रहेगी मचलेगा जब श्याम सलोना
सोना चांदी गहने जेवर, मां बहिनों के कंगन-नुपूर
इन्हें न रखो, करो न्यौछावर आज देश की आजादी पर
स्नेहदान दो, स्वर्णदान दो, रक्तदान से हटो न पीछे
यह गौतम अशोक की धरती हम 'दधीचि' हैं,रहें न पीछे
हम मशीन के चालक साधक, पर मशीनगन ले सकते हैं
बिगड़ गए एक बार तो समझो ब्याज चौगुना ले सकते हैं
हमको तो आदत है साथी, पहिला वार झेलते हैं हम
मगर दूसरा दांव हमारा पहिला और आखिर रहा है
और तीसरे की गुंजाइश? अब ऐसी मसल नहीं हैं
झुक कर जी लें! अरे असंभव, अपनी ऐसी नसल नहीं है।

चाचा जी न करना चिंता तुम, सारे चीनी चट जाएंगे

बीएसपी शिक्षा विभाग में पदस्थ रहे ज्वाला प्रसाद पटेरिया ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को संबोधित करते हुए लिखा था-
प्रिय चाचा को आश्वासन
 चाचा जी न करना चिंता तुम, सारे चीनी चट जाएंगे।
हमे भेज दो शीघ्र भेज दो, हम सीमा पर जाएंगे।।
 अभी सुना है चाचा हमनें चिंतित हो तुम-
फिकर न करना किसी बात की जिंदा हैं हम 
यदि कारण है सीमा पर फिर से चीनी जुट आए हैं 
उसे जन्म से, बड़े स्वाद से बच्चे खाते आए हैं
 इसलिए न चिंता करना तुम सारे चीनी चट जाएंगे।। 
हमें भेज दो...
चीनी संकट के कारण यदि माथे पर पड़ जाएगा बल
 फिर न संभाले-संभलेगा यद वीर बहादुर बच्चों का दल
 चढ़ दौड़ पड़ेंगे उच्च हिमालय के बर्फानी शिखरों पर 
हुंकारेंगे तो चल जाएगा आरा अरि के सीनों पर
इस फौलादी नगरी के हैं बच्चों के फौलादी सीने 
झेल शत्रु की गोली, उसकी कर देंगे टेढ़ी संगीनें।।2।।
वीर शिवाजी और प्रताप की लक्ष्मी की संतान हैं हम
विंध्य हिमालय के साये में पले, बढ़े, खेले हैं हम 
पवनपुत्र हैं हमीं जलाकर रख देंगे चाऊ की लंका 
भीमसेन हैं पान करेंगे रक्त माओ का
न इसमें शंका कदम बढ़ेगा फिर न रुकेगा 
पेकिंग तक धावा मारेंगे 
छका छका दुश्मन को धोखे का मजा चखाएंगे ।।3।।
अगर कहीं मुरझा जाएंगी, तेरे गुलाब की पंखुरियां
देकर दिल का खून रखेंगे हम रंजित वे पंखुरियां
 खाकर हम सब कसम तेरे उस लाल गुलाबी फूल की
और तिरंगे झंडे की, भारत माता की धूल की।।
याद दिला देंगे दुश्मन को उसकी अपनी भूल की 
भुला सके न याद युगों तक हम बच्चों के शूल की।।
 इसलिए न करना चिंता तुम 
सारे चीनी चट जाएंगे।
हमें भेज दो शीघ्र भेज दो, हम सीमा पर जाएंगे।।

जियो, जियो अय हिंदुस्तान

वहीं बीएसपी कर्मी एमके चटर्जी ने भारतीय सेना के शौर्य का बयान करते हुए लिखा था-

जियो-जियो अय हिंदुस्तान
हम नवीन उजियाले हैं, गंगा यमुना हिंद महासागर के हम रखवाले हैं।
तन, मन, धन तुम पर कुर्बान जियो, जियो, अय हिंदुस्तान।
हम सपूत उनके जो नर थे, अनल और मधु के मिश्रण
जिनमें नर का तेज प्रखर था, भीतर था नारी का मन।
एक नयन संजीवन जिसका, एक नयन था हलाहल
जितना कठिन खड्ग था कर में उतना ही अंतर कोमल
थर-थर तीनों लोक कांपते थे जिनकी ललकारों पर
स्वर्ग नाचता था रण में, जिनकी पवित्र तलवारों पर
हम उन वीरों की संतान, जियो-जियो अय हिंदुस्तान
हम शिकारी विक्रमादित्य हैं, अरिदल को दलने वाले,
रण में जमीं नहीं दुश्मन की लाशों पर चलने वाले।
हम अर्जुन, हम भीम, शांति के लिए जगत में जीते हैं
मगर शत्रु हठ करे अगर तो लोहू वक्ष का पीते हैं।
हम हैं शिवा प्रताप, रोटियां भले घास की खाएंगे,
मगर किसी जुल्मी के आगे मस्तक नहीं झुकाएंगे।
देंगे जान, नहीं ईमान, जियो-जियो अय हिंदुस्तान।
जियो-जियो अय देश , कि पहरे पर ही जगे हुए हैं हम,
बन-पर्वत हर तरफ चौकसी में ही लगे हुए हैं हम
हिंद-सिंधु की कसम, कौन इस पर जहाज ला सकता है:
सरहद के भीतर कोई दुश्मन कैसे आ सकता है?
पर की हम कुछ नहीं चाहते, अपनी किंतु, बचाएंगे,
जिसकी उंगली उठी उसे हम यमपुर को पहुंचाएंगे।
हम प्रहरी यमराज समान, जियो, जियो अय हिंदुस्तान
जियो, जियो अय हिंदुस्तान
जाग रहे हम वीर जवान, जियो, जियो अय हिंदुस्तान
हम प्रभात की नई किरण हैं, हम दिन के आलोक नवल
हम नवीन भारत के सैनिक, धीर, वीर, गंभीर, अचल
हम प्रहरी ऊंचे हिमाद्री के, सुरभि स्वर्ग की लेते हैं,
हम हैं शांति दूत धरती के , छांह सभी को देते हैं
वीर प्रसु मां की आंखों के,

संसद में बांटी गई थी 'पोएट्स ऑफ भिलाई'



भिलाई के इन युवा कवियों की रचनाएं तब बेहद चर्चा मेें थी। भारत-चीन युद्ध के अगले वर्ष 1963 बीएसपी के तत्कालीन जनरल मैनेजर इंद्रजीत सिंह ने इस्पात नगरी के विभिन्न भाषा के रचनाकारों की कविताएं 'पोएट्स ऑफ भिलाई' के नाम से प्रकाशित करवाई थी।

जिसमें चीन को ललकारती यह रचनाएं भी शामिल की गई थी। इस संग्रह में शामिल रहे वरिष्ठ साहित्यकार दानेश्वर शर्मा बताते हैं कि तब 'पोएट्स ऑफ भिलाई' की प्रतियां भिलाई में सभी कर्मियों को बांटी गई थी।

इसके अलावा दिल्ली में सभी सांसदों को भेजी गई थी। बाद में इन कविताओं की तारीफ में सांसद और राष्ट्रकवि की उपाधि से विभूषित रामधारी सिंह दिनकर ने एक पत्र भिलाई के कर्मियों को लिखा था।

'आपदा को अवसर' में बदला था मनु नायक ने


1963 में मनु नायक द्वारा 'कहि देबे संदेस' के लिए फिल्माया गया भिलाई स्टील प्लांट का दृश्य 

पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म 'कहि देबे संदेस' बनाने वाले फिल्मकार मनु नायक ने भारत-चीन 
युद्ध 1962 के दौरान आपदा को अवसर में बदल दिया था। दरअसल तब युद्ध के दिनों में सार्वजनिक स्थलों की फोटोग्राफी और फिल्मोग्राफी प्रतिबंधित थी। वहीं मनु नायक को अपनी इस फिल्म में छत्तीसगढ़ की तरक्की दिखाने भिलाई स्टील प्लांट का एक दृश्य शूट करना बेहद जरूरी था।
इस दौरान इंग्लैंड से आने वाली कच्ची फिल्म की राशनिंग भी थी। ऐसे में बिना फिल्म बरबाद किए और बगैर रि-टेक के उन्हें यह दृश्य शूट भी करना था।
नायक बताते हैं-तब आज का बोरिया गेट नहीं था और पूरा कारखाना खुला-खुला सा था। फिर भी एहतियात के तौर पर वह एक मालवाहक में अपना कैमरा छिपा कर पहुंचे थे और दिन में सेक्टर-4 के हिस्से में मालवाहक खड़ा कर उन्होंने चुपचाप यह सीन शूट कर लिया था। जिसे मुंबई जाकर फिल्म में 'दुनिया के मन आघू बढ़ गे' गीत में जोड़ा गया।

भारत-चीन बातचीत का प्रतिधित्व करने वाले 
भिलाई की शान लेफ्टिनेंट जनरल हरिंदर सिंह

हरिंदर सिंह (लाल घेरे ) की में सेक्टर-10 स्कूल की तस्वीर, सौजन्य -दीपांकर दास 

इस्पात नगरी भिलाई में पले-बढ़े और वर्तमान में लेफ्टिनेंट जनरल हरिंदर सिंह को भारतीय सेना के प्रतिनिधि के तौर पर चीनी सेना के अधिकारी मेजर जनरल लियू लिन के साथ 6 जून की तय बातचीत का जिम्मा सौंपा गया। इस प्रतिनिधि मंडल के बीच आगे भी कई दौर की बातचीत हुई। 
ऐसे में हरिंदर सिंह की चर्चा देश-विदेश के मीडिया में खूब हुई  है। लद्दाख में जारी भारत-चीन गतिरोध को खत्म करने भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले लेफ्टिनेंट जनरल हरिंदर सिंह लेह स्थित 14वीं कॉप्र्स के कमांडर के तौर पर पिछले साल अक्टूबर 2019 में जवाबदारी संभाली थी। इस्पात नगरी भिलाई वासियों के लिए यह गर्व की बात है की उनका हमारे शहर से नाता है।

सेक्टर-8 स्ट्रीट-21 में रहे और सीनियर सेकंडरी स्कूल सेक्टर-10 से 1981 में पढ़ कर निकले हरिंदर सिंह ने भारतीय सेना में अब तक बेहद उल्लेखनीय सेवा दी है
उनके पिता दिवंगत सरदार गुरूनाम सिंह भिलाई स्टील प्लांट के शुरूआती दौर के इंजीनियरों में से थे और मर्चेंट मिल से प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए थे। बहन नरिंदर कौर यहां डीपीएस रिसाली में शिक्षिका हैं,बहनोई हरदयाल सिंह बीएसपी के रिटायर जीएम (इलेक्ट्रिकल) हैं। वहीं छोटे भाई कर्नल रविंदर सिंह भी सेना के माध्यम से देश सेवा कर रहे हैं। उनके  स्कूल के सहपाठियों में बीएसपी में कार्यरत और प्रख्यात ड्रमर दीपांकर दास का नाम प्रमुख है।

चीन पर प्रतिबन्ध के दौर में भिलाई से निकली ‘चिंगारी’ 


भारत सरकार के टिकटॉक सहित चीन के विभिन्न मोबाइल ऐप पर प्रतिबंध के बीच इस्पात नगरी भिलाई के पले-बढ़े युवा सुमीत घोष की टीम के बनाए ‘चिंगारी’ ऐप की धूम मची हुई है। देखते ही देखते करोड़ों की तादाद में देश भर से इस स्वदेशी ऐप को लोग डाउनलोड कर रहे हैं। भिलाई में रह रहे सुमीत और उनकी टीम पर आज पूरे देश और दुनिया की निगाहें हैं।
देश के प्रतिष्ठित उद्योगपति आनंद महिंद्रा ने पिछले महीने एक ट्विट कर  सुमीत और उनकी टीम की हौसला अफजाई की थी। महिंद्रा ने अपने ट्विट में कहा था- मैंने कभी अपने मोबाइल में टिक टॉक डाउनलोड नहीं किया। लेकिन चिंगारी को डाउनलोड किया है। इसके बाद से ‘चिंगारी’ ऐप को और ज्यादा हवा मिली और देखते ही देखते पूरे देश में भिलाई से निकला यह अविष्कार छा गया। को-फाउंडर व चीफ प्रोडक्ट आफिसर सुमीत घोष और उनकी टीम ने ‘चिंगारी’ ऐप का निर्माण आज नहीं बल्कि दो साल पहले किया था। उनके साथ छत्तीसगढ़ के अलावा ओडिशा और कर्नाटक के पेशेवर आईटी विशेषज्ञ भी इस टीम में हैं। नवंबर 2018 में इसे गूगल प्ले स्टोर पर अधिकृत तौर पर जारी किया गया था। तब से लोग इसे डाउनलोड भी कर रहे थे लेकिन तीन दिन पहले जैसे ही भारत सरकार ने टिकटॉक सहित चीन के अलग-अलग मोबाइल ऐप पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा की तो लोगों ने एक विकल्प के रूप में ‘चिंगारी’ ऐप पर नजर दौड़ाई। 
सुमीत के पिता श्यामल घोष पेशे से कारोबारी हैं। सुमीत की स्कूली शिक्षा डीपीएस भिलाई में हुई और इसके बाद उन्होंने भिलाई इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी से 2007 में कंप्यूटर साइंस में डिग्री ली। इसके बाद टीसीएस में जॉब की और 2009 में अपनी खुद की कंपनी भिलाई में शुरू की। बीआईटी दुर्ग में कंप्यूटर साइंस के प्रोफेसर सुदीप भट्टाचार्य बताते हैं कि सुमीत घोष कॉलेज के दिनों में भी अपनी धुन में लगे रहते थे और दूसरे स्टूडेंट से काफी अलग थे।
 तब भी सुमीत ने कई साफ्टवेयर बनाए थे, जिसे नामी कंपनियों ने खरीदा था। प्रो. सुदीप भट्टाचार्य ने बताया कि सुमीत ने खुद पहल करते हुए अपनी साफ्टवेयर कंपनी के माध्यम से बीआईटी में मशीन लर्निंग पर रिसर्च सेंटर शुरू किया है। जिसमें बीआईटी में मशीन लर्निंग पर रिसर्च के लिए सुमीत की कंपनी तीन साल के लिए हुए इस करार के तहत हर साल 10 लाख रूपए दे रही है। इससे कंप्यूटर साइंस में शोध को बढ़ावा मिला है। प्रो. सुदीप ने बताया कि सुमीत की वजह से आईटी सेक्टर में भिलाई का नाम चर्चा में आ रहा है। सुमीत अपनी कोशिशों के तहत अब स्मृति नगर में पहला निजी साफ्टवेयर टेक्नालॉजी पार्क विकसित कर रहे हैं। जिससे भविष्य में आईटी के क्षेत्र में भिलाई की एक अलग पहचान बनेगी।

भारत चीन सीमा पर क्या मतलब है गुलाम
रसूल गालवन और दौलत बेग ओल्डी का..?

नितीश ओझा की फेसबुक वाल से 

गालवन घाटी-इस चर्चित घाटी को जानने के पहले जान लेते हैं फ्रांसिस यंगहसबैंड को। भारत के गवर्नर लार्ड कर्जन ने रूसी प्रभाव को कम करने तथा तिब्बत को ब्रिटिश प्रभाव में लाने के उद्देश्य से यंग हस्बैण्ड (Young Husband) नामक सैनिक अधिकारी की कमान में ब्रिटिश भारतीय सेना को तिब्बत भेजा ।
अब ये रूसी प्रभाव क्या था ? सत्रहवीं से लेकर बीसवीं सदी तक तक एक ऐसा घटनाक्रम जिसमे रूस समस्त एशिया (भारत समेत) पर अपना प्रभाव जमाना चाहता था। अंग्रेज़ी में ब्रिटेन तथा रूस की इस औपनिवेशिक द्वंद्व को ग्रेट गेम के नाम से जाना जाता है जो द्वितीय विश्वयुद्ध तक चला।
इसी दौरान चीन ने भी तिब्बत और मंगोलिया पर अपना प्रभुत्व जमाना चालू कर दिया था और लहासा पर नियंत्रण कर 7वें दलाई लामा का चयन स्वयं किया।
चीन के इस प्रभाव को समझने के लिए यंगहसबैंड हिमालय समेत कश्मीर, तिब्बत, चीन के अनेक भागों का दौरा करता है फिर काराकोरम, पामिर, हिंदुकुश इत्यादि का मैप भी बनाता है, इसकी इस सेवा से खुश होकर तत्कालीन गवर्नर डफरिन इसे मेडल इत्यादि देते हैं और यह फिर Royal Geographical Society का सदस्य बंनता है फिर आगे प्रेसिडेंट भी ।
इसी दौरान गिलगित के हुंजा प्रांत के लोग यारकन्द नदी के (लद्दाख के आगे सिल्क रूट) पास ब्रिटिश व्यापारियों पर हमले करते हैं, जिसे यंगहसबैंड गोरखा टुकड़ी के साथ मिलकर समाप्त करता है फिर आगे ये लद्दाख का भी भ्रमण करता है, एक्सप्लोर करने के लिए ।
यंगहसबैंड के इस लद्दाख भ्रमण मे उसका सामना लद्दाख के कुछ लुटेर्रों से भी होता है जो लद्दाख के गालवन नदी के आस पास कबीले बनाकर रहते थे फिर कश्मीर के डोगरा राजाओं के सहयोग से उन लुटेरों का सफाया किया जाता है, इस दौरान बहुत सारे गालवान कबीले के लोग नजदीकी क्षेत्रों मे भागकर जान बचाते हैं।
इन्ही मे से एक लड़का यंगहसबैंड का दोस्त बनता है जिसका नाम था गुलाम रसूल गालवन । कहते हैं कि रसूल के पूर्वज भेड़ों के घुमंतू चरवाहे थे और उसी मे से एक लुटेरा हो गया था जिसका नाम था कर्रा गालवन – कर्रा का अर्थ काला और गलवान का अर्थ लुटेरा ।
एक विचार यह भी है कि इसी गुलाम रसूल के नाम पर नदी का नाम गालवन पड़ा, क्यूंकी उसी ने पहली बार इस नदी के बारे में यंगहसबैंड को बताया था । कुछ शोध बताते हैं कि यह गालवान लोग मूलतः कश्मीर के नहीं थे, बल्कि यह दम नामक घुमंतू जनजाति थी जो कालांतर मे सेंट्रल एशिया से कश्मीर आई थी, ये लोग कश्मीरी राजाओं के घोड़े / काफ़िले लूट लिया करते थे।
गुलाम रसूल गाडविन आस्टिन के साथ भी रहता है, वही गाडविन आस्टिन जिनके नाम पर के2 पर्वत चोटी है। यह गुलाम रसूल लंबे समय तक यंगहसबैंड के साथ रहता तो है ही, अनेक भाषाएँ भी सीखता है। इस घुमक्कड़ी के दौरान सर डूरंड के आदेश पर (पाकिस्तान अफगानिस्तान के बीच की रेखा इन्ही डूरंड के नाम पर है और फुटबाल का डूरंड कप भी) यंगहसबैंड बाल्टिस्तान का दौरा करता है और वहाँ रशियन दखल को रोकता है ।
यंगहसबैंड की इस कुशलता से प्रभावित होकर तात्कालिन गवर्नर लार्ड कर्ज़न उसे तिब्बत का कमिश्नर बनाते हैं । यंगहसबैंड फिर तिब्बत मे ब्रिटिश शासन का प्रभुत्व जमाता है, और तिब्बत मे ब्रिटिश राज्य को बनाए रखने के उद्देश्य में लगभग 5000 से ज्यादा बौद्ध भिक्षुकों की हत्या करता है फिर शासन क़ाबिज़ रहता है।
इस कार्य से प्रसन्न होकर उसे ‘Knight Commander’, ‘Order of the Star of India’ और क़ैसर ए हिन्द अवार्ड से नवाजा जाता है। यह वही समय था जब कलकत्ता मे विक्टोरिया मेमोरियल बन रहा था। एंग्लो तिब्बत ट्रीटी भी यही यंगहसबैंड की ही देन थी।
इस दौरान गुलाम रसूल गालवन उसके साथ रहते रहते एक किताब भी लिखता है जिसका नाम सर्वेंट ऑफ साहिब्स है, इस किताब का शुरुआती हिस्सा फ्रांसिस यंगहसबैंड ने ही लिखा जिसमे ब्रिटिश भारत और चीनी साम्राज्य के बीच सीमा के बारे में भी बताया है। लेह में आज भी कुछ लोग रहते हैं जो स्वयं को गुलाम रसूल गालवन का वंशज बताते हैं।
1962 की जंग के दौरान भी 14000 फीट ऊंची गालवन नदी का यह क्षेत्र जंग का प्रमुख केंद्र रहा है। गालवन घाटी लद्दाख में एलएसी पर स्थित है। यह वही अक्साई इलाका है, जिसे चीन ने अपने कब्जे में ले रखा है, 1962 की जंग में गालवन घाटी में गोरखा सैनिकों की पोस्ट को चीनी सेना ने 4 महीने तक घेरे रखा था, 33 भारतीयों की जान गई थी।
मुगल वंश के संस्थापक बाबर के नाना युनूस खान के पोते सुल्तान सईद खान ने 9 कबीलों का समूह बनाकर एक प्रांत मुगलिस्तान की स्थापना की थी, यरकंद नदी के समीप से, यह सईद खान स्वयं को तैमूर का वंशज कहता था,
इसी के अंतर्गत आने वाले लद्दाख और काराकोरम के नजदीक स्थित दौलत प्रांत के नाम पर, लद्दाख मे भारत सरकार द्वारा निर्मित सड़क, हवाई पट्टी का नाम दौलत बेग है । इस प्रांत मे बाल्टी जाति के लोग रहते हैं और यह भी गालवन के नजदीक है।
दौलत बेग ओल्डी अत्यंत चर्चित है जिसका तुर्की भाषा मे अर्थ होता है वह जगह बड़े बड़े सूरमा की भी मौत हो जाये। यह दुनिया की सबसे ऊंची हवाई पट्टी है।

Wednesday, August 19, 2020

 'मास्टर जी' सरोज खान- एक पवन दीवानी


फिल्मी दुनिया मेें 'मास्टर जी' कहलाने वाली सरोज खान अब हमारे बीच नहीं है। 3 जुलाई 2020 को 72 साल की उम्र में मुंबई के एक अस्पताल में उन्होंने आखिरी सांस ली।

सरोज खान की पूरी जिंदगी बेहद उतार-चढ़ाव वाली रही। हालांकि 'नगीना', 'चांदनी' और 'तेजाब' से उनका जो सितारा चमका तो फिर कोरियाग्राफी की दुनिया में उन्होंने अपनी बादशाहत बीते दशक तक कायम रखी। उनकी जिंदगी के कुछ उतार-चढ़ाव पर एक नजर-

वैजयंती माला ने दिया था सबसे बड़ा इनाम

1962 आते-आते 'मास्टरजी' सरोज खान अपने गुरु बी. सोहनलाल की असिस्टेंट हो चुकी थी। डॉ. विद्या के गीत पवन दीवानी न मानें की शूटिंग चल रही थी और वैजयंती माला को सोहनलाल ने कहा-सरोज जैसा करती है तुम्हे वैसा करना है। 13 साल की बच्ची को देखकर वैजयंती माला भी हैरान थी। 

खैर, इस गाने पर सरोज ने अपने मास्टरजी की बताई हुई तमाम हरकतें हूबहू करने लगीं और जब 'उलझी लट हमारी..' वाला अंतरा आया तो सरोज का नृत्य कौशल देख वैजयंती माला दंग रह गई।

पूरा गाना शूट होने के बाद वैजयंती ने आवाज दी-ए सरोज..उधर से सरोज दौड़ी चली आई और वैजयंती ने खुश होकर 50 रूपए दिए। सरोज इस 50 रूपए को हमेशा अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा सम्मान मानती रही।

'ताजमहल' की कव्वाली में देखिए सरोज को

याद कीजिए 'ताजमहल' फिल्म की कव्वाली चांदी का बदन सोने की नजर अगर भूल गए हों तो इसे यू-ट्यूब पर दोबारा ध्यान से देखिए। मीनू मुमताज और खुर्शीद भंवरा के बीच शानदार मुकाबला चल रहा है और मीनू मुमताज के ठीक पीछे बाईं ओर सरोज है।

प्रख्यात मेकअप आर्टिस्ट पंढरी जुकर का यू-ट्यूब पर एक इंटरव्यू मेें बताते हैं-''तब मैंने सरोज की हरकतों को देखकर डायरेक्टर सादिक से कहा कि मीनू के पीछे जो लड़की है उसे देखिए। उसे तो आगे होना चाहिए।

इस पर सादिक बोले-बात तो सही कह रहे हो तुम लेकिन उस लड़की को आगे लाएंगे तो अपनी मेन आर्टिस्ट मीनू मुमताज दब जाएगी। इसलिए उसे वहीं रहने दो।''

खैर, सरोज तब फ्रंट पर नहीं थी लेकिन आज उस कव्वाली को देखिए तो सरोज की अदाकारी से आपका ध्यान नहीं हटेगा।

परछाई को देखकर नाचने वाले निर्मला ऐसे बन गई सरोज

बंटवारे के बाद पाकिस्तान वाले हिस्से से रोजी-रोटी की तलाश में मुंबई आए शरणार्थी किशनचन्द सिद्धू सिंह नागपाल और उनकी बीवी नोनी सिंह के घर 22 नवंबर 1948 को बेटी ने जन्म लिया, जिसका नाम रखा गया निर्मला नागपाल।

उस खानदान में किसी का भी नृत्य या कला से कोई लेना देना नहीं था लेकिन 3 साल की उम्र में जब निर्मला अपनी परछाई को देखकर नाचने लगी तो मां पास के एक डाक्टर के पास ले गई कि शायद बच्ची दिमागी तौर पर कुंद तो नहीं है।

लेकिन डाक्टर ने समझाया कि बच्ची नार्मल है और अगर नाचना चाहती है तो फिल्मों में क्यों नहीं भेज देते। वैसे भी तुम लोगों को पैसे की जरूरत तो है ही। इस तरह 3 साल की निर्मला जब फिल्मों मेें आई तो माता-पिता नहीं चाहते थे कि फिल्म लाइन की वजह से उनके परिवार पर सवाल उठे, इसलिए निर्मला का नाम बदल कर बेबी सरोज करवा दिया।

'आगोश' और 'हावड़ा ब्रिज' वाली सरोज

चाइल्ड आर्टिस्ट के तौर पर सरोज को छोटे-छोटे रोल मिलने लगे। शुरूआती छोटे-छोटे काम के बाद उन्हें पूरा एक गाना मिला फिल्म आगोश (1953) के गीत बांसुरिया काहे बजाई बिन सुने रहा न जाए में, जिसमें सरोज ने राधा और बेबी नाज ने कृष्ण की भूमिका की थी। इस गीत में आप 5 साल की सरोज का नृत्य कौशल देख सकते हैं।

फिर उम्र कुछ और आगे बढ़ तो सरोज को एक्स्ट्रा आर्टिस्ट के तौर पर काम मिलने लगा। फिल्म हावड़ा ब्रिज के गीत आईए मेहरबां में मधुबाला के सामने डांस कर रहे लड़के-लड़कियों की टोली में सबसे आगे लड़की हमीदा के साथ लड़का बनी सरोज साफ नजर आती हैं। 

..और सोहनलाल की असिस्टेंट बन गई सरोज

बैकग्राउंड डांसर सरोज के लिए जल्द ही ऐसा वक्त भी आया जब डांस डायरेक्टर बी. सोहनलाल उनके ग्रुप को रिहर्सल करवा रहे थे और सरोज अपना हिस्सा छोड़ हेलन के हिस्से का अभ्यास कर रही थी।

 सोहनलाल नाराज हुए लेकिन पूछ बैठे कि क्या हेलन को जो करना है वो पूरा करके दिखा सकती हो। सरोज को मौके की तलाश थी, लिहाजा उन्होंने तुरंत ही हेलन वाला पूरा डांस कर सबको हैरान कर दिया। इसके बाद सोहनलाल ने सरोज को तुरंत अपना असिस्टेंट बना लिया।

असिस्टेंड के तौर पर सरोज तब तमाम दिग्गज नायिकाओं को नचा रही थीं। इसी दौरान एक मौका ऐसा भी आया जब सोहनलाल को 'संगम' के 'प्रेम पत्र' वाले गीत के लिए टीम के साथ विदेश जाना पड़ा और इधर 'दिल ही तो है' फिल्म में नूतन पर 'निगाहें मिलाने को जी चाहता है' कव्वाली की शूटिंग सामने थी।

तब उन्हें कव्वाली पर काम करने कहा गया तो उन्होंने असमर्थता जताई लेकिन निर्देशक प्यारेलाल संतोषी ने उन्हें इस कव्वाली की एक-एक लाइन पर अदाकारी का गुरुमंत्र दिया और इसके बाद सरोज तैयार हुई फिर पहली बार पूरी की पूरी इस कव्वाली को सरोज ने संवार दिया। इससे उनके काम को तारीफ भी खूब मिली।

ऐसे हुई पहली शादी, फिर आए सरदार खान

इसके कुछ ही महीने बाद 41 साल के सोहनलाल ने 13 साल की सरोज के गले में काला धागा बांध दिया और सरोज ने भी मान लिया कि उसकी शादी हो गई।

उस वक्त वे नहीं जानती थीं कि सोहनलाल पहले से शादीशुदा और चार बच्चों के पिता हैं। सरोज को यह सब तब पता लगा जब 1963 में वह एक बेटे को जन्म दे चुकी थी।1965 में उनके दूसरे बच्चे का जन्म हुआ, जो 8 महीनों बाद ही गुजर गया। जब सोहनलाल ने सरोज के दोनों बच्चों को अपना नाम देने से इनकार किया, तो इनकी राहें अलग हो गई।

कुछ सालों बाद सोहनलाल को हार्ट अटैक आया, तब सरोज उनके करीब आईं। इस दौरान सरोज ने बेटी कुकु को जन्म दिया। बेटी के जन्म के बाद सोहनलाल हमेशा के लिए सरोज की जिंदगी से अलग हो गए और मद्रास चले गए। इसके बाद सरोज ने दोनों बच्चों की परवरिश अकेले की।

सोहनलाल से अलग होने के बाद सरोज ने 1975 में कारोबारी सरदार रोशन खान से दूसरी शादी की। सरदार रोशन खान ने सरोज के दोनों बच्चों को अपना नाम दिया।

 इसके बाद सरोज ने इस्लाम धर्म अपना लिया और सरोज खान हो गईं। सरदार रोशन और सरोज की एक बेटी सकीना खान है, जो फिलहाल दुबई में डांस इंस्टीट्यूट चलाती हैं।

वहीं सरोज के मास्टर सोहनलाल से दो बच्चों को भी सरदार खान ने अपना नाम दिया। इनमें राजू (हामिद) खान आज जाने-माने कोरियोग्राफर हैं। वहीं बेटी कुकू खान मेकअप आर्टिस्ट थीं, जिनका 2011 में देहांत हो गया।

पहला ब्रेक साधना ने दिया, राह बनाई सुभाष घई ने

सरोज की जिंदगी में कई उतार-चढ़ाव आते रहे। इस बीच उन्हें पहला ब्रेक दिया साधना ने 1974 में अपनी फिल्म 'गीता मेरा नाम' से। इस फिल्म से वह स्वतंत्र कोरियोग्राफर बन गई। 

इसके बाद उन्होंने राजश्री फिल्म्स के बैनर तले राज बब्बर की पहली फिल्म जज्बात की। हालांकि मंजिल अभी भी दूर थी। उनकी कीमत पहचानी निर्माता-निर्देशक सुभाष घई ने, जिन्होंने 1982 में अपनी महत्वाकांक्षी फिल्म 'हीरो' में स्वतंत्र रूप से नृत्य निर्देशन का मौका दिया।

इसके बाद 1986 में आई फिल्म 'नगीना' सरोज के लिए मील का पत्थर साबित हुई। इस फिल्म में सरोज ने श्रीदेवी को 'मैं तेरी दुश्मन गाने' पर नृत्य कराया, जो काफी हिट साबित हुआ और इसी गाने की वजह से सरोज को फेम मिला। 

यही वह दौर था, जब सरोज खान के नाम का सिक्का चल निकला। चांदनी, तेजाब, मिस्टर इंडिया, लम्हे चालबाज, खलनायक, हम दिल दे चुके सनम, देवदास तक सरोज खान पूरी तरह स्थापित हो चुकी थी।

कई सम्मान हासिल किए, दक्षिण ने भी पूछा उन्हें

2002 में आई 'देवदास', 2006 की तमिल फिल्म 'श्रृंगारम' और 2007 में रिलीज 'जब वी मेट' में बेहतरीन कोरियोग्राफी के लिए उन्हें नेशनल अवॉर्ड मिला। श्रृंगारम की सबसे खास बात यह है कि इसमें एक गीत की महज एक लाइन में सरोज खान ने नायिका से 16 भाव दिखाए हैं। इससे दक्षिण के कई दिग्गजों ने उनकी कला को सराहा।

इस दौरान उन्हें चेन्नई की प्रतिष्ठित श्रीकृष्णा गान सभा बुलाकर सम्मानित किया। फिल्मी दुनिया से सरोज खान पहली ऐसी हस्ती थी, जिन्हें शास्त्रीयता में रची-बसी एक प्राचीन संस्था ने बुलाकर सम्मानित किया था। इसी तरह तेजाब के एक दो तीन के साथ रोचक तथ्य यह जुड़ा है कि इस गीत के साथ फिल्मफेयर ने पहली बार बेस्ट कोरियोग्राफर की केटेगरी रखी और पहला अवार्ड सरोज खान को दिया। इसके बाद उन्होंने 8 फिल्मफेयर अवॉड्र्स जीते। वहीं 2001 में आई 'लगान' के लिए उन्हें अमेरिकन कोरियोग्राफी अवॉर्ड मिला था।

कम होती गई सक्रियता, मकाम बनाया अपना

भले ही सरोज 2000 से ज्यादा गानों को कोरियोग्राफ कर चुकी हैं। लेकिन दशक भर से उनकी सक्रियता में कमी आई थी। आखिरी बार पिछले साल माधुरी दीक्षित की फिल्म कलंक में उन्होंने तबाह हो गए गीत का नृत्य संयोजन किया। 

इससे पहले 2014 में 'गुलाब गैंग' और 2015 की 'तनु वेड्स मनु रिटन्र्स' जैसी चुनिंदा फिल्मों में उन्हें अपना काम दिखाने का मौका मिला। वहीं सरोज खान कई रियलिटी शो में बतौर जज जुड़ी थीं। इसमें 'नच बलिए', 'उस्तादों के उस्ताद', 'नचले वे विद सरोज खान', 'बूगी-वूगी', 'झलक दिखला जा' जैसे शो शामिल हैं।

आज सरोज खान हमारे बीच नहीं है लेकिन 90 के दौर से बीते दशक तक उन्होंने अपना जो मकाम बनाया वह हमेशा खाली रहेगा। अपनी मौत से कुछ दिन पहले उन्होंने एक वीडियो रिकार्ड करवाया था। उसे लिंक पर देख-सुन सकते हैं

 कुमकुम (जैबुन्निसा), तेरा जलवा
   जिसने देखा वो तेरा हो गया.......


बीते जमाने की मशहूर अदाकारा और नृत्यांगना कुमकुम (मूल नाम-जैबुन्निसा) ने 28 जुलाई 2020 मंगलवार को मुंबई में 86 साल की उम्र में आखिरी सांस ली। 

कुमकुम बीते करीब 4 दशक से फिल्मी चकाचौंधी के जीवन से दूर अपने घर-परिवार में जिंदगी बसर कर रही थी। 

उनके गुजरने की खबर मशहूर एक्टर जॉनी वॉकर के बेटे नासिर और जगदीप के बेटे नावेद ने सोशल मीडिया पर जानकारी दी।

कुमकुम के योगदान पर लिखने को ढेर सारी फिल्मों के नाम दिए जा सकते हैं लेकिन कुछ उल्लेखनीय फिल्मों की बात करें तो उनकी धमाकेदार इंट्री हुई थी ''आर-पार'' के गीत ''कभी आर कभी पार लागा तीरे नजर.. से।''

निर्देशक गुरुदत्त ने पहले यह गीत 15 साल के जगदीप पर फिल्माया था लेकिन सेंसर बोर्ड ने गाने के बोल और जगदीप की उम्र को देखते हुए एतराज जताते हुए गाना निकालने कह दिया। इस पर गुरुदत्त ने बीच का रास्ता निकाला और फिर कुमकुम को तैयार कर उन पर यह गीत फिल्मा लिया। इसके बाद तो कुमकुम की फिल्मों में सक्रियता बढ़ती गई।

जिन गीतों पर उनके नृत्य की धूम मची

परदे पर उनके नृत्य कौशल के नाम से जिन गानों की धूम मची उनमें ''कोहेनूर'' में ''मधुबन में राधिका नाची रे'' को आप सबसे उपर रख सकते हैं। इसके बाद ''मदर इंडिया'' में ''होली आई रे'' गीत का शुरूआती हिस्सा देखिए, जिसमेें सितारा देवी के साथ कुमकुम की अद्भुत जुगलबंदी नजर आएंगी।

वैसे ही ''नया दौर'' में मीनू मुमताज के साथ ''रेशमी सलवार कुरता जाली दा'' गीत में छा जाती है। इसके साथ ही ''दगा दगा वई वई'' (काली टोपी लाल रुमाल), ''तेरा जलवा जिसने देखा वो तेरा हो गया'' (उजाला) और ''मेरा नाम है चमेली, मैं हूं मालन अलबेली'' (राजा और रंक) सहित एक लंबी फेहरिस्त है। ऐसे ही गीतों के लिए अखबारों में फिल्मों के इश्तिहार के नीचे लिखा जाता था कि गाने के दौरान परदे पर चिल्हर न फेंके।

उनकी कुछ और उल्लेखनीय फिल्मों में 'मिस्टर एक्स इन बॉम्बे','सन ऑफ इंडिया', 'बसंत बहार', 'एक सपेरा, एक लुटेरा','आंखें','गंगा की लहरें','गीत', 'ललकार','एक कंवारा, एक कंवारी', 'जलते बदन' और 'किंग कॉन्ग' शामिल हैं।

प्रेरणा थी पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म की

कुमकुम का योगदान सिर्फ हिंदी फिल्मों में नहीं है बल्कि वह 1963 में आई पहली भोजपुरी फिल्म ''गंगा मइया तोहे पीयरी चढ़इबो'' की नायिका थीं। यही वह फिल्म थी,जिसने रायपुर से जाकर बंबई में संघर्ष कर रहे युवा मनु नायक को पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म ''कहि देबे संदेस'' बनाने की प्रेरणा मिली थी। 

मनु नायक छत्तीसगढ़ी फिल्म में कुमकुम को नायिका और  उस वक़्त अपनी  बनाने पहचान बनाने संघर्ष कर रहे युवा सलीम खान (सलमान के पिता ) को नायक लेना चाहते थे। 

मनु नायक बताते हैं कि दोनों से बात हुई लेकिन कई वजहों से यह बात नहीं जमी। खैर, कुमकुम बाद के दिनों में कई भोजपुरी फिल्मों में नजर आईं और कुछ फिल्में उन्होंने बनाई भी।

निजी जिंदगी उथल-पुथल से भरी, गोविंदा की खाला हैं कुमकुम..?

अब कुछ बातें कुमकुम की निजी जिंदगी को लेकर। दरअसल कई सवाल उनके जाने के बाद भी बरकरार हैं। लगभग सभी वेबसाइट और अखबारों ने उन्हें हुसैनाबाद (बिहार) के नवाब मंजूर हुसैन खां की बेटी लिखा है और कुमकुम का भी एक इंटरव्यू जो मेरी नजर से गुजरा है, उसमें वह खुद भी अपनी पहचान यही जाहिर करती हैं।

लेकिन फिल्म इतिहासकार शिशिर कृष्ण शर्मा ने अपने ब्लॉग बीते हुए दिन  में जो इंटरव्यू शामिल किया है, उससे इस तथ्य की पुष्टि होती हैं कि कुमकुम दरअसल बीते दौर की शास्त्रीय संगीत की गायिका निर्मला देवी की बहन और अभिनेता गोविंदा की खाला हैं।

इस इंटरव्यू में उन्होंने मशहूर नृत्यांगना सितारा देवी के हवाले से बताया है कि कुमकुम और निर्मला देवी के पिता एक हैं मां अलग-अलग। उनके पिता तबला वादक वासुदेव नारायण सिंह (वासुदेव महाराज) की पहली हिंदू पत्नी की बेटी निर्मला देवी हैं तो दूसरी मुस्लिम पत्नी (जिन्हें सितारा देवी मुन्नन आपा बताती हैें) की दो बेटियां कुमकुम और राधा हुई।

वैसे कुछ दूसरी वेबसाइट खंगालने पर यह उल्लेख भी सामने आता है कि मुस्लिम महिला से दूसरा विवाह करने के साथ ही कुमकुम के पिता ने इस्लाम धर्म कुबूल कर लिया था। हालांकि कहीं भी यह साफ नहीं होता कि वासुदेव नारायण सिंह और नवाब मंजूर हुसैन खां एक ही व्यक्ति है या अलग-अलग...।

खैर, अब न तो कुमकुम इस दुनिया में हैं ना ही उनकी बहन और गोविंदा की माता निर्मला देवी। वहीं सितारा देवी भी गुजर चुकी हैं। इसलिए जब तक कोई और जानकारी न आए, तब तक इसे ऐसे ही छोड़ देना बेहतर है।

रांची था ससुराल, शिया परंपरा का पूरी तरह किया पालन

1975 में कुमकुम की शादी सज्जाद अकबर खान से हुई। इस बारे में रांची के पत्रकार-लेखक सैयद शहरोज कमर  ने उर्दू अदीब हुसैन कच्छी के हवाले से लिखा हैं कि-कुमकुम की शादी रांची के नौजवान सज्जाद अकबर खान उर्फ पिंकी खान से हुई थी। 

शहरोज के मुताबिक शादी के बाद कुछ दिनों तक कुमकुम रांची आकर रहीं भी। मूलत: इलाहाबाद के रहने वाले पिंकी के पिता अकबर हुसैन खान हैवी इंजीनियरिंग कार्पोरेशन (एचईसी) में उच्च पदाधिकारी थे। 

यह परिवार एचईसी के सेक्टर-3 में रहता था। पिंकी का फिल्मी नगरी आना-जाना होता था। इसी दौरान कुमकुम से मुलाक़ात हुई और बाद में बात निकाह तक आ पहुंची। 

शादी करके जब दोनों रांची आये तो हम दोस्तों ने उनका इस्तक़बाल किया। दोनों की एक बेटी अंदलीब है। वहीँ पत्रकार फज़ल इमाम मालिक लिखते हैं कि कुमकुम के परिवार में उनका बेटा हादी अली अबरार फिल्मों से जुड़ा  हैं ।

कुछ और माध्यमों से भी जानकारी मिलती है कि सज्जाद-जैबुन्निसा (कुमकुम) कुछ दिनों बाद सऊदी अरब चले गए। वहां 20 बरस गुजारने के बाद 1995 में यह जोड़ा मुंबई लौटा और तब से कुमकुम शिया मुस्लिम परिवार की परंपरा का पूरी तरह निर्वहन करते हुए रह रही थी। उनके पति बिल्डर रहे हैं और कुमकुम अपना बुटीक चलाती थी।

अभिनेत्री कुमकुम पर फेसबुक में एक पेज मौजूद है। जिसमें उनका एक वीडियो भी देख सकते हैं। बहरहाल एक कुशल नृत्यांगना और बेहतरीन अभिनेत्री कुमकुम को श्रद्धांजलि।


 छह दशक का वैभव समेटे सूना हुआ बीएसपी जनसंपर्क
 का फोटो सेक्शन, आखिरी फोटोग्राफर जोशी भी रिटायर


तत्कालीन ईडी जी उपाध्याय  के साथ  दाएं से कल्बे हसन, प्रमोद यादव, राकेश यदु, अनिल कामड़े ,राजकुमार सिंह और सुधीर जोशी 

भिलाई इस्पात संयंत्र के जनसंपर्क विभाग का फोटो सेक्शन अपनी छह दशक की सक्रियता भरी उपलब्धियों के साथ अब सूना हो गया। यहां के आखिरी फोटोग्राफर सुधीर मधुकर जोशी 31 जुलाई 2020 को अपनी 36 साल की सेवा के बाद रिटायर हो गए। 

संभव है मैनेजमेंट अब जरूरत पड़ने पर वीडियो सेक्शन या बीएसपी के दूसरे विभागों से फोटोग्राफरों की सेवा ले। वरिष्ठ फोटोग्राफर जोशी के रिटायरमेंट पर इसी विभाग में सुदीर्घ सेवा दे चुके अंचल के प्रख्यात फोटोग्राफर प्रमोद यादव ने सोशल मीडिया पर एक भावुक पोस्ट लिखी है। जिसमें उन्होंने विभाग से जुड़ी यादें बांटी है।

प्रमोद यादव लिखते हैं-देखते ही देखते दिन कैसे गुजर जाते हैं,पता ही नहीं चलता। मुझे वो दिन भी याद है जब एक मई 1980 को मैने फोटो सेक्शन ज्वाइन किया, तब भरा-पूरा विभाग था फोटो सेक्शन। 

तब यहां 7-8 कार्मिक हुआ करते थे। तीन सीनियर फोटोग्राफर, दो जूनियर,एक आफिस असिस्टेंट, एक प्यून और एक स्टोर कीपर भी जिसके जिम्मे फोटो सेक्शन के सारे सामान हुआ करते। 

बीएसपी के शुरुआती  फोटोग्राफर हरीश जे (स्कूटर पर )के साथ टीम 
हमें फोटो प्रिंटिंग पेपर, रोल,डेवलेपर और हाइपो डेवलपिंग ट्रे आदि की जरूरत होती तो वे ही इश्यू करते। 
उन दिनों नायर हुआ करते स्टोर कीपर, फिर बाद में उनकी जगह पिल्ले और फिर पीसी छाबड़ा आए। आफिस की पूरी व्यवस्था पीसी श्रीवास्तव की होती। वे ही सारे फोन अटेंड करते। 

सारे फोटो-कवरेज डायरी में नोट करते, टाउनशिप गैरेज में फोन कर वाहन भी लाइनअप करते। कुछ विशेष कवरेज को छोड़ वह यह भी तय करते कि किस फोटोग्राफर को कहा भेजना है।

 हमारे विभाग के नियमित टाइपिस्ट थे लंबोदर सिंह ठाकुर जो घंटे दो घंटे के लिए ऊपर फोटो सेक्शन में जरूर आया करते थे।

यादव ने लिखा-कहते है सेक्शन में पहले दो प्यून हुआ करते थे लेकिन मैं जब जुड़ा तो सिर्फ राधेश्याम ही थे। बड़े ही भोले और अंतरमुखी से लेकिन काम में माहिर और किसी काम को 'ना' नहीं कहते।

 जब कभी हम किसी वीआईपी के विजिट पर उन्हें देने एलबम बनाया करते तो पूरे रात वो हमारे साथ हमारी मदद करते, निगेटिव सूखाते,फोटो धोते फिर उन्हें एलबम में बेहद सलीके से चस्पा भी करते।

तब ब्लैक एंड वाइट का जमाना था। एलबम तैयार होते-होते सुबह के चार-पांच बज जाते फिर राधेश्याम के हाथों ही उसे फ़ोटो आफिसर के निवास पहुंचाते और वे बीएसपी के चीफ जीएम/एमडी को सौंपते, जो वीआईपी को भेंट करते।

करीब 65 साल पहले भिलाई के शुरूआती दौर में किशन सोनी 'निशा' सीनियर फोटो आफिसर और जे.हरीश जूनियर फोटो आफिसर फोटो सेक्शन के आधार स्तंभ थे। 

फिर स्व.राजा बाबू पिल्ले वरिष्ठ फोटोग्राफर, उनके बाद राकेश यदु और अनिल कामड़े फोटोग्राफर। तब पूरे सेल की किसी भी यूनिट में फोटो प्रभाग नहीं होने से अक्सर विशेष अवसरों पर भिलाई के फोटोग्राफर ही जाते। 

दोनों सीनियर ऑफिसरों सोनी व हरीश ने विशिष्ट हस्तियों के बहुत ही कवरेज किए। इनमें नेहरू,दिमशित्स, ख्रुश्चेव,डॉ.राजेन्द्र प्रसाद हो,मोरारजी देसाई, इंदिरा गांधी, लाल बहादुर शास्त्री,बीजू पटनायक और सरदार स्वर्ण सिंह सहित बहुत लंबी सूची है।

यादव कहते हैं-इसमें कोई शक नहीं कि भिलाई का आरंभिक इतिहास सोनी व हरीश ने ही फोटो के माधयम से बनाया,इन्होंने भिलाई को अपना बेस्ट दिया। राजा बाबू पिल्ले हरफन मौला फोटोग्राफर थे। बहुत ही ईमानदार और स्पष्ट वक्ता। उन्होंने हमें खूब सिखाया। 

हमारे ढेर सारे काम वे ही कर दिया करते। शाम के बाद का कवरेज अक्सर वे ही करते। अफसोस कि एक दिन यूं ही सुबह किसी कवरेज में जाने तैयार घर पर बैठे थे कि एकाएक दिल का दौरा पड़ा और वे चल बसे।

यादव कहते हैं-राकेश व कामड़े मेरे ही हमउम्र थे। इनसे अच्छी निभी और हम हमेशा साथ रहे। हरीश के रहते तीन और फोटोग्राफर राज कुमार सिंह,कल्बे हसन और सुधीर जोशी भर्ती हुए। फिर एक और फोटो अफसर टीके घोषाल प्लांट से आए,पर वे ज्यादा दिन यहां नही रहे।

वक्त गुजरता गया और सेक्शन में इंचार्ज के तौर पर क्रमशः एचएस कलार्थी और,श्रीमती रूखमणी सिंह आये। वक्त का पहिया घूमता रहा और एक दिन राकेश का ट्रांसफर सीएसआर में हो गया। इस दौरान राधेश्याम भी एकाएक चल बसे। यहीं से सेक्शन का विघटन शुरू हो गया। 

फिर हम केवल पांच थे। ऐसे में स्टाफ घटता गया और आधुनिकीकरण के चलते कवरेज बढ़ता गया। हमें आखिरी तक एक फुल टाइम प्यून नहीं मिला।

प्रमोद यादव कहते हैं- इन परिस्थितियों में मैं 2009 में फोटो और वीडियो सेक्शन का इंचार्ज बना। कवरेज में जाने का अवसर मेरे लिए कम होता गया और मैं केवल व्यवस्थापक की तरह हो गया। समन्वय स्थापित करना ही मेरा काम रह गया। 

खैर,मेरे रहते 2010 में एक दिन एकाएक वरिष्ठ फोटोग्राफर राजकुमार सिंह भी दिल का दौरा पड़ने से हम सबसे बिछुड़ गए। फिर 2012 में मैं सेवानिवृत्त हो गया। तीन साल बाद कामड़े रिटायर हुए। बचे केवल हसन और जोशी। पिछले साल हसन रिटायर हुए और ठीक एक साल बाद अब जोशी।


ससम्मान दी विदाई, लगातार तीन प्रधानमंत्रियों 

सहित कई यादगार फोटोग्राफी की जोशी ने


सुधीर जोशी का विदाई समारोह 
3 फरवरी 1984 को बीएसपी की सेवा से संबद्ध हुए वरिष्ठ फोटोग्राफर सुधीर मधुकर जोशी ने अपने 36 साल से अधिक के सेवाकाल में कई यादगार फोटोग्राफी की।
 सेवानिवृत्ति पर जोशी ने कहा कि उन्होंने अपना पूरा कार्यकाल एनज्वाय किया और डूब कर काम किया। जिसकी उन्हें संतुष्टि है।
जोशी ने बताया कि हाल के दौर में लगातार एक के बाद एक प्रधानमंत्री बनने वाली तीन विशिष्ट हस्तियों अटल बिहारी बाजपेयी, डॉ. मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी के भिलाई आगमन पर फोटो खींचने का यादगार अवसर उन्हें मिला। जोशी के रिटायरमेंट पर जनसंपर्क विभाग ने उन्हें ससम्मान विदाई दी। 

इस अवसर पर विभाग प्रमुख महाप्रबंधक जेकब कुरियन, महाप्रबंधक एस के दरिपा,सहायक महाप्रबंधक अपर्णा चन्द्रा, वरिष्ठ प्रबंधक सत्यवान नायक, वरिष्ठ प्रबंधक जवाहर वाजपेयी सहित विभाग के कर्मचारीगण उपस्थित थे। 

जोशी के योगदान का स्मरण करते हुए उपस्थित लोगों ने कहा कि वे जनसम्पर्क के बेहतरीन फोटोग्राफरों में से एक हैं जिनकी पैनी व कलात्मक दृष्टि फोटो को जीवंत कर देती है।

 उल्लेखनीय है कि जोशी ने भिलाई स्टील प्लांट के कई ऐतिहासिक पलों को अपने कैमरे में कैद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

 विभाग में 5 एस के क्रियान्वयन में जोशी ने उत्कृष्ट योगदान दिया है। इसके साथ ही प्रधानमंत्री श्रम पुरस्कार एवं विश्वकर्मा पुरस्कार हेतु आवेदन करने वाले कार्मिकों के मॉडिफिकेशन को बड़े ही बेहतरीन ढंग से अपने कैमरे में कैद कर इन आवेदनों को गुणवत्तापूर्ण बनाने में महती भूमिका निभाई है। संचालन एवं धन्यवाद ज्ञापन वरिष्ठ प्रबंधक सत्यवान नायक ने किया।


 

कोलकाता से लेकर भिलाई तक 'अम्मा 

वाली कॉफी' कभी नहीं भूले पं. जसराज


पद्मविभूषण पं. जसराज से जुड़ी कुछ बातें, उनकी पारिवारिक सदस्य की जुबानी 
और कुछ बातें सतना की साथ में मेरा इकलौता निजी अनुभव

 प्रख्यात शास्त्रीय गायक पद्मविभूषण पं. जसराज अब हमारे बीच नहीं रहे। 90 साल की उम्र में 17 अगस्त 2020 सोमवार को अमेरिका में उन्होंने आखिरी सांस ली। संगीत जगत की एक बड़ी शख्सियत होने की वजह से उनसे जुड़ी ढेर सारी बातें और यादें लोगों के जनमानस में हैं। यहां कुछ उनकी निजी बातें। 


 कोलकाता से जुड़ा रिश्ता-भिलाई तक कायम रहा

2009 में बंगलुरु में अम्मा के साथ पंडित जसराज, साथ में हैं टी एस अनंतु  
पं. जसराज से बचपन में संगीत की तालीम लेने वालीं दिल्ली घराने की गायिका लक्ष्मी कृष्णन आज भी नहीं भूलती कि किस समर्पण के साथ उन्हें संगीत की बारीकियों से वे अवगत कराते थे। 
उनके गुजरने के बाद लक्ष्मी कृष्णन को अपने बचपन से लेकर पिछले साल मुंबई में हुई आखिरी मुलाकात सब कुछ किसी पटकथा की तरह याद आ रहा है। सेंट थॉमस कॉलेज से रिटायर प्रोफेसर लक्ष्मी कृष्णन ने पं. जसराज के साथ अपने लगाव को कुछ इस तरह याद किया- मेरे पिता टी. ए. सुब्रमण्यम कोलकाता में स्टेट्समैन अखबार में पत्रकार थे। 
उन दिनों बड़े भाई टीएस नटराज को संगीत सिखाने पं. जसराज हमारे घर आया करते थे। मैं तब 4-5 साल की थी। पं. जसराज का हमारे परिवार से इतना ज्यादा घरोबा था कि वो हमारे माता-पिता को मां बाबा ही बोलते थे। 
हम लोग भी उनके घर के सभी सदस्यों से घुल-मिल चुके थे। तब उनके बड़े भाई (स्व) पं. मणिराम और मंझले भाई (स्वपं. प्रताप नारायण भी हमारे यहां आते थे। पं. प्रताप आज की संगीतकार जोड़ी जतिन-ललित और गायिका-अभिनेत्री सुलक्षणा-विजेयता पंडित के पिता है।
पं. जसराज की पत्नी और प्रख्यात फिल्म निर्माता-निर्देशक वी. शांताराम की बेटी मधुरा जसराज भी हमारे परिवार के सदस्य की तरह ही रहीं। पं. जसराज के पुत्र शारंग देव और बेटी दुर्गा जसराज सहित तमाम सदस्यों से आज भी वहीं पुराने संबंध कायम है। 
हमारे परिवार में बड़े भाई टीएस नटराज, भाभी रेवती और उनकी बेटी सीता, बड़ी बहन वल्ली,छोटे भाई टीएस अनंतु और भाभी ज्योति सहित तमाम सदस्यों को पं. जसराज का हमेशा आशीर्वाद मिला।
तब पंडित जसराज अक्सर हमारे बड़े भाई नटराज से कहते थे कि पढ़ाई छोडो और आ जाओ मंच पर, दोनों भाई 'जसराज-नटराज' की जोड़ी बना कर खूब गाएंगे
हालाँकि ऐसा कभी नहीं हो पाया लेकिन पं. जसराज का आशीर्वाद हमेशा बना रहा। इसी तरह छोटे भाई अनंतु उनसे संगीत तो नहीं सीखते थे लेकिन अनंतु के प्रति उनका विशेष स्नेह रहा

 बड़े भाई को सिखाते देख मुझमें जागी संगीत की रूचि
नटराज और अनंतु सपत्नीक जसराज दम्पति संग  
मैं अपने बचपन के उन शुरूआती दिनों को याद करूं तो बड़े भाई को पं. जसराज से संगीत सीखते हुए देखती थी। कई बार खेलते-खेलते मैं भी उन्हें सुनने बैठ जाती थी। 
इस बीच कोई 4-5 साल बाद बड़े भाई का आईआईटी में चयन हो गया। तब मैं 6-7 साल और मेरी बड़ी बहन वल्ली 09 -10 साल की थी। 
पं. जसराज एक दिन बोले-अब मैं तुम दोनों बहनों को संगीत सिखाउंगा। इस तरह हम दोनों बहनों की संगीत की शुरूआती तालीम पं. जसराज के सान्निध्य में हुई। 
इस बीच हमारा परिवार मद्रास (चेन्नई) आ गया। यहां मैं कर्नाटक संगीत सीखती रही। कुछ साल बाद फिर पिता जब दिल्ली में टाइम्स ऑफ इंडिया में आ गए तो हम लोग सपरिवार दिल्ली रहने लगे।

 दिल्ली घराने से तालीम के बीच मिलता रहा उनका मार्गदर्शन

नटराज-जसराज और दुर्गा जसराज ह्यूस्टन में 
तब मैनें दिल्ली घराने के उस दौर के खलीफा उस्ताद चांद खां साहेब से गंडा बंधवाई के बाद उनके भाई उस्ताद उस्मान खां साहेब के बेटे उस्ताद नसीर अहमद खां से बाकायदा तालीम शुरू की। 
दिल्ली घराने की रिवायत के मुताबिक खलीफा से ही गंडा बंधाई रस्म पूरी करवाई जाती है। दिल्ली घराने ने कई नामचीन संगीत साधक दिए हैं। जिनमें पाकिस्तान की मशहूर गायिका इकबाल बानों भी एक हैं।
दिल्ली घराने के मौजूदा खलीफा उस्ताद इक़बाल अहमद खां साहेब हैं और दिल्ली यूनिवर्सिटी में संगीत विभाग की डीन रहीं कृष्णा बिष्ट भी दिल्ली घराने से ताल्लुक रखती हैं 
तब मैं दिल्ली घराने से बाकायदा तालीम जरूर ले रही थी लेकिन पं. जसराज का भी पूरा मार्गदर्शन मिलता था। तब, पं. जसराज दिल्ली आते तो हमारे घर जरूर आते। एक बार जब पं. जसराज अपनी पत्नी मधुरा के साथ आए तो मुझे गुजरी तोड़ी की एक बंदिश 'जा जा रे कगवा' मुझे पूरी तरह सिखाने के बाद ही लौटे। बाद के दिनों में मैं भिलाई आ गई। तब भी पं. जसराज से संपर्क हमेशा की तरह कायम रहा।

 भिलाई आते ही सबसे पहले पहुंचे हमारे घर  

 
बालाजी कल्याण महोत्सव 1986 
भिलाई में 15-16 नवंबर 1986 को भारत सांस्कृतिक एकता समिति, मद्रास के तत्वावधान में जयंती स्टेडियम सिविक सेंटर में दो दिवसीय बालाजी संगीत कल्याणोत्सव का आयोजन किया गया।
 इस आयोजन में पं. जसराज भी आमंत्रित थे। वहीं पं. पुरूषोत्तम जलोटा, पीनाज मसानी,पाश्र्व गायिका सिस्तला जानकी की एकल प्रस्तुति के अलावा डा. बालमुरली के वायलिन और डा. रमानी की बांसुरी की जुगलबंदी उल्लेखनीय रही।
इस कार्यक्रम में प्रस्तुति देने जब पं. जसराज भिलाई आए तो हम लोग सेक्टर-10 में रहते थे। इस कार्यक्रम से पहले दिन में पं. जसराज सीधे हमारे घर आए। कुशल क्षेम पूछने के बाद बोले- चलो पहले अम्मा वाली कॉफी पिलाओ।
दरअसल कोलकाता के दिनों से पं. जसराज को मेरी अम्मा सीतालक्ष्मी फिल्टर कॉफी पिलाती थीं। मैं अम्मा जैसी कॉफी तो नहीं बना पाती लेकिन जब भी पंडित जी ने अम्मा वाली कॉफी मांगी तो मैनें कोशिश जरूर की। 

मुझे हमेशा दिया उन्होंने संगत करने का सौभाग्य

सेंट थॉमस कॉलेज में पं जसराज 12-12 -08 
12 दिसंबर 2008 को जब हमारे सेंट थॉमस कॉलेज रुआबांधा की रजत जयंती मनाई गई तो पं. जसराज को विशेष रूप से प्रस्तुति देने कॉलेज आमंत्रित किया गया।
तब हम लोग मैत्री नगर रह रहे थे। उन दिनों मेरे पति स्व ए एस कृष्णन बहुत ज़्यादा बीमार थे। 
पं जसराज को भी यह बात मालूम थी, लिहाज़ा कॉलेज के मंच पर जाने से पहले बोले कि घर चलूँगा और फिर वो सीधे घर पहुंचे फिर उन्होंने हाल चाल पूछा  
उसके बाद अपनी पसंदीदा 'अम्मा वाली कॉफी' की फरमाइश की। इस मुलाक़ात के कोई दो साल बाद 2010 में मेरे पति का देहांत हुआ वो भिलाई स्टील प्लांट की ब्लूमिन्ग एन्ड बिलेट मिल में डीजीएम थे
उस रोज़ पंडित जसराज काफी देर तक घर में रहे और वहां से फिर सीधे कॉलेज के स्टेज पर पहुंचे  इसके अलावा हाल के बरसों में पं. जसराज दो बार रायपुर भी आए, तो मैंनें वहीं उनसे मुलाकात की। 
पंडित जी का मुझ पर विशेष आशीर्वाद था कि जब भी उनका कार्यक्रम हो और मैं वहां मौजूद रहूं तो तानपुरे पर मुझे संगत के लिए जरूर बिठाते थे। वैसे उनकी प्रस्तुतियों में मुख्य संगतकार हमेशा उनके भांजे पं. रतन शर्मा ही रहे। आखिरी बार पिछले साल 28 जनवरी 2019 को मुंबई में उनके जन्मदिन पर मुलाकात हुई थी। 
इस आयोजन में पं. हरिप्रसाद चौरसिया, पं. शिवकुमार शर्मा, पं. उमाकांत-रमाकांत गुंदेचा सहित संगीत जगत के सभी दिग्गज मौजूद थे। तब काफी देर उन्होंने बातें की और फिर मिलने का वादा किया। पिछले कुछ दिनों से वे अमेरिका में थे, वहीं उनका निधन हुआ।

 कैसे भूल सकती हूं-'सोफा पर सोना मना है'

आखिरी मुलाक़ात मुंबई में -2019 -साथ में 'सोफा' लिखा  कार्ड 
पं. जसराज जब कोलकाता वाले हमारे घर आते थे तो संगीत सिखाने और अम्मा की कॉफी पीने के बाद अपनी आदत के मुताबिक अक्सर एक नींद लेने सोफे पर जाकर लेट जाते थे।
हम बच्चों को एक दिन शरारत सूझी तो हम लोगों ने एक कागज पर लिखा- 'सोफा पर सोना मना है' और इस कागज को सोफा के पास लगा दिया। पं. जसरास वहां आए उन्होंने कागज देखा और मुस्कुराते हुए इसे हटा कर लेट गए। 
28 जनवरी 2019 को जब पं. जसराज जी से उनके जन्मदिन पर आखिरी मुलाकात हुई तो हम सब भाई-बहनों के परिवार की तरफ से एक खास कार्ड बना कर उन्हें दिया गया। 
इस कार्ड के आखिर में लिखा था-सोफा पर सोना मना है। फिर एक बार पं. जसराज जी ने वह कार्ड देखा और कोलकाता के दिनों की याद में खो गए। हल्की सी मुस्कान उनके चेहरे पर बिखरी और उनकी आंखें नम थी। 

 खरज से तार सप्तक तक पहुंचना उनके जैसे साधक का काम 

जहां तक पं. जसराज के व्यक्तित्व की बात है तो वे एक दम सरल स्वभाव के थे। हम लोगों ने कभी उनमें कोई अहंकार नहीं देखा। विश्व प्रसिद्ध होने के बावजूद वो पुराने रिश्ते हमेशा बनाए रखते थे। जब भी मिलते, हम लोगों के साथ खूब मजाक करते थे। 
मेरी नजर में संगीत जगत में पं. जसराज आज के दौर के सबसे चमकदार रत्न थे। जिस तरह पं. जसराज खरज से तार सप्तक तक बिना किसी मुश्किल के बड़े आराम से पहुंच जाते थे, वह किसी योगी-साधक के बस का हो सकता है। उनके पास बंदिशों का खजाना था। 
यह सब बेहद दुर्लभ बंदिशें थीं जो पीढ़ियों से सहेजी गईं। पं. जी बहुत बड़े कृष्ण भक्त थे। उन्होंने अपने गुरूजनों और वरिष्ठों से जो कुछ भी सीखा उसे बिना किसी रोक टोक अपने शिष्यों को सहज भाव से सिखाया। 

 सतना वाले घर में पं. जसराज से जुडी मणिमय की यादें 

 
सतना में मुखर्जी परिवार के साथ पं  जसराज 
जाने-माने रंगकर्मी मणिमय मुखर्जी को आज भी उनके सतना वाले घर में पं. जसराज के साथ बिताए पल कभी नहीं भूलते। 
करीब 32 साल पहले की एक फोटो दिखाते हुए मणिमय बताते हैं, इस फोटो में दायें से मेरे बड़े भाई आनंद मुखर्जी,पं जसराज,पं आसकरण शर्मा, मैं स्वयं और मेरे पहले मास्टर संजीव अभ्यंकर (पं जसराज के शिष्य) अब पं संजीव अभ्यंकर, कुलभूषण संगीत प्रेमी भाई के मित्र।
नीचे पंडित जसराज की एक और शिष्या सुश्री मुखर्जी, हमारी बड़ी साली साहिबा सुमिता दासगुप्ता, पत्नी सुचिता मुखर्जी और पत्नी की सहेली सुजाता घोष नजर आ रहे हैं। 
मणिमय बताते हैं-पं. आसकरण और पं. जसराज दोनों पं मणिराम के शिष्य थे। वैसे पं मणिराम रिश्ते के लिहाज से पं. जसराज के सगे बड़े भाई भी थे। पं आसकरण शर्मा की पत्नी पं मणिराम की बेटी थीं तो पंडित जसराज रिश्ते में पं आसकरण के चाचा ससुर भी थे। हालांकि इससे बढ़ कर वे मित्र ज्यादा थे। करीब 32 साल पुरानी यादें हमारे सतना वाले घर से जुड़ी हुई हैं। 
पं. जसराज तब रीवा में कार्यक्रम देने आए थे। उनके साथ पं. आसकरण शर्मा थे और पं. शर्मा से मेरे बड़े भाई आनंद मुखर्जी संगीत सीखते थे। ऐसे मेें जब पं. आसकरण शर्मा ने पं. जसराज से हमारे घर चलने कहा तो वे सहर्ष तैयार हो गए।
हम लोगों तक खबर पहुंची तो हम सब हड़बड़ा गए कि उनका स्वागत कैसे करें। खैर, घर पहुंचे तो हम लोगों को लगा ही नहीं कि इतनी बड़ी हस्ती हमारे बीच है। तब उन्होंने खूब हंसी-मजाक किया, सबका हालचाल पूछा।
हमारे घर पर आने के बाद पं जसराज जब भी सतना से निकलते वो हमारे घर की बिना प्याज लहसुन वाली बंगाली दाल और रोटी मंगवा लिया करते थे। हम सब के लिए पं. जसराज एक बेहद सरल और विशाल हृदय वाले इंसान थे। 

 हमको लगा पं. जसराज के लिए ही गुरुदेव ने लिखी है यह रचना

उस रोज जब पं. जसराज हमारे घर आए थे, तब मेरी भतीजी अंतरा मुखर्जी 7-8 साल की थी। पं. जसराज को पता लगा कि अंतरा गाती है तो उन्होंने उसे पास बुलाया और कुछ सुनाने कहा।
तब अंतरा ने उन्हें एक रवीन्द्र संगीत 'तूमि केमोन कोरे गान करो हे गुनी आमी अवाक होते सूनी' सुनाया था। हम सबके साथ पं. जसराज भी तल्लीन होकर यह गान सुन रहे थे
तब हम लोगों को ऐसा लग रहा था जैसे कि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने यह रचना पंडित जसराज के लिए ही लिखी हो। इस गीत का हिन्दी भावार्थ है कि-''हे गुणी तुम कैसे इतना सुन्दर गायन कर लेते हो, मैं आश्चर्य चकित हो कर सुनता रह जाता हूं। मैं भी सोचता हूं कि मैं भी तुम्हारे जैसा सुरीला गाऊं पर मैं अपने गले में सुर ढूंढ ही नही पाता हूं। मैं क्या कहना चाहता हूं मैं कह नहीं पाता हूं पर हार मानने से भी मेरे प्राण कांपते हैं ,हे गुणी तुमने मुझे ये कहां फंसा दिया।'' सचमुच में बेहद गुणी और सुंदर गायन करने वाले व्यक्तित्व थे पं. जसराज। 

  पं. जसराज से मेरी वो तनाव से भरी यादगार मुलाक़ात 

प्रेस कांफ्रेंस के बाद गुफ्तगू ,साथ में हैं प्रो लक्ष्मी कृष्णन 
प्रख्यात शास्त्रीय गायक पं. जसराज से मेरी इकलौती,यादगार और तनाव भरी मुलाकात 12 दिसंबर 2008 की सुबह की है। 
तब सेंट थॉमस कॉलेज रुआबांधा का रजत जयंती समारोह था और पंडित जसराज वहां विशेष तौर पर गायन के लिए आमंत्रित थे। 
खैर, यह मुलाकात एक मायने में यादगार ही रही। लेकिन इसमें तनाव का पुट भी आ गया था। इसकी एक वजह यह थी कि इस मुलाकात से ठीक पहले मेरी 'शहादत' की रात थी। 
तब मैं जिस अखबार में सेवा दे रहा था, वहां अचानक पता चला कि सबसे तेज बढ़ता अखबार अब कास्ट कटिंग लागू करने जा रहा है। लेकिन मुझे इस बात का अंदाजा नहीं था कि पहली बिजली मुझ पर ही गिरेगी।
दरअसल 11 दिसंबर की शाम मैं अपने रूटीन काम को निपटाने के बाद शहर के शास्त्रीय संगीत के कुछ जानकारों से फोन पर बात कर रहा था कि कल पं. जसराज से क्या-क्या पूछा जा सकता है। 
इस बीच हमारे उस रोज के संपादकीय प्रभारी अपना लैंडलाइन फोन रख अपनी कुरसी से उठे, उन्होंने मुझे फोन रख कर बाहर चलने कहा। जैसे ही मैं बाहर निकला तो उन्होंने धीरे से कहा-कास्ट कटिंग में पहला नाम तुम्हारा है। जाहिर है पैरों तले जमीन खिसकनी थी।
मैनें पूछा क्या करना है तो उन्होंने कहा कि मैनेजमेंट ने 5 दिन काम लेने कहा है, अगर तुम नहीं भी आओगे तो भी तुमको अगले 5 दिन की तनख्वाह मिलेगी और पूरा हिसाब-किताब 5 दिन बाद हो जाएगा। 
मैनें फिर पूछा कि कल पं. जसराज आ रहे हैं, तो उनका इंटरव्यू करना है या नहीं? उन्होंने कहा-देख लो तुम्हारी मर्जी, अगर इंटरव्यू कर लोगे तो अच्छी बात है नहीं करोगे तो कोई बात नहीं। मुझे लगा शायद इंटरव्यू करने का इशारा है। ऐसे में मैं अपनी तैयारी पूरी कर 12 दिसंबर की सुबह पहुंच गया दुर्ग के होटल सागर। 
वहां जाने पर पता चला कि मेरी जगह एक अन्य रिपोर्टर को भी भेज दिया गया है। यह एक तरह से अपमानजनक स्थिति थी। इसलिए मैनें फिर एक बार संपादकीय प्रभारी से पूछा कि आपने तो कहा था कि इंटरव्यू चाहे तो दे देना, फिर यहां एक और को आपने भेज दिया है। इस पर वो बोले-उसको कुछ आता-वाता थोड़ी है, तुम बना कर दे दोगे तो लगा देंगे। 
खैर, तब तक पंडित जसराज सामने आ चुके थे लेकिन मन में संगीत से जुड़े सवालों के बजाए भविष्य की चिंता ज्यादा थी। दिमाग परेशान था, इसलिए मैनें बहुत ज्यादा सवाल नहीं पूछे, कुछ भी रिकार्ड नहीं किया। हां, इतनी बड़ी हस्ती सामने बैठी हो तो उनकी बातें सुनने और गुनने की कोशिश जरूर की।
संगीत से जुड़े कुछ एक सवाल मैनें किए, इसका उन्होंने कुछ आधा-अधूरा सा जवाब भी दिया। फिर इंटरव्यू खत्म हुआ तो आखिरी में उनके साथ फोटो खिंचाने का मोह तो छोड़ नहीं सकता था।
इसी दौरान मुझसे एक चूक हुई। दरअसल पं. जसराज के बाजू कुर्सी पर उनकी शिष्या और सेंट थामस कॉलेज मेें प्रोफेसर लक्ष्मी कृष्णन बैठी हुई थी। मैनें फोटो खिंचाने के लिहाज से प्रो. कृष्णन से गुजारिश की तो वो बिना कुछ बोले मुझे देखते ही रह गईं। 
मेरी समझ में आ गया कि जरूर कुछ गड़बड़ हुई है। इसके पहले कि प्रो. लक्ष्मी कृष्णन कुछ कहतीं, पं. जसराज ने नाराज होते हुए कहा-ये क्या बात हुई, आप उन्हें उठने कह रहे हैं? आप जानते हैं कौन हैं वो? आप पहले खुद को इस काबिल बनाइए कि हमारे बराबर बैठ सकें। 
उनकी इस बात से पूरा माहौल थोड़ी देर के लिए तनावमय हो गया, फिर पं. जसराज थोड़े शांत हुए और बात बदलते हुए बोले-हां, वो संगीत के घरानों के बारे में क्या पूछ रहे थे आप? मैनें वहीं उनके पास नीचे बैठे-बैठे फट से सवाल दागा औ्रर उन्होंने जवाब भी दिया। 
इसके बाद पं. जसराज बोले-''अच्छा भई शाम को मिलेंगे, आप लोग कार्यक्रम में जरूर आइए।'' पं. जसराज से यही एकमात्र तनाव भरी मुलाकात थी, जिसकी यादें हमेशा मेरे साथ रहेंगी।