Friday, January 31, 2020

भिलाई के लिए रावघाट से पहले अंजरेल से लाएंगे लौह अयस्क

रेल टेक्नालॉजी के लिए अब रूस से हाथ मिलाने की तैयारी 

 

भिलाई स्टील प्लांट के सीईओ अनिर्बान दासगुप्ता से खास

 बातचीत, एक फरवरी-20 से होंगे सेल के डायरेक्टर प्रोजेक्ट

 

मुहम्मद जाकिर हुसैन

इस्पात भवन के दफ्तर में इंटरव्यू के दौरान
करीब 35 साल पहले बीएचयू के ग्रेजुएट इंजीनियर अनिर्बान दासगुप्ता ने भिलाई स्टील प्लांट से एक प्रशिक्षु के तौर पर जब अपना करियर शुरू किया था तो उन्हें ऐसा आभास तो कतई नहीं था कि आगे कभी भविष्य में इसी प्लांट का नेतृत्व उन्हें करना पड़ेगा।
हाल के डेढ़ साल में खास कर 9 अक्टूबर 2018 के कोक ओवन हादसे के बाद से भिलाई स्टील प्लांट के उपरी मैनेजमेंट में बेहद हलचल वाली स्थिति रही है। तब के सीईओ एम. रवि के निलंबन के बाद तुरंत अरूण कुमार रथ को भेजा गया। उनके पास रिटायरमेंट से पहले महज छह माह ही बचे थे। मई-19 में रथ रिटायर हुए तो एक जून से अनिर्बान दासगुप्ता को भिलाई का नेतृत्व संभालने भेजा गया। 
यहां उन्होंने उत्पादन के क्षेत्र में बहुत कुछ पटरी पर लाने अपना योगदान दिया। इस बीच सेल में डायरेक्टर प्रोजेक्ट एंड बिजनेस प्लानिंग का इंटरव्यू हुआ और उन्हें इस पद के लिए चयनित कर लिया गया। अब एक फरवरी से उन्हें नई दिल्ली जाकर इस जवाबदारी को संभालना है। दिल्ली रवाना होने से पहले उनसे उनके भिलाई में बिताए कार्यकाल को लेकर लंबी बातचीत हुई। जिसमें उन्होंने सारी बातें सिलसिलेवार बेहद साफगोई के साथ रखी।
बातचीत के दौरान अनिर्बान दासगुप्ता अपने करियर के शुरूआती दिनों की उन बातों का जिक्र करना नहीं भूले, जब भिलाई में रूसी कल्चर चारों तरफ नजर आता था। उस दौर में जब देश के अलग-अलग हिस्सों से आए युवा इंजीनियर सिविक सेंटर या दूसरे मार्केट जाते थे तो हर जगह रशियन बहुतायत नजर आते थे। अनिर्बान मानते हैं कि बाद की परिस्थितियों में सोवियत संघ के टूटने के बावजूद भारत और खास कर भिलाई के मामले में बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ा। अनिर्बान कई मिसालें देते हुए बताते हैं कि आज रशियंस के मन में आज भी भिलाई के प्रति एक अलग आदर है। चूंकि उनकी नई जवाबदारी समूचे सेल का प्रोजेक्ट देखने की है, ऐसे मेें बातचीत के दौरान उनका ज्यादातर फोकस भिलाई में 70 लाख टन परियोजना पर रहा। एक सीमा तक आधुनिकीकरण व विस्तारीकरण की यह परियोजना अब उत्पादन देने की स्थिति में आ चुकी है। हालांकि भिलाई और सेल में उन्हें अभी बहुत कुछ करना है। इसलिए भविष्य की संभावनाओं पर टिप्पणी से बचते हुए उन्होंने यह बातचीत की। उनसे की गई बातचीत कुछ इस तरह से है-

भिलाई को लेकर स्कूल-कॉलेज के दिनों में मन में क्या छवि बनी थी?

तब तो भिलाई का मतलब एक बड़ा कारखाना था, जिससे देश की तरक्की पता चलती थी। स्कूल-कॉलेज में हम लोग पढ़ते थे कि तब के मध्यप्रदेश में बहुत बड़ा स्टील प्लांट है, जो न सिर्फ मध्यप्रदेश बल्कि देश के सामाजिक और सांस्कृतिक विकास में बहुत बड़ा योगदान दे रहा है। तब हम लोग ट्रेन में सफर करते थे तो पटरियों की वजह से भी भिलाई का नाम जुबां पर रहता था। तब हम लोग जानते थे कि ये सारी रेल पटरियां भिलाई में बनती है। 

फिर भिलाई का हिस्सा बनने के बाद इस छवि में कोई बदलाव आया?

एक जून 2019-इस्पात भवन में कार्यभार ग्रहण करते हुए
नहीं, बदलाव क्यों आएगा? तब तो यह छवि और मजबूत हुई। आईआईटी बीएचयू से मेटलर्जी में विशेषज्ञता के साथ बीटेक की उपाधि हासिल करने के बाद 1 अगस्त 1986 को सेल में बतौर एमटीटी ज्वाइन किया। मुझे ट्रेनिंग के लिए भिलाई स्टील प्लांट भेजा गया। यह मेरे जीवन का सुखद संयोग था कि जिस भिलाई के बारे में हम लोग पढ़ते थे, अब वहां सेवा देने का मौका मिल रहा है। उस वक्त यहां 40 लाख टन हॉट मेटल परियोजना अंतिम चरण में थी। पूरा भिलाई स्टील प्लांट एक नया रूप ले रहा था। तब देश में सबसे चौड़ी (3600 मिमी) प्लेट के लिए पहली बार प्लेट मिल भिलाई में लगी। समूचे सेल में तब पहला कंटीन्यूअस कास्टर भी भिलाई में लगा। उन दिनों शायद टाटा स्टील भी एलडी-1 और एलडी-2 के दौर में था। देश का पहला ब्लूम और स्लैब कास्टर भी तब भिलाई में आया। यह सारी उपलब्धियां सुन कर बेहद रोमांच का एहसास होता था कि सारी नई टेक्नालॉजी में पायनियर हमारा भिलाई है। वो दौर तो सोवियत संघ वाला था और हम लोगों का बैच कन्वर्टर शॉप में संलग्न था।
तब हमारे सीनियर बहुत सारे लोग रशिया ट्रेनिंग लेने जाते रहते थे। उनसे रशिया के अनुशासन और वहां के वर्क कल्चर के बारे में सुनते थे। वो दौर ऐसा था जब भिलाई में सारे कार्मिक बेहद युवा थे। हमारे सामने सबसे सीनियर बैच 1977 का था,जिन्हें प्लांट ज्वाइन किए तब 8-9 साल ही हुए थे। सभी यंग लोगों के बीच हम नौजवान पूरे उत्साह से काम करते थे, उनसे सीखते थे। हम जूनियर थे, इसलिए मैनेजमेंट स्तर पर कोई सीधा दखल नहीं होता था। उस दौर में हम लोग रशियन लोगों को हम हिंदुस्तानियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करते जरूर देखते थे लेकिन हम एमटीटी की उनसे बहुत ज्यादा बात-मुलाकात की संभावनाएं नही होती थी। खैर, तब के भिलाई के रशियन कल्चर को हम लोग देखते थे और मन ही मन गौरव का अनुभव करते थे कि दुनिया का सुपर पावर कहलाने वाले देश के लोग कैसे हमारे देश को बनाने में अपना योगदान दे रहे हैं। तब हम अपने सीनियर लोगों की सुनते थे और उनसे सीखते थे।

भिलाई से जाने और तीन दशक के बाद फिर लौटने के बीच का सफर कैसा रहा?

शुरूआती दौर में मैं एक साल तीन महीना भिलाई में रहा और उसके बाद नवंबर-1987 में मेरी पोस्टिंग सीईटी रांची हो गई। वहां करीब 20 साल रहा और 30 जून 2008 को उप महाप्रबंधक पद पर पदोन्नति मिली। इसके बाद वहीं कार्यरत रहते हुए मुझे 17 सितंबर 2010 को सेल निगमित कार्यालय के चेयरमैन सचिवालय में उप महाप्रबंधक के पद पर स्थानांतरित किया गया। जहां 30 जून 2012 को चेयरमैन सचिवालय में महाप्रबंधक बनाया गया। इसके बाद मुझे 1 सितंबर 2017 को आईएसपी (बर्नपुर) का मुख्य कार्यपालक अधिकारी बनाया गया और 11 अक्टूबर 2018 को दुर्गापुर इस्पात संयंत्र एवं अलॉय इस्पात संयंत्र (एसएसपी) के सीईओ का अतिरिक्त कार्यभार दिया गया। इन सारी जवाबदारियों के बाद 1 जून 2019 को मुझे भिलाई स्टील प्लांट के सीईओ की जवाबदारी दी गई। 

भिलाई की जवाबदारी संभालने के बाद आपके सामने सबसे बड़ी चुनौती क्या थी?

तब भिलाई बिरादरी 9 अक्टूबर-18 के कोक ओवन हादसे से उबर रही थी। मुझसे पहले सीईओ अरूण कुमार रथ ने कार्मिकों के मनोबल को ऊंचा उठाने काफी मेहनत की। उनके बाद मेरे सामने सबसे बड़ी चुनौती रेल उत्पादन की थी। भारत सरकार ने हमको 13.5 लाख का लक्ष्य दिया था। आज मुझे बताते हुए बेहद खुशी हो रही है कि हम लक्ष्य पूरा करने जी जान से जुटे हुए हैं और आज 30 जनवरी-19 तक हम 10 लाख 37 हजार 46 टन रेलपांत बना चुके हैं। इसके पहले की मैं बात करूं तो जब एक जून-19 को मैनें ज्वाइन किया था तो यूआरएम 43-44 हजार टन प्रतिमाह की क्षमता पर चल रहा था। इसे जल्दी से रैम्पअप करना था। एसएमएस-3 भी पटरी पर नहीं आया था। तब 10-11 हीट औसत दिन भर में चल रहा था। एसएमएस-3 से महीने में 50-51 हजार टन स्टील बनाते थे। उसके बाद एसएमएस-2 में भी कास्टर की हालत नाजुक थी। और एक बड़ा चैलेंज यहां इंगट का स्टॉक बहुत ज्यादा हो गया था। 2 लाख टन के करीब 600 करोड़ लागत का 21 हजार नग कोल्ड इंगट अटका हुआ था। इसे भी जल्द से जल्द खत्म करना था। इसी तरह रॉ मटेरियल को लेकर भी चुनौती थी। दल्ली राजहरा करीब-करीब खत्म होने की स्थिति में है और यहां लौह अयस्क में सिलीका एलुमना का प्रतिशत काफी बढ़ गया है,जो हम सबकी चिंता का विषय है। हम लोगों ने मंथन किया कि रावघाट से पहले लौह अयस्क के लिए क्या कर सकते हैं? आगे जाकर बेनिफिसिएशन में क्या कर सकते हैं? 

अपने कार्यकाल के 6-7 महीने में किस हद तक इन चुनौतियों से पार पा सके?

प्लांट में कर्मियों के बीच
कार्यभार संभालने के 7 के बाद मुझे लगता है कि इन क्षेत्रों मेें काफी कुछ काम हुआ है। एसएमएस-3 तो औसत 30 हीट की स्थिति में पहुंच चुका है। हाल में हम लोगों ने 36 हीट भी बनाए हैं और 35 हीट तो 2-3 बार बना चुके हैं। ऐसे मेें एसएमएस-3 में अभी हम करीब एक लाख 40 हजार टन के उत्पादन स्तर में आ गए हैं। जबकि छह महीना पहले 50 हजार टन के करीब था। एक और चुनौती एसएमएस-3 से यूआरएम के लिए ब्लूम देने की है। यूआरएम के लिए ब्लूम की क्वालिटी एसएमएस-3 से ही सबसे अनुकूल है। उसमें ब्लूम कास्टर सीबी-1 मशीन में 4-5 हीट प्रतिदिन बनता था। अभी यह औसत 16-17 पर आ गया है। इसकी वजह से एसएमएस-3 से यूआरएम की ब्लूम की जरूरत हम पूरी कर पा रहे हैं।
इसी तरह मॉडेक्स यूनिट में बार एंड रॉड मिल पहले 10-11 हजार टन प्रतिमाह बना रहा था। अभी हम लोग औसत 26 हजार टन पर पहुंचे हैं। हमने कोल्ड इंगट को पूरा का पूरा रोल करने अभियान चलाया और जुलाई-19 से दिसंबर-19 के बीच यह पूरा स्टाक खतम कर दिया गया है। इससे बड़ी मात्रा में हमें सेलेबल स्टील मिला।
9 अक्टूबर-18 के हादसे के बाद सेफ्टी पर काफी बातें हुईं लेकिन व्यवहार मेें अभी भी बेहद कमी दिखाई देती है। हादसे हो रहे हैं और श्रमिकों की जान भी जा रही है।
अक्टूबर 18 हादसे के बाद हमारे कर्मियों का मनोबल काफी प्रभावित हुआ था। तब मेरे पूर्ववर्ती एके रथ ने इस दिशा में कई अहम कदम उठाए। हमारे सेफ्टी कल्चर में सुधार और बदलाव उनके प्रयासों से आया। जहां तक सलाहकार की बात है तो हम लोगों की ग्लोबल स्तर पर कोशिश की है। पहले टेंडर में पार्टी नहीं आई तो अब दूसरी बार टेंडर के बाद मेसर्स स्वासिया कोल्हापुर को जवाबदारी दे दी गई है और इसकी शुरूआत भिलाई से हो रही है। जहां तक सेफ्टी कल्चर की बात है तो हमारे भिलाई स्टील प्लांट में पुरानी और नई दोनों तकनीक से उत्पादन हो रहा है। 40 लाख टन परियोजना तक वाले विभाग पूरी तरह रशियन टेक्नालॉजी पर आधारित हैं, तो इसके बाद बीते 2 दशक और खासकर 70 लाख टन परियोजना के चलते अब अलग-अलग देशों की तकनीक हम इस्तेमाल कर रहे हैं। इस बीच नियमित कर्मियों के अनुपात में ठेका मजदूरों की भी संख्या लगातार बढ़ रही है। हमारी ड्यूटी है कि हम इन ठेका मजदूरों को भी सेफ्टी कल्चर के बारे में अवगत कराएं। क्योंकि वो काफी अनुभवहीन होते हैं। हमारी चुनौती यह है कि सेफ्टी के मानक पर हम उन ठेका मजदूरों को अपने स्थाई कर्मियों के स्तर तक कैसे लाएं। इसके लिए हम अंदरुनी स्तर पर भी लगातार प्रयास कर रहे हैं। इसके बावजूद हादसे होते हैं तो हम सबको बड़ा दुख होता है। हमको लगता है कि अभी भी हमको सेफ्टी पर बहुत कुछ करना है। हम चाहते हैं कि सेफ्टी हमारे खून में रच-बस जाए। जैसा कि कुछ कुछ ग्लोबल प्लांट में सेफ्टी एकदम से उनकी कार्य संस्कृति का हिस्सा होता है। सेफ्टी वहां लोगों का एकदम से सेकंड नेचर हो जाता है । 

उत्पादन के लिहाज से वक्र्स एरिया में और क्या चुनौती देखते हैं?

हमें एसएमएस-3 को इतना आगे बढ़ा देना है कि बीबीएम और एसएमएस-1 से हमारी निर्भरता पूरी तरह से खत्म हो जाए। अभी भी हम इन दोनों पुरानी इकाईयों को पूरी तरह से बंद करने की स्थिति में नहीं आ पाए हैं। क्योंकि हमको उत्पादन भी बढ़ाना है, यह एक चुनौती है। यूआरएम दिसंबर-19 तक 60 प्रतिशत कार्यक्षमता में पहुंचा है। इसे जल्द से जल्द 66 प्रतिशत और उसके आगे शत-प्रतिशत क्षमता में इसे 90 हजार टन तक पहुंचाना है। इस के लिए हमारी पूरी टीम जुटी हुई है। यहां हम अतिरिक्त सुविधाएं भी उपलब्ध करा रहे हैं। क्योंकि इस तरह की नई मिल में रेल निर्माण में कहीं भी डिफेक्ट आता है तो पूरी प्रक्रिया पर असर पड़ता है। इसके लिए भी हम लोग प्रयास कर रहे हैं। क्योंकि कोई भी मिल पहले से एकदम परफेक्ट नहीं होती है। उसके लिए कुछ कुछ काम बाद में भी करना पड़ता है। यही हम लोग कर रहे हैं। हम लोग समझ रहे हैं कि इसे 66 प्रतिशत तक कार्यक्षमता में पहुंचा देंगे मतलब 60 हजार टन प्राइम रेल प्रतिमाह तक जबकि उसकी क्षमता 90 हजार टन प्रतिमाह की है। हम लोग पिछले महीने दिसंबर-19 में करीब 54 हजार 600 टन तक कर लिए हैं। अभी हम जल्दी से 60 हजार टन का लक्ष्य छूना चाहते हैं जिससे दो तिहाई आ जाए फिर 80 प्रतिशत और इसके बाद 100 प्रतिशत का लक्ष्य पूरा करना है। मुझे लगता है यह करीब 5 महीने में हो जाना चाहिए। क्योंकि अभी जो ट्रेंड नजर आ रहा है वो काफी उत्साहवर्धक है।
उसके बाद हमारी बिल्कुल नई शॉप बीआरएम को करीब 75 हजार टन मासिक की मापित क्षमता तक ले जाना है। अभी बीआरएम औसत 26 हजार टन यानि एक तिहाई में है, उसे भी पूरा ले जाना है। एक बात और, अभी सेल की हमारी बर्नपुर (इस्को) इकाई में बेहद उम्दा क्वालिटी का टीएमटी सेल सिक्योर ब्रांड नाम से बनाया जा रहा है। यहां भिलाई में भी हम वही क्वालिटी हासिल कर लिए है और जल्द ही सेल सिक्योर ब्रांड को हम औपचारिक रूप से भिलाई में लांच करने वाले हैं। 

रावघाट शुरू होने से पहले भिलाई के लिए लौह अयस्क की निर्बाध आपूर्ति को लेकर कितने आश्वस्त हैं? क्या तैयारियां हैं इस दिशा में?

रावघाट का  मेरा सफर-2013
देखिए, दल्ली राजहरा में हमारी मौजूदा खदानों से लौह अयस्क करीब-करीब खत्म हो गया है। जितना है, उसकी क्वालिटी चिंता का विषय है। पुरानी माइंस होने की वजह से उसमें सिलिका एलुमना का प्रतिशत काफी बढ़ गया है। हम रावघाट को जल्द से जल्द चालू करना चाहते हैं लेकिन उसके पहले राजहरा की कलवर नागुर की प्रक्रिया चल रही है। हम लोगों को उम्मीद है इस महीने पर्यावरण मंजूरी मिल जाएगी तो हम वहां खनन शुरू कर देंगे। इस बीच हम रावघाट के अंजरेल से अंतरिम माइनिंग शुरू करने जा रहे हैं। अभी हमारे पास ओर फाइंस (चूरा) तो है लेकिन लंप (डल्ला) की कमी है। अंजरेल से हमको हर महीने 25 हजार टन आयरन ओर लंप मिलने लगेगा। जिससे हमको काफी मदद मिलेगी। इस अंतरिम माइनिंग के लिए छत्तीसगढ़ शासन प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के अंतर्गत 7 किलोमीटर की सड़क बना कर दे रहा है। जिसके लिए बीएसपी ने 23 करोड़ रूपए जमा कर दिए हैं। यहां अयस्क में लौह की उपस्थिति करीब 64 प्रतिशत है और पूरी अंजरेल खदान में 810 लाख टन अयस्क भंडार का अनुमान है। हमें उम्मीद है कि इसके लिए पेड़ कटाई की अनुमतिं जल्द मिल जाएगी। हमने यहां से अयस्क लाकर दल्ली राजहरा से भिलार्ई भेजने रेलवे साइडिंग भी बना ली है। हम यह सब तत्परता से करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।
एक और वजह मैं बताऊं आपको हमारा भिलाई मुख्यत: झारखंड और ओडिशा से दूर है, इसलिए हम वहां की खदानों से लौह अयस्क मंगाए तो यह राजस्व और दूरी के लिहाज से बिल्कुल भी व्यवहारिक नहीं होता है। ऐसे हमको तो भिलाई के लिए अपने ही क्षेत्र से लौह अयस्क खनन को सुनिश्चित करना होगा। फिर दूसरी बात कि राउरकेला, दुर्गापुर, बर्नपुर और बोकारो का उत्पादन भी बढ़ रहा है तो उनकी लौह अयस्क की जरूरत भी बढ़ रही है, जो वहां आरएमडी के लिए एक बड़ी चुनौती है। 

ऐसे में रावघाट से वास्तविक रूप से कब तक खनन शुरू कर पाएंगे? इसके साथ और कौन सी सहायक सुविधाएं स्थापित की जाएंगी?

रावघाट में हम दो चरण में काम कर रहे हैं। एक तो मुख्य खदान को विकसित करना है। फिर दूसरा बड़ा काम रेलवे लाइन का है। उम्मीद है 31 मार्च तक अंतागढ़ तक 60 किमी का काम हो जाएगा उसके बाद 60 से 95 किमी वाला हिस्सा बचेगा जो अगले 1.5 से 2 साल में होने की संभावना है। इसके बाद हम कह सकते हैं कि वहां से वास्तविक तौर पर माइनिंग शुरू कर पाएंगे। दिसंबर-19 की सेल बोर्ड बैठक में हमें दल्ली राजहरा में एक और बेनिफिसिएशन प्लांट लगाने की भी मंजूरी मिल गई है, जो मौजूदा स्लाइम बेनिफिसिएशन प्लांट से बड़ा होगा। इसकी क्षमता 900 टन प्रति घंटे या 18 हजार टन प्रति दिन की होगी। इससे सिलिका की मात्रा को कम कर हमें उच्च गुणवत्ता वाला लौह अयस्क हमें मिल सकेगा। जो ब्लास्ट फर्नेस की उत्पादकता को बढ़ाएगा और कोक की खपत को कम करेगा। 

केंद्र सरकार ने लौह अयस्क बेचने अनुमति दी है, इसके पीछे क्या वजह है और इस मामले में भिलाई में क्या प्रगति हुई है?

दल्ली राजहरा की एक सुबह
दरअसल अभी विभिन्न राज्यों में लौह अयस्क खदानों की लीज ट्रांसफर की प्रक्रिया जारी है इसके बाद उसका आक्शन होगा। इस प्रक्रिया में ऐसा समय आएगा कि देश में लौह अयस्क की कमी आ जाएगी। मुझे लगता है, इसे देखते हुए लौह अयस्क बेचने की अनुमति दी गई है। जिससे पब्लिक सेक्टर राजस्व कमा सके और उस अंतरिम अवधि में देश भर में कहीं भी लौह अयस्क की कमी न हो। क्योंकि जब तक उन्हें लीज मिलेगा और तमाम क्लियरेंस के बाद माइंस चालू करने के बीच की अवधि में दूसरे स्टील प्लांट को संकट का सामना न करना पड़े, इसलिए यह कदम उठाया गया है। हम भी इसी वजह से लौह अयस्क बेचने की प्रक्रिया में है। जिसमें हम लोगों ने खनन से प्राप्त और पहले से पड़े अयस्क को बेचने आवेदन सितंबर-19 में जमा कर दिया था। भारतीय खनन ब्यूरो (आईबीएम)ने इसमें तुरंत खनन कर निकाले गए अयस्क को बेचने को मंजूरी दे दी है। इसके आधार पर छत्तीसगढ़ शासन के खनिज संसाधन विभाग की ओर से अंतिम मंजूरी मिलने की है। इसमें महीना भर और लग सकता है। वहीं पहले से पड़े निम्न श्रेणी के अयस्क बेचने की अनुमति के लिए दो माह और लग सकते हैं। क्योंकि इसमें पर्यावरण मंजूरी के दस्तावेज में कुछ बदलाव किए जाएंगे। 

बीएसपी की सफलता में रूसी तकनीक की अहम भूमिका रही है। आज स्टील टेक्नालॉजी के क्षेत्र में रूसी दबदबा किस हद तक मानते हैं?

देखिए, भिलाई में शुरूआत से 10 लाख टन, 25 लाख टन और 40 लाख टन तक की विस्तारीकरण परियोजना तो पूरी तरह रशियन टेक्नालॉजी पर आधारित थी। लेकिन 90-91 वाले दौर में जब रूस टूटा तो तत्कालीन सोवियत संघ की स्टील टेक्नालॉजी में मेटर्लिजकल इक्विपमेंट बनाने और कंसलटेंसी की क्षमता में एक कमी आ गई। सेल में जब मेरे करियर की शुरूआत हुई तो वो करीब-करीब सोवियत संघ का आखिरी दौर था। तब यूक्रेन, रशिया और बेलारूस सब तो एक ही थे इसलिए उनकी क्षमता ज्यादा थी, उनका दबदबा पूरी दुनिया में था। लेकिन सोवियत संघ के टूटने के बाद उनकी इकाईयां बिखर गई हैं। कुछ रशिया, तो कुछ यूक्रेन में चली गई हैं। इसलिए स्टील उत्पादन में उनका जो बहुत मजबूत दखल था वह थोड़ा सा प्रभावित हो गया। उनके यहां आटोमेशन में लोग थोड़ा सा पीछे रह गए। अब जो दुनिया भर में स्टील प्लांट लग रहे हैं वो हाईली आटोमेटेड है। इसमें राशियंस थोड़ा सा पीछे हैं। भिलाई में देखिए, 70 लाख टन परियोजना में हमको पालवर्थ, एसएमएस मीर, सीमैक और डेनियाली जैसी ग्लोबल टेक्नालाजी लेनी पड़ी। जाहिर है हम लोगों की रशिया पर निर्भरता कम हो गई है। 

इसके बावजूद रशिया से तकनीकी सहयोग के क्षेत्र में कोई संभावना दिखती है?

ग्लोबल टेक्नालाजी के दौर में हम अभी भी बहुत से एरिया में उनसे तकनीकी सहयोग की कोशिश कर रहे हैं। क्योंकि अभी भी वहां के डिजाइन इंस्टीट्यूट और साइंटिफिक रिसर्च इंस्टीट्यूट से हमें काफी कुछ सीखने मिल सकता है। हम रेल निर्माण तकनीक में अपने इंजीनियरों को हमेशा अपडेट रखते हैं। पिछले साल अक्टूबर-19 में हमारी रेल एंड स्ट्रक्चरल मिल और यूनिवर्सल रेल मिल का एक समूह रूस में यूराल क्षेत्र के स्वेरद्लोव्सकाया ओब्लास्ट में एनटीएमके प्लांट की रेल मिल देखने भेजा गया था। वहां की तकनीक से हमारे इंजीनियर काफी प्रभावित हुए। उन्होंने यहां आकर प्रेजेंटेशन भी दिया। हम लोग रेल निर्माण के क्षेत्र में उनके साथ तकनीकी सहयोग की संभावनाओं पर काम कर रहे हैं। इसका फायदा सेल-भिलाई को मिलेगा और रेलपांत की गुणवत्ता को हम और बेहतर कर पाएंगे।
हम यह कोशिश इसलिए कर रहे हैं क्योंकि आज भी रशियंस के मन में भिलाई के प्रति एक अलग से आदर है। यह तो हम लोगों ने हाल में भी देखा है, जब हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वहां गए थे तो रूस के राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन ने अपने भाषण में भिलाई का खास तौर पर जिक्र किया था। रशियन आज भी भिलाई को अपना प्लांट मानते हैं और एक अलग दर्जा देते हैं। उनके मन में भिलाई को लेकर एक अलग जगह है। इसलिए हमको लगता है कि आगे चल कर रशिया फिर से स्टील सेक्टर में काफी बढ़ोत्तरी कर रहा है। हालांकि वहां अभी निजी क्षेत्र में ज्यादा फल-फूल रहा है फिर भी रूस अच्छी बढ़त ले रहा है। 

बीएसपी मैनेजमेंट टाउनशिप-अस्पताल पर कम ध्यान देता है और सारा फोकस प्रोडक्शन पर रहता है, ऐसा क्यों?

ऐसा नहीं है। प्रोडक्शन तो हमको अपने वार्षिक लक्ष्य के अनुरूप हर हाल में करना ही है लेकिन टाउनशिप-अस्पताल पर भी हमारा ध्यान रहता है। वहां से जो भी समस्याएं आती हैं, उसे देख रहे हैं। अस्पताल की व्यवस्था बनीं रहे, इसका प्रयास रहता है। डाक्टरों की कमी दूर करने प्रयास कर रहे हैं। टाउनशिप में भी हम लोगों ने काफी काम कराएं हैं। साफ-सफाई में तेजी आई है। अलॉटमेंट प्रक्रिया को व्यवस्थित किए हैं। एक बड़ा मुद्दा बिजली व्यवस्था छत्तीसगढ़ शासन को देने से जुड़ा है। उनसे बात चल रही है, जल्द किसी नतीजे पर पहुंच जाएंगे। 

डायरेक्टर प्रोजेक्ट बनने के बाद आपका कैनवास और विस्तृत हो जाएगा, ऐसे में सेल को लेकर भविष्य की क्या योजनाएं हैं?

आज की तारीख तक तो हम सिर्फ भिलाई को लेकर व्यस्त हैं। दिल्ली के बारे में सोचे ही नहीं है। क्योंकि हमारा मानना है कि जब तक भिलाई में हैं भिलाई के बारे में ही सोचेंगे। जब वहां जाएंगे तो वहां के बारे में सोचेंगे, फिलहाल तो नहीं।

Thursday, January 16, 2020

 बीएसपी कर्मियों पहल पर बीएसपी की मदद

  से शुरू हुआ था भिलाई का पहला कालेज


इस्पात नगरी भिलाई में उच्च शिक्षा की नींव रहे दो विभूतियों की याद में

 
कल्याण कॉलेज की शुरुआती टीम  संसद मोहनलाल बाकलीवाल के साथ इनमे ठीक बाएं सबसे पहले प्रो ठाकुर नज़र आ रहे हैं

 मुहम्मद जाकिर हुसैन
60 का दशक जब भिलाई स्टील प्रोजेक्ट मूर्त रूप ले रहा था। ऐसे दौर में प्रोजेक्ट की ओर से बमुश्किल कुछ स्कूल ही शुरू हो पाए थे, तब उच्च शिक्षा के लिए कॉलेज की कल्पना भी बेमानी थी। ऐसे दौर में भिलाई स्टील प्लांट के कुछ कर्मियों ने इस दिशा में सोचा और बीएसपी की नौकरी करते-करते एक निजी कॉलेज की नींव डाली। बात इस्पात नगरी भिलाई में उस दौर में स्थापित होने वाले कल्याण कॉलेज सेक्टर-7 की है। इस कॉलेज की शुरूआत करने वाली छत्तीसगढ़ कल्याण समिति के दो प्रमुख स्तंभ रामेश्वर प्रसाद मिश्र और प्रो. तोरण सिंह ठाकुर हाल ही में 4 महीने के अरसे में दिवंगत हुए। मिश्रा जहां मृत्युपर्यंत छत्तीसगढ़ कल्याण समिति के अध्यक्ष रहे वहीं प्रो. ठाकुर कल्याण कॉलेज में सर्वाधिक समय तक रहने वाले प्राचार्य थे।
60 के दशक में जब भिलाई की नींव का काम चल रहा था तब प्रो. ठाकुर बीएसपी के सेक्टर-1 ट्यूबलरशेड के पहले स्कूल में शिक्षक हो गए थे। वहीं मिश्र यहां बीएसपी के विधि विभाग में रहे और चीफ लॉ आफिसर के पद से रिटायर हुए। प्रो. ठाकुर 22 अक्टूबर 2019 को दिवंगत हुए और रामेश्वर प्रसाद मिश्रा का 11 जनवरी 2020 को निधन हुआ।
  इन दोनों विभूतियों का इस्पात नगरी भिलाई की उच्च शिक्षा की नींव रखने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है।कल्याण कॉलेज का विद्यार्थी होने के नाते मैंने प्रो ठाकुर की कार्यशैली को क़रीब से देखा है कालेज के दिनों में तो उनसे मार्गदर्शन मिलता ही था लेकिन बाद के दिनों में सेवानिवृत्ति का जीवन जी रहे प्रो. ठाकुर अक्सर शहर में कहीं न कहीं मिल ही जाते थे उनसे काफी बातें होती थी. पत्रकारिता में आने के बाद मुझे प्रोफ़ेसर ठाकुर का कोई औपचारिक इंटरव्यू लेने का मौक़ा तो नहीं मिला लेकिन कॉलेज के चैयरमेन रामेश्वर प्रसाद मिश्रा से 2006 में लम्बी बातचीत का योग बना थायह इंटरव्यू तब ''हरिभूमि'' में विस्तार से प्रकाशित हुआ था वही इंटरव्यू यहाँ उन्हें श्रद्धांजलि स्वरुप 
 

भवन, दरी और पेट्रोमैक्स किराए के लेकिन जज़्बा था खुद का

            रामेश्वर प्रसाद मिश्र                    प्रो टीएस ठाकुर                     
60 का दशक छत्तीसगढ़ में उच्च शिक्षा के लिहाज से सुविधा-साधनविहीन था। तब रायपुर के दुर्गा कालेज की मान्यता सागर विश्वविद्यालय से थी। मैंने दुर्गा कालेज से लॉ की डिग्री ली तब भिलाई की निर्माणावस्था थी। 
मैं भिलाई आया तो यहां उच्च शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी। एक मात्र दुर्ग का विज्ञान महाविद्यालय (साइंस कॉलेज)था। ऐसे में एक विचार हम लोगों के बीच यह आया कि क्यों ना भिलाई के लोगों के लिए एक कालेज शुरू किया जाए। उन दिनों तक हमारे साथियों में तोरण सिंह ठाकुर, बद्रीप्रसाद पांडेय राम नारायण साहू बीएसपी के पहले प्राइमरी स्कूल सेक्टर-1 में शिक्षक हो चुके थे। हम लोगों में एक जज़्बा था छत्तीसगढ़ की खातिर कुछ करने का और हमारी छत्तीसगढ़ कल्याण समिति की स्थापना 1961 में की गई थी।
भिलाई में कालेज की स्थापना भूमिका बनना भी बेहद दिलचस्प है। उन दिनों देश भर से लोग भिलाई में नौकरी के लिए रहे थे। अधिकांश लोगों की पढ़ाई बीच में ही छूटी हुई थी। लोग आगे पढऩा चाहते थे,क्योंकि उनके प्रमोशन रूके हुए थे। इस वक्त अजमेर शिक्षा बोर्ड से परीक्षा की व्यवस्था थी। अजमेर से लोग आते थे और परीक्षार्थियों से फीस के नाम पर अनाप-शनाप पैसे लेकर चले जाते थे। परीक्षा की भी कोई माकूल व्यवस्था नहीं थी। कुछ लोगों ने हमसे पूछा कि हम फार्म भर देते हैं अगर आप लोग हमें पढ़ाई के लिए मार्गदर्शन दे दें तो बेहतर होगा। हम सभी 23 से 25 उम्र के और परीक्षार्थियों में बहुत से 40 से 45 तक के भी। फिर भी हम लोगों ने उनको पूरा मार्गदर्शन दिया। हम लोगों का दृष्टिकोण सेवा और सहयोग का था।

दिन में जहाँ बालमंदिर लगता था रात में वहां शुरू हुआ कॉलेज  

भारत सेवक समाज कैम्प -1  का भवन  (1963 )
आमतौर पर कालेज शुरू होता है बीए, बीएससी बी कॉम जैसे स्नातक पाठ्यक्रमों के साथ। लेकिन, हमने कल्याण कालेज शुरू किया विधि महाविद्यालय के साथ।
पहले प्राचार्य हुए नरसिंह प्रसाद साहू। इनके बाद मानस मर्मज्ञ बलदेव प्रसाद मिश्रा भी प्राचार्य रहे . हमारी कल्याण समिति के अध्यक्ष थे जेपी खिचरिया। उन्हीं का सुझाव था पहले एलएलबी शुरू करने का। तब हमारे सांसद मोहनलाल बाकलीवाल का भी सहयोग रहता था। मध्यप्रदेश के सेवानिवृत चीफ जस्टिस गणेश प्रसाद भट्ट तब सागर विश्वविद्यालय के कुलपति (कार्यकाल 22 जून 62 से 21 जून 65 तक) थे। अंचल के प्रसिद्ध समाजसेवी देवीप्रसाद अग्रवाल से उनके निकट संबंध थे।
 ऐसे में हमें सागर विश्वविद्यालय से विधि महाविद्यालय की मान्यता मिल गई। हमारे सामने दिक्कत थी भवन की। लिहाजा कैंप-1 स्थित भारत सेवक समाज के अध्यक्ष शिवनंदन प्रसाद मिश्र आगे आए। समाज के छोटे से भवन में हमारा कालेज शुरू हुआ। यहां दिन में बच्चों के लिए बाल मंदिर लगा करता था। रात में हमने अपनी कक्षाएं लगाने की शुरुआत की। इसके लिए जरूरी संसाधन खरीदने हमारे पर उतनी राशि नहीं थी लिहाजा किराए में पेट्रोमैक्स और दरी की व्यवस्था की गई।
 दिन भर हम लोग बीएसपी की सेवा में रहते और रात में कालेज में पढ़ाते। हम सभी लोग अवैतनिक रूप से पढ़ा रहे थे, जो फीस भी आती उसे हम बैंक में जमा करते थे। हमारी यह जमा पूंजी बाद में कालेज में ही काम आई। हमारा कालेज कैंप में चल रहा था। इसी दौरान 1963 में ही सेक्टर-5 में बीएसपी की कन्या शाला का भवन बन कर तैयार हुआ। हमें बीएसपी प्रबंधन की ओर से इस कन्या शाला में रात्रिकालीन कक्षाएं संचालित करने की अनुमति मिली।
  जब हमने रात्रिकालीन कालेज की शुरूआत सेक्टर-5 गल्र्स स्कूल के भवन में की तो हमारे सामने कई चुनौतियां थी। सागर विश्वविद्यालय से हमें मान्यता दी गई। इसके लिए निरीक्षण पर प्रख्यात शिक्षाविद आचार्य नंद दुलारे बाजपेयी के साथ टीम आई। बाजपेयी को यह भरोसा ही नहीं हो रहा था कि रात में कालेज सफलतापूर्वक चलाया जा सकता है। यहां आकर उन्होंने देखा कि रात के 8.30 बज रहे हैं और सारे बीएसपी कर्मी पढ़ रहे हैं। यहां उन्होंने देखा कि चपरासी लेकर प्राचार्य तक सभी मानसेवी है। यहां की व्यवस्था देख वह बेहद अभिभूत हुए। हमें मान्यता मिली तो लगा एक बहुत बड़ी समस्या हल हो गई।
पुरतेज सिंह        प्रदीप सिंह              एम् आर आर  नायर
फिर सेक्टर-5 से हमारा कालेज सेक्टर-2 भिलाई विद्यालय में शिफ्ट हुआ। यहां स्व. पुरतेज सिंह का मैं उल्लेख करना चाहूंगा। वह बेहद आदर्शवादी थे। उनके पुत्र प्रदीप सिंह, जो कि नि:शक्त थे, हमारे भिलाई विद्यालय में लगने वाले कालेज में वह पढ़ा करते थे। पुरतेज सिंह अपने पुत्र को छोडऩे और ले जाने रोज कालेज आते थे। मुझे याद है तब वह जीएम बन चुके थे। एक रोज जब उनकी कार आकर रूकी तो मैं कालेज में ही था। 
मैं तुरंत बाहर निकला तो वह सीधे अपने पुत्र को गोद में लेकर क्लास रूम छोडऩे जा रहे थे, वहां से लौटने   के बाद वह बोले- मिश्रा जी यहां मैं सिर्फ एक पिता की हैसियत से आया हूं। आपसे छोटी सी दरख्वास्त यह है कि अगर प्रदीप की क्लास रूम आप उपर मंजिल के बजाए नीचे कर दें तो मुझे लाने ले जाने में थोड़ी आसानी होगी। पूरे भिलाई का 'मालिक' होने के बावजूद उनकी बातों में जो विनम्रता थी उसकी मिसाल फिर मुझे दोबारा देखने को नहीं मिली। उस दौर के तमाम ग्रेजुएट अप्रेंटिस लोगों ने कालेज में दाखिला लिया। जिनमें एमआरआर नायर और येदेंद्र कुमार चौकसे के नाम मुझे याद रहे हैं। नायर बाद में सेल के चेयरमेन हुए और चौकसे भिलाई के मुख्य नगर प्रशासक। इनके अलावा और भी कई छात्र थे हमारे।

आनन फानन में मिली ज़मीन और हुआ भूमिपूजन  

भूमिपूजन और दानदाताओं के शिलालेख
खैर, भिलाई विद्यालय के बाद हम सेक्टर-7 की वर्तमान जगह पर आए। यहां की भूमि मिलने का किस्सा भी बेहद रोचक है। बीएसपी के पास भूमि के लिए हमारा आवेदन तो पहले से था ही। एक दिन अचानक हमें बताया गया कि इस्पात मंत्री नीलम संजीव रेड्डी 27 दिसंबर 1965 को भिलाई दौरे पर रहे हैं। आनन-फानन में हमें बीएसपी ने 16 एकड़ जमीन सेक्टर-7 में आबंटित की। 
हमसे तत्काल भूमिपूजन की तैयारी करने कहा गया। इस तरह हमने कार्यक्रम आयोजित कर नीलम संजीव रेड्डी से भूमिपूजन करवाया। इसके बाद हमारी प्राथमिकता थी इस भूमि पर भवन बनाने की। इस दौरान भी पुरतेज सिंह हमारे साथ आगे आए। उन्होंने हमसे पूरी जानकारी ली और कालेज के लिए फंड इकठ्ठा  करने में पूरा सहयोग देने की बात कही। इसके बाद हम लोग रायपुर के कमिश्रर रामप्रसाद मिश्रा से मिले। कमिश्नर मिश्रा भी बेहद सज्जन व्यक्ति थे। वह बोले- मैं आप लोगों को पूरा समय देने तैयार हूं। 
 इसके बाद वह भिलाई पहुंचे और उनके साथ हमारी समिति के सदस्य अंचल के एक-एक उद्योगपति से मिले। सभी ने हमें मुक्त हाथों से सहयोग दिया। उद्योगपतियों से हमारा रिश्ता हमेशा सकारात्मक रहा। स्व. सेठ बालकिशन हमारी समिति में रहे। रोटरी इंटरनेशनल से सेठ मोहनलाल केडिया ने सहायता दिलवाई। बीईसी के बलवंत राय जैन ने भी हमेशा सहयोग दिया। इन लोगों के सहयोग से ही हम भिलाई में उच्च शिक्षा का केन्द्र स्थापित करने में सफल हो पाए।
कल्याण कालेज में हमने सारे संकाय मौजूदा परिस्थितियों को ध्यान में रखकर शुरू करवाए। हमने यहां कला वाणिज्य संकाय शुरू किया था। तब तक पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय की रायपुर में स्थापना हो चुकी थी। कुलपति पं. बंशीलाल पांडेय ने हम लोगों को प्रोत्साहित किया कि यहां विज्ञान की कक्षाएं भी शुरू की जाए। इन दिनों एक और समस्या रही थी। बीएसपी के जितने शिक्षक थे, सबको पदोन्नति के लिए बीएड करना अनिवार्य था। लेकिन, बीएड करने उन्हें जबलपुर जाना पड़ता था।
 जिसकी कक्षाएं रायपुर में भी लगती थी। इससे इन शिक्षकों को बार-बार छुट्टी लेनी पड़ती थी आने-जाने की परेशानी अलग से थी। इन्हीं दिनों तत्कालीन कमिश्नर रामप्रसाद मिश्रा ने भी कल्याण कालेज में बीएड खुलवाने में विशेष रूचि दिखाई। लेकिन, इससे थोड़ा बवाल भी मचा। वह इसलिए क्योंकि उन दिनों किसी भी निजी महाविद्यालय में बीएड नहीं था। हमारी समिति के रूझान को देखते हुए तमाम विरोध को दरकिनार कर बीएड की अनुमति दी गई वह भी रात्रिकालीन कक्षाओं के लिए। पूरे मध्यप्रदेश में यह पहला मौका था।
फिर इस बीच दीगर जगहों पर भी कालेज खोले गए, जिससे भिलाई स्टील प्लांट से जुड़े हजारों कर्मियों उनके बच्चों को लाभ हुआ। दल्लीराजहरा में बीएसपी के अफसर पी.भादुड़ी, शिवास्वामी और बिमलेंदु मुखर्जी के प्रयासों से हमें भूमि मिली। फि सेठ नेमीचंद जैन आगे आए। इस तरह हमारा कालेज शुरू हुआ। 60 के दशक में ग्राम छावनी के दाऊ रेवासिंह ने कल्याण समिति को शैक्षणिक गतिविधि के लिए एक एकड़ जमीन दान में और 4 एकड़ जमीन न्यूनतम दर पर दी। बाद में यह जमीन औद्योगिक ईकाईयों के लिए आरक्षित क्षेत्र के अंतर्गत गई। हमसे सरकार ने कहा मुआवजा ले लो। लेकिन, हम कालेज  के लिए भूमि चाहते थे। हमें 10 एकड़ भूमि दी गई। लेकिन उसका हस्तांतरण अभी तक नहीं हो पाया है।
भिलाई में उच्च शिक्षा की शुरूआत करने की वजह से हमें हर कदम पर बीएसपी का सहयोग समर्थन मिला। हमने शिक्षा के क्षेत्र में कालेज खोलने के बाद जिले की पहली निजी आईटीआई शुरू की। इसके बाद अगला कदम मेडिकल कालेज था। बीएसपी के पूर्व  मेडिकल डायरेक्टर डॉ. रामजीवन चौबे ने इसकी पूरी रूपरेखा बनाई। शुरूआती कार्रवाई में हमें राज्य शासन का फिजिबिलिटी सर्टिफिकेट भी मिल गया। इसके बाद किन्ही कारणों से अगले चरण में रुकावट गई। मैं आशान्वित हूं कि भविष्य में हम अपना मेडिकल कालेज भी शुरू करेंगे। जहां तक बीएसपी से संबंधों की बात है तो हम लोगों ने जितनी भी सफलता हासिल की सब बीएसपी प्रबंधन के सहयोग से ही संभव हो पाई थी।
 मैं बीएसपी में लॉ आफिसर रहा। बीएसपी अफसरों से हमारे हमेशा अच्छे ताल्लुकात रहे। लेकिन, मैंने इसका कभी कोई लाभ नहीं लिया। मैंने हमेशा बीएसपी और कालेज को अलग-अलग रखा। मैं आपको बताऊं जब मैं बीएसपी से रिटायर हुआ तो विदाई पार्टी में सीटीए शर्मा को यह कहना पड़ा कि मुझे आज पहली बार मालूम हुआ कि हमारे लॉ ऑफिसर और कल्याण कालेज के चेयरमेन दोनों मिश्रा एक ही हैं। मैंने जीवन में जो कुछ भी पाया वह सभी साथियों के सहयोग से ही संभव हो पाया।
आखिर में एक त्रुटि की ओर ध्यान- कल्याण कॉलेज की वेबसाइट में 23 जुलाई 1963 को इस्पात मंत्री नीलम संजीव रेड्डी के हाथों भूमिपूजन की तिथि का उल्लेख है। वास्तविकता यह है कि नीलम संजीव रेड्डी उक्त तिथि में आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री थे और जून 1964 मेें उन्होंने केंद्र में इस्पात मंत्री का पदभार संभाला। जिस पर वह 1967 में लोकसभा अध्यक्ष बनने के पहले तक रहे। हालांकि कॉलेज में लगाए गए भूमिपूजन के शिलालेख में वास्तविक तिथि 27 दिसंबर 1965 ही अंकित है।