Monday, September 10, 2018


हमने बन्दर को इंसान बनते नहीं देखा लेकिन ये लोग इसका उल्टा प्रोसेस चालू कर चुके 


''ग्रामीण अर्थव्यवस्थाअसमानता और किसानों की बदहाली''


विषय पर वरिष्ठ पत्रकार पीसाईंनाथ का सेवाग्राम (वर्धा ) में व्याख्यान



मूल व्याख्यान से लिप्यांतरण-मुहम्मद जाकिर हुसैन

सेवाग्राम में अपने व्याख्यान के दौरान वरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ ने खेती और किसानो के संकट से जुड़े मुद्दों पर अपनी बात रखते हुए कई पहलुओं पर रौशनी डाली। उनके लम्बे व्याख्यान की दूसरी क़िस्त-

ह्यूमैनिटीज के बाद अब शिक्षा से साइंस भी खत्म कर रहे

पिछले 25 साल में सरकारों ने नीति आधारित परिस्थिति (पालिसी ड्रिवन सिचुएशन) को जन्म दिया। जिसके चलते खेती, शिक्षा और स्वास्थ्य सहित हर सेक्टर प्रभावित हो रहा है। 
यह सच है कि हमनें कॉलेज यूनिवर्सिटी से ह्यूमैनिटीज (मानविकी) विषय को खत्म कर दिया। लेकिन अब तो हम शिक्षा से विज्ञान को भी खत्म कर रहे हैं।
मुंबई पुलिस कमिश्नर रहे और अभी केंद्र में मंत्री सत्यपाल सिंह ने पिछले दिनों कहा कि- ''डार्विन-वार्विन ये सब बकवास है। वी आर नॉट डिसेंडेंट फ्राम एप्स, हम बंदर के वंशज नहीं है, क्योंकि हममें से किसी ने भी बंदर से मनुष्य में बदलते नहीं देखा।''
अब मैं आपको बताऊं वास्तविकता। दरअसल डार्विन ने कहा कि आप वानर के वंशज नहीं बल्कि आप और वानर एक ही मूल से आते है। समझिए कि डार्विन ने कहा क्या है। उन्होंने ये कभी नहीं कहा कि आप वानर के वंशज हैं, बल्कि यह कहा कि दोनों के पूर्वज एक ही थे।
दोनों बातों में बहुत फर्क है। इसके बाद भी मैं सत्यपाल सिंह से दो बिंदु पर सहमत हूं। पहला यह कि कोई भी सवालों से परे नहीं है, डार्विन भी नही। दूसरा मैं ये भी मानता हूं कि सत्यपाल सिंह ने बिल्कुल ठीक कहा कि हममे से किसी ने भी जंगल में जाकर बंदर को इंसान में बदलते नहीं देखा।
लेकिन अब केंद्र सरकार में सत्यपाल सिंह और उनके मंत्रिमंडल के सहयोगियों के विचारों से लगने लगा है कि ये लोग इसके ठीक उल्टी प्रक्रिया (रिवर्स प्रोसेस) को सफलतापूर्वक क्रियान्वित कर रहे हैं। इसलिए तो आज हर सेक्टर प्रभावित हो रहा है।

20 साल में 8 से बढ़कर 121 हुए अरबपति

हमारे देश के कुछ प्रमुख अरबपति 
आज हमारे भारतीय समाज में असमानता सबसे तेज बढ़ता सेक्टर बन गया है। आज असामानता इतनी बढ़ गई कि यह आज से 100 साल पहले यानि 1920 के बराबर हो गई है।
आज हमारे देश के अरबपतियों की संख्या से इसे समझा जा सकता है। 1991 में जब उदारीकरण अर्थव्यवस्था का दौर आया तो उस साल में भारत में घोषित तौर पर एक भी डॉलर अरबपति नहीं था।
उसके बाद 1998 में फोब्र्स ने सालाना बिलिनियर सूची जारी करना चालू किया। 2000 में भारत में डॉलर अरबपति 8 हुए। 2012 में भारत सरकार ने सोशियो इकानामिक कास्ट सेंसस (एसईसीसी) शुरू किया, इस साल ये संख्या बढ़ कर 53 हो गई। अब 2018 में यह संख्या 121 हैं।
इसमें भी हाल के छह साल में पिछले 20 साल के मुकाबले सबसे ज्यादा अरबपति बन गए हैं। इन 121 अरबपतियों की धन दौलत हमारी कुल जीडीपी की 22 प्रतिशत है।
130 करोड़ जनसंख्या वाले देश में महज 121 व्यक्ति के पास 22 प्रतिशत दौलत है, जो लगभग 442 अरब डॉलर है। इस असमानता से कोई भी समाज लंबे समय तक नहीं चल सकता।
इस 442 अरब डॉलर में भी एक अकले व्यक्ति की हिस्सेदारी 10 प्रतिशत की है। अगर आप नाम बताएंगे तो भी मैं  कोई प्राइज नहीं देने वाला।
यह 42.1 अरब डालर अकेले मुकेश भाई अंबानी का है। इसमें भी ज्यादा दिलचस्प यह जानना है कि मुकेश भाई की संपत्ति पिछले साल की फोब्र्स लिस्ट में लगभग 23 अरब डॉलर थी। इसका मतलब 12 महीने के अंदर एक अकेले व्यक्ति ने लगभग 16.9 अरब डॉलर अधिक कमाया। यानि हर घंटा 2 मिलियन डॉलर अतिरिक्त कमाई हुई, कितनी मेहनत की होगी इस कमाई के लिए?

सरकारी नीतियों में बदलाव  ने मुकेश भाई को बनाया

धीरू भाई के साथ अनिल
और मुकेश  अम्बानी 
आप जानते हैं एक आम भारतीय को मुकेश भाई के जितनी कमाई के लिए कितनी मेहनत करनी होगी? अगर मनरेगा का राष्ट्रीय औसत 161 रूपए हो तो देश के आम लोगों को 12 महीने में 16.9 अरब डॉलर कमाने 18.7 मिलियन मजदूर को 365 दिन  लगातार काम करना होगा
वह भी बिना किसी साप्ताहिक या त्यौहार की छुट्टी के। तब कहीं ये लोग 16.9 अरब डॉलर कमा पाएंगे जो एक लाख 50 हजार करोड़ रूपए होंगे।
आप पूछ सकते हैं कि एक अकेला इंसान इतनी कमाई कैसे कर सकता है। जब कि कोई अमेरिकन अरबपति भी अकेले अपने दम पर इतना नहीं कमा सकता, भले ही उसकी कंपनी ने कमाया हो। 
आप कह सकते हैं कि उन्होंने खूब मेहनत की होगी। लेकिन मुझ जैसे अल्प ज्ञान वाले का कहना कि यह तभी संभव है जब महज एक हफ्ते के लिए दिल्ली अपनी पॉलिसी में एक छोटा सा बदलाव कर दे। उसके बाद फिर पालिसी को बदल दे, जैसा टेलीकॉम पालिसी मे हुआ।
तो देखिए कि उस एक व्यक्ति ने कितनी तेजी से डोकोमो-वोडाफोन जैसे टेलीकॉम के अपने सारे प्रतिद्वंदियों मर्ज करना शुरू किया। देखते ही देखते सब प्रतिद्वंदी खत्म हो गए। तो ये सारी धन-दौलन और एडिशनल बोनस सब सरकारी पालिसी से ही आए हैं। 


अब जय हिंद के बजाए जियो हिंद होना चाहिए हमारा राष्ट्रीय अभिवादन

उस रोज सुबह मैं जागा तो अखबार में देखता हूं कि देश का प्रधानमंत्री एक निजी कंपनी (जियो)की नुमाइश कर रहा है। आप याद रखिए कि यह हमारे कानून का उल्लंघन है। 
हमारे यहां राष्ट्रीय प्रतीक सुरक्षा अधिनियम (नेशनल एम्बलेम्स सिक्यूरिटी एक्ट) है, जिसमें प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति या राज्यपाल की अनुमति के बिना आप उनकी छवि इस्तेमाल नहीं कर सकते।
 मैं नहीं जान सकता कि उन्होंने अनुमति ली थी या नहीं। क्योंकि मुकेश भाई तो अगला 16.9 अरब डॉलर बनाने में व्यस्त हैं और प्रधानमंत्री जी से तो बात करना मुश्किल है। क्योंकि वो तो बात ही नहीं करते और प्रेस कान्फ्रेंस भी चुनिंदा लोगों के साथ -मेल पर करते हैं।
 तो उस दिन मैनें ट्विट किया कि हमारा राष्ट्रीय अभिवादन (नेशनल सैल्यूटेशन) बदल देना चाहिए। यह आज से ''जय हिंद'' के बजाए ''जियो हिंद'' होना चाहिए।
मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि 25 साल में हमारा देश सेल्फ रिलायंस (आत्मनिर्भर) से रिलायंस (निजी कंपनी का नाम) हो गया है।

आज किसान परिवार की मासिक घरेलू आय 13 सौ से भी कम

किसान आत्महत्या प्रभावित परिवार 
यह महज एक उदाहरण है और बात सिर्फ मुकेश भाई की नहीं है। 121 डॉलर अरबपति हैं हमारे देश में, ये एक पक्ष है। दूसरी तरफ ग्रामीण भारत और किसान की आय क्या है,जानते हैं?
  नेशनल स्टेटिस्टकल सर्वे ने किसान की आय का आखिरी अध्यन साल 2013 के आखिरी महीनों में किया था।
जिसमें पांच लोगों के परिवार वाले एक किसान की मासिक घरेलू आय 6 हजार 426 रूपए निकाली गई थी।
लेकिन यह आय सिर्फ खेती से ही नहीं बल्कि अलग-अलग स्त्रोत से है। जिसमें परिवार के सदस्य खेती के अलावा नौकरी अन्य उद्यम भी करते हैं। ये सभी अपना-अपना आर्थिक योगदान देते हैं परिवार की खेती में और फसल आने पर अपना हिस्सा भी ले लेते है।
पूरी दुनिया में खेती बाहरी आय पर निर्भर है। अमेरिका का 2016 का आंकड़ा बताता है कि वहां 86 प्रतिशत आय गैर कृषि गतिविधि से आती है। 
हमारे यहां किसान खेत में काम करता है तो उसकी पत्नी कोई और काम करेगी, हो सकता है वो सरकारी काम करेगी, जिससे उसे स्वास्थ्य बीमा मिले।
क्योंकि खेती में ये सब नहीं मिलता है किसी किसान या उसके परिवार को। इसलिए वो लोग बाहरी स्त्रोत पर निर्भर है। इस पीड़ा के बावजूद किसान अनाज उगा रहा है, जिसे आप खाते हैं। आज भी किसान परिवार की घरेलू स्त्रोत पर आय 1300 रूपए प्रतिमाह से भी कम है।

ग्रामीण भारत में गैर कृषि आय 5 हजार से भी कम 

महाराष्ट्र का एक किसान परिवार 
इसके बाद आप गैर कृषि क्षेत्र की आय देखिए। सामाजिक आर्थिक लागत जनगणना (सोशियो इकानामिक कास्ट सेंसस) में इसका अध्यन है, जिसमें ग्रामीण भारत में 18 करोड़ परिवार है
इसमें से 75 प्रतिशत के यहां कमाने वाले पुरुष सदस्य की प्रतिमाह की आय 5 हजार से भी कम है।
इसमें भी दलित-आदिवासी की तादाद 90 फीसदी से भी ज्यादा है। 
आज 90 प्रतिशत से ज्यादा ग्रामीण 10 हजार से कम आय पर निर्भर है। महज 8 फीसदी ग्रामीण परिवार है, जहां मुखिया की आय 10 हजार से ज्यादा हैं।
 इसमें आप दलित-आदिवासी को देखेंगे तो देश भर में इनकी तादाद 4 प्रतिशत से भी कम हैं। अगर आप सोचते हैं कि कानूनी असमानता  स्वाभाविक है तो मुझे कुछ नहीं कहना है। लेकिन आपको यकीन करना होगा कि इस असमानता की छाया तले कोई भी समाज बचा रहेगा, यह संभव नहीं है।
एक बहुत बड़ा फर्क है हमारे यहां खेती और उद्योग सहित दूसरे सेक्टर में। कृषि को छोड़ कर शेष सेक्टर में सार्वजनिक क्षेत्र को बड़ी तेजी से निजी क्षेत्र में तब्दील किया जा रहा है। लेकिन खेती तो हमेशा से निजी क्षेत्र रही है।
अब इसमें कार्पोरेट रहे हैं तो आपको जानना चाहिए कि यह इसलिए किया जा रहा है। यह इसलिए क्योंकि कृषि सेक्टर को बरबाद करना है। 
अब सारी नीतियां इसी लाइन पर चल रही है। आज खेती में किसान के नियंत्रण में क्या रह गया है? बीज, कीटनाशन से लेकर खाद तक निगम (कार्पोरेशन) के हवाले है।
क्रमशः अगले अंक में जारी

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