Monday, February 10, 2025


मां के साथ मजदूरी की, ईंटें ढोईं और खुद लिखी अपनी किस्मत

 

अरबपति कारोबारी भगवान गवई आज तेल और रियल इस्टेट के क्षेत्र में बड़ा नाम


सिरपुर में लेखक/पत्रकार मुहम्मद जाकिर हुसैन (बाएं) के साथ उद्योगपति भगवान गवई (दाएं)

देश के एक प्रमुख उद्योगपति भगवान गवई की दास्तां संघर्षों का डट कर सामना कर अपनी किस्मत खुद लिखने की है। दलित समुदाय से आने वाले गवई समूचे समाज के लिए एक मिसाल है। 

आज भी वह अपने संघर्षों के दिनों को भूले नहीं है और उनकी कोशिश रहती है कि वंचित समुदाय के नौजवान भी उद्यमशीलता का रास्ता अपनाएं और अपना भविष्य तय करें।

हाल ही में 18 और 19 जनवरी 2025 को अंबेडकर भवन (पुराना बीएसपी स्कूल) सेक्टर-6 में दो दिवसीय करियर गाइडेंस, उद्यमिता विकास और संविधान जानो कार्यशाला का आयोजन किया गया।  डॉ अंबेडकर एक्जीक्यूटिव फ्रेटरनिटी भिलाई, सोशल जस्टिस एंड लीगल फाउंडेशन छत्तीसगढ़ ,एनस्टेप छत्तीसगढ़ और मूलनिवासी कला साहित्य और फिल्म फेस्टिवल भिलाई के संयुक्त तत्वावधान में हुए इस आयोजन में हिस्सा लेने भिलाई पहुंचे भगवान गवई से मुझे साक्षात्कार का मौका मिला। इस दौरान उन्होंने अपने जीवन संघर्ष से लेकर विभिन्न मुद्दों पर लंबी बातचीत की। इस लंबे साक्षात्कार में उन्होंने जो कुछ बताया, सब उन्हीं के शब्दों में- 

 

बचपन में पिता गुजरे तो मां के साथ मजदूरी में हाथ बंटाया

सिरपुर में एडवोकेट सुरेश माने का भी साथ रहा

हम लोग मूल रूप से महाराष्ट्र के बुलढाणा जिला, सिरखेड़ तालुका के रहने वाले हैं। माता-पिता के साथ चार भाई और एक बहन का हमारा परिवार था। 1964 की बात है, मैं कक्षा दूसरी में था तो पिता का अचानक निधन हो गया। स्वाभाविक है परिवार पर संकट आ गया। मां पढ़ी लिखी नहीं थी और उनके सामने परिवार को पालने की जवाबदारी थी। ऐसे में हम सब बॉम्बे कांदीवली आ गए। 

यहां  महिंद्रा एंड महिंद्रा की एक कंस्ट्रक्शन साइट पर मां को काम मिल गया। तब हम सभी के लिए परिस्थितियां बेहद विषम थी, इसलिए मुझे भी शुरूआती 2-3 साल अपनी मां के साथ मजदूरी करनी पड़ी। उनके साथ मैं भी ईंटे ढोता था। इस बीच स्कूली पढ़ाई छूट रही थी और  इसका मुझे भी ध्यान था, इसलिए एक रोज खुद से पास के स्कूल में जाकर मैनें कक्षा तीसरी में दाखिला ले लिया। 

दरअसल, तब कांदीवली में चारों तरफ जंगल था और रास्ते दुर्गम थे। जंगली जानवरों के संभावित खतरे को देखते हुए वहां स्कूल में छोटे बच्चों को दाखिला नहीं देते थे। इसलिए मुझे 2-3 साल बाद जब थोड़ी और समझ आई तो वहां स्कूल जाकर दाखिला ले लिया। इसके बाद बेहतर काम की तलाश में परिवार को खोपोली, फिर नासिक और फिर रत्नागिरी जाना पड़ा। तब तक  छठवीं की पढ़ाई हो चुकी थी। 

अंक अच्छे थे तो मुझे रत्नागिरी के प्राइवेट स्कूल में दाखिला मिल गया। यहां 10 वीं तक वहां रहा। इस दौरान छोटे-छोटे काम कर मैं अपनी पढ़ाई का खर्च निकाल लेता था। फिर बड़े भाई ने भी भवन निर्माण में ईंटा जोड़ाई का काम लेना शुरू कर दिया था। घर के हालात थोड़े बेहतर हुए तो मां ने मजदूरी छोड़ सब्जी बेचना शुरू किया। 

 

धीरे-धीरे सुधरे हालात, मिली सरकारी नौकरी

भिलाई के कार्यक्रम में एल. उमाकांत के साथ

इसके बाद मैनें मुंबई में कामर्स में ग्रेजुएशन किया। इसी दौरान लार्सन एंड टुब्रो में अकाउंट विभाग में नौकरी लग गई।यहां नौकरी करते-करते मैनें पब्लिक सेक्टर में सेवा के लिए तैयारी जारी रखी। जिसके चलते साल 1982 में  हिंदुस्तान पेट्रोलियम लिमिटेड (एचपीएल) में मैनेजमेंट ट्रेनी के तौर पर एक नई शुरूआत हुई। एचपीएल की सेवा मेरे करियर के लिए बहुत ज्यादा लाभकारी रही। 

यहां रहते हुए मुझे कंपनी की ओर से इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट  (आईआईएम) कोलकाता में एक प्रशिक्षण कार्यक्रम में हिस्सा लेने का मौका मिला और यहाँ तीन महीने एक्ज़ीक्यूटिव ट्रेनिंग प्रोग्राम में बिजनेस के सारे गुर सीखने का अवसर मिला। कंपनी में प्रमोशन भी मिला लेकिन कतिपय विवादों के चलते यहां 10 साल  की सेवा के बाद मैनें इस्तीफा दे दिया। 

 

भारत से 20 गुना ज्यादा वेतन पर बहरीन गया, साझेदारी में शुरू किया कारोबार

सिरपुर तिवरदेव बौद्ध विहार में प्रतिनिधिमंडल के साथ

इसके बाद मैनें मध्यपूर्व देशों का रुख किया। बहरीन में कैलटेक्स ऑइल जॉइन में उन्हें एचपीसीएल से 20 गुना ज़्यादा वेतन पर रख लिया । फिर दुबई में एमिरेटस नेशनल ऑइल कंपनी (इनोक) की नई रिफाईनरी से उन्हें बुलावा आया।मध्यपूर्व के देशों में कई तरह के अनुभव हुए। मैनें देखा कि कई अनपढ़ लोग तेल से जुड़ा कारोबार कर रहे थे। 

मुझे अपनी कंपनी शुरू करने का विचार आया। तब मेरी  मुलाक़ात वहां के एक तेल व्यवसायी बकी मोहम्मद से हुई। जिनसे प्रेरणा लेकर उन्होंने बिज़नेस की दुनिया में कदम रखने का निर्णय लिया। साल 2003 में मैनें बकी के साथ मिलकर “बकी फुएल कंपनी” की शुरुआत की इसमें मेरा शेयर 25 प्रतिशत था। बकी की मार्केट में अच्छी जान-पहचान थी, इस वजह से तेल का कारोबार चल निकला।  हम दोनों पार्टनर रिफाईनरी से तेल खरीदकर दुनिया-भर में बेचते थे।

 

कारोबार में धोखे खाए लेकिन सीखा भी

सिरपुर तिवरदेव बौद्ध विहार में प्रतिनिधिमंडल के साथ

हमारा कारोबार अच्छी तरह चल रहा था तभी बकी की मां का निधन हो गया और उन्होंने कारोबार समेट लिया। इससे उनका कारोबार बुरी तरह प्रभावित हुआ। इन्हीं दिनों कज़ाकिस्तान में एमराल्ड एनर्जी नामक कंपनी के मालिक ने यही काम अपने साथ करने का ऑफर दे दिया और एक-डेढ़ साल में शेयर देने का वादा भी किया। 

वही साल 2008 तक इस कंपनी का टर्न ओवर 400 मिलियन डॉलर तक पहुंच गया। लेकिन शेयर देने के वक़्त कंपनी का मालिक मुकर गया, इससे आहत होकर मैनें फैसला किया कि अब स्वतंत्र तौर पर अपनी कंपनी शुरू करेंगे। एक औऱ बात मैं बताऊं, कारोबार के इन तमाम उतार-चढ़ाव के बीच मेरा ध्यान हमेशा वंचित समुदाय के उत्थान के प्रति रहता है। 

ऐसे ही एक सामूहिक प्रयास का मैं यहां जिक्र करना चाहूंगा। 2006 में मैत्रेयी डेवलपर्स की स्थापना  दलित समुदाय के हम 50 लोगों ने की। जिसमें सभी ने एक-एक लाख लगाकर 50 लाख के निवेश के साथ कंपनी बनाई। इसमें हम सब बराबर के भागीदार हैं। 

कंपनी फिलहाल मेन्यूफ़ेक्चरिंग का काम करती है।  2009 में मैंनें आइल सेक्टर में कारोबार के इरादे से खुद की कंपनी शुरू की और दुबई में अपना ऑफिस खरीदा। अब आज के समय में मेरी मलेशिया में भी दो और कंपनियां हैं, जो ऑइल और कोयले की खरीद-फरोख्त करती हैं। 

इसके अलावा मैत्रेयी डेवलपर्स और बीएनबी लॉजिस्टिक्स में भी हिस्सेदारी है।  कोरोना काल में हमनें रियल इस्टेट पर ध्यान दिया। फिलहाल पनवेल में एक रियल इस्टेट प्रोजेक्ट पूरा हो गया है। भविष्य की और भी महत्वाकांक्षी योजनाएं है। 

 

किसी की हिम्मत नहीं हुई मुझे नीचा दिखाने की, लेकिन

 दूसरे साथियों की प्रताड़ना के मुद्दों पर किया संघर्ष

भिलाई में आयोजित कार्यक्रम में अतिथिगण

वंचित-दलित समुदाय से आने के बावजूद स्कूल और कॉलेज में मुझे कभी भेदभाव महसूस नहीं हुआ। सभी से मिल कर रहता था और अपनी काबिलियत पर भरोसा था। ऐसे में किसी की हिम्मत नहीं हुई मुझे नीचा दिखाने की। मेरा मानना है कि जब आप बेस्ट परफार्म करते हो तो किसी को आपको नीचा दिखाने की हिम्मत नही हो सकती। 

लेकिन मैं यह नहीं कहता कि समाज में भेदभाव बिल्कुल नहीं है। हिंदुस्तान पेट्रोलियम लिमिटेड के सेवाकाल में मैं एससी-एसटी एम्पलाइज एसोसिएशन  का जनरल सेक्रेट्री था और अपने समुदाय के दूसरे कर्मियों के साथ ऐसा भेदभाव अक्सर देखने में आता था। 

इनमें जातीय उत्पीड़न, प्रमोशन रोकने, सीआर खराब करने सहित प्रताड़ना के कई मामले थे। मैनें ऐसे 100 से ज्यादा मामले मैनेजमेंट के सामने उठाए। मेरी कार्यशैली मैनेजमेंट से सीधे भिड़ने की नहीं बल्कि बात कर रास्ता निकालने की थी। इसलिए  ऐसे मामलों में मैं अपने साथियों को इंसाफ दिलाने में सफल रहा।  

 

बेटे को जॉब पर रखा,  बीएसएस गठन कर बढ़ाई सक्रियता


जिस तरह विपरीत हालातों का सामना मैनें अपने जीवन में किया है, तो मेरा मानना रहा है कि मेरे बच्चे भी संघर्षों से आगे बढ़े और खुद को साबित करें। दो बेटियां और एक बेटे ने अपनी इच्छा अनुसार विषय चुनकर उच्च शिक्षा हासिल की। 

मैं चाहता तो पढ़ाई पूरी कर लौटे बेटे को अपनी कंपनियों में आसानी से निदेशक या कोई और पद देकर रख सकता था लेकिन मैनें ऐसा करने के बजाए जॉब पर रखा, जिससे  बेटा पहले जमीनी काम सीखे, खुद को साबित करे और इसके बाद वह कंपनियों की बागडोर सम्हाले। 

बेटियां भी अलग-अलग क्षेत्र में सक्रिय हैं। अपने समाज के स्तर पर भी हम लोग बहुत कुछ कर रहे हैं। हमनें समान विचारधारा के लोगों को मिलाकर एक सामाजिक संगठन बहुजन समाज संघ (बीएसएस) भी शुरू किया। 

जिसमें सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक सशक्तिकरण की दिशा में काम कर रहे हैं। इसमें 15 विंग विकसित किए हैं और अनुभवी लोगों को शामिल किए हैं। हमारा प्रयास समाज के वंचित समुदाय के कल्याण के लिए ज्यादा से ज्यादा कार्यक्रम बनाएं और इन्हें क्रियान्वित करें। इसमें हमें दलित समुदाय के विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिनिधियों का पूरा सहयोग मिल रहा है।

 


युवा उद्यमी बनाने महाराष्ट्र में लगातार दे रहे हैं प्रशिक्षण


बिरबिरा (महासमुंद) स्थित बौद्ध विहार में

मेरी एक कंपनी इंडियन एक्सपोर्ट प्राइवेट लिमिटेड है। जिसके माध्यम से हम लोगों ने महाराष्ट्र में कोरोनाकाल में 600 युवाओं को इंटरप्रेन्योर डेवलपमेंट प्रोग्राम (ईडीपी) के अंतर्गत नि:शुल्क ट्रेनिंग दी है। इसमें हम लोगों ने एजुकेशन, आयरन एंड गैस, एनर्जी और कृषि सहित अलग सेक्टर में बिजनेस मॉडल का प्रशिक्षण अपने विशेषज्ञों के माध्यम दिलाया। 

इसे विस्तार देते हुए अब हम महाराष्ट्र में स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थियों के बीच  अपनी कंपनी के माध्यम से इंटरप्रेन्योर डेवलपमेंट प्रोग्राम (ईडीपी) चला रहे हैं। वहीं नौजवानों को उद्यमशीलता के क्षेत्र में तमाम मार्गदर्शन भी दे रहे हैं। 

महाराष्ट्र के 36 जिलों में 18 हजार उद्यमी तैयार करने के वहां की राज्य सरकार के एक महत्वाकांक्षी कार्यक्रम को भी हम क्रियान्वित कर रहे हैं।  इंटर्न एक्सपर्ट प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की  हमारी वेबसाइट है। जिसके माध्यम से नौजवान संपर्क कर सकते हैं। 

'हरिभूमि' में 6 फरवरी 2025 को प्रकाशित

 

Thursday, January 9, 2025

तब कोचिंग-ट्यूशन थे नहीं, स्कूल में टीचर ने तैयारी करवाई और 

भिलाई से 5 स्टूडेंट ने इतिहास रच दिया आईआईटी में सफलता का

 

साल 1974 में भिलाई के शिक्षा जगत हासिल की थी पहली बड़ी उपलब्धि 


मुहम्मद जाकिर हुसैन

गौतम, कामेश राव, वसंत और सहगल के साथ लेखक

यह इस्पात नगरी भिलाई की शिक्षा के क्षेत्र में पहली बड़ी सफलता थी। पांच दशक पहले इस्पात नगरी भिलाई में आज की तरह कोई कोचिंग-ट्यूशन नहीं थे। स्कूल में टीचर ने जो पढ़ाया और होमवर्क दिया, बस उतना ही काफी था। 

तब साल 1974 में अचानक से ‘तूफान’ आया और बीएसपी सीनियर सेकंडरी स्कूल सेक्टर-10 से एक साथ कुल 5 स्टूडेंट भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) की प्रवेश परीक्षा में सफल हो गए। इतनी बड़ी सफलता के बावजूद तब कोई शोर-शराबा नहीं हुआ था। 

इनमें से बी के कामेश राव, गौतम सदाशिव, डॉ. वसंत जोशी और डॉ. अनिल सहगल ने अलग-अलग आईआईटी में दाखिला लिया और एक स्टूडेंट अनिल पटेल निजी कारणों से परिवार के साथ गुजरात चले गए थे। कालांतर में ये चारों स्टूडेंट देश-विदेश के प्रमुख संस्थानों में शीर्ष पद पर पहुंचे। आज जब 50 साल बाद यही चारों स्टूडेंट भिलाई लौटे तो इनकी आंखों में चमक थी अपने बचपन को फिर से जी लेने की।

इस बीच जब बात इनके स्कूली जीवन की सबसे बड़ी सफलता की निकली तो चारों ने बिल्कुल सहज होकर कहा-तब कहीं कोई जश्न जैसी बात ही नहीं थी। 

हां,हमारे प्रिंसिपल ए. एस रिजवी सर और सारे टीचर्स ने पीठ जरूर थपथपाई लेकिन इसके बाद सभी अपने-अपने एडमिशन की तैयारी में जुट गए। आज 50 साल बाद अपनी यादों को बांटते हुए इन सभी को उम्मीद है कि भिलाई का आईआईटी अपनी अलग पहचान बनाएगा। 

सत्र 1973-74 में हेड ब्वाॅय रहे आर. अशोक कुमार और हेड गर्ल रहीं पूनम सारस्वत शर्मा का भी मानना है कि सभी बच्चों का करियर संवारने में सबसे ज्यादा योगदान तब के प्रिंसिपल ए. एस. रिजवी सर का था। उन्हें भिलाई स्टील प्लांट के तब के जनरल मैनेजर पृथ्वीराज आहूजा खास तौर पर रायपुर के राजकुमार कॉलेज से वाइस प्रिंसिपल का दायित्व छोड़कर सेक्टर-10 स्कूल आने प्रस्ताव दिया था।    


मैथ्स टीचर ने तीन महीने स्कूल में करवाई तैयारी, तब मिली सफलता

 मैथ्स टीचर श्रीमती पोट्‌टी के साथ बेंगलुरू में गौतम (दिसंबर-24)
1974 बैच के स्टूडेंट अपनी मैथ्स की टीचर श्रीमती शांता शंकरन पोट्टी को हमेशा याद करते हैं। श्रीमती पोट्टी वर्तमान में बेंगलुरु में रहती है और अपने इन सभी स्टूडेंट्स के संपर्क में हैं। 

डॉ.जोशी, डॉ.सहगल, कामेश और गौतम बताते हैं, तब केमिस्ट्री एमएन बोरले और फिजिक्स एसके साहू पढ़ाते थे। लेकिन इन सबसे हट कर मैथ्स की टीचर श्रीमती शांता ने दिसंबर तक स्कूल का कोर्स पूरा करवा दिया और बाकी बचे तीन महीने में हम सबको विशेष तैयारी करवाई। जिसमें पिछले 10 साल के अनसाल्वड क्वेश्चन पेपर हल करवाए और जेईई पाठ्यक्रम के अनुरूप तैयारी करवाई। 

तब बाहर कोई ट्यूशन-कोचिंग नहीं था और हमारे कोई भी टीचर अलग से ट्यूशन नहीं लेते थे। हमारी सारी तैयारी स्कूल में ही हुई। गौतम सदाशिव बताते हैं, हाल ही में उन्होंने अपनी मैथ्स टीचर से उनके बेंगलुरु स्थित घर जाकर मुलाकात की थी। आज भी हम सब मानते हैं कि मैडम पोट्टी के मार्गदर्शन के बिना हम लोग तब आईआईटी में सफलता हासिल नहीं कर पाते थे।  

तब पोस्टमैन टेलीग्राम लेकर पहुंचा था, जिसमें सिर्फ रैंक का उल्लेख था

15 जुलाई 2013 को आखिरी बार हुआ था टेलीग्राम का इस्तेमाल

पांच दशक पहले आईआईटी के परीक्षा परिणाम को लेकर कोई शोर-शराबा नहीं था। बीके कामेश राव बताते हैं रिजल्ट कोई अखबार में नहीं आया था बल्कि पोस्टमैन घर पर टेलीग्राम लेकर पहुंचा था। 

जब मद्रास आईआईटी गए तो वहां रिक्त सीटों की स्थिति बताते हुए ब्रांच के बारे में पूछा। तब तक देश में  5 आईआईटी थे और यहां बीटेक में कुल 1500 स्टूडेंट लेते थे।

 इनमें हर आईआईटी में 300 सीटें होती थी। डॉ.वसंत जोशी बताते हैं- तब आईआईटी प्रवेश परीक्षा सभी 5 आईआईटी की फैकल्टी के एक समूह द्वारा आयोजित की गई थी। इसे संयुक्त प्रवेश परीक्षा (जेईई) कहा जाता था। उस साल मार्च में हमारे 11 वीं बोर्ड के इम्तिहान हुए थे और इसके दो माह बाद 3-4 मई 1974 को जेईई हुई थी। वसंत जोशी बताते हैं कि तब रायपुर और नागपुर भी परीक्षा केंद्र थे लेकिन उन्होंने कानपुर सेंटर चुना था। उनका रिजल्ट भी डाक से घर पहुंचा था।

प्रिंसिपल रिजवी सर ने किया प्रोत्साहित, प्रेरणा बने 1973 बैच के रामचंद्रन

प्रिंसिपल ए.एस. रिजवी और 1973 बैच के रामचंद्रन

चारों स्टूडेंट बताते हैं उनसे ठीक पहले साल 1973 में समूचे भिलाई से उनके सेक्टर-10 स्कूल से एकमात्र स्टूडेंट रामचंद्रन वसंत कुमार का चयन आईआईटी के लिए हुआ।  

तब वसंत कुमार की सबसे ज्यादा चर्चा होती थी। हमारे प्रिंसिपल ए. एस रिजवी सर भी हम सबको प्रोत्साहित करते थे। इसलिए हमारे अंदर भी एक जज्बा था कि कुछ करना जरूर है। 

 हमारे सामने रामचंद्रन ही रोल मॉडल थे। उनकी सफलता से सभी प्रभावित थे और यह तय कर लिया था कि हमें भी आईआईटी जाना है। तब भिलाई के स्टूडेंट मेडिकल और इंजीनियरिंग में ज्यादा जाते थे, इसलिए हम लोगों ने मैथ्स सेक्शन के होने की वजह से तय कर लिया था कि आईआईटी में जाएंगे अगर नहीं हुआ तो आरईसी में एडमिशन ले लेंगे। रामचंद्रन वसंत कुमार वर्तमान में ब्रिटेन में वैज्ञानिक हैं।

तब देश में सिर्फ 5 आईआईटी थे,  आज देश भर में भिलाई सहित 23 संचालित हो रहे

आईआईटी भिलाई

साल 1974 में जब पहली बार भिलाई से एक साथ 5 स्टूडेंट ने सफलता दर्ज की थी, तब देश में सिर्फ 5 आईआईटी थे। इनमें आईआईटी बॉम्बे (1958), आईआईटी मद्रास (1959), आईआईटी कानपुर (1959), और आईआईटी दिल्ली (1961) थे।

 तब इन आईआईटी में प्रत्येक में 300-300 सीट्स थी। फिर दशकों बाद देश में छठवां आईआईटी गुवाहाटी (1994) में शुरू हुआ। अब देश में भिलाई सहित कुल 23 आईआईटी संचालित हैं। भिलाई का आईआईटी यहां कुटेलाभाठा की जमीन पर बनाया गया है।
 

हमें कोचिंग-ट्यूशन की जरूरत ही नहीं पड़ी: सहगल

अमेरिका में अनिल सहगल एशियन-अमेरिकन कमिश्नर के तौर पर

डॉ.अनिल सहगल बताते हैं- तब हमारी मैथ्स टीचर ने अपना स्कूली पाठ्यक्रम दिसंबर अंत तक पूरा कर लिया था और इसके बाद बचे तीन महीनों में उन्होंने सिर्फ आईआईटी की तैयारी करवाई। हममें से किसी को भी स्कूल के बाहर कोचिंग की जरूरत नहीं पड़ी। 

तब सेक्टर-10 का अंग्रेजी मीडियम स्कूल शुरू ही हुआ था और  हम यहां तीसरे बैच थे। हमारे प्रिंसिपल रिजवी सर का हर बच्चे पर गंभीरता के साथ खास ध्यान होता था।

तब आईआईटी को लेकर आज जैसा माहौल भी नहीं था कि अगर पास नहीं हुए तो क्या होगा। हम लोगों के दिमाग में यही था कि आईआईटी नहीं तो रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज (आरईसी) चले जाएंगे। हमारी मैथ्स टीचर श्रीमती पोट्टी का साफ कहना था कि जो पूछना है क्लास में या फिर क्लास के बाद स्कूल में ही पूछो। वह ट्यूशन कोचिंग कभी नहीं लेती थी। 

मैंने आईआईटी बॉम्बे से मैकेनिकल इंजीनियरिंग की डिग्री ली। पिता श्याम लाल सहगल तब भिलाई स्टील प्लांट के स्टील मेल्टिंग शॉप में सुपरिंटेंडेंट थे। हमारा परिवार सेक्टर-9 में रहता था। अमेरिका में मैं 1983 से प्राध्यापक के पेशे में हूं। तब से लगातार यह 41 वां साल है। वहां मैसाचुसेट्स बोस्टन की टफ्ट्स यूनिवर्सिटी मेडफोर्ड में मैकेनिकल इंजीनियरिंग पढ़ा रहा हूं।

जो भी प्रेशर था हमारा खुद का बनाया हुआ था कि हमें जेईई क्रैक करना है: कामेश

बीके कामेश राव
बीके कामेश राव बताते हैं- मैं उन दिनों की बात करूं तो आईआईटी की पढ़ाई अपनी जगह है लेकिन मुझे यह भी मालूम था कि वहां यहां खाना अच्छा मिलता है और खेलकूद की ढेर सारी सुविधा है। तो मेरे लिए यह एक आकर्षण था ही। जहां तक तैयारी की बात है तो मेरे एक कजिन पहले आईआईटी में चयनित हुए थे। लिहाजा उन्होंने 10 साल के अनसाल्वड क्वेश्चन पेपर भेज दिए थे। उसे हम सबने हल किए थे। तब हमारे दिमाग में समाज या घरवालों का प्रेशर कुछ नहीं था। 

पैरेंट्स हमारे जागरुक जरूर थे लेकिन कभी किसी ने हमें दबाव में नहीं पढ़ाया कि हम उनके मुताबिक पढ़े। हां, जो भी प्रेशर था वह सब हमारा खुद का बनाया हुआ था। हम सब अंदरूनी तौर पर दबाव में थे कि हमें हर हाल में जेईई क्रैक करना करना होगा। इसलिए हम लोगों ने काफी मेहनत की। 

तब भिलाई में तो कोचिंग-ट्यूशन का नामो-निशान नहीं था। उन दिनों तो पूरे इंडिया में ही हम लोग 2-3 कोचिंग का नाम सुनते थे। एक ब्रिलियंट कोचिंग दक्षिण भारत में थी जो डिस्टेंस में देश भर में कोचिंग करवाते थे। बाद में एक अग्रवाल कोचिंग का भी हम लोगों ने नाम सुना लेकिन इसकी जरूरत नहीं पड़ी। 


होटल-एयरपोर्ट निर्माण में कामेश का विशिष्ट योगदान, तब चरोदा से सेक्टर-10 आते थे स्कूल

एक व्याख्यान के दौरान जीएमआर इंफ्रास्ट्रक्चर के डायरेक्टर बीके कामेश राव (ठीक बीच में )

कामेश बताते हैं-आईआईटी मद्रास से मैकेनिकल इंजीनियरिंग की डिग्री लेने के बाद मैंने देश-विदेश में कई प्रतिष्ठित फर्म्स में सेवाएं दी। 1995 में दिल्ली लौट आया।

 तब तत्कालीन नरसिंह राव सरकार ने आर्थिक उदारीकरण की नीति लागू की थी तो हम लोगों ने एक सिविल इंजीनियरिंग की फर्म बनाई। इसके बाद अमर विलास और उदय विलास सहित ओबेरॉय ग्रुप के ढेर सारे होटल डिजाइन से लेकर कंस्ट्रक्शन तक बनाए। इसके बाद मैंने 2004 में जीएमआर कंपनी में ज्वाइन की। 

हमनें हैदराबाद एयरपोर्ट , कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए टर्मिनल-3 जैसे कई चुनौतीपूर्ण निर्माण किए। अभी हम दिल्ली, हैदराबाद, गोवा का एयरपोर्ट भी संचालित कर रहे हैं।  मेरे पिता बीबी शंकरम चरोदा में रेलवे में कार्यरत थे और तब हम चरोदा में रहा करते थे। वहां से मैं रोज लोकल ट्रेन से भिलाई नगर रेलवे स्टेशन उतरता था और वहां से साइकिल लेकर सेक्टर-10 स्कूल जाता था। 


सलेक्शन हो गया तो खुशी हुई लेकिन दबाव कुछ नहीं था:गौतम

गौतम सदाशिव

गौतम सदाशिव बताते हैं- आईआईटी एग्जाम पास करने हम लोगों पर किसी तरह का कोई दबाव नहीं था इसलिए हम लोगों ने सहज होकर तैयारी की। जब सलेक्शन हो गया तो हम सबके लिए अच्छी बात थी। 

एक तरह से  हम सबके लिए सरप्राइज ही था। हम लोग तो तय कर चुके थे कि अगर आईआईटी में नहीं हुआ तो आरईसी में सिलेक्शन हो ही जाएगा। 

हां, तब भिलाई से एक साथ 5 स्टूडेंट का सलेक्शन होना एक बड़ी बात तो थी ही। इसके लिए हम सारा क्रेडिट स्कूल की पढ़ाई और टीचर्स को देते हैं। मैनें आईआईटी बॉम्बे से सिविल इंजीनियरिंग में डिग्री लेने के बाद देश-विदेश की कई प्रमुख फर्म्स में सेवाएं दी। 

एलएंडटी में प्रोजेक्ट मैनेजर, एचसीसी में जनरल मैनेजर, ओरिएंटल स्ट्रक्चरल इंजीनियर्स में एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर, जीएमआर वाइस प्रेसिडेंट और आईएलएफएस में प्रेसिडेंट रहा। अब पूरा समय परिवार को दे रहा हूं। अपने करियर में मैंने सड़क निर्माण के क्षेत्र में कई उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल की। मुंबई-पुणे एक्सप्रेस वे सहित देश के कई प्रमुख निर्माण में अपना योगदान दिया। मेरे पिता जी. सदाशिव तब भिलाई स्टील प्लांट के डिप्टी चीफ इंजीनियर थे और हमारा परिवार सेक्टर-10 में रहता था। 


हिंदी मीडियम से आया था लेकिन खूब मेहनत की: डॉ. वसंत जोशी

एनएसडब्ल्यूसी में वैज्ञनिक डॉ. वसंत जोशी (दाएं)

डॉ. वसंत जोशी बताते हैं- मैनें प्राइमरी स्कूल सेक्टर-2 हिंदी मीडियम में पढ़ाई की थी। बाद में अंग्रेजी मीडियम सेक्टर-10 आ गया। लेकिन मीडियम बदलने का पढ़ाई में कोई असर नहीं हुआ। 

जहां तक आईआईटी की तैयारी की बात है तो मैडम श्रीमती शांता शंकरन पोट्टी ने अपने रोजाना की क्लास से हट कर हमें न्यू मैथ्स अच्छी तरह पढ़ाया, जो केंद्रीय शिक्षा बोर्ड के तहत हमारे पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं था। 

इससे हमारी तैयारी बेहतर ढंग से हो पाई। तब मैंने कानपुर आईआईटी में दाखिला लिया था। वर्तमान में अमेरिकी नौसेना संगठन नौसेना सतह युद्ध केंद्र ( एनएसडब्ल्यूसी) के अनुसंधान विभाग में वरिष्ठ वैज्ञानिक और तकनीकी प्रमुख के तौर पर सेवा दे रहा हूं। मेरे पिता शिवराम दत्तात्रेय जोशी तब भिलाई स्टील प्लांट के कंट्रोलर स्टोर्स एंड परचेज थे। उन दिनों हम सेक्टर-2 में रहते थे।  

मैथ्स सेक्शन में थे सिर्फ 14 स्टूडेंट, बायो के 8 स्टूडेंट बनें डॉक्टर

बीएसपी सीनियर सेकंडरी स्कूल सेक्टर-10 भिलाई

बीएसपी के सीनियर सेकंडरी स्कूल सेक्टर-10 में वर्ष 1973-74 के शैक्षणिक सत्र की मैथ्स की क्लास में सिर्फ 14 स्टूडेंट थे। इनमें से 5 आईआईटी के लिए चुने गए। वहीं 7 ने क्षेत्रीय इंजीनियरिंग कॉलेजों (आरईसी) में दाखिला लिया और 2 सेना में शामिल हुए।

वहीं इसी सत्र की बायोलॉजी में 30 स्टूडेंट थे। जिनमें से 8 चिकित्सा पेशे में गए। इन 8 स्टूडेंट में परवेज़ अख्तर,पूनम सारस्वत, रेखा गुप्ता, एन एस प्रसन्ना, निर्वेद जैन, शुभदा आप्टे, इंदिरा अरोड़ा और वीएस गीता शामिल हैं।

 इस सत्र की ह्यूमैनिटीज (कला समूह) में सिर्फ 6 स्टूडेंट थे, इसलिए उन्हें मैथ्स की क्लास में बैठना होता था। यहां 1975-76 का मैथ्स का बैच उल्लेखनीय उपलब्धि वाला रहा, जब यहां से 10 स्टूडेंट आईआईटी के लिए चयनित हुए।


एलुमनी मीट में जुटे 50 साल बाद, भिलाई से बालोद तक मचाया धमाल

एलुमनी मीट के दौरान स्कूल में 1974 बैच (24 दिसंबर 2024)

बीएसपी सीनियर सेकण्डरी स्कूल सेक्टर-10 के 1974 बैच के स्टूडेंट ने अपना 50 वां गोल्डन जुबली एलुमनी मीट 22 से 26 दिसंबर 2024 तक मनाया। जिसमें देश-विदेश से आए लगभग 55 सहपाठियों ने भिलाई और बालोद में कुछ दिन साथ-साथ बिताए और अपनी पुरानी यादों को ताजा किया। किसी ने सेना के अपने अनुभव सुनाए तो किसी ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में अपने अनुभव को साझा किया।
जाट रेजीमेंट से अवकाश प्राप्त ब्रिगेडियर जयेश सैनी ने पूर्वोत्तर में अपने दीर्घ कार्यकाल के अनुभव साझा किए। अस्थि रोग विशेषज्ञ डॉ राकेश शर्मा ने सभी से इस उम्र में अपनी अस्थियों और उपास्थियों की अच्छी देखभाल के लिए प्रेरित किया। कैल्शियम लेने के साथ उन्होंने कुछ सरल अभ्यास भी बताए जिससे स्वयं को फिट रखा जा सके। नेत्र रोग विशेषज्ञ में डॉ. पूनम सारस्वत शर्मा ने आखों की देखभाल के टिप्स दिये। डॉ संजीव जैन, डॉ रेखा, डॉ सुभाष सिंघल, डॉ विद्याधर, डॉ प्रसन्ना, डॉ शुभदा एवं डॉ निर्वेद जैन ने भी स्वास्थ्य के विभिन्न क्षेत्रों पर उपयोगी जानकारी दी। 

एलुमनी मीट की खबर हरिभूमि 09-01-25


पहले दिन सभी सहपाठी भिलाई के एक होटल में मिले तया गीत और नृत्यों को प्रस्तुतियां दी। इसके बाद सीनियर सेकंडरी स्कूल सेक्टर-10 में भी सभी सहपाठियों ने समय बिताया।
यहां पौधारोपण किया और यादगार के तौर पर अपने स्कूल को उपहार दिए। इस दौरान स्कूल की प्रिंसिपल सुमिता सरकार व स्टाफ ने सभी का स्वागत किया।  इसके बाद सभी ने मैत्रीबाग जाकर अपने बचपन की यादें ताजा की। फिर सभी बालोद रिसोर्ट के लिए निकल गए जहा अलग-अलग सत्रों में लोगों ने अपने अनुभव साझा किये। यहां वाटर स्पोटर्स का भी आनंद लिया। यहां उनकी अगवानी कांकेर से आए दल ने सामूहिक नृत्य और तिलक लगा कर किया। अंताक्षरी, नृत्य, तंबोला और विभिन्न खेलों का आनंद सभी लोगों ने लिया। 

 एलुमनी मीट में मुख्य रूप से यूएसए से अनिल सहगल, वसंत जोशी, ऑस्ट्रेलिया से सुजीत दत्त के साथ कुलदीप अरविन्द,रवि अखौरी,बितापी सेनगुप्ता, जयश्री प्रधान, अविनाश मेहता,विनय बहल,कुमार मुखर्जी,गौतम सिल,प्रदीप सत्पथी, राकेश अस्थाना, वीएस राधामणि, रायपुर से निर्वेद जैन, संजय भौमिक, शेष भारत से, पूनम सारस्वत शर्मा हेड गर्ल नोएडा,आर अशोक कुमार हेड बॉय नागपुर, मंजुला त्रिपाठी भोपाल, केका बनर्जी नवी मुंबई, शिरीष नांदेड़कर नवी मुंबई, गुरविंदर भसीन जबलपुर, रेखा सिंघल करनाल, ब्रिगेडियर जे सैनी एन दिल्ली, राजीव वर्मा एन दिल्ली, विप्लव वर्मा एन दिल्ली, अनिरुद्ध गुहा कोलकाता, मीता बनर्जी कोलकाता, सुसान रॉय केरल, बीके कामेश राव हैदराबाद, प्रसन्न प्रकाश बेंगलुरु, गौतम सदाशिव बेंगलुरु और शुभदा रानाडे पुणे से शामिल हुए। 

हरिभूमि 09-01-25



 


Saturday, June 4, 2022

मेरा कश्मीरनामा-4

 

चंद कपड़े और घरेलु एलबम लेकर रातों-रात अपना घर छोड़ना पड़ा था

 गंजू परिवार को, आज भी याद आती है सत्थू बरबरशाह की वो गलियां

 

कश्मीर में फिल्मों की शूटिंग का सुनहरा दौर देख चुके गंजू 

को अब सब सपना लगता है, लौटना चाहते हैं अपने घर

डाउन टाउन श्रीनगर में बाजार की एक गली


मुहम्मद जाकिर हुसैन 

साल के 365 दिनों में कुछ तारीखें ऐसी भी होती हैं जो निजी तौर पर लोगों के लिए खास अहमियत रखती हैं। साल 1989 की 24 जनवरी ऐसी ही तारीख है जो गंजू दंपत्ति को भुलाए नहीं भुलती। 

श्रीनगर के तीन सितारा होटल पम्पोश के मैनेजर तेज कृष्ण गंजू और बारामूला में शासकीय वित्त विभाग में कार्यरत शकुंतला (अंजू) गंजू को अपनी ढाई वर्षीय बच्ची मोना के साथ रातों रात घर छोड़ना पड़ा। जल्दबाजी में बैग में कुछ कपड़े ही रख पाए थे और साथ रह गया था पारिवारिक एल्बम। 

कश्मीर की याद आती है तो बच्चों को दिखाते हैं पुराना एलबम

गंजू परिवार 2012 में (साभार-फेसबुक)

तेज गंजू अब यहां भिलाई में एक शीतल पेय कंपनी में क्षेत्रीय प्रबंधक हैं, लेकिन उनके पास अपने घर की निशानी के रूप में एक एल्बम ही बचा है। 

जब भी गंजू दंपत्ति को अपने कश्मीर की याद आती है तो अपने बच्चों 7 वर्षीय अभिनव और 15 वर्षीय मोना को याद से एल्बम दिखाते हैं कि ऐसा था हमारा कश्मीर। पाकिस्तान राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ की भारत यात्रा को लेकर गंजू दंपत्ति का मानना है कि इससे कश्मीर समस्या हल होने वाली नहीं। गंजू कहते हैं दोनों देशों के बीच वार्ता कहां तक सफल होगी कहना मुश्किल है।

हालांकि वह कहते हैं, यह तय है कि यह बातचीत और जनरल मुशर्रफ का दौरा सिर्फ गेट टू गेदर हो कर रह जाए। जब तक केंद्र सरकार और कश्मीरियों के लिए भी कोई गुंजाईश नहीं है। अब यह आने वाला वक्त ही बताएगा कि पाकिस्तानी राष्ट्रपति मुशर्रफ के भारत दौरे से हमें क्या हासिल होता है।

 

 आज हम कश्मीर जाएं तो शायद नहीं पहचान पाएंगे अपनी ही गलियां

सत्थू बरबरशाह का एक मंदिर

श्रीमती गंजू कहती है चूंकि हमारा बचपन वहीं गुजरा और हम बड़े भी वहीं हुए इसलिए हम कश्मीर को तो भूल नहीं सकते।हालात ऐसे बना दिए गए कि हमें अपनी जमीन छोड़नी पड़ी।

आज भी मन करता है कि हम अपने घर जाएं लेकिन, सच्चाई यह है कि अगर हम किसी तरह वहां पहुंच भी गए तो उन गलियों को भी अब नहीं पहचान पाएंगे। क्योंकि, हमारा अतीत बहुत पीछे छूट चुका है। दहशतगर्दों ने तो वहां की गलियों तक को तहस-नहस कर दिया है। श्रीमती गंजू बताती है-जिस रात हम लोगों ने कश्मीर को अलविदा कहा उसके पहले से ही विषम परिस्थिति निर्मित हो रही थी। घर छोडऩे के 3 दिन पहले 21 जनवरी को सत्थु बरबरशाह में हमारे मकान के सामने से एक विशाल रैली निकाली।

रैली में शामिल लोग मुंह में कपड़ा बांधे हुए और हथियार पकड़े हुए थे। इन अलगाववादियों को मकसद दहशत फैलाना था और जिसमें वो सफल भी हुए। इसका बुरा असर दोनों समुदाय पर पड़ा। हमें विस्थापित होना पड़ा। तब जो हमारे साथ हुआ, हम नहीं चाहेंगे किसी और के साथ हो। 

वह कहती है दूसरे कश्मीरी पंडितों की तरह हमने अपना घर, जमीन, जायजाद सब कुछ वहीं छोड़ दिया और अपनी जान बचाकर किसी तरह वहां से निकले। उस मंजर को याद कर आज भी हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

गंजू एक बक्से में रखे कपड़े और जूते दिखाते हुए बताते हैं आज भी इसे हम हिफाजत से रखे हुए हैं। जिस रात हम लोगा वहां से निकले थे इसी पोशाक में थे। आज भी हमें अपने सत्थू बरबरशाह की वो गलियां याद आती हैं। 

 

 ईद में हमारे घर चूल्हा नहीं जलता था और महाशिवरात्रि पर उनके घर 

श्रीनगर के हजरतबल दरगाह व शंकराचार्य मंदिर में ईद और महाशिवरात्रि 

तेजकृष्ण गंजू कहते हैं हमारा कश्मीर तो वाकई जन्नत था लेकिन, दहशतगर्दों ने उसे दोजख बना दिया। 

वह बताते हैं कश्मीरी पंडितों और मुसलमानों में इतनी एकता थी कि ईद में हमारे घर चूल्हा नहीं जलता और महाशिवरात्रि के दिन मुसलमानों के यहां। दोनों एक ही थाली में खाते थे।

गंजू कहते हैं कश्मीर में आतंकवाद के लिए वहां के मुसलमान कतई दोषी नहीं हैं क्योंकि वहां तो आतंकवादियों के नाम पर पाकिस्तानी, अफगानिस्तानी और सूडानी लड़ रहे हैं और यह लोग धर्म के नाम पर इन लोगों को इस्तेमाल करना चाहते है। 

इसका नतीजा यह हुआ कि बच्चों के हाथों में क्लाश्निकोव (एके-47) थमाए गए। आज आम कश्मीरी आतंकवाद से तंग आ चुका है। हमें वहां रह रहे आम कश्मीरियों के बारे में भी जानना चाहिए।

हमारा आम कश्मीरी तो चाहता है कि हिंदू भाई फिर उसका पड़ोसी बन जाए। डल झील के शिकारों में कोई हलचल नहीं है, शिकारे वाला इंतेजार कर रहा है कि कोई तो सैलानी आए। यह हम सब की बदनसीबी है।

 

'सिलसिला' के वो यादगार दिन, अब सब पीछे छूट गया

सिलसिला में अमिताभ-रेखा व कश्मीर में शूटिंग के दौरान निर्देशन करते यश चोपड़ा

कश्मीर में हिंदी व अन्य फिल्मों के निर्माण से संबद्ध रहे गंजू ने श्रीनगर दूरदर्शन में भी अपनी सेवाएं दी। 

वहीं उनके लिखे अधिकांश नाटक आल इंडिया रेडियो से प्रसारित हुए हैं जिसके लिए वे सम्मानित भी हो हो चुके हैं। लेकिन अब यह सब पीछे छूट गया। 

वह बताते हैं- यश चोपड़ा की फिल्म 'सिलसिला' की शूटिंग के दौरान कश्मीर में उन्हें प्रोडक्शन विभाग में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी गई थी। तब डायरेक्टर यश चोपड़ा, कलाकारों में अमिताभ बच्चन, रेखा, जया और टीम के सभी सदस्यों से अच्छी जान पहचान हो गई थी।

'सिलसिला' की टीम के सभी लोग तब कश्मीर खूब घूमे थे। इस फिल्म में "देखा एक ख़्वाब" गीत को नीदरलैंड के केयूकेनहोफ़ ट्यूलिप गार्डन और पहलगाम के कुछ हिस्सों में में शूट किया गया था।

गंजू कहते हैं- बात सिर्फ 'सिलसिला' की ही नहीं बल्कि 75-80 के दौर में जितनी भी फिल्मों की शूटिंग हमारे कश्मीर में हुई, वहां किसी न किसी रूप में मेरी भागीदारी रहती थी। 

 फिर ज्यादातर फिल्मों की टीम हमारे होटल में ही रुकती थी। इस वजह से सबसे मिलना होता था। वह कहते हैं अब तो वहां ऐसा माहौल ही नहीं रहा कि कोई उन खूबसूरत वादियों को अपने कैमरे में उतारे और कोई फिल्म बनाए। 

 

कश्मीर से निकल कर हम लोगों ने पहली बार देखा क्या होती है गरीबी

हरिभूमि भिलाई -13 जुलाई 2001

गंजू कहते हैं-कभी तो लगता है जन्नत को छोड़ हम दोजख में आ गए। कश्मीर से बाहर निकल कर हम लोगों ने पहली बार देखा और जाना कि गरीबी क्या होती है। 

 छत्तीसगढ़ में हमें कोई मदद नहीं मिली सरकारी स्तर पर वर्तमान में हाउसिंग बोर्ड औद्योगिक क्षेत्र निवासी गंजू कहते हैं जो कश्मीरी अपना घर-बार छोड़कर आए हैं उनको सरकार से भी कुछ नहीं मिलता।

अपने कटु अनुभव बताते हुए श्रीमती गंजू कहती है जिस वक्त हम कश्मीर छोड़ नागपुर के बाद यहां आए, जिला प्रशासन से तीन महीने तक मात्र 200-200 रूपए की मदद मिली। फिर उसी दौरान केंद्र सरकार द्वारा प्राथमिकता और मेरिट के आधार पर नौकरी के लिए गई अनुशंसा की मेरी फाईल आज तक कलेक्टोरेट में घूम रही है।

12 साल से नौकरी का पता नहीं है। गंजू कहते हैं दूसरे राज्यों में कश्मीर से आए लोगों को सहायता राशि के तौर पर 3-3 हजार रूपए मिलते हैं। पूरे छत्तीसगढ़ में तीन परिवार हैं लेकिन सरकार उनकी ओर बिल्कुल भी ध्यान नहीं देती। 

गंजू कहते हैं विडंबनाएं तो बहुत हैं इसके बाद भी हमें यहीं रहना है क्योंकि हम चाह कर भी अपने कश्मीर नहीं जा सकते। हम तो किसी तरह अपने आप को समझा चुके हैं लेकिन अब हमारे बच्चे तो हमारी उस जमीन के बारे में कुछ जानते ही नहीं। हम नहीं जानते कि हम कब अपनी जमीन में वापस लौट सकेंगे। 

नोट:- पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ की भारत यात्रा के दौरान हरिभूमि भिलाई संस्करण में दुर्ग-भिलाई में रह रहे कश्मीरी परिवारों का इंटरव्यू 10 जुलाई 2001 से लगातार 15 दिन तक प्रकाशित हुआ। यह इंटरव्यू उसी श्रृंखला का हिस्सा है। शेष कड़ियां आप यहां नीचे लिंक को क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

मेरा कश्मीरनामा-1

मेरा कश्मीरनामा-2

मेरा कश्मीरनामा-3