Sunday, March 4, 2018

परछा की परछाईंयां...

फकीरों और संतों ने भी बख्शी है भिलाई को रौनक

इस्पात नगरी भिलाई को बनाने और बसाने में सरकारी पहल अपनी जगह है लेकिन उस दौर में बहुत से पीर-फकीर और संत भी थे, जिनकी वजह से भी हमारा भिलाई आबाद हुआ और मिनी इंडिया बन पाया। गौर कीजिए वह दौर कैसा होगा जब पहली बार बड़ी-बड़ी मशीनें देख दुर्ग व आसपास के ज्यादातर ग्रामीण कारखाना को ''कालखाना'' मानते हुए नौकरी करने से पीछे हट रहे थे। ऐसे में तब अफसर ग्रेड की नौकरी के लिए तो अखबारों के विज्ञापन सहारा थे लेकिन सोचिए देश के अलग-अलग हिस्सों में दूर-दराज के गांव में रहने वालों को भिलाई में लोहे का कारखाना खुलने और रोजगार मिलने की खबर कैसे लगी होगी..? इस सिलसिले में अभी तक मुझे देश के दो प्रमुख हिस्सों की जानकारी मिल पाई है। 
अपनी तरह की पहली मिसाल मौदहा (उप्र) की है। भिलाई के शुरूआती दौर 1955-56 के दौरान मौदहा में बुजुर्ग हस्ती हजरत बाबा निजामी थे। जिनके मानने वालों में हिंदू-मुस्लिम दोनों थे। उस दौर में बाबा ने इन सारे लोगों को हुक्म दिया कि-''चले जाओ दक्खिन (दक्षिण) की तरफ।'' इसके बाद देखते ही देखते लोग मौदहा से 4 बार ट्रेन बदलने की तकलीफ  उठाते हुए एक नए ''परदेस'' भिलाई आते गए। आज मौदहा और इसके आस-पास के 12 गांव को छोड़ कर भिलाई आने वाले लोग छत्तीसगढ़ की आबोहवा में पूरी तरह घुलमिल गए हैं। भिलाई में आज भी हर साल बाबा निजामी की उर्स पूरी शान के साथ जगह-जगह मनाया जाता है। 
हाल ही में मुझे बाबा निजामी की दरगाह में हाजिरी देने की खुशकिस्मती हासिल हुई। मौके से दरगाह के खादिम सज्जादा नशीन हाफिज लाल मुहम्मद निजामी मिल गए। हाफिज साहब से जिक्र निकला भिलाई का तो बताने लगे-''तब बाबा ने दक्खिन (दक्षिण) की तरफ जाने का हुक्म दिया था। क्योंकि यहां से छत्तीसगढ़ (भिलाई) तो दक्षिण में है। तो जिन्होंने बाबा का हुक्म माना, वो चले गए और उन्हें बाबा की दुआओं से कामयाबी मिली। यह सिलसिला लंबे अरसे तक चला। 14 सितंबर 1964 को बाबा निजामी परदा कर गए।''
कुछ ऐसा ही परछा गांव में भिलाई के ही एक बुजुर्ग शायर रमजान खान ''साहिल'' साहब बता रहे थे। उन्होंने बताया-वहां रायपुर का मौदहा पारा तो पहले से था ही। इसलिए बहुत से लोगों का आना-जाना था। सीधी ट्रेन नहीं थी तो 4 बार ट्रेन बदलनी पड़ती थी। फिर भी लोगों ने तकलीफ उठा कर बाबा के हुक्म से भिलाई जाना मंजूर किया और फिर वहीं के होकर रह गए। जो लोग भिलाई में नौकरी पाते गए फिर वो अपने लोगों को चिट्ठी भेज कर बुलाते थे। इस तरह मौदहा और आसपास के 12 गांव के लोगों ने भिलाई का रुख किया। 
ऐसी ही दूसरी मिसाल केरल की भी है। केरल उस दौर में भी जागरुक और पढ़े-लिखे लोगों का राज्य था इसलिए शुरूआती दौर में अफसर ग्रेड के बहुत से मलयाली वहां से आकर नौकरी करने लगे लेकिन मजदूर श्रेणी के कर्मियों को केरल से भिलाई भेजने का श्रेय आध्यात्मिक संत मन्नथ पद्मनाभन को जाता है। इस बारे में शुरूआती दौर के डीजीएम एडमिनिस्ट्रेशन (1957-59) एमकेके नायर अपनी आत्मकथा में लिखते हैं-तब मन्नथ पद्मनाभन हर धर्म, जाति व संप्रदाय के मलयाली लोगों को हजारों की तादाद में मेरे पास अपनी एक सिफारिशी चिट्ठी के साथ भेजते थे। तब इतने लोगों को नौकरी देना हमारे लिए आसान था, इसलिए सभी को नौकरी मिली और भिलाई में एक लाख के करीब मलयाली हो गए। भिलाई में आज भी संत मन्नथ पद्मनाभन की जयंती बड़ी धूमधाम से मनाई जाती है। 
'इज्जत घर' से 'गमन' तक के नजारे 
उत्तर प्रदेश में हमीरपुर जिले के मौदहा तहसील का परछा गांव। चारों तरफ खेत और खेतों में लहराती पीली-पीली सरसों की फसलें। पक्के मकान और हर मकान के सामने 'इज्जत घर'। गांव के कच्चे-पक्के मकान और रहन-सहन का नजारा ऐसा मानों मुजफ्फर अली 2018 में 'गमन' का सीक्वल बनाने यहां पहुंच चुके हों और खेत ऐसे कि यश चोपड़ा बस अभी 'डीजीएलजे' का गाना शूट करने ही वाले हों। 
कुछ तो बसंती मौसम का असर था और बाकी शादी के माहौल ने मिलकर ऐसा ताना-बाना रचा, जो बिल्कुल यादगार बन गया। दरअसल भिलाई में मेरे बेहद अजीज छोटे भाई ताहिर इकबाल के निकाह में शामिल होने मुझे 2 फरवरी 2018 को परछा जाने का मौका मिला। शादी की रौनक तो थी ही लेकिन इसके अलावा भी यहां बहुत कुछ था, जिन पर नजरें जा कर टिक गईं। 
मसलन खुबसूरत सी दो मस्जिदों के बाद नजर यहां बनें पक्के कुओं पर जाकर ठहरती है। ये कुएं शायद पूरे मौदहा क्षेत्र की खास पहचान हैं और ऐसे पक्के कुएं अपने भिलाई में कैम्प-खुर्सीपार क्षेत्र में मौदहा से आए लोगों ने भी बनाए थे।
भिलाई से गए हम लोगों को 'इज्जत घर' ने भी थोड़ा चौंकाया। पास जाकर देखनेे पर पता चला कि स्वच्छ भारत मिशन में यहां बनाए जा रहे टॉयलेट को ऐसा इज्जत से भरा नाम बख्शा गया है। परछा और मौदहा सहित आस-पास के 12 गांव में बहुत से बुजुर्गों की मजारें भी हैं।
परछा के प्रधान (सरपंच) मेरे हमनाम थे और हम भिलाईवालों के लिए ठहरने का इंतजाम प्रधानजी के घर में ही था। पूरे 3 दिन हसीब भाई, अतहर भाई, गुलरेज भाई,शीबू भाई, फैय्याज,बाबू और सलमान सहित तमाम लोगों ने खेत में लगे पंप में जी भर के नहाने से लेकर सुबहो-शाम शादी की तमाम रस्मों में हिस्सेदारी करने तक अपने-अपने मोबाइल फोन पर कई यादगारें इकट्ठा  कीं। 
'हमदम' आर्केस्ट्रा और जुगाड़ टेक्नालॉजी का नजारा
अब कुछ बातें ताहिर की बारात की। परछा में निकली इस बारात की कई बातें निराली थीं। मसलन सुबह बारात निकलने से पहले एक साथ सजे-धजे 6-7 घोड़े देखकर पहली नजर में तो लगा कि ये सब दूल्हे के साथ कुछ खास मेहमानों के लिए तो नहीं है..? लेकिन, मेरे पास बैठे हसीब भाई ने बताया कि इनमें कोई नहीं बैठेगा, ये सिर्फ नचाने के लिए हैं। इसके बाद तो पूरी बारात मेें घोड़े नाचे और जम कर नाचे। लेकिन इन सबसे हट कर इस बारात का खास नजारा तो अनुराग कश्यप के 'इश्टाइल' वाले 'हमदम आर्केस्ट्रा' का था। याद कीजिए अनुराग की 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' में यशपाल शर्मा का 'हमदम' आर्केस्ट्रा या फिर पिछले महीने रिलीज हुई 'मुक्काबाज' में उसी अंदाज में नवाजुद्दीन सिद्दीकी का नजर आना। 
कुछ ऐसा ही नजारा परछा में दिखा। कानपुर से आए आर्केस्ट्रा के सिंगर ने नात शरीफ से सिलसिला शुरू कर 'देदे प्यार दे', 'हाल क्या है दिलों का' और 'जोहरा जबीं' तक तमाम फड़कते हुए गाने गा कर लोगों को नाचने और झूमने पर मजबूर कर दिया। आर्केस्ट्रा के नजारे देखकर आप आसानी से समझ सकते हैं कि फिल्मों के कुछ डायरेक्टर समाज पर कितनी पैनी नजर रखते हैं। 
बारात और निकाह तो अपनी जगह है लेकिन परछा के कुछ और नजारे भी बेहद दिलचस्प रहे। मसलन हम भिलाई के लोगों के लिए बिजली गुल होना खबर होती है तो वहां आज भी बिजली आना खबर है। इस वजह से यहां जुगाड़ टेक्नालॉजी भी बखूबी काम करती है। पूरे गांव में बिजली से चलने वाली आटा चक्की के बारे में आप सोच भी नहीं सकते। इसलिए जुगाड़ टेक्नालॉजी से एक साहब ने ट्रैक्टर के इंजिन के साथ ही आटा चक्की अटैच कर दी है और इनका आने दिन गांव में तय रहता है। जैसे ही ट्रैक्टर वाली अटैच आटा चक्की गांव पहुंचती है, गांव वाले अनाज पिसवाने आ जाते हैं। सच पूछिए तो इस जुगाड़ वाली आटा चक्की को देखकर मुझे अपने भिलाई के रिटायर अफ सर टीएस क्षत्रिय जी की याद हो आई। क्षत्रिय साहब के हाथों में वो हुनर है कि वो स्कूटर के इंजिन से छोटी बोट बना कर शिवनाथ नदी मेें फर्राटे से दौड़ा सकते हैं। 
खैर, वापस परछा लौटें तो एक खास रस्म मुझे बड़ी अनूठी लगी। बारात में नाचते हुए घोड़े सबसे आगे थे और जैसे ही लड़की वालों के घर बारात पहुंची तो एक मोहतरमा सिर पर ज्योति कलश लिए खड़ी थीं। उनके साथ दो और महिलाएं थी। जिनमें एक के हाथ में हल्दी की थाली और दूसरे के हाथ में गुड़ की भेली थी। एक एक कर घोड़े वहां पहुंचते रहे और महिलाएं घोड़े को हल्दी लगाकर घोड़े वाले को गुड़ देते जा रही थी। ये रंग हमारी गंगा-जमनी तहजीब का रंग था। 
ठेठ गंवई दावत और ''दंबूकबाजों'' की ठांय-ठांय
मौदहा में बारात निकले और दोनाली न गरजे, ऐसा तो हो नहीं सकता। लिहाजा परछा में ताहिर इकबाल की बारात में कमोबेश वैसा ही हुआ। इधर बारात के लिए दूल्हा घर से निकला नहीं कि पूरा शादीघर फायरिंग रेंज में तब्दील हो गया। हम लोग भिलाई में ऐसा नजारा बहुत कम देख पाते हैं। इसलिए आग उगल रही दोनाली पर भिलाई से पहुंचे हम लोग भी हाथ आजमाने से नहीं चूके। याद कीजिए,करीब 46 साल पहले ''दुश्मन'' फिल्म में मुमताज ऐसी ही एक बंदूक को देख ''दंबूक से डर लागे'' गा रही थी। 
वैसे शादी के माहौल में ठांय-ठांय के अलावा भी बहुत कुछ था। मौदहा में मौका दावत का हो तो यहां दालचा-नान ही मिलेगा। हम छत्तीसगढिय़ा लोग भले ही ऐसे मौकों पर भी चांवल खोजते रहें लेकिन नान और दालचे का जायका वहां नेअमत से कम नहीं। जिसके आगे चांवल की चमक भी फीकी पड़ जाती है। 
खैर, हम लोगों के लिए चांवल भी पकवाए गए थे लेकिन वाकई दालचा-नान का जायका लाजवाब था। हम यहां दालचा के मायने सिर्फ  मसाले से भरपूर दाल को जानते थे लेकिन वहां जा कर पता लगा कि दो बड़े-बड़े खुले कड़ाहे में दाल और गोश्त का सालन अलग-अलग खास तरीके से पकाने के बाद इन दोनों को मिलाने से दालचा बनता है। खैर, इतना ज्यादा दालचा बनाने की वजहों का खुलासा कुछ देर बाद हो गया। 
जिस वक्त गांव के एक चचा (मैं उनका नाम नहीं पूछ पाया) दालचा पका रहे थे तो मेरे पास ही मेरे हमनाम परछा के प्रधान भी बैठे थे। प्रधान साहब मेरे पूछे पर कहने लगे-आप लोग शहर में अपने हिसाब से चुन-चुन के दावत दे सकते हैं लेकिन गांव में तो सभी अपने हैं। इसलिए हमारे यहां ये चचा ही पूरे गांव को दावत देते हैं। जिसमें ये गांव की हर गली में जाकर बा आवाजे बुलंद ऐलान कर देते हैं और उसके बाद दोपहर से शाम तक पूरा गांव आकर खा कर जाता है। 
शाम को एक बार फिर चचा गांव मेें ऐलान करते हैं, जिससे अगर कोई छूट गया हो तो वो आकर खा ले। वाकई चचा का दावत देने का अंदाज भी निराला था। इसके अलावा दावत में आने वाली हर बहू-बेटी को भी दालचा और नान घर के लिए बांध कर दिया जाता है। खैर, दावतों का दौर और 3 दिन के सफर के बाद किस्सा मुख्तसर ये कि परछा के ये यादगार लम्हे भुलाए न जा सकेंगे, फिलहाल इतना ही। चलते-चलते ताहिर इकबाल को नई जिंदगी की शुरूआत पर ढेर सारी मुबारकबाद....
(इति सिद्धम)

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