ये हैं भिलाई के 'गन' वाले तेज़तर्रार अफसर,इनकी वजह से हमें
दूरदर्शन पर देखने मिले 'हमलोग','रामायण' और 'महाभारत'
दूरदर्शन पर देखने मिले 'हमलोग','रामायण' और 'महाभारत'
दूरदर्शन पर यादगार सीरियलों का दौर सम्भव बनाने वाले देश के वरिष्ठ नौकरशाह एस एस गिल ने कभी
भिलाई स्टील प्लांट में लम्बी सेवाएं दी हैं, जानिए उन्होंने कैसे दूरदर्शन का कायाकल्प कर इतिहास रच दिया
मुहम्मद जाकिर हुसैन
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2006 में नई दिल्ली में एस एस गिल इंटरव्यू के दौरान |
इनमें 'रामायण', 'महाभारत' और 'बुनियाद' शुरू हो चुके हैं। वहीं 'हमलोग', 'ये जो है जिंदगी' और 'रजनी' सहित दूसरे सीरियल भी पुर्नप्रसारित किए जाने की खबरें आ रही हैं। दूरदर्शन का वो सुनहरा दौर फिर एक बार दस्तक दे रहा है।
बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि 36 साल पहले इस यादगार दौर को मुमकिन बनाने का काम किया था सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के तत्कालीन सचिव सुरिंदर सिंह गिल ने।
गिल 1952 बैच के मध्यप्रदेश कॉडर के आईएएस अफसर थे और अपनी अक्खड़ मिजाजी की वजह से हमेशा चर्चित रहे।
देशव्यापी लॉक डाउन की बदली हुई परिस्थितियों में अब जबकि 'रामायण', 'महाभारत' और 'बुनियाद' जैसे लोकप्रिय सीरियलों का पुर्नप्रसारण हो रहा है तो इनके इतिहास के साथ ही गिल का उल्लेख सोशल और मुख्य धारा के मीडिया में भी खूब हो रहा है। गिल ने अपने करियर में कई उल्लेखनीय सेवाएं देश को दी है।
भारत सरकार ने उनकी योग्यता को देखते हुए 1982 के एशियाड खेलों का महासचिव, पिछड़ा वर्ग को आरक्षण के प्रस्ताव वाले बहुचर्चित मंडल आयोग के सचिव से लेकर प्रसार भारती के मुख्य कार्यपालक अधिकारी (सीईओ) तक कई महत्वपूर्ण जवाबदारी दी। उनकी उत्कृष्ट सेवाओं के लिए भारत सरकार ने उन्हें 1985 में पद्मभूषण से भी सम्मानित किया था।
गिल से मेरा परिचय उनके जीवन के अंतिम दिनों में हुआ। भिलाई से जुड़ी शख्सियतों के इंटरव्यू के दौरान दिसम्बर 2006 में उनसे इकलौती लंबी मुलाकात हुई थी।
गिल को जब मैनें भिलाई में बिताए दिनों पर बातचीत के लिए फोन किया था तो अपने 'कम और सख्त बोलने' के मिजाज के विपरीत वह फौरन बातचीत के लिए तैयार हो गए थे।
आरके पुरम सेक्टर-13 पद्मिनी एनक्लेव के 48, अराधना अपार्टमेंट में शाम की चाय के दौरान गिल ने भिलाई से लेकर दिल्ली तक की बातें बड़ी बेबाकी सी की थी। अपना इंटरव्यू 'टेप' पर रिकार्ड करवाते वक्त उन्होने किसी भी बात पर परदा डालने की कोशिश नहीं की बल्कि उन्होने सब कुछ सहज हो कर बताया था।
इस इंटरव्यू के कुछ माह बाद 30 मई 2007 को गिल का निधन हुआ था। इस खास मुलाकात के दौरान गिल के साथ-साथ उनकी पत्नी सत्या गिल ने भी भिलाई से जुड़ी अपनी यादें बांटी थी।
वैसे बताते चलूं कि गिल का भिलाई कनेक्शन बेहद अनूठा और रोमांचक है। भिलाई स्टील प्लांट में आज कार्यपालक निदेशक कार्मिक एवं प्रशासन (ईडी पीएंडए) का पद शुरूआती दौर में कार्मिक प्रबंधक (पर्सनल मैनेजर) कहलाता था और तब इस पद पर मध्यप्रदेश कैडर के आईएएस अफसर की नियुक्ति होती थी, जिससे कि यहां होने वाली भर्तियों में मध्यप्रदेश के युवाओं का हित प्रभावित न हो।
गिल यहां भिलाई स्टील प्लांट में अप्रैल 1963 से अक्टूबर 1968 तक पर्सनल मैनेजर रहे। वह दौर बेहद उथल-पुथल वाला था। तब देश में खाद्यान्न संकट था और स्थाई नौकरी की मांग को लेकर आए दिन आंदोलन होते रहते थे।
ऐसे दौर मेें गिल ने भिलाई की खाली जमीनों पर भिलाई स्टील प्लांट के कर्मियों की सहकारी समिति बनवा कर 1964 में खेती शुरू करवाई। जिसमें हर विभाग के अपने-अपने खेत होते थे और इनमें जरूरी अनाज व सब्जियों की भरपूत खेती होती थी। गिल के रहते भिलाई में कई हिंसक आंदोलन भी हुए और इनका सामना भी उन्होंने बखूबी किया। वह अब तक ऐसे इकलौते प्रशासनिक अफसर थे, जो अक्सर अपने साथ लोडेड गन (भरी हुई पिस्तौल) रखते थे।
प्रसार भारती के पहले सीईओ , सुषमा-नक़वी से हुआ था विवाद
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सुषमा स्वराज-मुख़्तार अब्बास नक़वी (फाइल फोटो ) |
केंद्र में इंद्रकुमार गुजराल के प्रधानमंत्रित्व वाली सरकार ने प्रसार भारती अधिनियम के तहत एक वैधानिक स्वायत्त निकाय प्रसार भारती की स्थापना 23 नवंबर 1997 को की।
तब इसके पहले मुख्य कार्यपालक अधिकारी (सीईओ) के तौर पर सुरिंदर सिंह गिल को जवाबदारी दी गई। हालांकि गिल इस पद पर महज कुछ माह ही रह पाए। मार्च 1998 में केंद्र में अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार आई और विभिन्न कारणों से गिल के तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री सुषमा स्वराज व राज्यमंत्री मुख्तार अब्बास नकवी से मतभेद बढऩे लगे।
स्थिति यहां तक हो गई कि केंद्र सरकार को प्रसार भारती अधिनियम में संशोधन करना पड़ा, जिससे कि सीईओ की रिटायरमेंट की आयु 62 की जा सके। क्योंकि जिस वक्त गिल को पहला सीईओ बनाया गया था, तब उनकी आयु 71 साल थी।
तब सुषमा स्वराज और गिल के मतभेदों पर मीडिया में काफी कुछ प्रकाशित हुआ। वहीं मुख्तार अब्बास नकवी द्वारा सार्वजनिक रूप से प्रतिकूल टिप्पणी किए जाने की वजह से गिल ने उनके खिलाफ मानहानि का मुकद्दमा तक दाखिल कर दिया था।
हालांकि इन सब विवादों के चलते अंतत: केंद्र सरकार सफल रही और प्रसार भारती अधिनियम में बदलाव मंजूर होने के साथ ही अप्रैल 1998 में गिल को यहां से जाना पड़ा।
इसके बाद गिल अखबारों में कॉलम लिख रहे थे। वहीं उन्होंने कई महत्वपूर्ण किताबें भी लिखी हैं। उनकी प्रमुख किताबों में ''द डायनेस्टी-ए पालिटिकल बायोग्राफी ऑफ लीडिंग रूलिंग फैमिली ऑफ माडर्न इंडिया'', ''गांधी-ए सबलाइम फेल्योर'' और ''द पैथालॉजी ऑफ करप्शन'' है।
गिल से वो यादगार मुलाकात और उनकी बातें उन्हीं की जुबानी
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इंटरव्यू के दौरान गिल |
देश के शीर्षस्थ नौकरशाह रहे सुरिंदर सिंह गिल से मेरा परिचय भिलाई स्टील प्लांट के वरिष्ठ इंजीनियर और बोकारो स्टील प्लांट के मैनेजिंग डायरेक्टर व राष्ट्रीय इस्पात निगम लिमिटेड के सीएमडी रहे दिलबाग राय आहूजा के माध्यम से हुआ। 2006 में उस रोज जब मैं उनके घर पहुंचा तो गिल इस इंटरव्यू के लिए बिल्कुल तैयार बैठे थे।
शुरूआती परिचय के बात मैनें टेपरिकार्डर शुरू किया तो गिल भी धाराप्रवाह बोलते गए। इस दौरान उन्होंने जो कहा, वो सब मेरे सवाल हटाते और कुछ जरूरी तथ्य जोड़ते हुए उन्हीं के शब्दों में-
अप्रैल 1963 में मुझे पर्सनल मैनेजर बना कर भिलाई भेजा गया। मैं वहां पूरे साढ़ेे चार साल तक रहा। इस दौरान मैंनें तीन जनरल मैनेजरों (आज सीईओ का पद) के साथ काम किया। भिलाई आने से पहले मुझे स्टील प्लांट में काम का अनुभव नहीं था,लेकिन यहां आने पर परिस्थितियां मुझे सिखाती गई।
तब मुझे कारखाने के अंदर की मशीनेें और काम करते लोग बेहद रोमांचित करते थे। मैं अक्सर फुरसत के वक्त कारखाने में जा कर बड़े-बड़े फर्नेसेस के पास खड़ा रहता था। विशालकाय क्रेन में बैठ कर मशीनों और वर्करों को देखता था। यह मेरे लिए बहुत 'अट्रैक्टिव' चीज थी।मैंनें भिलाई के अपने कार्यकाल को बहुत एनज्वाए किया।
मैं मानता हूं कि भिलाई का मेरा कार्यकाल सबसे ज्यादा खुशी का और सबसे ज्यादा प्रोडक्टिव रहा। भिलाई में रहते हुए मुझे सबसे चुनौतीपूर्ण था कि यहां किसी तरह की औद्योगिक संबंध (आईआर) को लेकर अशांति की समस्या ना आने दूं। उन दिनों बहुत सी मांगो को लेकर आंदोलन होते थे। तब कारखाने के विस्तार का दूसरा चरण खत्म हो गया था।
इस दौरान करीब 4,5 हजार ठेका मजदूरों को काम से हटाया गया था। इसे लेकर आंदोलन शुरु हो गया था। मेरा यह मानना है कि अगर हम आंदोलनकारियों की पीड़ा को पहले ही समझ लें तो स्थिति नहीं बिगड़ सकती। लेकिन जब हालात बिगड़े तो मैनें भिलाई में रहते हुए कई सख्त कदम उठाए, क्योंकि तब के आंदोलनकारियों को भी मालूम था कि एक बार अगर मैंनें अपनी बात रखी तो फिर झुकूंगा नहींं। इसलिए मैंनें हमेशा पहले सुलह की कोशिश की।
तब मुझे कारखाने के अंदर की मशीनेें और काम करते लोग बेहद रोमांचित करते थे। मैं अक्सर फुरसत के वक्त कारखाने में जा कर बड़े-बड़े फर्नेसेस के पास खड़ा रहता था। विशालकाय क्रेन में बैठ कर मशीनों और वर्करों को देखता था। यह मेरे लिए बहुत 'अट्रैक्टिव' चीज थी।मैंनें भिलाई के अपने कार्यकाल को बहुत एनज्वाए किया।
मैं मानता हूं कि भिलाई का मेरा कार्यकाल सबसे ज्यादा खुशी का और सबसे ज्यादा प्रोडक्टिव रहा। भिलाई में रहते हुए मुझे सबसे चुनौतीपूर्ण था कि यहां किसी तरह की औद्योगिक संबंध (आईआर) को लेकर अशांति की समस्या ना आने दूं। उन दिनों बहुत सी मांगो को लेकर आंदोलन होते थे। तब कारखाने के विस्तार का दूसरा चरण खत्म हो गया था।
इस दौरान करीब 4,5 हजार ठेका मजदूरों को काम से हटाया गया था। इसे लेकर आंदोलन शुरु हो गया था। मेरा यह मानना है कि अगर हम आंदोलनकारियों की पीड़ा को पहले ही समझ लें तो स्थिति नहीं बिगड़ सकती। लेकिन जब हालात बिगड़े तो मैनें भिलाई में रहते हुए कई सख्त कदम उठाए, क्योंकि तब के आंदोलनकारियों को भी मालूम था कि एक बार अगर मैंनें अपनी बात रखी तो फिर झुकूंगा नहींं। इसलिए मैंनें हमेशा पहले सुलह की कोशिश की।
कोक ओवन और राजहरा की हड़ताल मैनें ऐसे डील की
मेरे रहते भिलाई में 1968 में कोक-ओवन विभाग में भी हड़ताल हुई। सारे मजदूर बेहद बिगड़े हुए थे। तब कुछ भी हो सकता था। मैं उन लोगों के बीच गया बात करने। इस दौरान जनरल मैनेजर ने मुझे कई फोन करवाए वहां से हटने के लिए,उन्हे लगता था कि बात कहीं हाथ से ना फिसल जाए। लेकिन, मैंनें उनका एक भी फोन अटेंड नहीं किया।
उस हड़ताल को कंट्रोल करने में मुझे बहुत मशक्कत करनी पड़ी। फिर दल्ली राजहरा माइंस में हड़ताल हुई, वहां तो हालत ऐसी थी कि मजदूर मरने-मारने पर उतारू थे।इन सब का मैनें सामना किया।
उस हड़ताल को कंट्रोल करने में मुझे बहुत मशक्कत करनी पड़ी। फिर दल्ली राजहरा माइंस में हड़ताल हुई, वहां तो हालत ऐसी थी कि मजदूर मरने-मारने पर उतारू थे।इन सब का मैनें सामना किया।
मजदूरों के नेता से यह भी कहा कि प्लांट के प्रोडक्शन के सवाल पर मैं आपको डिस्टर्ब नहीं करने दूंगा। इस तरह और भी आंदोलन हुए, लेकिन मैंनें प्रोडक्शन को प्रभावित नहीं होने दिया। यह सब मेरे लेबर मैनेजमेंट की वजह से हुआ।
यह मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि तब के लेबर कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में भिलाई के लेबर मैनेजमेंट को पूरे हिंदुस्तान में बेस्ट माना था। इस चुनौतीपूर्ण दौर में वर्कर को मैंनें 'अपसेट' नहीं होने दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि मेरे वक्त प्रोडक्शन 117 से 120 फीसदी तक हुआ।
यह मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि तब के लेबर कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में भिलाई के लेबर मैनेजमेंट को पूरे हिंदुस्तान में बेस्ट माना था। इस चुनौतीपूर्ण दौर में वर्कर को मैंनें 'अपसेट' नहीं होने दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि मेरे वक्त प्रोडक्शन 117 से 120 फीसदी तक हुआ।
अन्न संकट के दौर में ऐसे शुरू करवाई विभागीय खेती
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बीएसपी फार्म हाउस में अतिथियों को फसल दिखाते गिल |
भिलाई के वर्करों का मूल काम तो कारखाने में स्टील बनाना ही है लेकिन, 1964 में तब की परिस्थितियों के अनुरूप मैनें इन कर्मियों को खेती से जोड़ा।
उस वक्त भिलाई के पास बहुत सी जमीनें खाली थी। तब देशव्यापी अन्न संकट चल रहा था।
हमारे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने इस अन्न संकट को देखते हुए हफ्ते में एक दिन उपवास रखने का संकल्प देशवासियों को दिलवाया था। फिर यही वह दौर था, जब हरित क्रांति का सूत्रपात हुआ।
तब मैंनें भिलाई स्टील प्लांट के तमाम विभागों में सोसायटी का गठन करवाया। हर सोसाइटी को बीएसपी की खाली जमीन खेती के लिए दी गई।सारे फार्म हाऊस आपस में प्रतिस्पर्धा करते थे।
ऐसे में हमारे फार्म हाऊस इतने ज्यादा तरक्की कर गए थे कि एक वक्त के बाद सीड कार्पोरेशन ऑफ इंडिया ने बीएसपी से मक्के का बीज खरीदना शुरु किया और हमें अपना ऑफिशियल सप्लायर बना दिया।
उस वक्त भिलाई के पास बहुत सी जमीनें खाली थी। तब देशव्यापी अन्न संकट चल रहा था।
हमारे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने इस अन्न संकट को देखते हुए हफ्ते में एक दिन उपवास रखने का संकल्प देशवासियों को दिलवाया था। फिर यही वह दौर था, जब हरित क्रांति का सूत्रपात हुआ।
तब मैंनें भिलाई स्टील प्लांट के तमाम विभागों में सोसायटी का गठन करवाया। हर सोसाइटी को बीएसपी की खाली जमीन खेती के लिए दी गई।सारे फार्म हाऊस आपस में प्रतिस्पर्धा करते थे।
ऐसे में हमारे फार्म हाऊस इतने ज्यादा तरक्की कर गए थे कि एक वक्त के बाद सीड कार्पोरेशन ऑफ इंडिया ने बीएसपी से मक्के का बीज खरीदना शुरु किया और हमें अपना ऑफिशियल सप्लायर बना दिया।
भिलाई के तीन जनरल मैनेजर के साथ अलग-अलग अनुभव
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हेमा का भिलाई में पहला कार्यक्रम देखते गिल व अन्य (08-11-67 ) |
उनकी जिंदगी की फिलॉसफी थी कि आप वर्कर को जितना टेंशन मेें रखोगे वह उतना बेस्ट रिजल्ट देगा। मैं इससे बहुत ज्यादा इत्तेफाक नहीं रखता था।
मैंनें उनसे कहा भी था कि किसी संकट के वक्त टेंशन तो समझ में आता है लेकिन सामान्य हालात में लोगों को फ्री रखना चाहिए। इस बात को लेकर मेरे उनके मतभेद थे।
मेरे दौर के दूसरे जनरल मैनेजर तो भिलाई की शुरुआत से अपना योगदान दे रहे थे। वह एक बेहतर जनरल मैनेजर बन सकते थे लेकिन, वक्त ने उन्हे यह मौका नहीं दिया। उन्हे हमेशा यही चाहत रहती थी कि भिलाई की हर उपलब्धि का क्रेडिट उन्हे दिया जाए।
मेरे दौर के दूसरे जनरल मैनेजर तो भिलाई की शुरुआत से अपना योगदान दे रहे थे। वह एक बेहतर जनरल मैनेजर बन सकते थे लेकिन, वक्त ने उन्हे यह मौका नहीं दिया। उन्हे हमेशा यही चाहत रहती थी कि भिलाई की हर उपलब्धि का क्रेडिट उन्हे दिया जाए।
भिलाई में जी.जगतपति जब जनरल मैनेजर हो कर आए तो मुझे कुछ माह बाद जाने का आदेश हो गया। इसलिए मैनें उनके साथ बहुत कम काम किया। लेकिन, मुझे लगता है कि वह वाकई बेहद काबिल आदमी थे।
वह आईएएस में मुझसे 4 साल सीनियर थे।
उन्होने बिल्कुल एक प्रोफेशनल मैनेजर की तरह कारखाने को चलाया।वैसे भिलाई इस्पात संयंत्र को बाद में भी बहुत से काबिल जनरल मैनेजर मिले जिनमें (शिवराज) जैन भी एक थे।
वह आईएएस में मुझसे 4 साल सीनियर थे।
उन्होने बिल्कुल एक प्रोफेशनल मैनेजर की तरह कारखाने को चलाया।वैसे भिलाई इस्पात संयंत्र को बाद में भी बहुत से काबिल जनरल मैनेजर मिले जिनमें (शिवराज) जैन भी एक थे।
सख्त मिजाजी की वजह से मेरी अलग तरह की छवि बना दी गई
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भिलाई विद्यालय के प्राचार्य आर एन वर्मा (बाबाजी) के साथ |
कुछ चुनिंदा लोगों को मैंनें वहां खास तौर पर मैनेजमेंट ट्रेनिंग दिलवाई। इनमें एपी सिंह ,जेएल चौरसिया व चार्यालु के नाम मुझे याद आ रहे हैं। इन लोगों ने बाद में बहुत तरक्की की।
मेरी सख्त मिजाजी की वजह से कुछ अलग तरह की छवि बना दी गई थी। लेकिन, मैंनें भी किसी कर्मी या अफसर का निजी तौर पर बुरा नहीं चाहा।
अपने कार्यकाल के दौरान मैंनें किसी को भी खराब 'सीआर' नहीं दी। मैनें शायद ही किसी को सस्पेंड किया हो।
हां, गलती पर मैंनें कर्मी या अफसर को अपने दफ्तर में बुला कर खूब डांट पिलाई लेकिन थोड़ी देर के बाद सब कुछ नार्मल हो जाता था।
आज की नेहरू आर्ट गैलेरी, तब यहां शुरू हुआ था सुपर बाजार
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गिल के कार्यकाल में ऐसा था पहला सुपर बाजार |
तब देश में अनाज की बहुत तंगी थी।
भिलाई की आबादी को देखते हुए मैंनें केंद्र सरकार से संपर्क कर गेहूं और शक्कर की नियमित आवक वैगन से मंगाई। इसकी मैनें राशनिंग करवाई और सोसायटी के जरिए बंटवाने का काम शुरु किया, इससे भिलाई में अनाज की तंगी नहीं रही। तब केंद्र सरकार की एक योजना के तहत किफायती भाव पर ज़रूरी सामान मुहैया करवाने पहल हुयी ।
इस योजना को लागू करवाने मैंनें 1967 में सिविक सेंटर में एक गोलाकार मिनी सुपर बाजार (आज की नेहरू आर्ट गैलेरी) बनवाया। यहां सारे वर्कर को कम दाम में अनाज मिलता था। वहीँ बीएसपी कर्मियों को आसान किस्तों पर साइकिल, रेडियो, पंखा और दूसरे इलेक्ट्रॉनिक आइटम भी मिलते थे।
इस सुपर बाजार के खुलने का नतीजा हुआ कि बाजार में जल्द ही दूसरे व्यापारियों को अपने अनाज के दाम कम करने पड़े। सुपर बाजार को गोलाकार रुप देने के लिए मैंनें तब के चीफ इंजीनियर एम.एस. लाल से खास तौर पर मश्विरा किया था। वह सुपर बाजार बड़ा ही खूबसूरत दिखता था। अब भी उसी गोले में वह बाजार है क्या?
इस योजना को लागू करवाने मैंनें 1967 में सिविक सेंटर में एक गोलाकार मिनी सुपर बाजार (आज की नेहरू आर्ट गैलेरी) बनवाया। यहां सारे वर्कर को कम दाम में अनाज मिलता था। वहीँ बीएसपी कर्मियों को आसान किस्तों पर साइकिल, रेडियो, पंखा और दूसरे इलेक्ट्रॉनिक आइटम भी मिलते थे।
इस सुपर बाजार के खुलने का नतीजा हुआ कि बाजार में जल्द ही दूसरे व्यापारियों को अपने अनाज के दाम कम करने पड़े। सुपर बाजार को गोलाकार रुप देने के लिए मैंनें तब के चीफ इंजीनियर एम.एस. लाल से खास तौर पर मश्विरा किया था। वह सुपर बाजार बड़ा ही खूबसूरत दिखता था। अब भी उसी गोले में वह बाजार है क्या?
मुझे शुरु से ही कला,संस्कृति व खेलों के प्रति बेहद लगाव रहा है। भिलाई में पर्सनल मैनेजर रहते हुए बीएसपी में मैंने स्पोर्ट्स एंड रिक्रिएशन काउंसिल का गठन 1966 में करवाया। कार्मिक प्रमुख होने के नाते इस काउंसिल का पदेन अध्यक्ष मैं था। तब टाउनशिप में 6 क्लब थे, इन्हे हमने काउन्सिल से जोड़ा और इसके बाद भिलाई में संगीत,नृत्य, ललित कला, साहित्य, नाटक, योग सहित तमाम कलाओं से जुड़े आयोजन खूब होने लगे।
तब मैनें वहां तलत महमूद,उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, हेमा मालिनी, एमएस सुब्बलक्ष्मी के कार्यक्रम और दारा सिंह की चर्चित कुश्ती जैसे कई यादगार आयोजन करवाए। इनमें हेमा मालिनी शास्त्रीय नृत्य प्रस्तुत करने अपनी माँ के साथ आई थीं, तब वो बेहद काम उम्र की थी और शायद उनकी एक फिल्म आ चुकी थी।
अपने इसी रुझान का विस्तार मैनें बाद में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में सचिव रहते हुए किया। जब मैनें टेलीविजन प्रसारण को लोकप्रिय बनाने 'हमलोग', 'बुनियाद', 'विक्रम और वेताल', 'भारत एक खोज', 'रजनी','तमस', 'रामायण' और 'महाभारत' जैसे यादगार धारावाहिकों का निर्माण करवाया, जिनकी लोकप्रियता आज भी इतिहास में दर्ज है।
तब मैनें वहां तलत महमूद,उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, हेमा मालिनी, एमएस सुब्बलक्ष्मी के कार्यक्रम और दारा सिंह की चर्चित कुश्ती जैसे कई यादगार आयोजन करवाए। इनमें हेमा मालिनी शास्त्रीय नृत्य प्रस्तुत करने अपनी माँ के साथ आई थीं, तब वो बेहद काम उम्र की थी और शायद उनकी एक फिल्म आ चुकी थी।
अपने इसी रुझान का विस्तार मैनें बाद में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में सचिव रहते हुए किया। जब मैनें टेलीविजन प्रसारण को लोकप्रिय बनाने 'हमलोग', 'बुनियाद', 'विक्रम और वेताल', 'भारत एक खोज', 'रजनी','तमस', 'रामायण' और 'महाभारत' जैसे यादगार धारावाहिकों का निर्माण करवाया, जिनकी लोकप्रियता आज भी इतिहास में दर्ज है।
भिलाई में जो सीखा, वही एशियाड-82 में काम आया
खेलों के प्रति अपने रूझान के चलते मैनें भिलाई में शानदार हॉकी की टीम तैयार करवाई। मुझे याद है वह टीम इतनी बेहतर थी कि 1966-67 में मुंबई में हुए प्रतिष्ठिïत बेटन कप मेें हमारी यही टीम शामिल हुई थी। भिलाई में भी कई प्रतिष्ठित टीमें आया करती थी।
ओलंपिक में भाग ले चुके एरमन बेस्टियन सहित कई प्रमुख खिलाडिय़ों से सजी वह हॉकी टीम बाद के बरसों में बेहतर प्रदर्शन करती रही। भिलाई में मैनें खेल के क्षेत्र में काफी काम किया था।
इस वजह से जब 1982 के एशियाड खेलों में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मुझे महासचिव की जवाबदारी दी तो मुझे सब कुछ बेहद सहज लगा। मेरा भिलाई का अनुभव एशियाड-82 में काम आया और इसे मैनें सफलतापूर्वक निभाया।
ओलंपिक में भाग ले चुके एरमन बेस्टियन सहित कई प्रमुख खिलाडिय़ों से सजी वह हॉकी टीम बाद के बरसों में बेहतर प्रदर्शन करती रही। भिलाई में मैनें खेल के क्षेत्र में काफी काम किया था।
इस वजह से जब 1982 के एशियाड खेलों में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मुझे महासचिव की जवाबदारी दी तो मुझे सब कुछ बेहद सहज लगा। मेरा भिलाई का अनुभव एशियाड-82 में काम आया और इसे मैनें सफलतापूर्वक निभाया।
भिलाई में तीन दिन तक चला था मेरा विदाई समारोह
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विदाई के दौरान जनरल सुपरिंटेंडेंट पी आर आहूजा के साथ |
मुझे याद है होली, दीवाली और दिगर त्योहारों पर हम सब दोस्त इकट्ठा होते थे। उस दौर के दिलबाग राय आहूजा, पृथ्वीराज आहूजा, शिवराज जैन व चौरसिया सहित कई लोग हैं जो अब भी मिलते रहते हैं।
भिलाई के बाद मुझे वापस मध्यप्रदेश सरकार ने बुला लिया लेकिन साढ़े चार साल में जो मैंनें इज्जत वहां कमाई वह मेरे जीवन की यादगार घटना है। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मेरा विदाई समारोह अपने आप में ऐतिहासिक रहा।
1968 में 31 अक्टूबर से 2 नवंबर तक प्लांट और टाउनशिप के हर विभाग के लोगों ने अलग-अलग समारोह आयोजित कर मुझे विदाई दी।फिर बाद में मैं जहां भी गया भिलाई हमेशा मेरे जहन में रहा। मैं भिलाई में बिताए दिन कभी नहीं भूल पाया।
ऐसे मिला मुझे टेलीविजन प्रसारण में क्रांति लाने का मौका
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'हमलोग' से गिल ने शुरू की थी दूरदर्शन पर क्रांति |
एशियाड खेलों के साथ ही देश में टेलीविजन प्रसारण भी रंगीन हुआ और मुझे 1983 में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में सचिव की जवाबदारी दी गई।
रंगीन टेलीविजन के प्रसारण शुरू करने के साथ-साथ भारत सरकार की मंशा थी कि हमें देशवासियों की जनजागरुकता के लिए कार्यक्रम भी तैयार करवाना है।
उस दौर में मैक्सिको देश में चलने वाले डेली सोप ऑपेरा (सीरियल) 'वेन कोमिगो-कम विद मी' की बड़ी चर्चा थी। परिवार नियोजन पर आधारित इस धारावाहिक के निर्माता मिग्येल सैबिदो से मेरी मुलाकात उस वक्त मैक्सिको में हुई थी, जब मैं सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के सचिव के नाते प्रतिनिधिमंडल लेकर 1983 में वहां गया था।
इस दौरान हम लोगों के वहां डेली सोप ऑपेरा की लोकप्रियता के बारे में जाना और लौटने के बाद मैनें भारत सरकार को इस बाबत सुझाव दिया।
देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और सूचना एवं प्रसारण मंत्री हरिकिशन लाल भगत भी इस प्रस्ताव से सहमत थे। इसके बाद मैनें मनोहर श्याम जोशी को बुलाया और उन्हें सरकार की मंशा से अवगत कराया।
इस प्रस्तावित सीरियल का नाम मैनें 'हम लोग' रखा और देखते ही देखते यह सोप आपेरा देश भर में बेहद मकबूल हो गया। इसकी पहली कड़ी 7 जुलाई 1984 को दूरदर्शन पर प्रसारित हुई और लगातार 156 एपिसोड के साथ इसकी अंतिम कड़ी 17 दिसंबर 1985 को प्रसारित की गयी ।
यही वह दौर था जब दूरदर्शन के दरवाजे निजी निर्माताओं के लिए खोलने और प्रायोजित कार्यक्रमों का सिलसिला शुरू करने मैनें प्रस्ताव बनाए, जिसे केंद्र सरकार ने अपनी मंजूरी दी।
...फिर 'बुनियाद' और दूसरे कई लोकप्रिय
सीरियल, रोज एक ट्रांसमीटर भी लगवाए
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'बुनियाद' ने लोकप्रियता का इतिहास रचा |
'हमलोग' की अभूतपूर्व सफलता के साथ ही दूरदर्शन के लिए मैनें कई और प्रमुख निर्माता-निर्देशकों को मंडी हाउस (दूरदर्शन का प्रशासनिक दफ्तर) बुलाया।
ऐसी ही एक बैठक फिल्म एवं टीवी प्रोड्यूसर्स गिल्ड के अध्यक्ष रमेश सिप्पी और उपाध्यक्ष अमित खन्ना के साथ सितम्बर 1985 में हुई।
तब मेरे साथ दूरदर्शन के महानिदेशक महानिदेशक हरीश खन्ना थी। हम लोगों ने उनसे पूछा कि क्या दूरदर्शन के लिए कार्यक्रमों का निर्माण करने में दिलचस्पी रखते हैं?
इस तरह एक और लोकप्रिय धारावाहिक 'बुनियाद' की नींव पड़ी। इसे भी मनोहर श्याम जोशी ने लिखा। यही वह दौर था, जब 'रजनी', 'ये जो है जिंदगी', 'विक्रम और वेताल', 'सिंघासन बत्तीसी', 'दादा-दादी की कहानियां', 'नुक्कड़', 'कथा सागर', 'तमस', 'मालगुड़ी डेज' और 'कहाँ गए वो लोग' सहित कई मनोरंजक और लोकप्रिय कार्यक्रमों का निर्माण और प्रसारण करवाया।
इसके साथ ही मैनें अपना पूरा ध्यान टेलीविजन प्रसारण को देश भर में फैलाने में लगाया। तब रोज एक टेलीविजन ट्रांसमीटर की स्थापना का लक्ष्य रखा गया और मैनें इसे सफलतापूवर्क क्रियान्वित भी करवाया गया।जिसमें 100 दिन में देश के अलग-अलग हिस्सों में उच्च क्षमता और निम्न क्षमता के 100 ट्रांसमीटर स्थापित करवा कर दिखाए।
इसके चलते देखते ही देखते दूरदर्शन की पहुंच घर-घर में हो गई। जिससे इन तमाम सीरियल की लोकप्रियता चरम पर पहुंच गई।
ऐसी ही एक बैठक फिल्म एवं टीवी प्रोड्यूसर्स गिल्ड के अध्यक्ष रमेश सिप्पी और उपाध्यक्ष अमित खन्ना के साथ सितम्बर 1985 में हुई।
तब मेरे साथ दूरदर्शन के महानिदेशक महानिदेशक हरीश खन्ना थी। हम लोगों ने उनसे पूछा कि क्या दूरदर्शन के लिए कार्यक्रमों का निर्माण करने में दिलचस्पी रखते हैं?
इस तरह एक और लोकप्रिय धारावाहिक 'बुनियाद' की नींव पड़ी। इसे भी मनोहर श्याम जोशी ने लिखा। यही वह दौर था, जब 'रजनी', 'ये जो है जिंदगी', 'विक्रम और वेताल', 'सिंघासन बत्तीसी', 'दादा-दादी की कहानियां', 'नुक्कड़', 'कथा सागर', 'तमस', 'मालगुड़ी डेज' और 'कहाँ गए वो लोग' सहित कई मनोरंजक और लोकप्रिय कार्यक्रमों का निर्माण और प्रसारण करवाया।
इसके साथ ही मैनें अपना पूरा ध्यान टेलीविजन प्रसारण को देश भर में फैलाने में लगाया। तब रोज एक टेलीविजन ट्रांसमीटर की स्थापना का लक्ष्य रखा गया और मैनें इसे सफलतापूवर्क क्रियान्वित भी करवाया गया।जिसमें 100 दिन में देश के अलग-अलग हिस्सों में उच्च क्षमता और निम्न क्षमता के 100 ट्रांसमीटर स्थापित करवा कर दिखाए।
इसके चलते देखते ही देखते दूरदर्शन की पहुंच घर-घर में हो गई। जिससे इन तमाम सीरियल की लोकप्रियता चरम पर पहुंच गई।
'रामायण' और 'महाभारत' के लिए
मैनें चिट्ठी लिखी सागर-चोपड़ा को
'रामायण' और 'महाभारत' के लिए
मैनें चिट्ठी लिखी सागर-चोपड़ा को
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''रामायण'' और ''महाभारत ''शुरू करने अहम भूमिका निभाई थी गिल ने |
इसी दौरान प्रधानमंत्री राजीव गांधी चाहते थे कि भारतीय इतिहास, संस्कृति व परंपरा से जुड़े विषयों पर भी दूरदर्शन कार्यक्रम बनाए।
तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री विट्ठल नरहरि गाडगिल ने मुझे इस बाबत बताया और मुझे निर्माता निर्देशक तय कर तत्काल अमल शुरू करने कहा।
तब मैनें अपने स्तर पर फैसला लेकर 1985 में सिनेमा जगत की दो हस्तियों बलदेव राज (बीआर) चोपड़ा और चंद्रमौली चोपड़ा (रामानंद सागर) को पत्र लिखे।
दोनों के साथ हमारी बैठकें हुई और दोनों को रामायण व महाभारत पर पायलट एपिसोड दो हफ्ते में जमा करने कह दिया गया। इस दौरान रामानंद सागर ने तो अपना एपिसोड जमा कर दिया था लेकिन बीआर चोपड़ा ने कुछ और वक्त मांगा। इस तरह सागर की 'रामायण' को पहले मंजूरी मिली और चोपड़ा के 'महाभारत' को बाद में।
इसी दौरान सचिव रहते हुए मैनें कुछ और प्रमुख टेलीविजन सीरियल शुरू करवाए। इनमें श्याम बेनेगल को 'भारत एक खोज' बनाने का प्रस्ताव दिया गया। दूरदर्शन पर तमाम ऐतिहासिक, मनोरंजक व लोकप्रिय कार्यक्रम शुरू करवाने के साथ-साथ मेरे कार्यकाल में समूचे देश में टेलीविजन प्रसारण का विस्तार हुआ।
30 नवंबर 1985 को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के सचिव पद से मैं सेवानिवृत्त हुआ। तब तक देश भर में दूरदर्शन का प्रसारण तेजी से बढ़ रहा था और विदेश में भी हमारे कार्यक्रम देखे जा रहे थे।
मैं नवंबर 85 में रिटायर हुआ लेकिन मेरे बनाए बहुत से प्रस्ताव पर अमल और मंजूरी दिए गए टेलीविजन सीरियलों का प्रसारण बाद के दिनों में इनके निर्माण के बाद संभव हो पाया।
'रामायण' सीरियल का प्रसारण 25 जनवरी 1987 से शुरू हुआ जो 31 जुलाई 1988 तक चला और 'महाभारत' का प्रसारण इसके दो माह बाद 2 अक्टूबर 1988 से शुरू हुआ जो 24 जून 1990 तक चला।
तब मैनें रशियन भी सीख ली थी भिलाई में: सत्या गिल
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सत्या गिल |
मुझे तो भिलाई की सारी बातें याद हैं। सेक्टर-9 में हमारा मकान था। तीनों बच्चे परमिंदा, गीतांजली और रबनीत की एजुकेशन वहीं सेक्टर-9 के इंग्लिश प्राइमरी स्कूल में चल रही थी।
उन दिनों मैं महिला समाज की गतिविधियों में बहुत ज्यादा व्यस्त रहती थी। तब रशियंस भी बहुत से थे।कुछ रशियन महिलाओं से मेरी दोस्ती थी और मैंनें रूसी बोली भी सीख ली थी।
उस जमाने की दोस्त क्लेरा बलराम सिंह आज भी मुझसे मिलने आती है।
भिलाई में इंडो-सोवियत फोरम भी था जिसमें कई सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे।
उन दिनों की एक खास बात जो मुझे याद आ रही है वह यह है कि तब आंदोलन बहुत हुआ करते थे। किसी बात को लेकर मजदूर बहुत आंदोलित थे और हमारे घर के सामने ही नारेबाजी कर रहे थे। मेरा बेटा रबनीत तब ढाई बरस का था। वह उस भीड़ को देख कर थोड़ा डर सा गया था।
मेेरे लिए उस तरह के आंदोलन एक सामान्य बात थी। क्योंकि मेरे पिताजी नागपुर में लेबर कमिश्नर रह चुके थे और मैंनें वहां ऐसे बहुत से आंदोलन देखे थे।
मैं उन मजदूरों की पीड़ा को समझती थी इसलिए कई बार तो मैं खुद उन्हे पानी वगैरा भिजवा देती थी।
मुझे यह कहने में बेहद खुशी होती है कि आंदोलनों के दौरान भिलाई में कभी भी मजदूरों ने हमें या साहब (गिल) को कोई व्यक्तिगत नुकसान नहीं पंहुचाया। मैं समझती हूं कि भिलाई में रहना हमारे लिए एक यादगार अनुभव था।
उन दिनों मैं महिला समाज की गतिविधियों में बहुत ज्यादा व्यस्त रहती थी। तब रशियंस भी बहुत से थे।कुछ रशियन महिलाओं से मेरी दोस्ती थी और मैंनें रूसी बोली भी सीख ली थी।
उस जमाने की दोस्त क्लेरा बलराम सिंह आज भी मुझसे मिलने आती है।
भिलाई में इंडो-सोवियत फोरम भी था जिसमें कई सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे।
उन दिनों की एक खास बात जो मुझे याद आ रही है वह यह है कि तब आंदोलन बहुत हुआ करते थे। किसी बात को लेकर मजदूर बहुत आंदोलित थे और हमारे घर के सामने ही नारेबाजी कर रहे थे। मेरा बेटा रबनीत तब ढाई बरस का था। वह उस भीड़ को देख कर थोड़ा डर सा गया था।
मेेरे लिए उस तरह के आंदोलन एक सामान्य बात थी। क्योंकि मेरे पिताजी नागपुर में लेबर कमिश्नर रह चुके थे और मैंनें वहां ऐसे बहुत से आंदोलन देखे थे।
मैं उन मजदूरों की पीड़ा को समझती थी इसलिए कई बार तो मैं खुद उन्हे पानी वगैरा भिजवा देती थी।
मुझे यह कहने में बेहद खुशी होती है कि आंदोलनों के दौरान भिलाई में कभी भी मजदूरों ने हमें या साहब (गिल) को कोई व्यक्तिगत नुकसान नहीं पंहुचाया। मैं समझती हूं कि भिलाई में रहना हमारे लिए एक यादगार अनुभव था।
किस्सा कुछ यूं है गिल साहब और उनकी 'लोडेड गन' का
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डॉ. पाठक, श्याम बेनेगल और तीजन बाई |
इस आंदोलन से गहरे जुड़े रहे पत्रकार और कालांतर में बीएसपी कर्मी डॉ. विमल कुमार पाठक ने इन पंक्तियों के लेखक के साथ विस्तार से जानकारी साझा की थी ।
एसएस गिल की पहल पर ही श्याम बेनेगल ने 'भारत एक खोज' में सीरियल बनाया था और संयोग से महाभारत वाले प्रसंग में प्रख्यात पंडवानी गुरु तीजन बाई की प्रस्तुति वाले दृश्य में डॉ. पाठक ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी।
बीते दशक में डॉ. पाठक ने अपनी किताब 'कहाँ गए वो लोग' में गिल के साथ अनुभवों को विस्तार से दर्ज किया है। मई 2017 में डॉ. पाठक का निधन हुआ था। डॉ. पाठक ने एक इंटरव्यू के दौरान इन पंक्तियों के लेखक को गिल की 'लोडेड गन' का किस्सा जैसा बताया था, सब उन्हीं के शब्दों में-
14 मार्च 1966 को प्लांट निर्माण का दूसरा चरण पूरा हुआ और कंस्ट्रक्शन विभाग से 4500 श्रमिकों की छंटनी कर दी गई। इसमें 1500 लोगों में 500 वह श्रमिक भी थे, जिनकी जमीन कारखाने के लिए अधिग्रहित की गई थी।
नौकरी से निकाले जाने के खिलाफ करीब 1500 स्थानीय मजदूर एकजुट हुए और छत्तीसगढ़ मजदूर कल्याण सभा के बैनर तले आंदोलन का बिगुल फूंका गया।
इस संघ का नेतृत्व कर रहीं थी संसद सदस्य मिनीमाता। मुझे कार्याध्यक्ष, चुनगुलाल वर्मा को महासचिव और वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी शिवनंदन प्रसाद मिश्र को संरक्षक बनाया गया।
शुरूआत में हम लोगों ने हिंसक आंदोलन के बजाए सिलसिलेवार शांतिपूर्ण आंदोलन को तरजीह दी।
हरिशंकर साहू, चुनगुलाल वर्मा, एसके गुलाम नबी और रामनारायण मिश्रा हमारे आंदोलन के साथी थे। हम लोगों ने धरना, प्रदर्शन व क्रमिक भूख हड़ताल जैसे कई कदम उठाए।
हमने सहयोग के लिए कांग्रेस, जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी और रिपब्लिकन पार्टी से भी समर्थन मांगा। हमारा आंदोलन बाद में उग्र रूप भी लेने लगा था।
नौकरी से निकाले जाने के खिलाफ करीब 1500 स्थानीय मजदूर एकजुट हुए और छत्तीसगढ़ मजदूर कल्याण सभा के बैनर तले आंदोलन का बिगुल फूंका गया।
इस संघ का नेतृत्व कर रहीं थी संसद सदस्य मिनीमाता। मुझे कार्याध्यक्ष, चुनगुलाल वर्मा को महासचिव और वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी शिवनंदन प्रसाद मिश्र को संरक्षक बनाया गया।
शुरूआत में हम लोगों ने हिंसक आंदोलन के बजाए सिलसिलेवार शांतिपूर्ण आंदोलन को तरजीह दी।
हरिशंकर साहू, चुनगुलाल वर्मा, एसके गुलाम नबी और रामनारायण मिश्रा हमारे आंदोलन के साथी थे। हम लोगों ने धरना, प्रदर्शन व क्रमिक भूख हड़ताल जैसे कई कदम उठाए।
हमने सहयोग के लिए कांग्रेस, जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी और रिपब्लिकन पार्टी से भी समर्थन मांगा। हमारा आंदोलन बाद में उग्र रूप भी लेने लगा था।
इस दौरान के हमारे संघ की बैठक के दौरान यह तय किया गया कि सुबह पर्सनल मैनेजर सुरेंद्र सिंह गिल के सेक्टर-9 स्थित निवास में धरना देना है। उस दिन शाम को मैं किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम की रिपोर्टिंग के लिए नेहरू हाऊस गया था। वहां मुझे गिल साहब मिले।
उन्होंने मुझे एक तरफ ले जाकर कहा कि सुबह का आंदोलन कतई नहीं होना चाहिए। मैंने इस पर असमर्थता जाहिर करते हुए कहा कि इस्पात भवन में सिक्युरिटी वाले आपसे मिलने नहीं देते तो हम आखिर जाएं कहा? इस पर वह शांत हो गए।
अगली सुबह ठीक 5 बजे सारे आंदोलनकारी 'रघुपति राघव राजाराम' गाते हुए उनके घर के सामने इकट्ठा हो गए। कुछ देर प्रदर्शन के बाद सब लौट गए। यह क्रम निरंतर चलता रहा।
उन्होंने मुझे एक तरफ ले जाकर कहा कि सुबह का आंदोलन कतई नहीं होना चाहिए। मैंने इस पर असमर्थता जाहिर करते हुए कहा कि इस्पात भवन में सिक्युरिटी वाले आपसे मिलने नहीं देते तो हम आखिर जाएं कहा? इस पर वह शांत हो गए।
अगली सुबह ठीक 5 बजे सारे आंदोलनकारी 'रघुपति राघव राजाराम' गाते हुए उनके घर के सामने इकट्ठा हो गए। कुछ देर प्रदर्शन के बाद सब लौट गए। यह क्रम निरंतर चलता रहा।
तब एक दिन बेहद नाराज गिल साहब ने कहा कि अब अगर मेरे घर आंदोलन हुआ तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा लेकिन आंदोलन कहां रूकने वाला था। सुबह फिर वहीं नजारा।
उस दिन गिल बेहद तमतमाए हुए थे। हमें उनके एक नौकर ने बताया कि साहब अपने पास लोडेड गन रखे हुए हैं, इसलिए आप लोग चले जाइए।हम लोगों को भी मालूम था कि अक्सर गिल साहब अपने पास लोडेड गन रखते हैं।
लेकिन हम यह भी जानते थे कि वह सिर्फ सुरक्षा के लिए ऐसा करते हैं। इसी दौरान उनकी पत्नी सत्या गिल बाहर आई उन्होंने बेहद विनम्रता के साथ हम लोगों से बात की और तीन-चार लोगों को अंदर बात करने चलने कहा गया।
हम लोग गए वहां गिल साहब ने कहा कि- घर पर कोई बात नहीं होगी आप लोग ठीक 10 बजे इस्पात भवन आइए।
जब सुबह हम इस्पात भवन पहुंचे तो गिल साहब बेहद नाराज बैठे हुए थे।हम लोगों के पहुंचते ही उन्होंने एक चिट्ठी दिखाई। जिसमें 1500 लोगों को नौकरी ना देने पर गिल साहब को गालियां देते हुए जान से मारने की धमकी दी गई थी। हम लोग निरूत्तर थे।
मैंने गिल साहब से पूछा कि जिन लोगों के घर चार साल से चूल्हा नहीं जल रहा हो और जिनकी जमीन छिन गई हो वह क्या करे? उन्होंने कहा कि आंदोलनकारियों से मेरी हमदर्दी है,लेकिन मैं बदतमीजी कतई बर्दाश्त नहीं करूंगा। मैंने चिट्ठी लिखने वाले की शिनाख्त करवा ली है।
हालांकि उन्होंने कोई सख्त कदम नहीं उठाया। यह उनकी भलमनसाहत थी कि कारखाने में अपनी जिम्मेदारी निभाने के बावजूद उन्हें आंदोलनकारियों से हमदर्दी थी।
तत्कालीन संसद सदस्य मिनीमाता की वजह से भी हमारे आंदोलन को बल मिला और अंतत: चार बरस तक सतत् आंदोलन, जुलूस सभा, भूख हड़ताल, घेराव व दिल्ली प्रस्थान जैसे कदमों के चलते केंद्र सरकार की विशेष पहल के बाद सभी 1500 लोगों को काम पर वापस रख लिया गया।हालांकि हम लोग कभी भी गिल साहब की लोडेड गन वाला मंजर कभी नहीं भूल पाए।
नोट:-दूरदर्शन के सुनहरे दौर पर इस इंटरव्यू में कुछ तथ्य प्रख्यात लेखक मनोहर श्याम जोशी की किताब 'मास मीडिया और समाज' और प्रसिद्ध फिल्मकार अमित खन्ना के द वायर में प्रकाशित इंटरव्यू से भी लिए गए हैं। वहीं अखबारो और पत्रिकाओं की वेबसाइट पर दर्ज तथ्य भी इसमें शामिल किए गए हैं।
हालांकि उन्होंने कोई सख्त कदम नहीं उठाया। यह उनकी भलमनसाहत थी कि कारखाने में अपनी जिम्मेदारी निभाने के बावजूद उन्हें आंदोलनकारियों से हमदर्दी थी।
तत्कालीन संसद सदस्य मिनीमाता की वजह से भी हमारे आंदोलन को बल मिला और अंतत: चार बरस तक सतत् आंदोलन, जुलूस सभा, भूख हड़ताल, घेराव व दिल्ली प्रस्थान जैसे कदमों के चलते केंद्र सरकार की विशेष पहल के बाद सभी 1500 लोगों को काम पर वापस रख लिया गया।हालांकि हम लोग कभी भी गिल साहब की लोडेड गन वाला मंजर कभी नहीं भूल पाए।
जब प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सम्मानित किया था 'रामायण' की टीम को
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ये तस्वीर 'रामायण' धारावाहिक के प्रथम प्रसारण के समय की है। इस तस्वीर में 'रामायण' की स्टारकास्ट के साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी नज़र आ रहे हैं। इस तस्वीर को 'रामायण' की 'सीता' दीपिका चिखलिया ने अपने आधिकारिक इंस्टाग्राम अकाउंट के जरिए साझा की है। इस तस्वीर को साझा करते हुए दीपिका ने लिखा, ''यह पहली बार था जब हमें सम्मानित किया गया था। उस वक्त एहसास हुआ कि हम 'रामायण' जैसी विरासत का हिस्सा हैं। हमने इतिहास रच दिया था। आज भी वो दिन आंखों के सामने ऐसे तैर जाता है जैसे अभी की बात हो। वो पल जब हमें प्रधानमंत्री से मिलने के लिए दिल्ली से फोन आया था।'' इस तस्वीर में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के साथ 'रामायण' के मुख्य किरदार 'राम' अरुण गोविल और निर्देशक रामानंद सागर भी नज़र आ रहे हैं.। इस सम्बन्ध में सागर आर्ट्स की ओर से एक वीडिओ यू ट्यूब पर उपलब्ध है, जिसके मुताबिक रामानंद सागर के 'रामायण' की अपार सफलता को देखकर व उनके आगामी कार्यक्रम 'श्री कृष्णा' के बारे में सुनकर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने सागर को पत्र लिखकर अपने आवास पर आमंत्रित किया था। इस मौके पर सागर के पुत्र प्रेम सागर, 'रामायण' मेंं राम व सीता की भूमिका निभाए अरुण गोविल व दीपिका टोपीवाला ,संगीतकार रविंद्र जैन और अन्य सहयोगी उपस्थित थे। रामानंद सागर ने प्रधानमंत्री राजीव गांधी को रामायण की वीडियो कैसेट भी भेंट की थी।
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