Thursday, September 13, 2018


आखिरी प्राकृतिक संपदा पानी भी नहीं बचा पाए हम निजीकरण से


''ग्रामीण अर्थव्यवस्थाअसमानता और किसानों की बदहाली''


विषय पर वरिष्ठ पत्रकार पीसाईंनाथ का सेवाग्राम (वर्धा ) में व्याख्यान




मूल व्याख्यान से लिप्यांतरण-मुहम्मद जाकिर हुसैन
सेवाग्राम में अपने व्याख्यान के दौरान वरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ ने पानी के निज़ीकरण और किसानों के क़र्ज़ के संकट से जुड़े मुद्दों पर अपनी बात रखते हुए कई पहलुओं पर रौशनी डाली। उनके लम्बे व्याख्यान की तीसरी क़िस्त,,,



पानी का निजीकरण कैसे हो रहा है, अब यह देखिए। तमिलनाडु के कोयंबत्तूर नगर निगम में पिछली कार्यकारिणी का कार्यकाल पूरा हो चुका है और नई कार्यकारिणी चुन कर नहीं आई है।
ऐसे में वहां के नगर निगम ने अगले 20 साल के लिए पानी वितरण का अधिकार एक निजी बहुराष्ट्रीय कंपनी 'सुएस' को दे दिया है।
अब ये हैरानी की बात है कि जहां नगर निगम की उम्र है महज 5 साल, वहां पानी का अधिकार निजी क्षेत्र को दे दिया गया 20 साल के लिए। महाराष्ट्र एक बड़ा उदाहरण है पानी निजीकरण में। पानी के निजीकरण में आज सब कुछ रूपया तय कर रहा है कि पानी किसे मिलेगा।

बीयर फैक्ट्री को तीन पैसा और जनता को एक रुपए प्रति लीटर पानी 

मराठवाड़ा की ये तस्वीर अब हर मौसम की सच्चाई है 
हर साल आप खबरें देखते हैं कि मराठवाड़ा में सूखा-अकाल है और गरीब लोग पानी के टैंकर के पास खड़े हैं।शुरूआत में वहां पानी दिया जाता है 45 पैसा प्रति लीटर पर।
इसके बाद धीरे-धीरे यह चरम पर पहुंचते तक 1 रूपए प्रति लीटर कर दिया जाता हैं। अब इसमें ये भी जोड़ लीजिए कि जब एक व्यक्ति  4-5 घंटा पानी के लिए खड़े रहता हैं वो अपना कितना उत्पादक समय गंवा देता है। इस दौरान वो कम से कम 20-30 रूपए तो कमा सकता है।
वो गरीब जिस पानी के लिए एक लीटर के लिए एक रूपए देता है। आप जान कर हैरान रह जाएंगे कि जहां मैं और जयदीप घूम कर आए हैं, उस औरंगाबाद (मराठावाड़ा) में 24 बियर और एल्कोहल फैक्ट्री को 4 पैसा प्रति लीटर की दर से पानी मिलता है। यह भी दर अभी बढ़ी है। 30 साल के लिए यह दर 1 पैसा प्रति लीटर निर्धारित थी तो किसी एनजीओ ने उसे न्यायालय में चुनौती दी और तब कहीं न्यायालय ने उसमें 1 पैसे की वृद्धि कर 4 पैसा किया है।
तो देखिए कि जो पानी के बिना मर रहा है उसके लिए एक रूपए प्रति लीटर और वो उद्योग चलाने वाले सरकार से 4 पैसा प्रति लीटर पानी लेेकर प्लास्टिक बोतल में 20 रूपए में बेच रहे हैं  इसमें आप बदलता हुआ पीढ़ीगत नजरिया भी देख सकते हैं  
मेरी दादी और उनकी पीढ़ी को यह मालूम था कि पानी कहां से आता है। इसलिए बारिश आने पर बाल्टी या दूसरे बरतन घर के बाहर रख दिए जाते थे या फिर नदी, तालाब और कुएं सहित दूसरे जल स्त्रोतों पर निर्भर रहते थे।
लेकिन मेरी पीढ़ी आते तक हम लोगों ने नल की धार देखी और अब हालत ये है कि आज की पीढ़ी बोतलबंद पानी को देख रही है।
आप जान लीजिए कि जब आप पानी का निजीकरण करते हैं तो यह हमारी आखिरी प्राकृतिक संपदा है। अब समझिए कि भविष्य में खेती पर पानी के निजीकरण का प्रभाव क्या होगा?

बैंक से दूर और साहूकार के पास हुए किसान

बैंक क़र्ज़ चुकाने में असफल किसान मौत को गले लगा रहे 
आज कृषि में साख (क्रेडिट) का संकट है। कर्ज माफी हमें बताती है कि किसान क्यों कर्ज भुगतान में असमर्थ हैं।
देश में बैंक राष्ट्रीयकरण के बाद 70 की शुरूआत और 80 के दशक तक साहूकारों का प्रभाव कम होता गया। इससे संस्थागत स्तर पर दिए जाने वाला कर्ज बढ़ गया और साहूकारी का शेयर कम हो गया। लेकिन 1990 का दौर आते तक पूरा मामला ही पलट गया। संस्थागत साख गिरती गई और साहूकारी बढऩे लगी।
प्रणव दा और चिदंबरम से लेकर आज तक हमारे लगभग सभी वित्त मंत्री कृषि साख को दो गुना बढ़ाने की बात कहते रहे हैं। यह गलत भी नहीं है लेकिन हकीकत ये है कि यह किसान के हाथ में नहीं आया।
2016-17 का नाबार्ड का आंकड़ा देखिए। इसमें 2016-17 के लिए महाराष्ट्र के लिए क्रेडिट फ्लो 53 प्रतिशत मुंबई और उप नगर का है। आप बताइए, इसमें किसान कहां है?
टीआईएसएस में प्रो. रामकुमार ने दस साल तक कृषि क्षेत्र में  सबसे छोटे ऋण और बड़े ऋण का अध्यन किया है। आप ऋण की रकम देख कर समझ सकते हैं किस स्तर का किसान ऋण ले रहा है। 25 हजार से कम में सबसे छोटा, 2 से 5 लाख तक में मध्यम और करोड़ो रूपए का ऋण लेना वाला ऊंचे दर्जे का 'किसान' भी इसमें शामिल है।
प्रो. रामकुमार के अध्यन के मुताबिक  2000 से 2010 तक 58 प्रतिशत ऋण 25 हजार रूपए से कम का है। 2010 में 25 हजार से कम वाले ऋण की तादाद घटती गई और आगे जाकर यह पूरी तरह शून्य हो गया। इसके विपरीत 25 करोड़ से ज्यादा रकम वाला ऋण तीन से 5 गुना बढ़ गया है।

अब 25 करोड़ से ज्यादा कर्ज लेनेवाले 'किसानों' की तादाद बढ़ी

बैंको में बढ़ रहे बड़ा क़र्ज़ लेने वाले 'किसान' 
आप कितने किसानों को जानते हैं, जिन्होंने अपनी खेती के लिए 25 करोड़ से ज्यादा का ऋण लिया है? शायद आप नही बता पाएंगे लेकिन मैं ऐसे कम से कम तीन 'किसान' को जानता हूं।
मुकेश भाई और अनिल भाई के बाद अब बाबा (रामदेव) भी इसमें शामिल हो गए हैं। 
आप देखिए कि सन 2000 से 2010 के बीच करोड़ों के कृषि ऋण की तादाद 1.1 प्रतिशत से बढ़ कर 17 गुना हो गई है।
इसमें भी ज्यादातर राशि शहरों और महानगरों की बैंक शाखाओं से निकाली जा रही है।
कृषि ऋण की लगभग 53 प्रतिशत राशि मलाबार हिल, बांद्रा जैसी ब्रांच से निकाली गई है, इसमें हमारे गांव का किसान कहा हैं?
हां, एक कनेक्शन है। देश के हर वित्त मंत्री ने प्राथमिकता क्षेत्र उधार (प्रायरिटी सेक्टर लेंडिंग) की परिभाषा बदल दी है। 1970 से इस कानून के अंतर्गत 40 प्रतिशत हिस्सेदारी ग्रामीण विकास के लिए थी, जिसमें 18 से 20 प्रतिशत हिस्सेदारी कृषि की होती थी। 
इसमें प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष, दो तरीके का ऋण था। जिसमें किसान या को-आपरेटिव को दिया कर्ज प्रत्यक्ष और शेष को अप्रत्यक्ष की श्रेणी मेें रखा गया। 1995 के बाद इसमें बदलाव आया हर साल अप्रत्यक्ष ऋण बढ़ते गया वहीं प्रत्यक्ष ऋण लगातार घटता गया।

फसल ऋण को चालाकी से टर्म लोनमें बदल दिया,जिसमें ब्याज 18 फीसदी

मराठवाड़ा के बदहाल किसान 
इसका मतलब हुआ कि किसानों से बैंक लगातार दूर होता गया और साहूकार पास आता गया। इस मामले में मराठवाड़ा और विदर्भ भी अपवाद नहीं है। उस्मानाबाद जिला क्रेडिट को-आपरेटिव बैंक (डीसीसी) का मामला ले सकते हैं।
किसानों को फसल ऋण (क्रॉप लोन) 7 प्रतिशत की दर से दिया जाता है, इसमें भी 4 प्रतिशत राज्य सरकार वहन करती है। अब इस क्राप लोन को चुपचाप टर्म लोन में बदल दिया गया।अब कोई किसान सोचता है कि मेरा 1 लाख 18 हजार का बैंक कर्ज है, जिसका भुगतान मैं 2-3 सीजन में कर दूंगा। लेकिन बैंकों की चालाकी ऐसी है कि जिस फसल ऋण को टर्म लोन में बदला गया है, उस पर 14 से 18 प्रतिशत तक ब्याज लगा दिया गया। 
तो किसान का जो ऋण 1 लाख 18 हजार है वो बढ़ कर सीधे 13 लाख बन गया और किसान जानता तक नहीं। यह हो रहा है हमारे किसान के साथ।
आज एनपीए की चर्चा होती है तो समझिए कि राष्ट्रीयकृत बैंकों का एनपीए कोई किसानों की कर्ज माफी से नहीं बढ़ा है। कर्ज माफी तो एक बहुत छोटा सा  हिस्सा है, बल्कि 70 प्रतिशत से भी ज्यादा का हिस्सा बड़े कार्पोरेट का है। 
यह हमारे किसान नहीं है जो बैंक की बरबादी की वजह बन रहे हैं। इनके नाम अलग अलग हैं। आज अकेले विजय माल्या, नीरव मोदी और मेहुल चौकसे के बीच 30 हजार करोड़ रूपए लुट गए हैं। अब तक हम जानते हैं कि यह राशि 30 हजार करोड़ है। हमारी सरकारें हर साल अपने बजट में कार्पोरेट के लिए कर्जा माफी की योजना चलाती है।
इस पर मैनें दस साल पहले हिंदू में लिखा था। अब सरकारों ने अपने बजट में वह चैप्टर ही बदल दिया है। पहले उस  एनेक्सर को 'स्टेटमेंट ऑफ रेवेन्यू फोरगॉन' (राजस्व भूल का खाता) कहा जाता था, जो बहुत ही ईमानदारी का नाम था। हर साल उसका औसत 5 लाख 30 हजार करोड़ रूपए है।
कस्टम ड्यूटी में सबसे बड़ी छूट डायमंड गोल्ड और ज्वेलरी आइटम पर थी। क्या ये सब आम आदमी के लिए थी ? आंकड़ों के मुताबिक डायरेक्ट कार्पोरेट इनकम टैक्स में दी गई छूट 78 हजार करोड़ थी।
इसमें छोटा किसान कहां है..? जब हमने उसके बारे में लगातार लिखा तो अब उसका नाम बदल कर 'इपेक्ट ऑन रेवन्यू ऑफ टैक्स इंसेंटिव्स' कर दिया गया है।

किसान के 5 रूपए 'सब्सिडी' और माल्या
को दिए 5 हजार करोड़ 'इंसेंटिव' कैसे

माल्या, किसान और मोदी की तस्वीर Indian express से साभार 
यह अजीब विडम्बना है कि जब आप किसान को 5 रूपए देते हैं तो उसे 'सब्सिडी' कहते हैं और विजय माल्या को 5 हजार करोड़ देते हैं तो उसे 'इंसेंटिव' कहते हैं।
9 साल का जो आंकड़ा उपलब्ध है उसमें 42.3 ट्रिलियन (खरब) रूपए 'स्टेटमेंट ऑफ रेवेन्यू फोरगॉन' में है।
इस पर हमने आउटलुक और फ्रंटलाइन में स्टोरी प्रकाशित की थी। अभी उस एनेक्सर को खत्म कर दिया गया।
इस 42.3 खरब रूपए में आप मनरेगा को 121 साल चला सकते हैं। फूड सिक्यूरिटी एक्ट कम से कम 35 साल तक चला सकते हैं। तो यह मामला सीधे-सीधे असमानता का है।
अब यह असमानता प्राइवेट सेक्टर के हर हिस्से में रही है। आप सोच  सकते हैं कि मीडिया इन नीतियों को उठाने में क्यों पीछे है? मेरा कहना है कि इसमें एक तो डर है मालिक का। हम हमेशा देखते हैं मीडिया में बहुत डर है उसके मालिक का। 
दूसरा सबसे महत्वपूर्ण तथ्य ये है कि सरकार की निजीकरण की नीतियों के सबसे बड़े लाभार्थी खुद मीडिया मालिक हैंआज सबसे बड़ा मीडिया मालिक मुकेश अंबानी है और सरकार पर सबसे ज्यादा प्रभाव मुकेश अंबानी का ही है।
 ऐसे ही प्रभावी लोगों में अब घूम-फिर कर सिर्फ 3-4 नाम ही आएंगे। अगर कल आप स्पैक्ट्रम, माइनिंग, एजुकेशन या फिर हेल्थ केयर को प्राइवेटाइज करेंगे करेंगे तो लाभार्थी कौन होगा..? अंबानी, मित्तल, टाटा, बिरला और अडानी के ही नाम सामने आएंगे। चाहे आप जितना भी निजीकरण करेंगे, यही लोग सामने रहेंगे। 
प्रधानमंत्री ने जैसे जियो को लांच किया, वैसे ही उन्होने रिलायंस हेल्थ फाउंडेशन में भी बड़ा 'शानदार' भाषण दिया कि गणेशजी से साबित हुआ कि प्राचीन भारत में प्लास्टिक सर्जरी थी।
 इसकी निंदा करते हुए देश के एक भी अखबार में एडिटोरियल नहीं लिखा कि यह एक निहायत ही बकवास है। मेरी नजर में यह एक बहुत ही खतरनाक बकवास है, खास कर के जब एक प्रधानमंत्री ऐसा कहे।
शिक्षा में भी प्राइवेट सेक्टर रहा हैं प्राइवेट यूनिवर्सिटी खुल रही है। टाइम्स ऑफ इंडिया ने बेनेट के नाम से यूनिवर्सिटी खोल दी। अब देखिए पिछले दिनों जियो यूनिवर्सिटी को एक इंस्टीट्यूट ऑफ एक्सीलेंस का टैग मिला, वो तो जेएनयू को नहीं मिला ना? जो यूनिवर्सिटी अभी लांच भी नहीं हुआ उसके लिए जमीन भी नहीं खरीदी गई उसे इंस्टीट्यूट ऑफ एक्सीलेंस का टैग मिल गया?
क्रमशः  अगले अंक में जारी 

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