Sunday, August 30, 2020

भारत-चीन सम्बन्ध और हमारा भिलाई


1962 के भारत-चीन युद्ध से लेकर आज के तनाव के हालात 
तक, भिलाई ने हमेशा अपनी भूमिका बढ़ चढ़ कर निभाई 

1962 में भिलाई स्टील प्लांट का प्रवेश द्वार  (मेन गेट ) 

मई 2020 के पहले हफ़्ते से लद्दाख क्षेत्र में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी)  पर भारत और चीन के बीच तनाव की स्थिति बनी हुई है। 15-16 जून 2020 की दरमियानी रात गलवान घाटी में भारत-चीन सैनिकों के बीच 'घंटों चले संघर्ष में 20 भारतीय सैनिकों की शहादत हुई और 76 अन्य घायल हुए।.इसके बाद से सीमा पर तनाव के हालत हैं। 
भारत सरकार ने चीन के सॉफ्टवेयर पर प्रतिबन्ध लगाने के अलावा आर्थिक  मोर्चे पर भी बड़े चीनी ठेकों  लगाने की कार्रवाई की है। इस बीच दोनों देशों के रिश्तों के बीच तनाव के हालत में इस्पात नगरी भिलाई की भूमिका की पड़ताल करना प्रासंगिक होगा। 1962 के भारत-चीन युद्ध से लेकर आज के तनाव के हालात तक, भिलाई ने हमेशा अपनी भूमिका बढ़ चढ़ कर निभाई है।
चीन से हमारे छत्तीसगढ़ के रिश्तों की बात तो हजारों बरस पहले महान चीनी यात्री ह्वेनसांग छत्तीसगढ़ के सिरपुर आया था और आज भी भिलाई हो या छत्तीसगढ़ का कोई और कोना, कहीं भी चीनियों की मौजूदगी एक सामान्य घटना ही है।
वैसे बीते दशक में कोरबा में चीन की निर्माणाधीन चिमनी गिरने से दिया दर्द छत्तीसगढ़वासी नहीं भूले हैं। जब कोरबा शहर में वेदांत समूह की भारत एल्युमिनियम कंपनी (बाल्को) के निर्माणाधीन बिजलीघर में 23 सितंबर 2009 अपराह्न करीब 3 बजकर 50 मिनट हुए हादसे में 40 मज़दूर मारे गए थे। बिजलीघर बनाने का ठेका चीन की कंपनी शांडोंग इलेक्ट्रिक पावर कॉरपोरेशन (सेप्को) को दिया गया था और इस कंपनी के लगभग 80 इंजीनियर और मज़दूर यहां काम कर रहे थे।
वहीँ भिलाई स्टील प्लांट की बात करें तो यहाँ भी काम के सिलसिले में चीनियों आना-जाना लगा रहा है। वैसे देश के दूसरे शहरों की तरह दांत के डाक्टरों वाले कुछ चीनी परिवार भिलाई दुर्ग में बरसों से रहते आएं है। हालांकि अब इन लोगों ने भारतीय नागरिकता ले ली है। लेकिन एक सवाल थोड़ा परेशान करता है कि देश के अलग-अलग शहरों में दांतों के ज्यादातर डाक्टर चीनी मूल के ही क्यों होते हैं?
खैर,इस बीच बात भिलाई स्टील प्लांट की। सार्वजनिक उपक्रम बीएसपी के स्थापना काल 1955 से 1991 में मुक्त अर्थव्यवस्था के दौर से पहले तक यहां शत प्रतिशत तकनीक तत्कालीन सोवियत संघ (आज का रूस) की इस्तेमाल हुई।
लेकिन, 1991 के बाद फिजा बदली और सोवियत संघ टूटने के बाद भिलाई जैसे सार्वजनिक उपक्रम में दूसरे देशों की तकनीक भी शामिल की जाने लगी। जिसमें पहला बड़ा निवेश जापान की मित्सुई कंपनी का था, जिसने यहां सिंटर प्लांट-3 बनाया। हालांकि इस दौर में चीन भी एक प्रतिद्वंदी था लेकिन तब ठेका जापान को मिला था।
लेकिन चीन ने देश भर की तरह भिलाई में भी निवेश के लिए कोशिशें बरकरार रखीं। इस दिशा में 18 जुलाई 1994 को चीन के धातु उद्योग मंत्रालय में उपमंत्री यू.झीचून के नेतृत्व में एक प्रतिनिधि मंडल भिलाई आया। इस प्रतिनिधिमंडल ने यहां निवेश की संभावनाएं टटोली थी।
इसके बाद तब छोटे स्तर पर भले ही कुछ साजो-सामान व कलपुर्जे भेज कर चीन तसल्ली भले ही कर रहा होगा लेकिन उसे बड़ा मौका बीते दशक में भिलाई की 70 लाख टन विस्तारीकरण परियोजना में मिला। यहां चीन ने बड़ा निवेश किया है। जिसमें एक प्रमुख इकाई स्टील मेल्टिंग शॉप-3 की सेकंडरी रिफाइनरी यूनिट है,जो शत-प्रतिशत चीनी तकनीक पर है।
मई 2020 में इसी यूनिट में लिक्विड स्टील से भरा लैडल पंक्चर हो गया था। जिसमें कोई जनहानि नहीं हुई। इस हादसे की जांच चल रही है इसलिए फिलहाल किसी नतीजे पर पहुंचना जल्दबाजी होगी। 

भारत-चीन युद्ध के समय भिलाई में जज़्बा ऐसा उमड़ा कि छह 
माह तक अपनी तनख्वाह से सेना को योगदान भेजते रहे कर्मी 

भिलाई होटल और सिविक सेंटर में इंदिरा गाँधी, साथ में हैं जनरल मैनेजर सुकू सेन (1963 )

1962-63 मेेंं युद्ध की परिस्थिति में भिलाई स्टील प्लांट के कर्मियों ने न सिर्फ सर्वाधिक डेढ़ लाख रूपए राष्ट्रीय रक्षा कोष में दिए थे बल्कि स्काउट और एनसीसी क पृष्ठभूमि से आए नौजवान कर्मियों ने मोर्चे पर जाने देश के प्रधानमंत्री को पत्र तक लिख दिया था।
वो दौर ऐसा था, जब एक लाख रूपए बोलने पर भी सोचना पड़ता होगा। इसलिए तब ''लाख टके की बात'' जैसा जुमला और ''सवा लाख की लाटरी भेजो अपने भी नाम जी'' जैसा गाना खूब चलता था।
वो दौर ऐसा था जब भिलाई स्टील प्लांट में न्यूनतम वेतन 40-50 रूपए और अधिकतम 450-500 रूपए होता था। इस दौर में देश भर से अपना भविष्य बनाने भिलाई आए नौजवानों के दिल में जज्बा था, अपने देश के लिए कुछ कर गुजरने का।
ऐसे में भिलाई के लोगों ने राष्ट्रीय रक्षा कोष में पूरे डेढ़ लाख रूपए समर्पित किए थे। उन दिनों एक तोला सोना 97 रूपए का था तो उस लिहाज से तब का एक लाख आज के लगभग 3.5 करोड़ रूपए से भी ज्यादा था।
चीन ने युद्ध छेड़ा 20 अक्टूबर 1962 को और इसके बाद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने रेडियो पर आकर सब कुछ साफ-साफ बता दिया। उन्होंने देशवासियों से सहयोग मांगा तो घरों से सारी जमा पूंजी और जेवरात तक लोगों ने हंसते-हंसते दे दिए। तब ऐसे माहौल में भिलाई स्टील प्लांट के कर्मी भला कैसे पीछे रहते।
भारत सरकार ने अपने सभी सरकारी कर्मियों से नवंबर माह के वेतन से एक-एक दिन की तनख्वाह राष्ट्रीय रक्षा कोष में स्वैच्छित तौर पर मांगी थी। लेकिन भिलाई स्टील प्लांट के कर्मियों ने कहा- नहीं, हमारे देश पर मुसीबत आई है तो हम पीछे नहीं हट सकते और फिर क्या था ज्यादातर ने छह माह तक तनख्वाह काटे जाने का घोषणापत्र भर दिया।
भारत-चीन युद्ध तो नवंबर 62 में खत्म हो गया लेकिन देश आर्थिक मोर्चे पर फिर नए सिरे से खड़े होने की तैयारी में जुट गया। ऐसे में भिलाई के कर्मियों ने तब अपनी तनख्वाह और आपसी सहयोग से डेढ़ लाख रूपए जुटाए।
तब भिलाई स्टील प्लांट के जनरल मैनेजर सुकू सेन थे, जो कि पूर्व में बंगाल की क्रांतिकारी गतिविधियों में संलग्न अनुशीलन पार्टी से भी संबद्ध रहे थे। स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रियता की वजह से उनकी प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से काफी नजदीकियां थी।
इस वजह से जब भिलाई स्टील प्लांट की तरफ से राष्ट्रीय रक्षा कोष में दान समर्पण का मौका आया तो सुकू सेन ने सीधे प्रधानमंत्री नेहरू से संपर्क साधा। इसके बाद कार्यक्रम भी तय हो गया लेकिन ऐन वक्त पर दिल्ली में अतिव्यस्तता के चलते जवाहरलाल नेहरू भिलाई नहीं आ सके और उन्होंने प्रतिनिधि के तौर पर अपनी बेटी इंदिरा गांधी को भिलाई भेजा था।
इंदिरा तब न तो मंत्री थी ना ही सांसद। लेकिन युद्ध की परिस्थिति में भारत सरकार द्वारा बनाई गई राष्ट्रीय रक्षा परिषद में वह एक सदस्य जरूर थी। इस नाते इंदिरा 9 फरवरी 1963 को भिलाई आई। जहां उन्होंने सिविक सेंटर में एक विशाल जनसभा को संबोधित किया था।
इस दौरान जनरल मैनेजर सुकू सेन व उनकी पत्नी इला सेन ने भिलाई बिरादरी की ओर से डेढ़ लाख रूपए का चेक राष्ट्रीय रक्षा कोष के लिए इंदिरा गांधी को सौंपा था। तब इंदिरा ने भिलाई स्टील प्लांट का दौरा भी किया था और आफिसर्स एसोसिएशन की तरफ से आयोजित एक समारोह में कार्यक्रम में शामिल हुई थी।
बीएसपी के रिटायर अफसर और हुडको निवासी वीएन मजुमदार बताते हैं-तब भिलाई में सारे नौजवान कर्मी थे और सभी के दिल में देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा था। इसलिए कर्मियों ने स्वेच्छा से न सिर्फ छह माह तक हर माह एक दिन का वेतन देने का घोषणा पत्र भरा था बल्कि ऐसे कर्मी जो एनसीसी-स्काउट की पृष्ठभूमि से आए थे, उन्होंने सीमा के मोर्चे पर उतरने बाकायदा प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और रक्षामंत्री को खत लिखे थे।
मजुमदार के मुताबिक तब अफसरों की तनख्वाह ही 200 से 500 रूपए तक होती थी, इसके बावजूद लोगों में देश के कुछ कर गुजरने का जज्बा था। उन्होंने बताया कि युद्ध के दौरान भिलाई स्टील प्लांट में एक भी दिन उत्पादन बाधित नहीं हुआ और ना ही कभी ब्लैक आउट की स्थिति आई। बल्कि इसके विपरीत 1962-63 में तब रिकार्ड उत्पादन हुआ था।

रहि ले ले,तोर हम करबो दवाई रे....चीन पर
1962 में लिख रही थी छत्तीसगढिय़ा कलम


आज जिस तरह भारत-चीन सीमा पर तनाव के हालात हैं, करीब-करीब ऐसे ही गंभीर हालात 58 साल पहले 1962 में बने थे। तब अक्टूबर-नवंबर महीने में भारत-चीन युद्ध हुआ था।
ऐसे संवेदनशील समय में दुर्ग-भिलाई के कविजन वीर रस की कविताएं लिखकर देश का मनोबल बढ़ा रहे थे। इन कवियों में दुर्ग के कोदूराम 'दलित' का नाम प्रमुख है। वहीं भिलाई स्टील प्लांट में सेवा दे रहे कई प्रमुख कवियों ने भी चीन को ललकारते हुए अपनी कलम चलाई थी।
भिलाई के कवियों की रचनाएं तब बाद में भिलाई स्टील प्लांट ने छपवा कर संसद तक में बंटवाई थी। यही वह दौर था जब छत्तीसगढ़ी की पहली फिल्म 'कहि देबे संदेस' का निर्माण चल रहा था और इस आपदा के दौर को निर्माता-निर्देशक मनु नायक ने अपनी सूझबूझ से अवसर में बदल दिया था।

कोदूराम 'दलित' मुखर थे चीन के खिलाफ

पहले बात जनकवि कोदूराम 'दलित' की। भारत-चीन के संबंधों को लेकर दलित बेहद संवेदनशील थे। दलित की यह रचना दुर्ग जिला भारत सेवक समाज ने तब प्रकाशित की थी, अब उनके सुपुत्र अरूण कुमार निगम ने फेसबुक पर भी इसे पोस्ट किया है, जिसे इन दिनों शेयर किया जा रहा है। दलित ने उस वक्त लिखा था-
अरे बेशरम चीन, समझे रहेन तोला परोसी के नाता-म,
अपन बँद-भाई रे,नारा लगाइस-हिन्दी चीनी भाई के
औ करम करे लगिस, निठुर कसाई के,
रहि ले ले,तोर हम करबो दवाई रे...।
अरे बेशरम चीन, समझे रहेन तोला
परोसी के नाता-म, अपन बँद-भाई रे
का जानी कि कपटी-कुटाली तैं ह एक दिन
डस देबे हम्मन ला, डोमी साँप साहीं रे ।
बघवा के संग जूझे, लगे कोल्हिया निपोर
दीखत हवे कि तोर आइगे हे आई रे
लड़ाई लड़े के रोग, डाँटे हवै बहुँते तो
रहि ले-ले तोर हम, करबो दवाई रे।
अरे दगादार चीन, जान गे जगत हर
खोड़िलपना ला तोर चाऊ एन लाई के
नारा लगाइस-हिन्दी चीनी भाई के औ
करम करे लगिस, निठुर कसाई के
मेड़ो ला हमार हथिया के आज रेंधिया-ह
डर बतावत हवै, हमला लड़ाई के
टोर देबो हाड़ा-गोड़ा, बैरी के अउर हम
खप्पर मा भर देबो, चण्डी देवी दाई के।

एक बार फिर हारा रावण आया है कैलाश उठाने

भिलाई स्टील प्लांट में तब लेबर इंस्पेक्टर और बाद के दिनों में जनसंपर्क अधिकारी रहे रमाशंकर तिवारी ने चीन के खिलाफ अपनी रचना में लिखा था-
आज देश पर घिर आए काले ये विनाश के बादल
नई फसल को फिर से बैरी-दुश्मन मुड़कर ताक रहा है
एक बार फिर हारा रावण आया है कैलाश उठाने-
लुटी हुई हिम्मत की साथी, हारी हिकमत आंक रहा है
बरबादी की हवा अभी तो बस कल ही गुजरी थी सिर से
और लौट आया है दुश्मन ले नापाक इरादे फिर से 
शायद है इस बार साथियों, कोई चाल चलेगा ओछी
इसलिए होशियार दोस्तो, आज कमर हम कस लें फिर से
जो जवानियां जूझ रहीं सीमा पर उनको लडऩे दो तुम
अरे उन्हें जीवित रखने को काम और बस काम करो तुम 
तेज करो निर्माण, चलाओ अरे प्रगति के चाक चलाओ
झोंको ईंधन झोंको भाई, जुटे रहो तुम लौह गलाओ
एक स्वेद की बूंद खून के सौ कतरों सी अजर अमर है
अगर रहे मजबूत भाईयों तो ताकत में कहां कसर है
उनको दो विश्वास, तुम्हारे पीछे सारा देश खड़ा है
हम त्यागी हैं, तुम बलिदानी सबसे उपर देश बड़ा है
अफवाहों का गला घोंट दो, मन भयभीत न होने पाए 
रहे न बाकी एक स्वार्थी, मूल्य न कोई बढऩे पाए
हाथ न रोको जब तक साथी दुर्दिन अपने बीत न जाएं
हिंसा के बदनाम तरीके, अरे तिरंगा जीत न लायें
और खेत की फसल संभालो, जोतो बंजर कोना-कोना
क्या मां भी खामोश रहेगी मचलेगा जब श्याम सलोना
सोना चांदी गहने जेवर, मां बहिनों के कंगन-नुपूर
इन्हें न रखो, करो न्यौछावर आज देश की आजादी पर
स्नेहदान दो, स्वर्णदान दो, रक्तदान से हटो न पीछे
यह गौतम अशोक की धरती हम 'दधीचि' हैं,रहें न पीछे
हम मशीन के चालक साधक, पर मशीनगन ले सकते हैं
बिगड़ गए एक बार तो समझो ब्याज चौगुना ले सकते हैं
हमको तो आदत है साथी, पहिला वार झेलते हैं हम
मगर दूसरा दांव हमारा पहिला और आखिर रहा है
और तीसरे की गुंजाइश? अब ऐसी मसल नहीं हैं
झुक कर जी लें! अरे असंभव, अपनी ऐसी नसल नहीं है।

चाचा जी न करना चिंता तुम, सारे चीनी चट जाएंगे

बीएसपी शिक्षा विभाग में पदस्थ रहे ज्वाला प्रसाद पटेरिया ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को संबोधित करते हुए लिखा था-
प्रिय चाचा को आश्वासन
 चाचा जी न करना चिंता तुम, सारे चीनी चट जाएंगे।
हमे भेज दो शीघ्र भेज दो, हम सीमा पर जाएंगे।।
 अभी सुना है चाचा हमनें चिंतित हो तुम-
फिकर न करना किसी बात की जिंदा हैं हम 
यदि कारण है सीमा पर फिर से चीनी जुट आए हैं 
उसे जन्म से, बड़े स्वाद से बच्चे खाते आए हैं
 इसलिए न चिंता करना तुम सारे चीनी चट जाएंगे।। 
हमें भेज दो...
चीनी संकट के कारण यदि माथे पर पड़ जाएगा बल
 फिर न संभाले-संभलेगा यद वीर बहादुर बच्चों का दल
 चढ़ दौड़ पड़ेंगे उच्च हिमालय के बर्फानी शिखरों पर 
हुंकारेंगे तो चल जाएगा आरा अरि के सीनों पर
इस फौलादी नगरी के हैं बच्चों के फौलादी सीने 
झेल शत्रु की गोली, उसकी कर देंगे टेढ़ी संगीनें।।2।।
वीर शिवाजी और प्रताप की लक्ष्मी की संतान हैं हम
विंध्य हिमालय के साये में पले, बढ़े, खेले हैं हम 
पवनपुत्र हैं हमीं जलाकर रख देंगे चाऊ की लंका 
भीमसेन हैं पान करेंगे रक्त माओ का
न इसमें शंका कदम बढ़ेगा फिर न रुकेगा 
पेकिंग तक धावा मारेंगे 
छका छका दुश्मन को धोखे का मजा चखाएंगे ।।3।।
अगर कहीं मुरझा जाएंगी, तेरे गुलाब की पंखुरियां
देकर दिल का खून रखेंगे हम रंजित वे पंखुरियां
 खाकर हम सब कसम तेरे उस लाल गुलाबी फूल की
और तिरंगे झंडे की, भारत माता की धूल की।।
याद दिला देंगे दुश्मन को उसकी अपनी भूल की 
भुला सके न याद युगों तक हम बच्चों के शूल की।।
 इसलिए न करना चिंता तुम 
सारे चीनी चट जाएंगे।
हमें भेज दो शीघ्र भेज दो, हम सीमा पर जाएंगे।।

जियो, जियो अय हिंदुस्तान

वहीं बीएसपी कर्मी एमके चटर्जी ने भारतीय सेना के शौर्य का बयान करते हुए लिखा था-

जियो-जियो अय हिंदुस्तान
हम नवीन उजियाले हैं, गंगा यमुना हिंद महासागर के हम रखवाले हैं।
तन, मन, धन तुम पर कुर्बान जियो, जियो, अय हिंदुस्तान।
हम सपूत उनके जो नर थे, अनल और मधु के मिश्रण
जिनमें नर का तेज प्रखर था, भीतर था नारी का मन।
एक नयन संजीवन जिसका, एक नयन था हलाहल
जितना कठिन खड्ग था कर में उतना ही अंतर कोमल
थर-थर तीनों लोक कांपते थे जिनकी ललकारों पर
स्वर्ग नाचता था रण में, जिनकी पवित्र तलवारों पर
हम उन वीरों की संतान, जियो-जियो अय हिंदुस्तान
हम शिकारी विक्रमादित्य हैं, अरिदल को दलने वाले,
रण में जमीं नहीं दुश्मन की लाशों पर चलने वाले।
हम अर्जुन, हम भीम, शांति के लिए जगत में जीते हैं
मगर शत्रु हठ करे अगर तो लोहू वक्ष का पीते हैं।
हम हैं शिवा प्रताप, रोटियां भले घास की खाएंगे,
मगर किसी जुल्मी के आगे मस्तक नहीं झुकाएंगे।
देंगे जान, नहीं ईमान, जियो-जियो अय हिंदुस्तान।
जियो-जियो अय देश , कि पहरे पर ही जगे हुए हैं हम,
बन-पर्वत हर तरफ चौकसी में ही लगे हुए हैं हम
हिंद-सिंधु की कसम, कौन इस पर जहाज ला सकता है:
सरहद के भीतर कोई दुश्मन कैसे आ सकता है?
पर की हम कुछ नहीं चाहते, अपनी किंतु, बचाएंगे,
जिसकी उंगली उठी उसे हम यमपुर को पहुंचाएंगे।
हम प्रहरी यमराज समान, जियो, जियो अय हिंदुस्तान
जियो, जियो अय हिंदुस्तान
जाग रहे हम वीर जवान, जियो, जियो अय हिंदुस्तान
हम प्रभात की नई किरण हैं, हम दिन के आलोक नवल
हम नवीन भारत के सैनिक, धीर, वीर, गंभीर, अचल
हम प्रहरी ऊंचे हिमाद्री के, सुरभि स्वर्ग की लेते हैं,
हम हैं शांति दूत धरती के , छांह सभी को देते हैं
वीर प्रसु मां की आंखों के,

संसद में बांटी गई थी 'पोएट्स ऑफ भिलाई'



भिलाई के इन युवा कवियों की रचनाएं तब बेहद चर्चा मेें थी। भारत-चीन युद्ध के अगले वर्ष 1963 बीएसपी के तत्कालीन जनरल मैनेजर इंद्रजीत सिंह ने इस्पात नगरी के विभिन्न भाषा के रचनाकारों की कविताएं 'पोएट्स ऑफ भिलाई' के नाम से प्रकाशित करवाई थी।

जिसमें चीन को ललकारती यह रचनाएं भी शामिल की गई थी। इस संग्रह में शामिल रहे वरिष्ठ साहित्यकार दानेश्वर शर्मा बताते हैं कि तब 'पोएट्स ऑफ भिलाई' की प्रतियां भिलाई में सभी कर्मियों को बांटी गई थी।

इसके अलावा दिल्ली में सभी सांसदों को भेजी गई थी। बाद में इन कविताओं की तारीफ में सांसद और राष्ट्रकवि की उपाधि से विभूषित रामधारी सिंह दिनकर ने एक पत्र भिलाई के कर्मियों को लिखा था।

'आपदा को अवसर' में बदला था मनु नायक ने


1963 में मनु नायक द्वारा 'कहि देबे संदेस' के लिए फिल्माया गया भिलाई स्टील प्लांट का दृश्य 

पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म 'कहि देबे संदेस' बनाने वाले फिल्मकार मनु नायक ने भारत-चीन 
युद्ध 1962 के दौरान आपदा को अवसर में बदल दिया था। दरअसल तब युद्ध के दिनों में सार्वजनिक स्थलों की फोटोग्राफी और फिल्मोग्राफी प्रतिबंधित थी। वहीं मनु नायक को अपनी इस फिल्म में छत्तीसगढ़ की तरक्की दिखाने भिलाई स्टील प्लांट का एक दृश्य शूट करना बेहद जरूरी था।
इस दौरान इंग्लैंड से आने वाली कच्ची फिल्म की राशनिंग भी थी। ऐसे में बिना फिल्म बरबाद किए और बगैर रि-टेक के उन्हें यह दृश्य शूट भी करना था।
नायक बताते हैं-तब आज का बोरिया गेट नहीं था और पूरा कारखाना खुला-खुला सा था। फिर भी एहतियात के तौर पर वह एक मालवाहक में अपना कैमरा छिपा कर पहुंचे थे और दिन में सेक्टर-4 के हिस्से में मालवाहक खड़ा कर उन्होंने चुपचाप यह सीन शूट कर लिया था। जिसे मुंबई जाकर फिल्म में 'दुनिया के मन आघू बढ़ गे' गीत में जोड़ा गया।

भारत-चीन बातचीत का प्रतिधित्व करने वाले 
भिलाई की शान लेफ्टिनेंट जनरल हरिंदर सिंह

हरिंदर सिंह (लाल घेरे ) की में सेक्टर-10 स्कूल की तस्वीर, सौजन्य -दीपांकर दास 

इस्पात नगरी भिलाई में पले-बढ़े और वर्तमान में लेफ्टिनेंट जनरल हरिंदर सिंह को भारतीय सेना के प्रतिनिधि के तौर पर चीनी सेना के अधिकारी मेजर जनरल लियू लिन के साथ 6 जून की तय बातचीत का जिम्मा सौंपा गया। इस प्रतिनिधि मंडल के बीच आगे भी कई दौर की बातचीत हुई। 
ऐसे में हरिंदर सिंह की चर्चा देश-विदेश के मीडिया में खूब हुई  है। लद्दाख में जारी भारत-चीन गतिरोध को खत्म करने भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले लेफ्टिनेंट जनरल हरिंदर सिंह लेह स्थित 14वीं कॉप्र्स के कमांडर के तौर पर पिछले साल अक्टूबर 2019 में जवाबदारी संभाली थी। इस्पात नगरी भिलाई वासियों के लिए यह गर्व की बात है की उनका हमारे शहर से नाता है।

सेक्टर-8 स्ट्रीट-21 में रहे और सीनियर सेकंडरी स्कूल सेक्टर-10 से 1981 में पढ़ कर निकले हरिंदर सिंह ने भारतीय सेना में अब तक बेहद उल्लेखनीय सेवा दी है
उनके पिता दिवंगत सरदार गुरूनाम सिंह भिलाई स्टील प्लांट के शुरूआती दौर के इंजीनियरों में से थे और मर्चेंट मिल से प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए थे। बहन नरिंदर कौर यहां डीपीएस रिसाली में शिक्षिका हैं,बहनोई हरदयाल सिंह बीएसपी के रिटायर जीएम (इलेक्ट्रिकल) हैं। वहीं छोटे भाई कर्नल रविंदर सिंह भी सेना के माध्यम से देश सेवा कर रहे हैं। उनके  स्कूल के सहपाठियों में बीएसपी में कार्यरत और प्रख्यात ड्रमर दीपांकर दास का नाम प्रमुख है।

चीन पर प्रतिबन्ध के दौर में भिलाई से निकली ‘चिंगारी’ 


भारत सरकार के टिकटॉक सहित चीन के विभिन्न मोबाइल ऐप पर प्रतिबंध के बीच इस्पात नगरी भिलाई के पले-बढ़े युवा सुमीत घोष की टीम के बनाए ‘चिंगारी’ ऐप की धूम मची हुई है। देखते ही देखते करोड़ों की तादाद में देश भर से इस स्वदेशी ऐप को लोग डाउनलोड कर रहे हैं। भिलाई में रह रहे सुमीत और उनकी टीम पर आज पूरे देश और दुनिया की निगाहें हैं।
देश के प्रतिष्ठित उद्योगपति आनंद महिंद्रा ने पिछले महीने एक ट्विट कर  सुमीत और उनकी टीम की हौसला अफजाई की थी। महिंद्रा ने अपने ट्विट में कहा था- मैंने कभी अपने मोबाइल में टिक टॉक डाउनलोड नहीं किया। लेकिन चिंगारी को डाउनलोड किया है। इसके बाद से ‘चिंगारी’ ऐप को और ज्यादा हवा मिली और देखते ही देखते पूरे देश में भिलाई से निकला यह अविष्कार छा गया। को-फाउंडर व चीफ प्रोडक्ट आफिसर सुमीत घोष और उनकी टीम ने ‘चिंगारी’ ऐप का निर्माण आज नहीं बल्कि दो साल पहले किया था। उनके साथ छत्तीसगढ़ के अलावा ओडिशा और कर्नाटक के पेशेवर आईटी विशेषज्ञ भी इस टीम में हैं। नवंबर 2018 में इसे गूगल प्ले स्टोर पर अधिकृत तौर पर जारी किया गया था। तब से लोग इसे डाउनलोड भी कर रहे थे लेकिन तीन दिन पहले जैसे ही भारत सरकार ने टिकटॉक सहित चीन के अलग-अलग मोबाइल ऐप पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा की तो लोगों ने एक विकल्प के रूप में ‘चिंगारी’ ऐप पर नजर दौड़ाई। 
सुमीत के पिता श्यामल घोष पेशे से कारोबारी हैं। सुमीत की स्कूली शिक्षा डीपीएस भिलाई में हुई और इसके बाद उन्होंने भिलाई इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी से 2007 में कंप्यूटर साइंस में डिग्री ली। इसके बाद टीसीएस में जॉब की और 2009 में अपनी खुद की कंपनी भिलाई में शुरू की। बीआईटी दुर्ग में कंप्यूटर साइंस के प्रोफेसर सुदीप भट्टाचार्य बताते हैं कि सुमीत घोष कॉलेज के दिनों में भी अपनी धुन में लगे रहते थे और दूसरे स्टूडेंट से काफी अलग थे।
 तब भी सुमीत ने कई साफ्टवेयर बनाए थे, जिसे नामी कंपनियों ने खरीदा था। प्रो. सुदीप भट्टाचार्य ने बताया कि सुमीत ने खुद पहल करते हुए अपनी साफ्टवेयर कंपनी के माध्यम से बीआईटी में मशीन लर्निंग पर रिसर्च सेंटर शुरू किया है। जिसमें बीआईटी में मशीन लर्निंग पर रिसर्च के लिए सुमीत की कंपनी तीन साल के लिए हुए इस करार के तहत हर साल 10 लाख रूपए दे रही है। इससे कंप्यूटर साइंस में शोध को बढ़ावा मिला है। प्रो. सुदीप ने बताया कि सुमीत की वजह से आईटी सेक्टर में भिलाई का नाम चर्चा में आ रहा है। सुमीत अपनी कोशिशों के तहत अब स्मृति नगर में पहला निजी साफ्टवेयर टेक्नालॉजी पार्क विकसित कर रहे हैं। जिससे भविष्य में आईटी के क्षेत्र में भिलाई की एक अलग पहचान बनेगी।

भारत चीन सीमा पर क्या मतलब है गुलाम
रसूल गालवन और दौलत बेग ओल्डी का..?

नितीश ओझा की फेसबुक वाल से 

गालवन घाटी-इस चर्चित घाटी को जानने के पहले जान लेते हैं फ्रांसिस यंगहसबैंड को। भारत के गवर्नर लार्ड कर्जन ने रूसी प्रभाव को कम करने तथा तिब्बत को ब्रिटिश प्रभाव में लाने के उद्देश्य से यंग हस्बैण्ड (Young Husband) नामक सैनिक अधिकारी की कमान में ब्रिटिश भारतीय सेना को तिब्बत भेजा ।
अब ये रूसी प्रभाव क्या था ? सत्रहवीं से लेकर बीसवीं सदी तक तक एक ऐसा घटनाक्रम जिसमे रूस समस्त एशिया (भारत समेत) पर अपना प्रभाव जमाना चाहता था। अंग्रेज़ी में ब्रिटेन तथा रूस की इस औपनिवेशिक द्वंद्व को ग्रेट गेम के नाम से जाना जाता है जो द्वितीय विश्वयुद्ध तक चला।
इसी दौरान चीन ने भी तिब्बत और मंगोलिया पर अपना प्रभुत्व जमाना चालू कर दिया था और लहासा पर नियंत्रण कर 7वें दलाई लामा का चयन स्वयं किया।
चीन के इस प्रभाव को समझने के लिए यंगहसबैंड हिमालय समेत कश्मीर, तिब्बत, चीन के अनेक भागों का दौरा करता है फिर काराकोरम, पामिर, हिंदुकुश इत्यादि का मैप भी बनाता है, इसकी इस सेवा से खुश होकर तत्कालीन गवर्नर डफरिन इसे मेडल इत्यादि देते हैं और यह फिर Royal Geographical Society का सदस्य बंनता है फिर आगे प्रेसिडेंट भी ।
इसी दौरान गिलगित के हुंजा प्रांत के लोग यारकन्द नदी के (लद्दाख के आगे सिल्क रूट) पास ब्रिटिश व्यापारियों पर हमले करते हैं, जिसे यंगहसबैंड गोरखा टुकड़ी के साथ मिलकर समाप्त करता है फिर आगे ये लद्दाख का भी भ्रमण करता है, एक्सप्लोर करने के लिए ।
यंगहसबैंड के इस लद्दाख भ्रमण मे उसका सामना लद्दाख के कुछ लुटेर्रों से भी होता है जो लद्दाख के गालवन नदी के आस पास कबीले बनाकर रहते थे फिर कश्मीर के डोगरा राजाओं के सहयोग से उन लुटेरों का सफाया किया जाता है, इस दौरान बहुत सारे गालवान कबीले के लोग नजदीकी क्षेत्रों मे भागकर जान बचाते हैं।
इन्ही मे से एक लड़का यंगहसबैंड का दोस्त बनता है जिसका नाम था गुलाम रसूल गालवन । कहते हैं कि रसूल के पूर्वज भेड़ों के घुमंतू चरवाहे थे और उसी मे से एक लुटेरा हो गया था जिसका नाम था कर्रा गालवन – कर्रा का अर्थ काला और गलवान का अर्थ लुटेरा ।
एक विचार यह भी है कि इसी गुलाम रसूल के नाम पर नदी का नाम गालवन पड़ा, क्यूंकी उसी ने पहली बार इस नदी के बारे में यंगहसबैंड को बताया था । कुछ शोध बताते हैं कि यह गालवान लोग मूलतः कश्मीर के नहीं थे, बल्कि यह दम नामक घुमंतू जनजाति थी जो कालांतर मे सेंट्रल एशिया से कश्मीर आई थी, ये लोग कश्मीरी राजाओं के घोड़े / काफ़िले लूट लिया करते थे।
गुलाम रसूल गाडविन आस्टिन के साथ भी रहता है, वही गाडविन आस्टिन जिनके नाम पर के2 पर्वत चोटी है। यह गुलाम रसूल लंबे समय तक यंगहसबैंड के साथ रहता तो है ही, अनेक भाषाएँ भी सीखता है। इस घुमक्कड़ी के दौरान सर डूरंड के आदेश पर (पाकिस्तान अफगानिस्तान के बीच की रेखा इन्ही डूरंड के नाम पर है और फुटबाल का डूरंड कप भी) यंगहसबैंड बाल्टिस्तान का दौरा करता है और वहाँ रशियन दखल को रोकता है ।
यंगहसबैंड की इस कुशलता से प्रभावित होकर तात्कालिन गवर्नर लार्ड कर्ज़न उसे तिब्बत का कमिश्नर बनाते हैं । यंगहसबैंड फिर तिब्बत मे ब्रिटिश शासन का प्रभुत्व जमाता है, और तिब्बत मे ब्रिटिश राज्य को बनाए रखने के उद्देश्य में लगभग 5000 से ज्यादा बौद्ध भिक्षुकों की हत्या करता है फिर शासन क़ाबिज़ रहता है।
इस कार्य से प्रसन्न होकर उसे ‘Knight Commander’, ‘Order of the Star of India’ और क़ैसर ए हिन्द अवार्ड से नवाजा जाता है। यह वही समय था जब कलकत्ता मे विक्टोरिया मेमोरियल बन रहा था। एंग्लो तिब्बत ट्रीटी भी यही यंगहसबैंड की ही देन थी।
इस दौरान गुलाम रसूल गालवन उसके साथ रहते रहते एक किताब भी लिखता है जिसका नाम सर्वेंट ऑफ साहिब्स है, इस किताब का शुरुआती हिस्सा फ्रांसिस यंगहसबैंड ने ही लिखा जिसमे ब्रिटिश भारत और चीनी साम्राज्य के बीच सीमा के बारे में भी बताया है। लेह में आज भी कुछ लोग रहते हैं जो स्वयं को गुलाम रसूल गालवन का वंशज बताते हैं।
1962 की जंग के दौरान भी 14000 फीट ऊंची गालवन नदी का यह क्षेत्र जंग का प्रमुख केंद्र रहा है। गालवन घाटी लद्दाख में एलएसी पर स्थित है। यह वही अक्साई इलाका है, जिसे चीन ने अपने कब्जे में ले रखा है, 1962 की जंग में गालवन घाटी में गोरखा सैनिकों की पोस्ट को चीनी सेना ने 4 महीने तक घेरे रखा था, 33 भारतीयों की जान गई थी।
मुगल वंश के संस्थापक बाबर के नाना युनूस खान के पोते सुल्तान सईद खान ने 9 कबीलों का समूह बनाकर एक प्रांत मुगलिस्तान की स्थापना की थी, यरकंद नदी के समीप से, यह सईद खान स्वयं को तैमूर का वंशज कहता था,
इसी के अंतर्गत आने वाले लद्दाख और काराकोरम के नजदीक स्थित दौलत प्रांत के नाम पर, लद्दाख मे भारत सरकार द्वारा निर्मित सड़क, हवाई पट्टी का नाम दौलत बेग है । इस प्रांत मे बाल्टी जाति के लोग रहते हैं और यह भी गालवन के नजदीक है।
दौलत बेग ओल्डी अत्यंत चर्चित है जिसका तुर्की भाषा मे अर्थ होता है वह जगह बड़े बड़े सूरमा की भी मौत हो जाये। यह दुनिया की सबसे ऊंची हवाई पट्टी है।

No comments:

Post a Comment