Thursday, September 13, 2018

जिसने तिलक की सजा का रास्ता
तय किया, उसके नाम पर यूनिवर्सिटी..?


''ग्रामीण अर्थव्यवस्थाअसमानता और किसानों की बदहाली''

विषय पर वरिष्ठ पत्रकार पीसाईंनाथ का सेवाग्राम (वर्धा ) में व्याख्यान


मूल व्याख्यान से लिप्यांतरण-मुहम्मद जाकिर हुसैन
सेवाग्राम में अपने व्याख्यान के दौरान वरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ ने शिक्षा के अंधाधुंध निज़ीकरण और किसानों के क़र्ज़ के साथ स्वास्थ्य सेवाओं के खर्च संकट से जुड़े मुद्दों पर अपनी बात रखते हुए कई पहलुओं पर रौशनी डाली।खास कर बेनेट यूनिवर्सिटी से जुड़ा खुलासा हैरान कर देने वाला था। उनके लम्बे व्याख्यान की चौथी क़िस्त,,,

बाल गंगाधर तिलक और थॉमस जुएल बेनेट 
शिक्षा के अंधाधुंध निजीकरण को लेकर मैं बेनेट यूनिवर्सिटी के बारे में मैं कुछ कहना चाहूंगा। टाइम्स ऑफ़ इंडिया द्वारा इसकी स्थापना की जा रही थी तो उनके 4-5 संबंधित बड़े अधिकारी मंच पर थे। इन लोगों ने बताया कि यह यूनिवर्सिटी बेनेट के नाम पर क्यों है। इन लोगों के मुताबिक बेनेट 1900 की शुरूआत में टाइम्स ऑफ इंडिया के एडिटर प्रोप्राइटर थे।
ठीक है, यह बिल्कुल सच है। लेकिन, आपने इनके नाम पर विवि क्यों खोला? उनके किसी खानदान वाले को ब्रिटेन में ऐसा करना चाहिए था? जब ऐसा सवाल उठा तो उन लोगों ने बताया कि बेनेट भारत में होमरूल आंदोलन का बहुत बड़ा समर्थक था। जिससे कि भारतीय अपने देश में खुद राज करे।
इस मामले में मैनें नोटिस किया कि उन्हें बेनेटे का पूरा नाम भी नहीं पता था। वे सिर्फ बेनेट-बेनेट ही कह रहे थे। जबकि उसका पूरा नाम थामस जुएल बेनेट (1852-1925) था। तो सवाल उठता है कि क्या उसने होमरूल को सपोर्ट किया था..? जानते हैं उसे किस काम के लिए गर्व था..? 
उसने बाम्बे गवर्नर पर बाल गंगाधर तिलक को देशद्रोह के लिए सजा देने दबाव बनाया था और इस पर उसे बहुत गर्व भी था। उसने गवर्नर से शिकायत की थी कि तिलक के लिए मांडले (बर्मा) जेल में छह साल काफी नहीं है। जिस बेनेट को गर्व था कि उसने तिलक की सजा के लिए दबाव डाला था उसके नाम पर आप यूनिवर्सिटी खोल रहे हैं।
(टीप -बेनेट पर ऑन लाइन खोजने पर मुझे ये मिला)
थामस जुएल बेनेट टाइम्स ऑफ इंडिया के 1894 से 1901 तक संपादक और मुख्य मालिक थे  उनके भतीजे पैट फरिंगटन ने उनके संबंध में अपने एक लेख-''थॉमस जुएल बेनेट-भारतीय होमरूल लीग आंदोलन के शुरूआती समर्थक'' शीर्षक से लिखा है। जिसमें पैट कहते हैं कि-मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि मेरे बड़े चाचा ने 'बॉम्बे सरकार को अपने भड़काऊ लेखों के लिए तिलक पर मुकदमा चलाने के लिए मजबूर किया था' ( टाइम्स में श्रद्धांजलि,1925)


अस्पताल का बढ़ता खर्च है किसान के कर्ज ना चुका पाने की वजह

तो इस तरह ज्ञान का निजीकरण, शिक्षा का निजीकरण और स्वास्थ्य का निजीकरण चल रहा है। अब जब आप कृषि संकट की बात करते हैं तो ऐसे कितने ग्रामीण को जानते हैं जिनके यहां कर्ज भुगतान नहीं कर पाने की वजह अस्पताल का बढ़ता खर्च है ?
इसी विदर्भ के एक किसान यशवंत राव झाड़े से मैं मिला था। उसे अपने इलाज का 3 लाख का बिल भुगतान करने के लिए साहूकार के पास 9 एकड़ जमीन  गिरवी रखनी पड़ी। यह वास्तविकता है कि आज अस्पताल में इलाज का खर्च इतनी तेजी बढ़ता जा रहा है। इसी विदर्भ के लोग अस्पताल में इलाज खर्च के भुगतान में अपनी जमीन गंवा रहे हैं।
आज ग्रामीण परिवार और कृषक परिवार में सबसे बड़ा एकमात्र खर्च मेडिकल बिल का है। यह ग्रामीण परिवारों में कर्ज बढऩे की यह दूसरी सबसे बड़ी वजह है,जिसकी बढ़ोत्तरी सर्वाधिक है। तो यह तय है कि मौजूदा परिस्थिति में 2022 तक किसान की आय तो दुगुनी नहीं होगी बल्कि किसान का कर्जा कई गुना (मल्टीपल) हो जाएगा। इसके लिए हेल्थ और एजुकेशन दोनों कारण है।
आखिर किसान एक इंसान भी तो है, उसकी और उसके परिवार की जरूरते भी हैं। ऐसे में हास्पिटल, स्कूल, कॉलेज..ना जाने कितनी तरफ से दबाव रहा है। इससे परिस्थिति तेजी बदल रही है। हर तरफ से उस पर प्रेशर रहा है और इससे समाज मेें एक प्रेशर कुकर वाली स्थिति बन रही है। यही वजह है कि इसके चलते 20 साल में अब तक 3 लाख 10 हजार किसान आत्महत्या कर चुके हैं।


किसानों की आत्महत्या के आंकड़े अब सार्वजनिक नहीं करती सरकारें

कैरिकेचर NCRB डाटा पर HT में प्रकाशित स्टोरी से साभार 
बड़ी हैरानी की बात है कि 2015 के बाद से केंद्र सरकार ने नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) का आंकड़ा सार्वजनिक करना बंद कर दिया है। इसके बजाए इसमें से छोटा सा हिस्सा, जो उसके लिए सुविधाजनक है, सरकार उसे संसद में बता रही है।
यह पहली बार हुआ है जब 1995 में अपनी स्थापना के 23 साल में अब एनसीआरबी के आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए जा रहे हैं। इसलिए आज 2016-17 का आंकड़ा भी नहीं है और जो है वो भी त्रुटिपूर्ण है। मैनें 2014 के आंकड़ों पर ध्यान दिया कि उसमें 12 राज्य और 6 केंद्र शासित प्रदेशों में किसानों की आत्महत्या शून्य बता दी गई है। अब बंगाल में (ममता) दीदी कहती है-बंगाल में किसान कैसे आत्महत्या कर सकते हैं,जब मैं मुख्यमंत्री हूं।
अब देखिए कि आंकड़े कैसे 850 सालाना आत्महत्या से शून्य हो गए। फिर छत्तीसगढ़ में तो रमन सिंह बंगाल की दीदी से भी आगे निकल गए हैं। छत्तीसगढ़ में 10 साल में हर साल किसान आत्महत्या की औसत संख्या 1555 थी जो कि अब 5 साल से शून्य हो गई है।
हालांकि इसके बावजूद संख्या तो बढ़ रही है। किसानों की आत्महत्या का 16-17 का आंकड़ा सार्वजनिक नहीं किया गया और अब तो गणना का तरीका (मेथेडोलॉजी) ही बदल दिया गया है। जिससे अगर वास्तविक आंकड़े मिल भी जाएं तो आप तुलनात्मक अध्यन नहीं कर सकते।
टीप=छत्तीसगढ़ के मामले पर बाद में हुई  चर्चा में बताया साईनाथ ने
व्याख्यान के दौरान पी साईनाथ ने छत्तीसगढ़ और रमन सरकार का ज़िक्र किया था व्याख्यान के बाद मैंने अनौपचारिक चर्चा में सवाल पूछा तो साईनाथ ने कहा ''यह ठीक है कि छत्तीसगढ़ सरकार ने विधानसभा में किसानो की आत्महत्या के आंकड़े रखे हैं लेकिन वो आंकड़े भ्रमित करने वाले हैं दरअसल उन्होंने अब एनसीआरबी के  बजाय अपने राजस्व विभाग को ज़िम्मेदारी दे दी है राज्य सरकार के राजस्व विभाग से आप क्या उम्मीद कर सकते हैं कि वो लोग कितनी ईमानदारी से आंकड़े देंगे यही वजह है कि अब किसानो की आत्महत्या के सही आंकड़े सामने नहीं आ पाते हैं।'' 

जिस संस्थान ने विपरीत रिपोर्ट दी, उसे सरकार ने बंद कर दिया..?

एनएनएमबी  की जारी रिपोर्ट 
नेशनल कमीशन ऑफ फार्मर की रिपोर्ट में भी फर्जीवाड़ा हो रहा है। किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों में भी फर्जीवाड़ा हो रहा है। यह सच है कि खाद्यान्न सुरक्षा (फूड सिक्यूरिटी) और पोषण आहार सुरक्षा (न्यूट्रीशियन सिक्यूरटी) में बड़ा फर्क है।
अब तक नेशनल न्यूट्रीशियन मानिटरिंग ब्यूरो हैदराबाद भारत सरकार का एकमात्र संस्थान हुआ करता था, जहां संस्थागत आधार पर लांग्टीट्यूटनल (देशांतर) आंकड़े मिलते थे। इसका मतलब यह था कि 2018 के आंकड़ों की आप 1978 के आंकड़ों से तुलना कर सकते थे।
ये एक सीरिज का डेटा है। इस संस्थान ने 2015 में 2012-13 का सर्वे जारी किया था, जिसमें कहा गया कि भारत की ग्रामीण जनता 40 साल पहले अपने आहार में जितना दूध, मैग्निशियम और विटामिन का उपभोग करती थी, उसकी तुलना में आज काफी कम उपभोग कर रही है। जानते हैं, इस रिपोर्ट के जारी होने के बाद सरकार ने क्या किया? सरकार ने इस संस्थान को हमेशा के लिए बंद कर दिया।
इसी तरह 2017 में एनसीआरबी को बंद कर पुलिस ब्यूरो ऑफ रिसर्च एंड डेवलपमेंट में इसका विलय कर दिया गया। यह सीधे-सीधे बिल्कुल वैसा ही है कि आप आम चुनाव का विलय ओपिनियन पोल में कर दें। 
चूंकि एनसीआरबी का आंकड़ा हर पुलिस थाने से आता है, इसलिए सरकार के इस कदम पर गृहमंत्रालय में काफी विवाद हुआ और अंतत: अब जाकर एनसीआरबी और पुलिस ब्यूरो ऑफ रिसर्च एंड डेवलपमेंट को अलग-अलग किया गया है।
टीप-वेबसाइट पर मिली जानकारी के अनुसार नेशनल न्यूट्रीशियन मानिटरिंग ब्यूरो का संचालन राष्ट्रीय पोषण संस्थान हैदराबाद के अंतर्गत किया जाता रहा है हालाँकि साईनाथ की दी गई जानकारी के अनुसार यह संस्थान अब बंद किया जा चुका है 
क्रमशः शेष अगले अंक में 

No comments:

Post a Comment