Sunday, September 9, 2018

संकट अब सिर्फ खेती का नहीं बल्कि पूरे

 समाज और उससे भी आगे हमारी  सभ्यता का 


 ''ग्रामीण अर्थव्यवस्थाअसमानता और किसानों की बदहाली''

विषय पर वरिष्ठ पत्रकार पीसाईंनाथ का सेवाग्राम (वर्धा ) में व्याख्यान


मूल व्याख्यान से लिप्यांतरण-मुहम्मद जाकिर हुसैन

सम्बोधित करते हुए पी साईनाथ 
वरिष्ठ पत्रकार पलगुम्मी साईंनाथ को पूरी दुनिया पी. साईंनाथ के नाम से बखूबी जानती है। ग्रामीण पत्रकारिता में साईंनाथ का काम अद्वितीय-अतुलनीय है। उन्होंने ग्रामीण भारत खास कर कृषि पर इतना काम किया है कि अब वो इस विषय के चलते-फिरते एनसाइक्लोपीडिया में तब्दील हो चुके हैं।
 प्रतिष्ठित रेमन मैगसेसे सहित देश और दुनिया के कई सम्मान उन्हें मिल चुके हैं।स्वतंत्रता सेनानी व देश के पूर्व राष्ट्रपति वेंकट वराह गिरी के खानदान से ताल्लुक रखने वाले साईंनाथ की नजर में कृषि का संकट अब महज खेती या किसान का नहीं बल्कि इससे कहीं आगे सभ्यता और मानवता का संकट है। महात्मा गांधी की कर्मस्थली सेवाग्राम (वर्धा) में 19 अगस्त 2018 को साईंनाथ ने ''ग्रामीण अर्थव्यवस्था, असमानता और किसानों की बदहाली'' विषय  पर अद्भुत व्याख्यान दिया।
 मौका था मध्य प्रदेश की संस्था ''विकास संवाद'' की ओर से 12 वें राष्ट्रीय मीडिया संवाद ''गाँधी एक माध्यम या सन्देश '' के  तीन दिवसीय आयोजन के समापन का। मुझे भी इस आयोजन में भाग लेने का अवसर मिला.
करीब सवा घंटे का यह व्याख्यान उनकी अपनी चिर-परिचित दक्षिण भारतीय हिंदी-अग्रेजी की मिश्रित शैली में था। मैनें इसे थोड़ा और सरल करने की कोशिश की है। मूल वक्तव्य साईंनाथ का ही है। इसमें कुछ संदर्भ इंटरनेट से मिल गए थे, इसलिए इन्हें लिंक के साथ में नत्थी कर दिया हूं।
एक बात और, इस साल मार्च में नाशिक महाराष्ट्र के किसान-मजदूरों के मुंबई तक के  सफल पैदल मार्च से उत्साहित विभिन्न संगठनों ने कृषि संकट पर इसी साल नवंबर के आखिरी हफ्ते में इससे कई गुना बड़ा आंदोलन दिल्ली में करने का फैसला किया है।
जाहिर है इस आंदोलन को साईंनाथ का मार्गदर्शन मिल रहा है। साईनाथ ने यहां विषय से संदर्भित अपनी बात रखने के अलावा नवंबर के प्रस्तावित आंदोलन की भी चर्चा की। साईंनाथ ने अपने लम्बे व्याख्यान में जो कुछ कहा उसे तीन हिस्सों में अपने इस ब्लॉग में पोस्ट कर रहा हूँ पहला हिस्सा यहाँ से- 

मत देखिए कि आज खेती में पैदावार कितनी गिरी बल्कि
देखिए कि इसके साथ इंसानियत कितनी गिरती जा रही
व्याख्यान के दौरान 
हम पिछले 20 साल से खेती और किसानों के संकट पर लगातार बात कर रहे हैं। लेकिन अब आपको मानना पड़ेगा कि पिछले 5 साल में मामला इससे कहीं आगे निकल चुका है।
यह संकट अब सिर्फ खेती का नहीं बल्कि पूरे समाज और उससे भी आगे एक सभ्यता का संकट बन गया है। बहुत साल से हम आंकलन कर रहे हैं कि कृषि संकट क्या है।
इसके लिए हम आंकलन करते हैं खेती में पैदावार कितनी गिरी और कितने किसानों ने आत्महत्या की? आज यह मत देखिए कि खेती में पैदावार कितनी गिरी बल्कि यह देखिए कि इसके साथ हमारी इंसानियत कितनी गिरती जा रही है। 20 साल से हम चुपचाप बैठे रहे तब तक पूरे देश में 3 लाख 10 हजार किसान आत्महत्या कर चुके हैं और हम कुछ नहीं कर पाए हैं। यह सबसे बड़ा संकट है। बहुत हद तक देखा जाए तो यह हमारी इंसानियत का संकट है।


         ग्रामीण भारत कहां है हमारे 'नेशनल' मीडिया में..?                                                   
बदहाल किसान 
सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज नई दिल्ली हर साल ग्रामीण भारत को मीडिया मिलने वाले स्पेस पर अपनी रिपोर्ट जारी करता है। इसके लिए वे लोग नेशनल कहे जाने वाले हिंदी और अंग्रेजी के 6-6 न्यूज पेपर टेलीविजन चैनल को लेते हैं।
मेरी नजर में अध्यन के लिए ये बड़ा अजीब तरीका है। अगर किसी अखबार के दो संस्करण निकलते हैं। जिसमें एक दिल्ली से और दूसरा किसी दूसरे शहर से निकलता है तो दिल्ली वाला नेशनल कहलाएगा, अब अगर ये नेशनल हैं तो क्या बाकी एंटी नेशनल हुए..?
खैर, उस रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण भारत की खबरों का इन राष्ट्रीय अखबारों के मुख्य पृष्ठ (फ्रंट पेज) पर प्रतिनिधित्व का पांच साल का औसत महज 0.67 प्रतिशत है। हालांकि वो भी थोड़ा ज्यादा है क्योंकि इन 5 सालों में चुनाव का साल भी जाता है। जिसमें यह प्रतिनिधित्व 2 प्रतिशत तक बढ़ जाता है। अगर चुनाव रहित कोई एक साल ही लें तो यह प्रतिनिधित्व 0.24 प्रतिशत ही होगा। देख लीजिए, ये हमारी रूचि है ग्रामीण भारत में।

एमएसपी पर चार साल में लगातार
फिसलती रही सरकार की जुबान
मंडी में रखा अनाज 
कृषि संकट पर राजनीतिक संकट भी देख लीजिए। 2014 जब मौजूदा सरकार के लोग विपक्ष में थे तो अपने चुनाव प्रचार में वादा किया था कि सरकार बनने पर हम किसानों को न्यूनमत समर्थन मूल्य (एमएसपी) के नाम पर कास्ट ऑफ प्रोडक्शन 2 प्लस 50 प्रतिशत देंगे।
चुनाव हुआ और फिर सत्ता में आने के बाद 12 महीने के अंदर 2015 में इस सरकार ने एक बार सूचना का अधिकार (आरटीआई) के जवाब में और दूसरी बार न्यायालय में अपने एफिडेविट में दो बार स्वीकारोक्ति की।
इसमें सरकार ने कहा कि-''हम ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि इससे मार्केट का डिस्टार्शन (खराबा) होगा।'' मतलब? किसान कितना भी बदहाल हो जाए कोई बात नहीं मार्केट का बिगाड़ नहीं होने देंगे। इसके बाद 2016 में कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने ऐलानिया कहा कि-''हमनें यह वादा कभी नहीं किया।''
इसके बाद 2017 में केंद्र सरकार और उनके समर्थित बौद्धिक जगत (कैप्टिव इंटेलेक्चुअल) ने घोषित कर दिया कि ये स्वामीनाथन रिपोर्ट को छोड़ो और आप मध्यप्रदेश जाकर देखो। वहां शिवराज चौहान उससे भी कहीं आगे चले गए हैं। वहां की भावांतर योजना में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) सीधे ट्रांसफर हो रहा है किसानों को।
इस पर उन लोगों ने किताब भी निकाली और यह किताब इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में बड़े धूमधाम से रिलीज भी हुई। जिसमें मध्यप्रदेश मॉडल का जबरदस्त तरीके से स्तुतिगान किया गया। अब देखिए, जिस दिन इस किताब का नई दिल्ली में विमोचन हुआ, उसी  के 24 घंटे के अंदर मध्यप्रदेश के ही मंदसौर में पुलिस की फायरिंग से 5 किसान मारे गए।
इसके बाद अब आप जरा केंद्र सरकार का एक फरवरी 2018 का बजट भाषण भी देख लीजिए। इसमें पैराग्राफ 13 और 14 में अरूण जेटली ने कहा कि-''हां, हमने ये वादा किया और खरीफ में पूरा भी कर दिया।'' इसके बाद जुलाई में यही सरकार घोषणा करती है कि-''हम इसे लागू करने जा रहे हैं।''
तो अब तक इन लोगों ने कहा-हम लागू करेंगे, हम लागू करने जा रहे हैं, यह संभव नहीं, हमने कभी नहीं कहा, हम लागू कर चुके हैं-तो साल दर साल ये अलग-अलग बयान हैं इनके। अब आप खुद तय कर लीजिए कि आप इनकी किस लाइन को स्वीकार करेंगे।

''सीओपी'' का शरारतपूर्ण ढंग
से इस्तेमाल करती हैं सरकारें
कृषि वैज्ञानिक स्वामीनाथन 60 के दशक में 
एक बात और ,ये जो उत्पादन लागत (कास्ट ऑफ प्रोडक्शन-सीओपी) शब्द है,इसका इस्तेमाल बेहद शरारतपूर्ण तरीके से किया जाता है। सीओपी की गणना के लिए -1, सी-1 और बी-1 के अलग-अलग सिस्टम है।
लेकिन तीन सिस्टम  -2 और -2 प्लस एफएल और सीओपी 2 प्लस 50 प्रतिशत ज्यादा  प्रासंगिक है। इसमें सीओपी का अलग-अलग तरीका है।
इस वजह से बहुत से लोग भ्रम में रहते हैं और और जहां भी मैं जाता हूं तो लोग पूछते हैं कि सरकार ने एमएसपी डिक्लियर कर दिया ना..?
अब एक और बात। आप जिस स्वामीनाथन रिपोर्ट की बात करते हैं, उसका सही नाम नेशनल कमीशन ऑन फार्मर्स रिपोर्ट है। इसमें सिर्फ एमएस स्वामीनाथन  नहीं और भी लोग हैं। अब  मीडिया में किसानों से जुड़े सिर्फ दो ही मुद्दे  किसान की ऋण माफी और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) यानि लागत मूल्य के साथ 50 प्रतिशत हैं। लेकिन इसके साथ ही मिट्टी की सेहत और पानी के बंदोबस्त सहित और भी कई मामले हैं।

हम स्टेरायड्स पर चला रहे हैं खेती को
कीटनाशक का दुष्प्रभाव 
खेती की मौजूदा स्थिति को आप समझना चाहते हैं तो इस बारे में मेरे पैतृक राज्य आंध्र प्रदेश में एक किसान ने अच्छी मिसाल दी है।
उस किसान ने मुझसे कहा कि अगर आप जुड़वा भाइयों को समान परिस्थिति में एक ही काम दें। जिसमें एक भाई सामान्य परंपरागत आहार पर और दूसरा स्टेराइड्स के भरोसे रखा जाए तो दोनों में कौन बेहतर रिजल्ट देगा..?
जाहिर है स्टेराइड वाला बेहतर करेगा। अगले 6-8 साल के लिए उसकी उत्पादकता ज्यादा होगी। लेकिन एक समय बाद यह तय है कि स्टेरायड्स वाला मर जाएगा।
वहीं जो भाई सामान्य परिस्थिति और आहार में काम कर रहा था वो तो स्वाभाविक तरीके से काम करता रहेगा। तो मुझे वह किसान यही कहना चाह रहा था कि हम अपनी खेती को स्टेराइड्स पर चला रहे हैं। लेकिन, हमारे नीति निर्माताओं को यह समझ नहीं आता है।
खेती में जो आप इनपुट-आउटपुट देखते हैं, इसके बीच एक जीवंत तत्व (लीविंग आर्गेनिज्म) मिट्टी है। आप इसे अनदेखा नहीं कर सकते और अपना इनपुट-आउटपुट आपरेशन इसे एक तरफ रख कर नहीं चला सकते। इसलिए मेरा कहना है कि आज कृषि का संकट कृषि से बहुत ज्यादा आगे निकल गया है।
अगली क़िस्त यहाँ 
क्रमशः अगले अंक में जारी

No comments:

Post a Comment