Monday, October 29, 2018


रेलपांत पर एकाधिकार टूट चुका, क्या
भिलाई का भविष्य सुरक्षित रह पाएगा


मुहम्मद जाकिर हुसैन

भिलाई  की रेल मिल में

27 अक्टूबर 1960 को भिलाई स्टील प्लांट की रेल एंड स्ट्रक्चरल मिल तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू के हाथों शुरू हुई थी। तब से बीते महीने तक देश भर में जहां भी रेल की पटरियां बिछी हैं, सारी की सारी भिलाई की बनी हुई है। बीते महीने मैं खास कर इसलिए कह रहा हूं कि इस साल भारतीय रेलवे को रेलपांत आपूर्ति का सेल-भिलाई स्टील प्लांट का 58 साल से चला रहा एकाधिकार टूट चुका है।  
दो महीना पहले 15 अगस्त 2018 को छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में जिंदल स्टील एंड पावर लिमिटेड (जेएसपीएल) ने अपने यहां बनीं रेलपांत की पहली खेप पूरे तामझाम के साथ भारतीय रेलवे के लिए रवाना कर दी है।जेएसपीएल या जिंदल परिवार का 18 साल का ख्वाब अब जाकर पूरा हुआ है।
दूसरी तरफ भिलाई स्टील प्लांट की रेल मिल भारतीय रेलवे के आर्डर को पूरा नहीं कर पा रही है। क्या भिलाई जैसे पब्लिक सेक्टर को खत्म करने ये कोई साजिश का हिस्सा है? हो सकता है कुछ को बात में दम लगे और कुछ इससे इत्तेफाक ना रखे।
लेकिन हकीकत ये है कि स्थापना के 60 वें बरस में प्रवेश करने जा रही भिलाई स्टील प्लांट की रेल एंड स्ट्रक्चरल मिल अब अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही है।
आज प्रतिस्पर्धा का दौर बताते हुए प्राइवेट सेक्टर के हिमायती बहुत से हैं. लेकिन क्या ये महज संयोग है कि पं. जवाहर लाल नेहरू जिन लोगों की आंख की किरकिरी हैंं,  वही लोग पं. नेहरू के हाथों बनाए गए संस्थानों को बड़ी तेजी से तहस-नहस करने पर तुले हैं। पूरे मामले को समझने के लिए थोड़ा पीछे जाना जरूरी होगा। 

 टाटा के इनकार के बाद भिलाई में बनीं थी रेल मिल 

27 अक्टूबर 1960 भिलाई में एन वी गोल्डिन,
 
स्वर्ण सिंहनिर्मल चंद्र श्रीवास्तव और नेहरू
भिलाई स्टील प्लांट की रेल एंड स्ट्रक्चरल मिल बनने की दास्तान भी अनूठी है। दरअसल आजादी के बाद भी भारतीय रेलवे को रेल पटरियों की आपूर्ति टाटा स्टील करता था।भिलाई के शुरूआती दौर में डायरेक्टर परचेस एंड सेल रहे हितेन भाया बताते हैं-उन दिनों टाटा भी रेलपांत बनाना था और भिलाई की रेल मिल भी शुरू हो गई थी। भारतीय रेलवे बेहद सस्ते दाम में रेलपांत खरीदता था। ऐसे में टाटा स्टील ने अचानक फैसला ले लिया कि वह रेलपांत नहीं बनाएगा। 
उन दिनों सरकारी व्यवस्था ऐसी थी कि स्टील तो हम बनाते थे लेकिन उसका रेट आयरन एंड स्टील कंट्रोलर तय करता था। हम लोगों ने एचएसएल की तरफ से कंट्रोलर से कहा कि आप रेलवे से कह कर दाम बढ़ाइए नहीं तो हमारे लिए भी यह घाटे का सौदा होगा।
 तब कंट्रोलर ने कहा कि नहीं ऐसा नहीं होगा आप तो पब्लिक सेक्टर हैं और आपको रेलपांत देना ही होगा। ऐसे में टाटा के रेल उत्पादन बंद कर देने के बाद भिलाई एकमात्र सप्लायर हो गया। लेकिन, रेट वाली बात हम लोगों को खटक रही थी। इसके लिए हम लोगों ने कोशिश की और हमारा रेलवे के साथ एक्सक्लूसिव एग्रीमेंट हुआ, जिसमे साफ कहा गया की अब से रेलवे की ज़रूरटी की पूरी की पूरी रेलपांत भिलाई ही देगा 
भाया कहते हैं-बाद में मैं एचएसएल में डायरेक्टर कमर्शियल बना। सभी स्टील प्लांट की वाणिज्यिक रणनीति बनाने की जवाबदारी मुझे दी गई थी। तब मैनें अपने साथियों से विचार विमर्श कर सरकार को प्रस्ताव दिया कि दुनिया में जहां भी भारतीय रेलवे को ट्रैक बिछाने का ठेका मिलता है, हम वहां अपनी भिलाई की रेलपांत की सप्लाई करेंगे। सरकार ने इसे मंजूर कर लिया। इस तरह भिलाई की रेलपांत के निर्यात का रास्ता खुला। शुरूआत में ही 9 देशों में भिलाई की रेलपांत भेजी गई। 
एक और घटना का उल्लेख करते हुए भाया कहते हैं- भिलाई की रेल एंड स्ट्रक्चरल मिल का काम तेजी से चल रहा था कि अगस्त 1960 में अचानक एक दिन तब के स्टील मिनिस्टर सरदार स्वर्ण सिंह अचानक भिलाई पहुंचे।
उन्होंने तब के जनरल मैनेजर निर्मलचंद्र श्रीवास्तव, सोवियत चीफ इंजीनियर एनवी गोल्डिन अन्य प्रमुख लोगों के साथ बैठक कर बताया कि अक्टूबर में प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में हिस्सा लेने रायपुर रहे हैं।
उन्होंने पूछा कि क्या उनसे भिलाई में किसी इकाई का उद्घाटन करवा सकते हैं..? चर्चा के बाद अंतत: तय हुआ कि रेल मिल को समय से पहले तैयार किया जा सकता है। इसके बाद सोवियत और भारतीय कर्मियों ने दिन-रात एक कर रेल मिल तैयार कर दी।
नेहरू तब भी बहुत से लोगों की आंख की किरकिरी थे। कुछ लोग नहीं चाहते थे कि भिलाई की रेल मिल अच्छे से चले और पं. नेहरू इसका उद्घाटन करे। इसलिए उद्घाटन से ठीक एक रात पहले कुछ लोगों ने साजिश कर मिल की बेयरिंग में रेत मिट्टी भर दी।
मौके पर इस साजिश का पता चल गया और रातों-रात सार बाधाएं दूर कर ली गई। इस तरह अगले दिन 27 अक्टूबर को पं. नेहरू भिलाई पहुंचे और उन्होंने नई रेल एंड स्ट्रक्चरल मिल का उद्घाटन किया। तब के सोवियत इंजीनियर एनवी गोल्डिन ने यही सारी बातें अपने जीवनकाल में एक रूसी पत्रिका को इंटरव्यू में भी कही है।

देश-विदेश में भिलाई की रेल पांत

कलकत्ता  मेट्रो की आधारशिला 
भिलाई की रेल मिल से भारतीय रेलवे को भरपूर रेलपांत की आपूर्ति होने लगी। तब तत्कालीन केंद्र सरकार ने प्रोत्साहित किया कि भिलाई मैनेजमेंट देश के बाहर भी बाजार तलाशे। इन्हीं कोशिशों के तहत पहली बार ईरान में संभावनाएं तलाशी गई। 7 मई 1968 को पहली बार ईरान का एक प्रतिनिधिमंडल भिलाई पहुंचा और उसने यहां की रेल मिल को जांचने परखने के बाद आर्डर दे दिया। इसके बाद ईरान को रेलपांत भेजने का सिलसिला शुरू हुआ। वहीं 1971 में भिलाई को दक्षिण कोरिया  का बड़ा आर्डर मिला, जिसे समय पर पूरा किया गया। इस बीच कोलकाता में देश की पहली मेट्रो रेल परियोजना के बीज पड़े और 29 दिसंबर 1972 तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे की मौजूदगी में कोलकाता मेट्रो की आधारशिला रखी।
तब ही यह तय हो गया था कि कोलकाता मेट्रो के लिए रेलपांत की आपूर्ति भिलाई ही करेगा। इधर विदेशों से भी भिलाई की रेल की भरपूर मांग बरकरार रही। जिसके चलते 1976 में ईरान और 1977 में इजिप्ट (मिस्त्र) को रेलपांत की बड़ी खेप भिलाई से भेजी गई।
वहीं कोलकाता मेट्रो परियोजना जैसे-जैसे मूर्त रूप लेने लगी तो 1980 से भिलाई से विशेष रेलपांत की खेप भेजी जाने लगी। यहां तक कि जब 24 अक्टूबर 1984 को भारत की यह पहली मेट्रो रेल सेवा शुरू हुई तो भिलाई स्टील प्लांट से खास कर जनसंपर्क विभाग के फोटोग्राफर प्रमोद यादव को कोलकाता भेजा गया था।
यादव आज भी गौरव का वह पल नहीं भूलते जब उन्होंने भिलाई की रेल पटरियों पर दौड़ती देश की पहली मेट्रो की फोटोग्राफी की थी और इसे ना सिर्फ सेल बल्कि देश के दूसरे तमाम  संस्थानों ने प्रकाशित किया था।
भिलाई की रेल अब तक ईरान, सूडान, दक्षिण कोरिया, इजिप्ट, अर्जेटाइना, तुर्की, बांग्लादेश,घाना, न्यूजीलैंड, मलेशिया और श्रीलंका की रेल परियोजनाओं में सफलतापूर्वक इस्तेमाल की जा चुकी है। भिलाई की रेल ने ना सिर्फ बहुमूल्य विदेशी मुद्रा कमा कर दी है, बल्कि संकट के दौर में भिलाई को उबारने से भी पीछे नहीं रही है।
बीते दशक की शुरूआत में जब स्टील का बाजार ढलान पर था और सेल ने अपनी टाउनशिप के मकान बेचने शुरू कर दिए थे। ऐसे दौर में भी भिलाई की रेल एक बड़ी संकट मोचक साबित हुई थी।
हितेन भाया, विक्रांत गुजराल और बी के सिंह 
उस दौर में भिलाई के मैनेजिंग डायरेक्टर रहे बीके सिंह बताते हैं-''सेल को उबारने रेल मंत्रालय में एक आपात बैठक बुलाई गई जिसमें तत्कालीन रेलमंत्री नीतिश कुमार ने वित्त वर्ष 02-03 में भिलाई से 6.5 लाख टन सालाना रेलपांत की मांग कर दी। मेरे साथ मौजूद रेल मिल के जीएम भरतलाल से मैनें पूछा तो पता चला कि तब तक भिलाई ज्यादा से ज्यादा 4.13 लाख टन रेलपांत की आपूर्ति कर पाया था ऐसे में अचानक दो लाख टन ज्यादा की आपूर्ति सचमुच में एक बहुत बड़ी चुनौती थी।
भिलाई लौटने के बाद मैनें अपनी टीम ने कहा कि जब हम 3-4 लाख टन रेलपांत बना सकते हैं तो 7 लाख टन भी हम ही बनाएंगे। दो माह बाद रेलवे बोर्ड के चेयरमैन भिलाई आए और यहां की तैयारियों से संतुष्ट होकर लौटे। जिसमें हमने अपनी कमजोरियों को प्रमुखता से चिन्हित किया।हमें नया रेल रिफिनिशिंग काम्पलेक्स,जितनी जल्द हो सके तैयार करना था। इस तरह हमने रेलवे से वित्तीय वर्ष 02-03 के लिए 6.5 लाख टन रेलपांत का बड़ा आर्डर हासिल कर लिया। मंदी के उस दौर में यह ना सिर्फ  भिलाई स्टील प्लांट बल्कि समूचे 'सेल' के लिए जीवनदायक साबित हुआ।''

लम्बी रेल पांत भी बनाई भिलाई ने 
19 सितंबर 2004 लम्बी रेलपांत रवाना 
भिलाई की रेल मिल ने परंपरागत मानकों को पीछे छोड़ते हुए बीते दशक में लंबी रेलपांत का उत्पादन भी शुरू किया। जिसमें 19 सितंबर 2004 को देश में पहली बार उत्पादित 65 मीटर लंबी रेलपांतों की पहली खेप को तत्कालीन एमडी आरपी सिंह ने 'सेल' के निदेशक (प्रचालन) केके खन्ना की उपस्थिति में भारतीय रेलवे के लिए हरी झंडी दिखाकर रवाना किया। जिसमें 760 टन लंबी रेलपांत की पहली खेप भारतीय रेलवे के जबलपुर संभाग को ब्यौहारी भेजी गई।
इसमें 65 मीटर लंबी दो अलग-अलग रेलपांत को जोड़कर 56 रेलपांत में आपूर्ति की गई है। इस विशेष रैक में 9 वैगन लगाई गई थीं। पहली खेप में आपूर्ति की गई रेलपांत से 7.15 किमी लंबाई की ट्रैक बिछाई गई।
इसके बाद 19 अक्टूबर 2004 को गौरवशाली लंबी रेल परियोजना से 19 अक्टूबर को 78 मीटर लंबी रेलपांतों की पहली खेप बेवहारी जबलपुर को प्रेषित की गई। फिर 24 फरवरी 2006 का वो ऐतिहासिक दिन भी आया जब भिलाई इस्पात संयंत्र द्वारा उत्पादित विश्व की सबसे लंबी 260 मीटर रेलपांत के पहले रैक को एमडी आरपी सिंह ने हरी झंडी दिखाकर अंडाल (पश्चिम बंगाल) के लिए रवाना किया।
यह बीएसपी द्वारा 65 मीटर लंबाई की 4 रेलपांतों को फ्लैश बट वेल्डिंग तकनीक से जोड़कर निर्मित 260 मीटर लंबे रेलपांत पूरे विश्व में किसी भी रेलपांत उत्पादक द्वारा उत्पादित सबसे लंबा रेल पैनल था।
इसी तरह 11 अगस्त 2006 को भारतीय रेलवे को डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर के लिए उच्च स्तरीय गुणवत्ता वाली यूटीएस-100 वेनेडियम रेल का सफलतापूर्वक निर्माण किया गया।
अनुसंधान एवं नियंत्रण प्रयोगशाला तथा सेल के आरडीसीआईएस के परीक्षण परिणामों से उत्साहित भिलाई ने ऑन ट्रैक ट्रॉयल के लिए 460 टन वेनेडियम रेल की पहली खेप भारतीय रेलवे को दक्षिण पूर्व रेलवे के झारसुगड़ा को प्रेषित की।

किस्सा जिंदल का सीसीआई विवाद से ईरान की मांग पूरी करने तक 

जिंदल से भारतीय रेलवे को पहली खेप की रवानगी 
बात 1998-99 की है। तब चर्चा जोरों पर थी कि जिंदल की नई रेल मिल रायगढ़ में बन रही है। इसके बाद भिलाई प्राइवेट हो जाएगा। इन चर्चाओं को उस वक्त ज्यादा बल मिला जब भिलाई के ही कुछ अफसरों की मदद से शहर के बड़े बड़े होटलों में इंटरव्यू लिए जाने लगे और भिलाई की रेल मिल और दूसरे विभागों से इंजीनियर छोड़ कर जाने लगे।
इसी दौरान 2000 मार्च में भिलाई के तब के मैनेजिंग डायरेक्टर विक्रांत गुजराल ने भी इस्तीफा दिया और एक अप्रैल से जिंदल के हो लिए।
इसके बाद जाहिर है भिलाई के निजीकरण की चर्चा तेज होने लगी। विक्रांत गुजराल पर आरोप लगा कि वो भिलाई का नुकसान करते हुए यहां के इंजीनियरों को तोड़ कर जिंदल में ले जा रहे है और इसके बदले उन्हें वाइस प्रेसीडेंट का पद मिला है।
इन आरोपों को और ज्यादा बल तब मिला जब जेएसपीएल की रेल मिल सफलतापूर्वक कमीशन हो गई। हालांकि विक्रांत गुजराल आज भी इन आरोपों को गलत बताते हैं। एक मुलाकात के दौरान जब मैनें उनसे पूछा था तो उनका साफ कहना था कि इस्तीफा मेरा निजी मामला था और जिंदल मैं एक भी इंजीनियर लेकर नहीं गया।
खैर, जिंदल की रेलमिल शुरू हुई तो भारतीय रेलवे पर दबाव बढ़ा कि वो निजी क्षेत्र से रेलपांंत ले। लेकिन इसमें पेंच रहा था भारतीय रेलवे और सेल के एक्सक्लुसिव एग्रीमेंट का।
इस एग्रीमेंट की वजह से रेलवे को अपनी जरूरत का शत-प्रतिशत सेल-भिलाई से लेना है और भिलाई को अपने उत्पादन को प्राथमिकता के साथ भारतीय रेलवे को देना है। इस एग्रीमेंट को जेएसपीएल ने भारतीय प्रतिस्पर्धी आयोग (सीसीआई) में चुनौती दी। यह बीते दशक में यूपीए दौर की बात है। तब भी जेएसपीएल के प्रमुख नवीन जिंदल कांग्रेस के सांसद थे। इसके बावजूद रेल के मामले में भारत सरकार का रुख साफ रहा और सीसीआई से जेएसपीएल की याचिका खारिज हो गई।
इस बीच भिलाई में 12 लाख क्षमता वाली नई यूनिर्वसल रेल मिल की बुनियाद रखी जा चुकी थी। भिलाई को भरोसा था कि सीसीआई में जीत के बाद उनका और भारतीय रेल का रिश्ता टूटेगा नहीं। इसी दौरान ईरान ने फिर एक बार 2014-15 में रेलपांत के लिए भारत का रुख किया।लेकिन अब परिस्थिति बदली हुई थी। ईरान की टीम भिलाई तो पहुंची ही, साथ ही रायगढ़ भी गई। नतीजतन ईरान की रेलपांत का आर्डर भिलाई और रायगढ़ दोनों को मिला। लेकिन भिलाई कुछ अज्ञात कारणों से आज तक ईरान को रेलपांत की आपूर्ति नहीं कर पाया और जिंदल ने ईरान का आर्डर कब का पूरा कर दिया।

 सीसीआई से हारे तो ग्लोबल टेंडर में जीते
सीसीआई से याचिका खारिज होने के बाद भी जेएसपीएल ने भारतीय रेलवे को रेलपांत आपूर्ति करने की कोशिश जारी रखी थी। हालांकि   यूपीए शासनकाल तक भिलाई की रेलमिल पर आंच नहीं आई थी।
लेकिन दौर बदला और एनडीए शासन काल में जेएसपीएल के लिए एक नया रास्ता खुल गया। भारतीय रेलवे ने साल 2017-18 में रेल लाइन बदलने के लिए ग्लोबल टेंडर निकाला।
लेकिन कतिपय कारणों से उस पर अमल नहीं हुआ। इसके बाद फिर एक बार इस साल 18-19 में भारतीय रेलवे ने 4.87 लाख टन लंबी रेलपांत की आपूर्ति का लोबल टेंडर निकाला।
जिसमें एक मात्र भारतीय कंपनी जिंदल स्टील एंड पावर लिमिटेड रायगढ़ के साथ विदेश से सुमीतोमो कार्पोरेशन, अंगांग ग्रुप इंटरनेशनल, व्योस्टलपाइन शिनेन इस्ट मेटल्स, सीआरएम हांगकांग, ब्रिटिश स्टील, फ्रांस रेल और अटलांटिक स्टील शामिल हुए हैं। लेकिन एजेंसी की खबरों के मुताबिक सारी की सारी विदेशी पार्टियां टेक्नीकल बिड में असफल हो गई।
इसके बाद एक मात्र भारतीय कंपनी जिंदल स्टील एंड पावर लिमिटेड (जेएसपीएल) को मेक इन इंडिया के प्रावधान और कुछ अन्य नियमों के चलते करीब एक लाख टन रेलपांत की आपूर्ति का आर्डर मिल गया।
केंद्र सरकार ने नियम ऐसा बनाया है कि मेक इन इंडिया के तहत ग्लोबल टेंडर में शामिल भारतीय कंपनियों को कम से कम 20 फीसदी आपूर्ति का  ठेका अनिवार्य रूप से दिया जाना है।
चूंकि इस टेंडर में जेएसपीएल के अलावा कोई दूसरी भारतीय पार्टी शामिल ही नहीं हुई थी,इसलिए 1 लाख टन से ज्यादा लांग रेल की आपूर्ति का ठेका जेएसपीएल को सीधे मिल गया। इसके बाद जेएसपीएल से 15 अगस्त 2018 को लंबी रेलपांत की पहली खेप भेज कर जिंदल ने अपना दो दशक पुराना सपना पूरा किया।

ये सब साजिश है या फिर कोई दुर्योग..?  

जब से जेएसपीएल रायगढ़ ने भारतीय रेलवे पर अपनी रेलपांत की आपूर्ति का दबाव बनाना शुरू किया है, इसके बाद से भिलाई लगातार पिछड़ते जा रहा है। क्या ये सब साजिश है या फिर कई दुर्योग..?  एक तरफ जिंदल रेलपांत की आपूर्ति में लगातार आगे निकल रहा है, वहीं बीते तीन साल के आंकड़े देखें तो भारतीय रेलवे ने भिलाई को जितना आर्डर दिया, उतनी भिलाई आपूर्ति नहीं कर पाया।
इस्पात राज्य मंत्री विष्णुदेव साय ने जुलाई 2017 में संसद में जो लिखित जानकारी दी थी उसके मुताबिक वित्त वर्ष 2016-17 के लिए भारतीय रेलवे ने सेल को 6 लाख 24 हजार 516 टन रेलपांत आपूर्ति का आर्डर दिया था। जिसमें सेल-भिलाई ने 6 लाख 20 हजार 49 टन की आपूर्ति की।
इस वर्ष के दौरान 8 लाख 20 हजार टन की बढ़ाई गई थी, जिसकी पूर्ति भिलाई नहीं कर सका। अपने जवाब में इस्पात राज्य मंत्री साय ने उम्मीद जताते हुए घोषणा की थी कि भारतीय रेलवे को 12 लाख टन की अतिरिक्त मांग की पूर्ति के लिए भिलाई की यूनिवर्सल रेल मिल अब सक्षम है।
हालांकि यह उम्मीदें आज तक पूरी नहीं हो पाई है। इसके बाद अगले वित्तीय वर्ष 2017-18 में 9 लाख 50 हजार टन का आर्डर भारतीय रेलवे ने दिया था लेकिन भिलाई ने 8 लाख 74 हजार टन की आपूर्ति की, जो कि एक लाख 40 हजार टन कम रही।
एजेंसी की खबरों में भिलाई के उच्च प्रबंधन सूत्रों ने इसके लिए अपनी नई यूनिवर्सल रेल मिल और पुरानी रेल एंड स्ट्रक्चरल मिल में आई तकनीकी खामियों को एक कारण बताया था। अब मौजूदा वित्तीय वर्ष 18-19 में भारतीय रेलवे का 12 लाख टन का आर्डर भिलाई स्टील प्लांट के पास है।
लेकिन आपूर्ति के मामले में फिर भिलाई पिछड़ रहा है। भिलाई स्टील प्लांट के इंट्रानेट पर दर्ज सूचना के मुताबिक वर्ष 2018-19 के लिए सालाना बिजनेस प्लान (एबीपी) फिनिश्ड रेल का 8 लाख 30 हजार टन लक्ष्य था, जिसमें 27 अक्टूबर 2018 तक 4 लाख 7 हजार 401 टन का उत्पादन हुआ और प्राइम रेल फिनिश्ड का लक्ष्य 6 लाख 95 हजार टन था,जिसमें 27 अक्टूबर 2018 तक 3 लाख 18 हजार 811 टन का उत्पादन हुआ है।

 भिलाई लगातार पिछड़ रहा,नई 
रेल मिल साथ नहीं दे रहीक्यों..?

एक अक्टूबर 2018  को यूआरएम  की घटना
भिलाई की नई यूनिवर्सल रेल मिल जर्मनी के सहयोग से बनी है। जिसमें 500 मीटर तक लंबा एक  रेल पैनल बनाने की क्षमता है। लेकिन अपनी शुरूआत से ही यह मिल तकनीकी दिक्कतों को झेल रही है। हालत यह है कि जैसे-तैसे उत्पादन हो रहा है लेकिन अचानक से यहां बन रही पटरियां इस कदर मचल जाती हैं कि कभी दीवार तोड़ कर बाहर निकल जाती है तो कभी पूरी तरह रोल होने के बजाए गोल (कॉबल) हो जाती है।
बीते साल 9 फरवरी 2017 की सुबह यूआरएम में लॉन्ग रेल को उत्पादन के बाद जांच कक्ष में लाया जा रहा था। कूलिंग बेड से होते हुए रेलपांत को उस कक्ष में जिस खिड़की से जाना था, उसको छोड़ बगल की दीवार को तोड़ते हुए आगे निकल गई थी। रेल पांत की टक्कर से 9 इंच की दीवार चूर-चूर हो गई थी। इसी तरह अभी एक अक्टूबर 2018 को यूआरएम में पटरी पूरी तरह घूम गई थी। तकनीकी तौर पर इसे कॉबल होना कहते हैं। एक तरफ जर्मनी की तकनीक से बनीं यूआरएम ढेर सारी तकनीकी दिक्कतें झेल रही हैं, वहीं सोवियत सहयोग से बनीं पुरानी रेल एंड स्ट्रक्चरल मिल 58 साल बाद भी बगैर किसी शिकायत के पूरी शान से चल रही है। लेकिन इन सब के बीच सवाल यही उठ रहा है कि आखिर भिलाई की रेल का भविष्य क्या होगा..?

अपना गौरव बता ना सके ,एक
तक ट्रेन नहीं भिलाई के नाम पर

दस साल पहले का ग्लोब-रेल चौक 
भिलाई स्टील प्लांट का स्वाभिमान रेल के साथ जुड़ा है,इसके बावजूद आज तक रेल को लेकर किसी तरह का गौरव स्थापित नहीं हो सका है, इस दिशा में ना तो भिलाई स्टील प्लांट ने कोई कोशिश की और ना ही सेल ने कोई पहल की।भारतीय रेलवे को शत-प्रतिशत रेलपांत की आपूर्ति करने के बावजूद 58 साल में एक भी ट्रेन भिलाई के नाम से शुरू नहीं की जा सकी है,जबकि राउरकेला और बोकारो स्टील प्लांट का भारतीय रेलवे को नगण्य योगदान होने के बावजूद बोकारो एक्सप्रेस (13352) और राउरकेला एक्सप्रेस (18108) शान से भिलाई में बनीं पटरियों पर दौड़ रही है।
कुछ ऐसा ही मामला रेल चौक का भी है।वर्ष 2007 भिलाई स्टील प्लांट ने रेल के गौरव से इस्पात नगरी वासियों को परिचित करवाने के मकसद से सेक्टर-6,7,10,सिविक सेंटर चौराहे को रेल चौक के रूप में विकसित करने की योजना बनाई। इस पर अमल भी हुआ लेकिन खराब निर्माण की वजह से इसमें स्थापित ग्लोब के चारों तरफ लपेटी गई पटरियां अपने ही बोझ से गिरने लगी। तब मैनेजमेंट की तैयारी इस ग्लोब को लपेटती पटरियों के माध्यम से यह दर्शाने की थी कि भिलाई में स्थापना काल से अब तक बनीं पटरियों की लंबाई इतनी है कि इन्हें ग्लोब के चारों ओर 7 बार लपेटा जा सकता है। लेकिन कुछ ही समय में ग्लोब के चारों ओर लगाई गई पटरियां गिरती गई और रेल की जगह सिर्फ ग्लोब ही नजर आने लगा।इसके बाद आम जबान में ग्लोब चौक ही कहा जाने लगा। जिसके चलते दशक बीतने के बावजूद इसे रेल चौक का नाम नहीं दिया जा सका है।

जबकि भिलाई स्टील प्लांट मैनेजमेंट चाहे तो आधुनिक 3 डी तकनीक का इस्तेमाल कर ग्लोब के इर्द-गिर्द पटरियों को दिखा सकता है। जिससे कि भिलाई की गौरव रेलपटरियों से लोग रूबरू हो सके। अब बदलते दौर में यह सवाल मुंह बाएं खड़ा है कि क्या मैनेजमेंट अपने इस गौरव को बचा पाएगा? निजी से मुकाबले के फेर में अस्तित्व से जूझ रही रेल मिल के सामने चुनौतियां ढेर सारी हैं।

1 comment:

  1. ये सब कर्मियों के लगातार गिर रहे आत्मबल का परिणाम है। जब किसी परिवार का कोई सदस्य दुखी होता है तो परिवार का मुखिया उसकी परेशानी का हल निकालता है परंतु अब उन्हे पूछने वाला कोई नहीं है।जो कर्मियो के हित की बात करते थे अब वे उन्हे पहचानते भी नहीं।

    हम सभी जानते हैं जिस घर मे कलह हो कलेश हो उसका पतन होना शुरू हो जाता है। युवा वर्ग जो जोश से भरे होते हैं उनका मनोबल भी गर्त में जा चुका है।

    निजी कम्पनियां अपनी अच्छी रणनीति से अपने कर्मियों के हौसले को बुलंद करते रहती हैं और अपने मार्ग मे आने वाली हर चुनौती को सरलता से मात देते हैं।

    सेल में काम करने वाले कर्मी ही जब निजी कम्पनियों में करते हैं तो अपनी पूरी प्रतिभा और जोश का प्रर्दशन करते है और अपनी कम्पनी को आगे ले जाते है।

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