Friday, February 21, 2020

कश्मीरी पंडितों के लिए महाशिवरात्रि
का जश्न अधूरा है बगैर मुसलमानों के


भिलाई में बसे कश्मीरी पंडित ने साझा की ‘हेरत’ की रौनक से जुड़ी यादें


वटक में भिगोए गए मेवे 
कश्मीर में अलगाववाद का दौर शुरू होने से पहले तक पंडित समुदाय ‘हेरत’ (महाशिवरात्रि) का त्यौहार जिस उल्लास के साथ मनाता था, उसकी अब सिर्फ यादें रह गई हैं। 
कश्मीरी पंडित समुदाय बरसों से अपनी जमीन पर ‘हेरत’ नहीं मना पाया है लेकिन इन लोगों की जिंदगी में एक बड़ी ख्वाहिश है कि एक बार फिर वही साझा संस्कृति का दौर लौट आए। माना जाता है कि ‘हेरत’ संभवतः हरि-रात्रि शब्द का अपभ्रंश है।
कश्मीरी पंडित समुदाय के भिलाई में रह रहे एक प्रमुख सदस्य संतोष कुमार किचलु को आज भी वह दौर याद है, जब उनके अपने पैतृक निवास शोपियां में महाशिवरात्रि पर्व की रौनक हुआ करती थी। 
श्रमिक संगठन इंटुक के उपाध्यक्ष और सेक्टर-5 निवासी संतोष किचलु यहां भिलाई स्टील प्लांट के ब्लूमिंग एंड बिलेट मिल  में  मास्टर आपरेटर  पर कार्यरत हैं और उनके पिता स्व. निरंजननाथ किचलु भी बीएसपी में सेवारत थे।
संतोष किचलु ने 1986 तक शोपियां में मनाये ‘हेरत’ यानि महाशिवरात्रि पर्व की याद करते हुए बताया कि वहां अलगाववाद के दौर के पहले हिंदु-मुस्लिम सब मिलजुलकर मनाते थे।
 कश्मीर में चूँकि  पंडित समुदाय शैव मत का मानने वाला है, इसलिए वहां हर कश्मीरी पंडित परिवार में रवायत रही है कि सुबह नहाने के बाद लोग मंदिर में शिवजी को जल चढ़ाते हैं और इसके बाद घर आकर अपनी दिनचर्या शुरू करते हैं। 
जहां तक शिवरात्रि पर्व या ‘हेरत’ की बात है तो हमारे यहां इसकी तैयारी महीना भर पहले शुरू हो जाती थी। अखरोट, बादाम और दूसरे मेवे एक खास किस्म के पारंपरिक मिट्टी के बर्तन वटक में भिगा दिए जाते हैं, जिन्हे शिवरात्रि के दिन खोला जाता है और प्रसाद के तौर पर बांटा जाता है।
‘हेरत’ पर्व की रौनक का जिक्र करते हुए किचलू ने बताया कि वहां सारे लोग उस दिन सुबह-सुबह उठ कर जुलूस की शक्ल में इकठ्ठा होकर अहरबल कुंड से निकलने वाले ठंडे पानी से नहाते जाते थे और फिर पूजा के बाद बड़ा जुलूस निकलता था, जो शाम शाम तक एक बड़े जुलूस में तब्दील हो जाता था।
संतोष किचलू के साथ एक सेल्फी
‘हेरत’ के जश्न में ‘सलाम’ की खास अहमियत है। जिसमें हिंदु-मुस्लिम सब एक दूसरे को मुबारकबाद देते हैं। मुस्लिम समुदाय की इस पर्व में भागीदारी के संबंध में किचलू कहते हैं-हम लोग बगैर मुसलमानों के ‘हेरत’ की कल्पना भी नहीं कर सकते।
 इस पर्व के लिए जितना भी दूध-दही और मेवा है, सब मुसलमानों के घर से आता था। वहां हम सब की साझी विरासत थी इसलिए सब मिलजुलकर इसे मनाते थे।
बाद के दौर का जिक्र करते हुए किचलू कहते हैं-अब तो तीन दशक हो गए हैं, हम लोग अपने घर ही नहीं जा पाए हैं। रिश्तेदार जम्मू और दिल्ली में है। इसलिए आना-जाना लगा रहता है।
 इसके बावजूद ‘हेरत’ की वो रौनक अब नजर नहीं आती। यहाँ भिलाई में मनाये जाने वाले ‘हेरत’के सम्बंध में किचलू कहते हैं -अब तो यहाँ गिनती के परिवार हैं। फिर भी सब मिलजुल कर मानते हैं।
यहाँ मिटटी के खास बर्तन वटक तो नहीं मिलते इसलिए हम लोग पीतल /इ स्टील के बर्तन में ही एक रात पहले तमाम मेवे भीगा देते हैं और उसके बाद आज शिवरात्रि पूजन कर शाम को परिवार के सब लोग इकठ्ठा होते हैं। जिसमे मिलकर खाना कहते हैं और बच्चों को ‘हेरत’ के खर्च के तौर पर रूपए देते हैं। 
किचलू कहते हैं- बीते साल 5 अगस्त को केंद्र सरकार द्वारा धारा-370 हटाए जाने के बाद से हम लोग भी इंतजार कर रहे हैं कि वापस हम अपनी जमीन पर जा सकें। हम भी चाहते हैं कि कश्मीर में उसी साझा संस्कृति का दौर फिर से लौटे।

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