Tuesday, July 31, 2018


देश में रफी साहब का यादगार कंसर्ट हुआ था राजहरा में 


छत्तीसगढ़ी फिल्मों और भिलाई से भी जुड़ी कुछ बातें और यादें उस कंसर्ट की


मुहम्मद जाकिर हुसैन 
शंकर-रफी 
 सुर सम्राट मुहम्मद रफी साहब के गुजरने के 38 साल बाद भी उनके दीवानों की कभी कोई कमी नहीं रही। रफी साहब का छत्तीसगढ़ से आत्मीयता का नाता रहा है। जहां शुरूआती दौर की छत्तीसगढ़ी फिल्मों 'कहि देबे संदेस' और 'घर द्वार' के गीतों को उन्होंने अपनी आवाज दी। 
वहीं अब तक की ज्ञात जानकारी के मुताबिक देश के भीतर आखिरी विशाल सार्वजनिक कार्यक्रम रफी साहब ने भिलाई स्टील प्लांट (बीएसपी) की लौह अयस्क खदान नगरी दल्ली राजहरा में 26 अप्रैल 1980 को दिया था। 
दल्ली राजहरा के बाद देश में उनका आखिरी स्टेज परफार्मेंस 15 मई 1980 को मुंबई के षण्मुखानंद हॉल में हुआ था। फिर तीन दिन बाद भारत के बाहर आखिरी सार्वजनिक शो श्रीलंका में 18 मई 1980 को हुआ था और इसके बाद रमजान का महीना लग चुका था। जिसमें रफी साहब स्टेज प्रोग्राम नहीं देते थे। और रमजान के महीने में ही रफी साहब ने 31 जुलाई 1980 को आखिरी सांस ली थी।  
परचा 1980 का
रफी साहब की छत्तीसगढ़, भिलाई और दल्ली-राजहरा से जुड़ी कई यादें हैं, जो आज भी लोगों के जहन में ताजा है।
 दल्ली राजहरा में यह पहला और आखिरी बड़ा कार्यक्रम हुआ था, जिसमें न सिर्फ  तत्कालीन मध्यप्रदेश बल्कि महाराष्ट्र और ओडिशा से भी लोग हजारों की तादाद में आए थे। दल्ली राजहरा में रफी साहब का कार्यक्रम आयोजित करने का श्रेय जाता है,वहां के व्यवसायी शांतिलाल जैन को। 
तब मध्यप्रदेश में अकाल के हालात थे और राहत कोष के लिए श्री जैन की पहल पर राजहरा के जवाहरलाल नेहरू फुटबॉल स्टेडियम में 26 अप्रैल 1980 को शंकर-जयकिशन नाइट रखी गई थी।
 इसके लिए अकालग्रस्त सहायता और चिकित्सालय निर्माण समिति का गठन किया गया था। जिसके अध्यक्ष बीएसपी खदान विभाग के महाप्रबंधक सीआर शिवास्वामी और सचिव शांतिलाल जैन थे। संगीतकार शंकर-जयकिशन जोड़ी के जयकिशन पहले ही दिवंगत हो चुके थे। इसलिए आयोजन में रफी साहब के साथ संगीतकार शंकर पहुंचे थे। 
वहीं गायक मन्ना डे, गायिका शारदा, ऊषा तिमोथी, नायिका सोनिया साहनी और कॉमेडियन जॉनी व्हिस्की सहित अन्य लोग भी आए थे। इसके लिए तैयारियां महीना भर से शुरू हो गई थी, जिसमें हजारों की तादाद में परचे छपवाए गए थे। इनमें से कुछ परचे आज दल्ली राजहरा में रफी साहब के चाहने वाले अनिल वैष्णव आज भी धरोहर की तरह संभाल कर रखे हैं। 
इस प्रोग्राम में स्टेज डेकोरेशन का जिम्मा चरित्र अभिनेता पी. जयराज की कंपनी को मिला था। इसके लिए जयराज खुद दल्ली राजहरा पहुंचे थे और अपने सामने स्टेज निर्माण करवाया था।
 चूंकि पहली बार इतना बड़ा आयोजन हो रहा था, इसलिए स्टेडियम के मैदान के लिए करीब एक लाख कुर्सियों की जरूरत थी। इसके लिए नागपुर से विशेष तौर पर कुर्सियां मंगाई गई थी। कार्यक्रम बेहद सफल रहा और लोगों के जहन में कई यादें छोड़ गया। 

जब एक विवाद के चलते रफी साहब का भिलाई दौरा टल गया

 मुखर्जी और सहगल 
1969 में भिलाई स्टील प्लांट के खेल एवं मनोरंजन विभाग ने सेक्टर-1 स्थित नेहरू कल्चर हाउस में मोहम्मद रफी नाइट रखी थी। शुरूआती बातचीत के बाद तारीख तय हो गई थी और इस बीच अचानक रफी साहब के निजी सचिव से पैसों के लेन-देन को लेकर बीएसपी के अफसरों का विवाद हुआ और बात यहां तक पहुंची कि रफी साहब ने अफसरों को कोर्ट में घसीटने की धमकी तक दे दी थी।
बीएसपी की तरफ से रफी साहब के सचिव से तब के एसआरजी प्रमुख जसवंत सिंह सहगल बात कर रहे थे। रफी नाइट की तैयारियां प्रख्यात सितार वादक और तब बीएसपी के माइंस विभाग में इंजीनियर पं. बिमलेंदु मुखर्जी के नेतृत्व में चल रही थी। मुखर्जी और सहगल ने बीते दशक में इस संबंध में इन पंक्तियों के लेखक को विस्तार से जानकारी दी थी।
दोनों रिटायर अफसरोंं  के मुताबिक तारीख तय होने के बाद शहर में जगह-जगह होर्डिंग लगा दिए गए और परचे भी बांटे जाने लगे। इस बीच पैसों को लेकर दोनों पक्षों के बीच विवाद हुआ। उनकी तरफ से रेट बढ़ा दिया गया, जिसे एक सरकारी कंपनी होने के नाते बीएसपी के लिए मानना संभव नहीं था।
उनकी कुछ और शर्तें भी थी। इधर होर्डिंग लगाए जाने और परचे बांटने की खबर जब रफी साहब के निजी सचिव को लगी तो उन्होंने नाराजगी जाहिर की कि जब शर्तें ही फाइनल नहीं हुई है तो प्रचार कैसे शुरू कर दिया गया..? इसके बाद विवाद बढ़ गया और अंतत: तमाम तैयारियों के बावजूद कार्यक्रम रद्द कर दिया गया। इसके बाद ना तो बीएसपी मैनेजमेंट ने रफी साहब का प्रोग्राम दोबारा करवाने की कोशिश की और ना ही रफी साहब के सचिव की तरफ से भी कोई पहल हुई।

पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म के लिए रफी साहब की दरियादिली

मलय चक्रवर्ती, रफी साहब और मनु नायक 
1964 का वाकया है- छत्तीसगढ़ से मुंबई जाकर पहचान बनाने संघर्ष कर रहे युवा मनु नायक पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म कहि देबे संदेस शुरू कर चुके थे। अपने सीमित बजट की वजह से गीतकार डॉ.एस.हनुमंत नायडू 'राजदीप' और संगीतकार मलय चक्रवर्ती पर मनु नायक राज जाहिर नहीं करना चाहते थे कि वह बड़े गायक-गायिका को नहीं ले सकेंगे। 
लेकिन, होनी को कुछ और मंजूर था। तब मलय चक्रवर्ती धुन तैयार करने के बाद पहला गीत रफी साहब की आवाज में ही रिकार्ड करने की तैयारी कर चुके थे और उनकी रफी साहब के सेक्रेट्री से इस बाबत बात भी हो चुकी थी। मनु नायक उस दौर को याद करते हुए बताते हैं-सेक्रेट्री रफी साहब की तयशुदा फीस से सिर्फ 500 रूपए कम करने राजी हुआ था। सीमित बजट के बावजूद एक धुन तो थी, इसलिए मलय दा को लेकर मैं सीधे फेमस स्टूडियो ताड़देव पहुंचा। यहां रफी साहब किसी अन्य गीत की रिकार्डिंग में व्यस्त थे। जैसे ही रफी साहब रिकार्डिंग पूरी कर बाहर निकले, मैनें उनके वक्त की कीमत जानते हुए एक सांस में सब कुछ कह दिया।
 मैनें अपने बजट का जिक्र करते हुए कहा कि मैं पहली फिल्म बना रहा हूं, अगर आप मेरी फिल्म में छत्तीसगढ़ी का गीत गाएंगे तो यह क्षेत्रीय बोली-भाषा की फिल्मों को नई राह दिखाने वाला कदम साबित होगा। चूंकि रफी साहब मुझसे पूर्व परिचित थे, इसलिए वह मुस्कुराते हुए बोले-कोई बात नहीं, तुम रिकार्डिंग की तारीख तय कर लो।
फिर रफी साहब रिकार्डिंग के लिए स्टूडियो पहुंचे तो उन्होंने पूछा-कहां है आपके छत्तीसगढ़ी साहब जिनका मुझे गीत गाना है। मैं समझ गया कि रफी साहब छत्तीसगढ़ी मतलब गीतकार का नाम समझ रहे हैं। इस पर मैनें उन्हें बताया कि छत्तीसगढ़ी बोली का नाम है। 
इसके बाद रफी साहब ने रिहर्सल की और इस तरह रफी साहब की आवाज में पहला छत्तीसगढ़ी गीत 'झमकत नदिया बहिनी लागे' रिकार्ड हुआ। फिर दूसरा गीत 'तोर पैरी के झनर-झनर' भी उन्होंने रिकार्ड करवाया। खास बात यह रही कि रफी साहब ने मुझसे किसी तरह का कोई एडवांस नहीं लिया और रिकार्डिंग के बाद मैनें जो थोड़ी सी रकम का चेक उन्हें दिया, उसे उन्होंने मुस्कुराते हुए रख लिया।
मेरी इस फिल्म में मन्ना डे, सुमन कल्याणपुर, मीनू पुरूषोत्तम और महेंद्र कपूर भी गा रहे थे और जब रफी साहब ने बेहद मामूली रकम लेकर मेरी हौसला अफज़ाई की तो उनकी इज्जत रखते हुए इन सभी सारे कलाकारों ने भी उसी अनुपात में अपनी फीस घटा दी। 
इस तरह रफी साहब की दरियादिली के चलते मैं पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म में इन बड़े और महान गायकों से गीत गवा पाया। रफी साहब के छत्तीसगढ़ी गीतों को सुनने और इन गीतों से जुड़े तथ्य व विस्तृत जानकारी पर मेरा आलेख छत्तीसगढ़ी गीत-संगी पर पढ़ सकते हैं।

रफी साहब का दिया सबक मैं भूल नहीं पाया

राकेश मोहन विरमानी
दल्ली राजहरा में शंकर-जयकिशन नाइट की शुरूआती कंपेयरिंग करने वाले राकेश मोहन विरमानी तब स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की सेक्टर-1 भिलाई शाखा में पदस्थ थे। भिलाई से खास कर उन्हें इस कार्यक्रम की कंपेयरिंग के लिए बुलाया गया था।
इन दिनों भोपाल में रह रहे विरमानी बताते हैं-याद तो नहीं है कि मुझे कैसे, कब और किसने इस जिम्मेदारी के लिए चुना था लेकिन जब वहां पहुंचा तो स्टेज के पीछे ग्रीन रूम में मुझे रफी साहब से मिलवाया गया।
इतनी बड़ी शख्सियत को सामने देख मुझे यकीन नहीं हो रहा था, मैं थोड़ा नर्वस भी हो गया लेकिन खुद को संभालते हुए मैनें कहा-'रफी साहब आदाब।'
मुझे अच्छी तरह याद है रफी साहब ने मुझे टोका और कहा-'अगर मैं मुसलमान हूं तो क्या आप आदाब करेंगे। हमारे मुल्क की पहचान गंगा-जमनी तहजीब से है और आप मुझे नमस्कार भी कर सकते हैं।' इसके बाद रफी साहब मुस्कुराए और कहा-'मेरी तरफ से आपको हाथ जोड़ कर नमस्कार जी।' विरमानी कहते हैं-रफी साहब का दिया यह सबक मैं कभी नहीं भूल पाया।

वो पल, जब मैनें रफी साहब के पैर छुए                       

अनिल वैष्णव
दल्ली राजहरा निवासी बीएसपी कर्मी अनिल वैष्णव उन खुशकिस्मत रफी भक्तों में से एक हैं,जिन्होंने 1980 के उस कंसर्ट में रफी साहब से मुलाकात की थी। तब वे मैट्रिक पढ़ रहे थे।
अनिल बताते हैं कि शंकर-जयकिशन नाइट के लिए रफी साहब और संगीतकार शंकर 25 अप्रैल की दोपहर में ही दल्ली राजहरा पहुंच गए थे और उन्हें बीएसपी के गेस्ट हाउस में रुकवाया गया था। 
इस दौरान आयोजक शांतिलाल जैन के निवास पर शाम को रफी साहब की एक घरेलू महफिल जमी। आवाज तो बाहर तक आ रही थी इसलिए जैसे-जैसे खबर मिली, शांतिलाल जी के घर के पास हजारों की भीड़ जमा हो गई।
तब पुलिस ने बड़ी मुश्किल से भीड़ को काबू में किया था। अनिल बताते हैं कि अगली सुबह उनके जीवन में अविस्मरणीय दिन लेकर आई। तब गेस्ट हाउस के पास अचानक सुबह-सुबह देखा तो कुरता-पायजामा में रफी साहब और संगीतकार शंकर टहल रहे थे। 
हालांकि उस वक्त मैं सिर्फ उन्हें देखते रहा और कुछ सूझा ही नहीं कि पास जाऊं या कुछ कहूं। इसके बाद शाम को जब कार्यक्रम हुआ तो हमारा पूरा समूह मौजूद था।

 राजहरा स्टेडियम
प्रोग्राम के तुरंत बाद मैं अपने समूह के साथ स्टेज के पास गया और रफी साहब के पैर छू कर उनसे आशीर्वाद लिया। रफी साहब मुस्कुरा दिए। मैनें उन्हें बताया कि उनके गाने हम लोग शौकिया तौर पर गाते हैं। रफी साहब ने सिर्फ इतना ही कहा खूब मेहनत करो, अच्छे से पढ़ाई पूरी करो। अनिल वैष्णव कहते हैं रफी साहब का यह आशीर्वाद उनके लिए जीवन भर की पूंजी बन गया। 
तब तक हमारा आर्केस्ट्रा ग्रुप सरगम म्यूजिकल के नाम से जाना जाता था लेकिन रफी साहब से मुलाकात और उनका आशीर्वाद लेने के बाद हम लोगों ने अपने समूह का नाम आर्केस्ट्रा मोहम्मद रफी नाइट कर दिया।
अनिल बताते हैं दल्ली राजहरा के उस प्रोग्राम की शुरूआत रफी साहब ने फिल्म 'समझौता' के गीत 'बड़ी दूर से आए हैं, प्यार का तोहफा लाएं हैं' से की थी। तब से हम लोगों ने भी नियम बना लिया है और अपने प्रोग्राम की शुरूआत रफी साहब के इसी गीत से करते हैं।
अनिल बताते हैं कि रफी साहब उस प्रोग्राम के बाद 27 अप्रैल को अपनी टीम के साथ रवाना हुए। मुख्य आयोजक शांतिलाल जैन की कार में रफी साहब और मन्ना डे दल्ली राजहरा से नागपुर गए थे। तब इस कार को महालिंगम जी ड्राइव कर रहे थे। महालिंगम वर्तमान में बीएसपी दल्ली माइंस में सेवारत हैं। 

रफी साहब हमारे सामने गा रहे थे, यकीन करना मुश्किल था

बीएस पाबला                     ज्ञान चतुर्वेदी
दल्ली राजहरा में पले-बढ़े प्रसिद्ध ब्लॉगर बीएस पाबला भी उस प्रोग्राम में मौजूद थे। वर्तमान में रिसाली सेक्टर भिलाई में निवासरत  पाबला बताते हैं-मैं बिल्कुल सामने वाली लाइन में बैठा था।
 रफी साहब उस रात बेहद मूड में थे और दर्शकों ने भी हर गीत पर तालियों और सीटियों से पूरे माहौल को जीवंत बना दिया था। तब मेरी उम्र 20 साल थी और यकीन करना मुश्किल हो रहा था कि सामने रफी साहब गा रहे हैं। तब मेरे पास अपना कैमरा था, जिससे मैनें बहुत सी तस्वीरें भी खींचीं। 
इनके नेगेटिव आज भी मेरे पास हैं।पाबला बताते हैं तब रफी साहब ने 'तुमसा नहीं देखा', 'ओ दुनिया के रखवाले', 'मेरी दोस्ती मेरा प्यार', 'ओ मेरी महबूबा', 'चाहे कोई मुझे जंगली कहे' सहित बहुत से नग्मे सुनाए थे। दर्शकों की फरमाइश पर उन्होंने 'कन्यादान' का 'लिखे जो खत तुझे' गीत दो बार सुनाया था। 
दल्ली राजहरा के उस प्रोग्राम में मौजूद रहे बीएसपी के रिटायर डीजीएम और संगीत प्रेमी ज्ञान चतुर्वेदी बताते हैं-वो रात हम सबके लिए यादगार और ऐतिहासिक थी। इतनी बड़ी शख्सियत, जिन्हें हम सब देवता मानते हैं, को अपनी नजरों के सामने देखना सचमुच में एक यादगार लम्हा रहा। 
मैं अपनी लैम्ब्रेटा स्कूटर से दल्ली राजहरा गया था और रात में 2 बजे भिलाई लौटा। मेरी बड़ी ख्वाहिश थी कि रफी साहब से मिलूं और उनका आशीर्वाद लूं लेकिन कुछ निजी परेशानियों के चलते मुझे भिलाई लौटने की जल्दी थी। इसलिए मैं रफी साहब से मिल ना पाया, इसका मुझे हमेशा अफसोस रहेगा।

6 comments:

  1. आपको बहुत बहुत बधाई इस अनुकरणीय परयप्र हेतु।
    आपके द्वारा इस जानकारी के लिए किया अथक परिश्रम सराहनीय है।

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    1. आपका बहुत बहुत शुक्रिया

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  2. जाकीर सा. मैने भी 16साल की उम्र मे यह प्रोग्राम अटैन्ड किया था,रफी सा. के दीदार किये थे, इतनी बेशकीमती जानकारियों का खजाना सौंप कर आपने मेरी रुह को पुरअसरार सकून दिया है, आपका लाख लाख शुक्रिया

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    1. आपसे बात हुई तो लगा रफी साहब के उस यादगार प्रोग्राम की मैं लाइव रिपोर्टिग कर रहा हूं। सच में खुशकिस्मत हैं आप।

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