Monday, November 26, 2012

मोहम्मद लफ्ज से बढ़ कर नहीं है कोई तहरीर

नातिया कलाम की खुशबू फैला रहे हैं प्रो. साकेत रंजन प्रवीर



एक निजी इंजीनियरिंग कॉलेज में प्राध्यापक प्रो. साकेत रंजन प्रवीर इस खूबी से पैगंबर हजरत मोहम्मद की शान में नातिया कलाम कहते हैं कि नबी का कोई भी आशिक इनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। गैर मुस्लिम पृष्ठभूमि के होने के बावजूद प्रो. साकेत के कलाम का कोई सानी नहीं है।प्रो. प्रवीर ने अपने खयालात का इजहार कुछ इस तरह से किया-
बिहार के सारण जिले में हम छोटा से कस्बे इनायतपुर के रहने वाले हैं। मेरे दादा श्याम किशोर नारायण 'शाम इनायत पुरी' ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से फारसी में एमए थे। पिता मणिशंकर श्रीवास्तव हिंदी साहित्य के समीक्षक-आलोचक रहे हैं। वहीं हम छह भाइयों में सभी शेरों-सुखन से जुड़े हैं। नातिया कलाम यानि पैगंबर हजरत मोहम्मद की शान में लिखी जाने वाली कविता को लेकर जो समझ आई वह पटना में कॉलेज के दिनों की बात है। 
तब स्वामी प्रेम जहीर से अरबी का छंद शास्त्र (इल्मे अरूज), अलंकार शास्त्र (इल्मे बलागत) और मरहूम कौसर सिवानी से रस शास्त्र (इल्मे सलासत) व सौंदर्य शास्त्र (इल्मे फसाहत) हासिल करने की खुशकिस्मती हासिल हुई। क्योंकि इसके बिना उर्दू शायरी में परफेक्शन आ नहीं सकता था। वहीं पटना में सुल्तान अख्तर, सत्यनारायण और रविंद्र राजहंस जैसे आला दर्जे के नातख्वां से भी सीखने मिला।
नातिया कलाम मेरे लिए  खालिस तौर पर नबी से मुहब्बत ही है। पैगंबर किसी कौम तक महदूद नहीं है। कुरआन में जब उसे रब्बुल आलमीन कहा गया है तो उस रब्बुल आलमीन का भेजा रसूल बेशक सारे आलम के लिए रसूल है। दुनिया में जितनी कौम हैं सबने अपने-अपने अंदाज और लफ्जों-जुबान में हजरते रसूल की प्रशंसा की है।
 इसमें आप अहमद रजा बरेलवी, कृष्ण बिहारी नूर, पंडित दयाशंकर नसीम से लेकर छत्तीसगढ़ में स्व. पं. गया प्रसाद खुदी और आलोक नारंग तक ढेरों नाम है। आज नबी की शान में कुछ कह लेता हूं, ये उन्हीं का करम है। हाल ही में मेरे अजीज दोस्त फजल फारूकी  खाना-ए-काबा (मक्का) में थे। वहां उन्होंने मेरा लिखा एक कलाम वहां एक महफिल में पढ़ा। जब उनका फोन आया तो यकीन मानिए, लगा सारी आरजू पूरी हो गई। चलते-चलते ईद मिलादुन्नबी के मौके पर एक शेर-बेमिस्ल जमाने में है ये  लफ्जे मोहम्मद, इस लफ्ज से बढ़ कर कोई तहरीर नहीं है, हर काम है जागीर इसी लफ्ज की प्यारे, ये लफ्ज किसी कौम की जागीर नहीं है। 4 फरवरी 2012 (c)

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