Tuesday, April 17, 2012

आदिवासी महिलाएं कर रही हैं डाक्टरी

डा. सातव दंपति ने बदल दी आदिवासियों की दुनिया
मेलघाट से लौटकर

छत्तीसगढ़ में भले ही अजीत जोगी ग्रामीण अंचल में तीन साला पाठ्यक्रम वाले डाक्टर तैयार करने की योजना से चूक गए हो लेकिन महाराष्टï्र के मेलघाट वन क्षेत्र में एक डाक्टर दंपति की बदौलत आदिवासी महिलाएं न सिर्फ सफलता पूर्वक डाक्टरी कर रही हैं बल्कि लोगों को अंधविश्वास, कुपोषण और नशे के विरूद्ध जागरूक भी कर रही हैं।
अमरावती जिले के मेलघाट क्षेत्र के धारणी तहसील में बीते दस साल से प्रोजेक्ट ‘महान’ चला रहे डा. आशीष सातव व उनकी पत्नी डा. कविता सातव की कोशिशों का नतीजा है कि यहां के आदिवासियों के जीवन में मूलभूत बदलाव आ रहा है। सतपुड़ा की पहाडिय़ों में फैले मेलघाट वन क्षेत्र के तारूबांदा गांव की रहने वाली मीराबाई कास्देकर को ही लें। यह महिला पढ़ी-लिखी नहीं है। लेकिन अपने गांव में वह किसी ‘डाक्टर बाई’ से कम नहीं है। इसी तरह अंबाड़ी की रामकली जमरकर, बसपानी की निर्मला केंडे, बोरदाबल्ला की उर्मिला कास्देकर, बोबडो की रत्नावली, चितरी की सुमन कांतबाई व पोहारा की समोती मालाई ठाकरे सहित कई महिलाएं हैं जो शहरी जबान में ‘अंगूठा छाप’ होने के बावजूद अपने गांववालों का बखूबी इलाज कर रही है। डा. सातव दंपति ने अपने प्रोजेक्ट ‘महान’ के तहत मेलघाट के विभिन्न गांवों में 20 से ज्यादा ऐसे आरोग्य दूत तैयार किए हैं जो प्राथमिक उपचार से लेकर गांव में जचकी तक सफलतापूर्वक निपटा रहे हैं। बच्चों में कुपोषण को दूर करने में भी यह आरोग्य दूत प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं। लेकिन घने जंगल व पहाड़ों से घिरे मेलघाट जैसे पिछड़े क्षेत्र में डा. सातव दंपति ने यह करिश्मा कोई एक दिन में नहीं कर दिखाया। डा. सातव बताते हैं कि उनके दादाजी प्रसिद्ध सर्वोदयी नेता वसंतराव बोम्बटकर बचपन से ही प्रेरणा के स्त्रोत रहे हैं। इसके अलावा गांधी जी की यह उक्ति हमेशा उनके दिमाग में थी कि युवाओं को दूरदराज गांवों में जाकर देश सेवा करनी चाहिए। जब वह एमडी का कोर्स कर रहे थे तब उन्हें गड़चिरोली क्षेत्र में सक्रिय डा. अभय बंग-डा. रानी बंग व डा. प्रकाश आमटे-डा. मंदा आमटे के सेवाकार्य ने उन्हें बहुत प्रभावित किया। इसलिए उन्होंने सेवाग्राम वर्धा स्थित महात्मा गांधी इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल साइंस की लेक्चररशिप (मेडिसिन) से 1998 में इस्तीफा देकर ‘महान’ (मेडिटेशन, एड्स, हेल्थ, एडिक्शन,न्यूट्रीशियन) का गठन किया और अमरावती से 140 किमी दूर धारणी तहसील के कोलूपुर की एक झोपड़ी में छोटा सा अस्पताल शुरू किया। इसके बाद कस्तूरबा हेल्थ सोसायटी सेवाग्राम की निदेशक डा. सुशीला नायर ने भी इस प्रोजेक्ट को अपना सहयोग व समर्थन दिया। इस तरह ‘महान’ व कस्तूरबा हेल्थ सोसायटी द्वारा संयुक्त रूप से मेलघाट में गांधी जी के सपनों को साकार करने का बीड़ा उठाया गया। डा. सातव की पत्नी और पेशे से नेत्र सर्जन डा. कविता सातव बताती हैं कि जब प्रोजेक्ट शुरू करने के बाद उन्होंने इस जंगल में अपना नेत्र चिकित्सालय खोला तो शहर के परिचितों ने इसे कुछ अंदाज में लिया मानों हम पागलपन कर रहे हैं। लेकिन, आज जिस तरह आदिवासियों की नेत्र ज्योति बचाने के अभियान में मुझे सफलता मिली उससे लगता है कि हां वाकई में यह हम लोगों का ‘पागलपन’ था। डा. सातव दंपति ने बताया कि शुरूआत में उन्हें स्वाभाविक तौर पर बहुत सी दिक्कतें आई और आज भी बरकरार है। इसके बावजूद हम अपने मिशन में जुटे हुए हैं। मेलघाट क्षेत्र में स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति पर डा. सातव ने बताया कि यहां आज भी सिर्फ हमारा ही अस्पताल है। शहर से कोई भी डाक्टर आज की परिस्थिति में भी यहां घने जंगल में आना नहीं चाहता। हम दोनों हर गांव में तो जा नहीं सकते ना ही दूर-दराज के गांव वाले हमारे अस्पताल तक आ सकते हैं। इसलिए हमने आरोग्यदूत तैयार करने का बीड़ा उठाया। इन्हें हम बाकायदा प्रशिक्षित कर प्राथमिक उपचार व जीवन रक्षक दवाओं का पैकेट देते हैं। जिससे वह किसी भी आपात स्थिति में हमारे अस्पताल तक मरीज को लाने से पहले कुछ राहत दे सके। इसके अलावा सर्दी-बुखार जैसी सामान्य तकलीफों में तो हमारी आरोग्य दूत गांव में ही दवाईयां दे देती हैं। डा.सातव ने बताया कि मेलघाट के आदिवासी अंचल में वह स्कूलों में मेडिकल कैंप लगाते हैं इसके अलावा गांव-गांव में विशेष कैंप व अंधत्व निवारण कैंप लगाकर लोगों की सेवा करते हैं। भविष्य के बारे में डा. सातव दंपति का कहना है कि उन्होंने कभी शहर जाकर नर्सिंग होम खोलने का नहीं सोचा। वह चाहते हैं कि पूरी जिंदगी इन आदिवासियों के बीच सेवाकार्य करते हुए बिताएं।
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फोटो का डिटेल
डा. आशीष सातव अपनी क्लीनिक के सामने, आरोग्य दूत के साथ डा. सातव दंपति, मीरा बाई कास्देकर दवा दिखाते हुए, तारूबांदा गांव का एक दृश्य, रामकली जमरकर अपनी किट दिखाते हुए, अंधत्व निवारण शिविर में डा. कविता सातव।
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