Monday, November 19, 2018



दुर्ग विधानसभा के पहले चुनाव में  प्रचार

के आखिरी दिन बदल गई थी फिजा


छत्तीसगढ़ी के भाषण ने बदल दिया था जनमत


मुहम्मद ज़ाकिर हुसैन 
स्वतंत्र भारत का पहला चुनाव कई अनूठे तथ्यों को अपने आप में समेटे हुए है। यह आजाद फिजा में देश के तमाम नागरिकों के लिए मतदान का पहला अवसर था और इसमें विधानसभा और लोकसभा चुनाव साथ-साथ हुए थे। तब दुर्ग छत्तीसगढ़ क्षेत्र में एक बड़ी विधानसभा थी। जिसमें आज के भिलाई का भी कुछ हिस्सा भी शामिल था। इस चुनाव में की सबसे खास बात यह रही कि आखिरी वक्त में यहां बाजी पलट गई थी।
तत्कालीन सेंट्रल प्राविंस एंड बरार प्रांत की विधानसभा के अध्यक्ष घनश्याम सिंह गुप्त कांग्रेस की टिकट से चुनाव लड़ रहे थे। वे दुर्ग के सूबेदार के वंशज थे एवं सन 1937 से नागपुर के धारा सभा के लिए दुर्ग असेंबली का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। उनका प्रभाव कांग्रेस के बड़े नेता के रूप में स्थापित था। इस वजह से दुर्ग सीट हाईप्रोफाइल बन चुकी थी। एक प्रभावशाली नेता के तौर पर घनश्याम सिंह गुप्त की देशभर में पहचान थी और दुर्ग में भी उनकी लोकप्रियता कहीं कम नहीं थी। लेकिन उनके सामने विपक्ष के तौर पर तगड़ी चुनौती देने वाला बड़ा नेता नजर नहीं रहा था। विपक्षी पार्टियों की तैयारी शहर के किसी अतिलोकप्रिय व्यक्ति को उतारने की थी। ऐसे में दुर्ग के प्रतिष्ठित चिकित्सक डॉ. जमुना प्रसाद दीक्षित का नाम सामने आया।
जनरल अवारी 
डॉ. दीक्षित उस दौर में दुर्ग के लोगों के बीच सर्वाधिक लोकप्रिय व्यक्तित्व थे। ऐसे में विपक्षी दलों ने मिलकर निर्दलीय मैदान में उतार दिया। डॉ. दीक्षित को तराजू छाप मिला और उन्होंने प्रचार में कोई कसर नहीं छोड़ी। यहां तक कि डॉ. दीक्षित का प्रचार करने महात्मा गांधी द्वारा जनरल की उपाधि प्राप्त नागपुर के प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी 'जनरल' मंचरशा रूस्तमजी अवारी और तब की लोकप्रिय साहित्यिक-सामयिक पत्रिका नया खून के संपादक स्वामी कृष्णानंद सोख्ता ने भी दुर्ग में डेरा डाल दिया था। दोनों अपनी भाषण देने की शैली के चलते तब देश भर में  बेहद लोकप्रिय थे।
उन दिनों पत्रकारिता कर रहे आज के वयोवृद्ध साहित्यकार दानेश्वर शर्मा तब का पूरा हाल बयान करते हुए बताते हैं-जनरल अवारी और कृष्णानंद सोख्ता के आते ही चुनावी फि जा बदल गई। देखते ही देखते डॉ. दीक्षित के पक्ष में माहौल बनने लगा। जनता डॉ. दीक्षित के मंच पर जनरल अवारी और सोख्ता को सुनने उमडऩे लगी। ऐसे में कांग्रेसी खेमे में हलचल मचना ही थी। आखिरी दिनों तक लगने लगा था कि अब घनश्याम सिंह गुप्ता की हार तय है। लेकिन आखिरी पल में घनश्याम सिंह गुप्त आक्रामक हुए और उनके एक ही भाषण ने माहौल बदल दिया।
दानेश्वर शर्मा जी के साथ 
प्रचार के आखिरी दिन गुप्त ने कांग्रेस भवन के समक्ष आमजनता को संबोधित करते हुए डॉ. दीक्षित को चुनौती दी और ठेठ छत्तीसगढ़ी में अपना भाषण दिया। दानेश्वर शर्मा को गुप्त का छत्तीसगढ़ी में दिया वह भाषण आज भी नहीं भूलता। वह बताते हैं, तब गुप्त ने मंच से कहा था-''डॉक्टर दीक्षित ये बतावव, तैं तो मोर खिलाफ चुनाव लड़थस अऊ आज तक तैंहा एक टप्पा एक अक्षर कोनो जघा लिखे नई अऊ बोले तको नई हस। मैं तो बढिय़ा मंच बोलथौं, अपन पक्ष मं वातावरण बनाथौं, कांग्रेस के पक्ष मं बात करथौं, तैं तो एक शब्द नई बोलस, तोला तो बोलेच बर नई आवय।  ता मान ले कहूं जीत गे, विधानसभा जाके कइसे करबे। ऊंहा कृष्णानंद सोख्ता अउ जनरल अवारी ला लेगबे का बोलेबर। तोर बर मन बोलहीं का? डॉक्टर विधानसभा में अपन मुंह बोलेबर परथे अऊ अपन दिमाग ले सोचे बर परथे। ये बोतल के पानी ला बोतल में कर के दवई बता के दे जइसे नई चलय। डॉक्टर विधानसभा अपन दिमाग से बोले परथे। ऊहां कइसे करबे विधानसभा ?''
हरिभूमि 17 नवंबर 2018 
इस भाषण के बाद फि जा बदल गई और शहर के लोगो ने भी सोचा कि डॉ. दीक्षित क्लीनिक में ही ठीक हैं और विधानसभा में जनता की समस्या उठाने वाले मुखर नेता को भेजना ही ठीक होगा। इसके बाद मतदान हुआ और परिणाम घनश्याम सिंह गुप्त के पक्ष में रहा। इस चुनाव में दुर्ग विधानसभा से कुल मतदाता 45041 थे, जिसमें 22222 ने मताधिकार का प्रयोग किया और 49 प्रतिशत मतदान हुआ था। यहां कांग्रेस के घनश्याम सिंह गुप्त को 7 हजार 488 मत और जेपी दीक्षित निर्दलीय को 6453 मत मिले थे। इस तरह डॉ. दीक्षित 995 मतों से हार गए। वहीं इस चुनाव में किसान मजदूर प्रजा पार्टी के मोतीलाल को 3624 मत और सोशलिस्ट पार्टी के हरिहर प्रसाद को 2640 मत मिले थे।

दुर्ग जिले में पहली चुनाव याचिका

संजीव तिवारी 
  विधानसभा सीट पर साल 1952 का चुनाव कई मायनों में उल्लेखनीय  रहा। इस सीट पर हुए चुनाव के बाद पराजित प्रत्याशी की ओर चुनाव याचिका दाखिल की गई थी। यह अब तक की ज्ञात जानकारी के अनुसार दुर्ग जिले की पहली चूुनाव याचिका है। इस संबंध में अधिवक्ता और चर्चित ब्लॉगर संजीव तिवारी दस्तावेजों के आधार पर बताते हैं- चुनाव में त्रिलोचन सिंह की जीत हुई थी और निकटतम प्रतिद्वंदी मोहनलाल बाकलीवाल सहित अन्य सभी हार गए थे। इस चुनाव के बाद मोहनलाल बाकलीवाल आत्मज प्रेमसुख बाकलीवाल ने त्रिलोक सिंह साहू . राम भरोसा साहू ग्राम कुथरेल, लाल बसंत सिंह . ठाकुर निहाल सिंह ग्राम गुंडरदेही, चंदूलाल . लतेल ग्राम कुथरेल, उमेद सिंह . अमोली ग्राम भरदा, भोंदुल . टुकेल ग्राम खपरीहरिहर प्रसाद . सीताराम ग्राम रनचिरई, रमऊ . कोंदा ग्राम खपरी के विरुद्ध चुनाव में अनियमितता का आरोप लगाते हुए चुनाव याचिका दायर की थी। 
बाकलीवाल ने आरोप लगाया था कि त्रिलोचन सिंह ने मतदाताओं को मतदान बूथ तक लाने ले जाने के लिए गांव-गांव में वाहन की व्यवस्था की थी। बाकलीवाल का आरोप था कि प्रतिवादी त्रिलोक सिंह साहू ने मुनीर खान का ट्रक किराए से लिया और उससे गुंडरदेही, डंगनिया, अंडा और कुथरेल के पोलिंग बूथ पर मतदाताओं को लाने ले जाने हेतु प्रयोग में लाया गया। ट्रक को देवी सिंह नाम का ड्राइवर चला रहा था। इस तरह से उसने मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए चुनाव आचार संहिता के नियमों का उल्लंघन किया था। इसके साथ ही बाकलीवाल का आरोप था कि त्रिलोक ने तीन पम्पलेट बनवाया और बंटवाया था। जिसमें से दो पाम्पलेट में बाकलीवाल के मारवाड़ी होने, शोषक वर्ग से होने, कालाबाजारी में लिप्त होने और परदेसिया होने के कारण वोट नहीं देने की दुर्भावनापूर्ण अपील की गई थी। त्रिलोक सिंग साहू के चुनाव आचार संहिता के अवैध एवं भ्रष्ट तरीके के प्रयोग के कारण चुनाव प्रभावित हुआ और इसके कारण वादी को हार का सामना करना पड़ा।
27 नवम्बर 1952 भारतीय निर्वाचन
 आयोग का नोटिफिकेशन 
उन्होंने अपनी याचिका में त्रिलोक सिंह के निर्वाचन को अवैध घोषित करने एवं स्वयं को निर्वाचित घोषित करने की मांग की थी। त्रिलोक ने अपने बचाव में कहा कि बाकलीवाल का वाद विधि के अनुरूप नहीं है इसलिए यह चलने योग्य नहीं है। मुनीर खान के ट्रक को समान और मजदूरों के लिए किराए में त्रिलोक ने लिया था, उसमें वोटरों को नहीं ढोया गया है। पाम्पलेट ना तो त्रिलोक ने नहीं उसके किसी एजेंट ने बंटवाया है। इस प्रकार से बाकलीवाल के निजी व्यक्तित्व पर किसी भी प्रकार का लांछन त्रिलोक ने नहीं लगाया है।
इस याचिका की सुनवाई लंबे समय तक चली। बाकलीवाल यह सिद्ध नहीं कर पाए कि चुनाव में आचार संहिता का उल्लंघन किया था। फलत: याचिका खारिज हो गई। संभवत: दुर्ग जिले के लिए यह पहली चुनाव याचिका थी। जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 के तहत यह वाद प्रस्तुत की गई थी। इलेक्शन ट्रिब्यूनल ने इलेक्शन कमीशन की नियुक्ति कर इस याचिका को ट्रायल के लिए धारा 103 के प्रावधानों के तहत निस्तारित किया था।  जिसका इलेक्शन पिटीशन क्रमांक 296/1952 था। 15 नवंबर 1952 को हुए फैसले के अनुसार उस समय तक इलेक्शन ट्रिब्यूनल राजनंदगांव में प्रस्तुत चुनाव याचिकाओं में मेरिट पर डिसाइड यह पहली याचिका थी। जिसे रिपोर्टेबल रूप में भारत सरकार के गजट में प्रकाशित किया गया था। कमीशन में बतौर न्यायाधीश एस पांडा, जी डब्ल्यू चिपलुणकर और डीआर मंडलेकर थे।
विधान सभा 1952 के पंचवर्षीय में ही मोहनलाल बाकलीवाल की किस्मत चमकी। हुआ यह कि दुर्ग विधानसभा के विधायक घनश्याम सिंह गुप्त जब निर्वाचित होकर मध्य प्रदेश विधानसभा पहुंचे तब वे चाहते थे कि वे पुन: स्पीकर बनें किन्तु उन्हें स्पीकर नहीं बनाया गया। इससे नाराज होकर उन्होंनें इस्तीफा दे दिया। तब दुर्ग में मध्यावधि चुनाव हुआ। जिसमें मोहनलाल बाकलीवाल कांग्रेस की टिकट से जीते और विधायक बने। फिर 1957 के आमचुनाव में उन्हें कांग्रेस ने दुर्ग से अपना लोकसभा उम्मीदवार बनाया। जिसमें वे दुर्ग के सांसद निर्वाचित हुए। इसके बाद 1962 में भी बाकलीवाल कांग्रेस की टिकट से सांसद निर्वाचित हुए थे।
(समाप्त)
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