सुकून है तो बस यहीं...शंकर-शंभू
कव्वाल को जानते हैं आप..?
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भिलाई नेहरू हाउस सेक्टर-1 में अपनी प्रस्तुति देते हुए शंकर शंम्भू 12 सितंबर 1963 |
मुहम्मद ज़ाकिर हुसैन
कोरोना संक्रमण के दौर में अगर आपको सांप्रदायिकता का वायरस भी परेशान कर रहा है तो सुकून के लिए शंकर-शंभू कव्वाल को जरूर सुनिए। अलीगढ़ (उत्तरप्रदेश) के चंदौसी के रहने वाले दोनों भाई जिस अंदाज में डूब कर खुदा की शान में ‘हम्द’, रसूलुल्लाह की शान में ‘नात’ और सहाबा व औलिया की खूबी बयां करते हुए ‘मनकबत’ पेश करते हैं, उसकी कोई दूसरी मिसाल ढूंढे नहीं मिलती।
ऐसा नहीं कि इन दोनों भाईयों का रुझान सिर्फ सूफियाना कलाम की ओर था, बल्कि दोनों ने भजन, माता की भेंटें, गुरबानी और साईं भजन भी बखूबी गाए हैं। आज के दौर में सब कुछ इंटरनेट पर मिल जाएगा। अपनी पसंद से आप जो चाहें सुन लें।
आज हजरत अमीर खुसरो का एक बेहद मकबूल कलाम 'मन कुन्तो मौला फ़’ अ अली उन मौला’ उस्ताद शंकर शंभू की आवाज में। वैसे तो इस कलाम को हर दौर में हर कव्वाल अपने-अपने तरीके से पेश करता ही है लेकिन शंकर-शंभू की आवाज में यह कलाम अपनी आंखें बंद कर सुनना एक अलग दुनिया में ले जाता है।
वैसे इस कलाम से जुड़ी बात बता दूं। इसमें जो लफ्ज 'मन कुन्तो मौला फ़’ अ अली उन मौला’ आता है, इसके मायने वैसे तो बहुत ज्यादा गूढ़ अर्थ लिए हुए है लेकिन मुझे इसका सरल अर्थ जानना था।
इसलिए मैनें भिलाई में रह रहे इंजीनियरिंग के प्रोफेसर और अरबी-उर्दू-फारसी के अच्छे जानकार डॉ. साकेत रंजन को फोन लगाया।
तो उन्होंने बिना देरी किए बताया-पैगम्बर हजरत मुहम्मद ने हजरत अली की तरफ मुखातिब होते हुए अवाम से यह कलाम कहा था कि-’’जैसे मैं तुम सब का मौला (संरक्षक) हूं, वैसे ही (मेरे बाद) अली तुम सब का मौला।’’
डॉ. साकेत रंजन ने इस पर कुछ और रौशनी डालते हुए कहा कि-वास्तविक सूफ़ी होना साधना की एक अवस्था है। इस अवस्था में पहुंच जाने के बाद मज़हब का आसमान साधक के पैरों के नीचे हो जाता है। फिर क्या भजन क्या नात क्या हम्द क्या मनक़बत क्या शबद क्या कीर्तन सब बराबर हो जाते हैं। साधक को इन सब में अपना महबूब दिखाई देता है। मेरे विचार से शंकर शंभू का व्यक्तित्व भी ऐसा ही है।
उन्होंने बताया कि दरअसल यह वाक़या ग़दीर (अरब में एक स्थान) का है हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहो वाअलैहे वसल्लम लोगों के साथ सफर पर थे। जब वह ग़दीर पहुंचे तो उन्होंने लोगों से रुकने को कहा और वहां एक मिम्बर (बैठने की जगह) बनाया फिर उस पर बैठ कर कहा 'अना मदीनतुल इल्म व अली उन बाबहा' यानी अगर मैं इल्म का शहर हूं तो अली उसका दरवाजा हैं। संकेत साफ़ था कि दरवाजा होकर ही मुझ तक आना है। फिर उन्होंने कहा 'मन कुंतो मौला फ व अली उन मौला ।'
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भक्ति के हर रंग में डूब कर गाया है शंकर शंभू ने |
अब कुछ बात शंकर-शंभू कव्वाल की। हमारे मुल्क की गंगा-जमनी तहजीब के नुमाइंदे बड़े भाई शंकर और छोटे भाई शंभू ने बचपन से ही घर में अपने पिता और जाने-माने लोक व शास्त्रीय गायक चुन्नीलाल उस्ताद से संगीत सीखना शुरू किया था।
बाद में पिता ने इजाजत दी तो शंकर और शंभू ने जयपुर घराने के प्रसिद्ध शास्त्रीय गुरु मोहनलाल से शास्त्रीय संगीत सीखना शुरू किया। उन्होंने दिल्ली घराने के उस्ताद चांद खान साहिब से रियाज़ और गायन के गुर सीखे।
इसी दौरान दोनों भाई तब के दो बड़े शायरों शारिक इरयानी और क़मर सुलेमानी तक पहुंचे और इनसे उर्दू, अरबी और फारसी सीखने लगे। इसके बाद इन्हीं शायरों की सलाह पर दोनों भाइयों ने गज़़ल, कव्वाली और सूफियाना कलाम भी गाना शुरू कर दिया और स्टेज शो भी करने लगे।
दरगाह शरीफ (कानपुर) के गद्दीनशीं हजरत सूफी साहब की सलाह पर दोनों भाई अपने पिता पं. चुन्नीलाल के साथ अजमेर शरीफ में हजरत ख्वाजा गरीब नवाज के उर्स शरीफ में हाजिरी देने गए थे, लेकिन नए होने के कारण उन्हें कलाम पेश करने का मौका नहीं मिला। बताते हैं कि उनके पिता पं. चुन्नीलाल ने ख्वाजा गरीब नवाज के दरबार में हाजिरी लगाई कि जब तक उनके बच्चों को कलाम पेश करने की इजाजत नहीं मिलेगी, तब तक वह अन्न-जल नहीं लेंगे।
आखिरकार तीसरे दिन उनकी पुकार सुन ली गई और दरगाह के गद्दीनशीं की तरफ से उन्हें उर्स के आखिरी दिन उन्हें महफिल-ए-खाना में कलाम पेश करने की इजाजत दी गई। इसके बाद तो जैसे जादू हो गया। जैसे ही दोनों भाइयों ने 'महबूबे किबरिया से मेरा सलाम कहना’ गाना शुरू किया तो पूरी महफिल पर छा गए।
लोग झूम उठे और यहां से दोनों भाइयों का करियर चमक उठा। दरअसल, हजऱत ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती अजमेरी रहमतुल्लाह अलैह से उन्हें ख़ास अक़ीदत थी। छोटे भाई शंभू एचएमवी से जारी अपने रिकार्ड के एलबम पर इस बारे में लिखते हैं-'इसी दरबार से हम लोग नवाज़े गए और क़व्वाल नाम से मशहूर हुए.गऱीब नवाज़ के करम से हर समाज में हमें इज़्ज़त मिली।’
अजमेर शरीफ में कव्वाली की इसी महफिल के दौरान भारतीय फिल्म जगत के महान निर्देशक महबूब खान ने इन भाइयों से मुलाकात की और उन्हें बाम्बे आने की दावत दे दी। फिर दोनों भाई बाम्बे पहुंचे और महबूब साहब के घर पर रखी गई एक महफिल में शानदार कव्वालियां पेश की।
यहां से दोनों भाइयों का फिल्म जगत में प्रवेश हुआ। इस समारोह में मौजूद लोगों ने दोनों भाइयों की खुले दिल से तारीफ की। कई मौके भी मिले और देखते ही देखते दोनों भाई फिल्मों में भी व्यस्त हो गए।
इसके बाद शंकर-शंभू ने आलम आरा, तीसरी कसम, बरसात की रात, प्रोफेसर और जादुगर, शान-ए-खुदा, मेरे दाता गऱीब नवाज़, तीसरा पत्थर, बेगुनाह क़ैदी,लैला मजनू,बादल, तुम्हारा कल्लू और मंदिर मस्जिद जैसी कई फिल्मों में कव्वालियां गाईं।
फिल्मों और स्टेज शो की वजह से तब तक उनकी पहचान भारत के इकलौते हिंदु कव्वाल के तौर पर खूब हो रही थी। जाहिर है लोकप्रियता भी चरम पर थी। 80 का दशक आते-आते दोनों भाई की लोकप्रियता का आलम यह हो गया था कि शंकर-शंभू एक ब्रांडनेम बन चुके थे और इसे भुनाने उस दौर में ‘’शंकर शंभू’’ नाम से एक फिल्म भी बन गई थी विनोद खन्ना और फिरोज खान को लेकर।
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शंकर-शम्भू निवास मुंबई (साभार-दीपक पंडित की फेसबुक वॉल ) |
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