Friday, September 21, 2018


मुहर्रम पर हुसैनी ब्राह्मणों की याद और

 एक मर्सिया लता जी की आवाज़ में 


मुहम्मद ज़ाकिर हुसैन 

 मुहर्रम पर हुसैनी ब्राह्मण का जिक्र शायद कुछ लोगों के लिए अजूबा जैसा लगे लेकिन यह सच है। करबला की जंग में ईसार्ई और ब्राह्मणों ने भी इमाम हुसैन के लिए कुरबानी दी थी। टीवी पर अक्सर दिखाई देने वाले मूछों वाले दादाजी का चेहरा तो याद है आपको। 
जी हां, जीडी बख्शी। ये बख्शी साहब हैं हुसैनी ब्राह्मण। ऐसे ही फिल्म अभिनेता दिवंगत सुनील दत्त भी इसी कौम के थे।
 किस्सा मशहूर है कि सुनील दत्त ने क्रिकेटर इमरान खान की मां शौकत की याद में बने कैंसर अस्पताल की डायरी में लिखा था, ''लाहौर जो मांगेगा मैं दूंगा। डोनेशन ही नहीं, खून का आखिरी कतरा भी। जैसा मेरे पूर्वजों ने करबला में इमाम हुसैन के लिए दिया था।'' आज हुसैनी ब्राह्मण दुनिया के हर हिस्से में है। 
भिलाई में भी कुछ हुसैनी ब्राह्मण हैं,जिन्हे मैं जानता हूं लेकिन इन दिनों फिजा में जैसा जहर घोला जा रहा है, उसके चलते ये लोग अपनी पहचान जाहिर नहीं करना चाहते।
हुसैनी ब्राह्मणों के बारे में गूगल से लेकर यू ट्यूब पर सारा सब कुछ मौजूद है। फिर भी मुहर्रम पर कुछ हुसैनी ब्राह्मणों के बारे में- ईरान के शहर कौम में करबला का म्यूजियम बना है,जिसमें २२ मोहयाल यानी हुसैनी ब्राह्मणों के नाम शहीद के तौर पर दर्ज हैं।
पी.एन.बाली की किताब '' हिस्ट्री ऑफ मोहियाल्स- लीजेंड्री पीपुल'', टी.पी.रसेल की किताब ''' हिस्ट्री ऑफ मोहियाल्स- मिलिटेंट ब्राहम्न रेस ऑफ इंडिया'' और शिशिर कुमार मित्र की किताब '' विजन ऑफ इंडिया'' के अध्ययन से पता चलता है कि प्राचीन काल में ब्राह्मणों के एक वर्ग ने सैनिकों का पेशा अपनाया अपनाया।
उस समय परंपरा थी कि राज्य अपने यहां कार्य करने वाले व्यक्तियों को बतौर मजदूरी भूमि प्रदान करता। यह भूमि वंशानुगत होती थी। 
यही लोग भूमि के मालिक हो जाते थे जो मोहियाल कहलाए। मोहियाल शब्द प्राकृत शब्दों मोहि और आल से बना है। मोहि अर्थात् जमीन और आल अर्थात मालिक। पूरा अर्थ भूमि के मालिक होता है। बाद में ब्राह्मणों के इसी वर्ग ने बिहार और उत्तर प्रदेश में मोहियाल का संस्कृत पर्यायवाची अपनाते हुए स्वयं को भूमिहार कहलाया। संयुक्त प्रांत के उत्तर पश्चिमी भागों विशेषकर पंजाब और सरहद आदि क्षेत्रों में इन मोहियाली ब्राह्मणों की सात शाखाएं थीं जिनमें से एक दत्त थे।

अश्वत्थामा का वंशज पहुंचा था पैगम्बर के दर
मोहियाल या हुसैनी ब्राह्मणों में माना जाता है कि महाभारत के युद्ध में घायल अश्वत्थामा किसी तरह बच निकला और इराक (मेसोपोटामिया) पहुंचकर वहीं बस गया। बाद में इन्हीं अश्वत्थामा वंश के दत्त ब्राह्मणों ने इराक में अपनी बहादुरी का सिक्का जमाया।
वे अरब, मध्य एशिया, अफ गानिस्तान और इराक में फैल गए। पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब के काल में दत्त ब्राह्मणों का राजा राहिब सिद्ध दत्त था। कुछ संदर्भ ग्रंथों में राहिब दत्त को लाहौर का बड़ा व्यापारी बताया गया है,जिसका व्यापार के सिलसिले में अरब आना-जाना लगा रहता था।
खैर, नि:संतान सिद्ध दत्त मुहम्मद साहब से संतान का आशीर्वाद मांगने मदीना गया।वहां उसे पता चला कि उसके भाग्य में औलाद नहीं है। मायूस हो कर वह लौट रहा था कि उसी समय मुहम्मद साहब के छोटे नाती हुसैन अपने नाना के साथ वहां रहे थे। वह निराश सिद्धदत्त को दोबारा मुहम्मद साहब के पास ले गए। नाना से सारी बात सुनकर इमाम हुसैन ने उसे सात औलादों की दुआ दी।

बेऔलाद को मिली बेटों की खुशी
सिद्ध दत्त खुशी खुशी वापस गया। इसके बाद उनके घर सात बेटों का जन्म हुआ, जिनके नाम सहस राय, हर्ष राय, शेर खां, राय पुन, राम सिंह, चारू और पुरु रखे गए। पुत्र रत्न की प्राप्ति के बाद सिद्ध दत्त मुहम्मद साहब के खानदान का मुरीद हो गया। इमाम हुसैन के वालिद (पिता) हजरत अली के विरुद्ध लड़ी गई जमल की जंग में हजरत अली ने खजाने की सुरक्षा दत्त ब्राह्मणों के सशस्त्र दस्ते को सौंपी। 
करबला की दुखद घटना के समय अकेले बगदाद मे १४०० ब्राह्मण रहते थे। राहिब सिंह दत्त इमाम हुसैन का एहसान नहीं भूला था। इसीलिए जब इमाम हुसैन का दस्ता करबला की ओर जा रहा था उसके सैनिकों का दस्ता इमाम के साथ गया। बाद में इमाम हुसैन के कहने पर दस्ता लौट गया क्योंकि इमाम हुसैन काफिले को सेना में नहीं बदलना चाहते थे।
रास्ते में एक जगह पड़ाव पर रात में यजीदी सैनिकों ने उन्हें घेर लिया और हुसैन के सिर की मांग की। सिद्ध दत्त ने इमाम का सिर बचाने के लिए अपने पुत्र का सिर काट कर दे दिया पर सैनिक नहीं माने। हुसैन का सिर बचाने के लिए सिद्ध दत्त ने अपने सातों पुत्रों का सिर काट डाला लेकिन सैनिकों ने उन्हें हुसैन का सिर मानने से इंकार कर दिया।  दत्त ब्राह्मणों के दिल में इमाम हुसैन के कत्ल का बदला लेने की आग भड़क रही थी। इसी कारण वे अमीर मुख्तार के साथ मिल गए।
बहादुरी से लड़ते हुए चुन चुन कर हुसैन के कातिलों से बदला लिया। कूफे के गवर्नर इब्ने जियाद के किले पर कब्जा कर उसे गिरा दिया गया।  जब दस अक्टूबर ६८० को करबला की घटना घटी और सिद्ध दत्त को पता चला तो उसे बहुत क्षोभ हुआ। जब उसे पता चला कि यजीदी फ़ौज इमाम हुसैन के सिर को लेकर कूफा में वहां के यजीदी गर्वनर इब्ने जियाद के महल ला रहे हैं तो उसने यजीदी दस्ते का पीछा कर हुसैन का सिर छीना और दमिश्क की ओर बढ़ा।

कुरबान कर दिए अपने सभी बेटे
रास्ते में एक जगह पड़ाव पर रात में यजीदी सैनिकों ने उन्हें घेर लिया और हुसैन के सिर की मांग की। सिद्ध दत्त ने इमाम का सिर बचाने के लिए अपने पुत्र का सिर काट कर दे दिया पर सैनिक नहीं माने। 
हुसैन का सिर बचाने के लिए सिद्ध दत्त ने अपने सातों पुत्रों का सिर काट डाला लेकिन सैनिकों ने उन्हें हुसैन का सिर मानने से इंकार कर दिया।
दत्त ब्राह्मणों के दिल में इमाम हुसैन के कत्ल का बदला लेने की आग भड़क रही थी। इसी कारण वे अमीर मुख्तार के साथ मिल गए। बहादुरी से लड़ते हुए चुन चुन कर हुसैन के कातिलों से बदला लिया। कूफे के गवर्नर इब्ने जियाद के किले पर कब्जा कर उसे गिरा दिया गया।

पैदाईश के वक्त बच्चे की गरदन पर लगाते थे चीरा
इस कुरबानी को याद रखने के लिए दत्त ब्राह्मणों ने दर्जनों दोहे रचे जो मुहर्रम में उनके घरों में पढ़े जाते थे। कुछ घरों में आज भी यह दोहे पढ़े जाते हैं और उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में ये हुसैनी ब्राह्मण बाकायदा मुहर्रम की मातम मजलिस मेें शरीक भी होते हैं। 
करबला की जंग के बाद वहां शासकों ने शिया लोगों के साथ हुसैनी ब्राह्मणों पर भी जुल्म ढाना शुरू किया तो वे सीरिया, एशिया का चक और बसरा होते हुए अफगानिस्तान की ओर आए वहां उन्होंने गजनी, बल्ख, बुखारा, और कंधार पर कब्जा कर लिया।कालांतर में सिंध के अटक क्षेत्र से होते हुए वह पंजाब गए। दत्त सुल्तानों के बारे में कहा जाता है कि वह आधे हिंदू और आधे मुसलमान हैं। 
इनके वंशज दुनिया के हर हिस्से में हैं तो भिलाई इनसे अछूता कैसे रह सकता है। वैसे खास बात यह है कि हुसैनी ब्राह्मणों के यहां पैदाईश के बाद बच्चे के गरदन के पास हल्का सा चीरा लगाया जाता था। यही चीरा इस कौम की पहचान हुआ करती थी। 
आज भी बुजुर्ग हुसैनी ब्राह्मणों की गरदन पर यह हल्का सा चीरे का निशान दिख सकता है। हालांकि नए दौर में हुसैनी ब्राह्मण इस रवायत को भूल भी रहे हैं। इन सबके बावजूद करबला की जंग और ईमाम हुसैन के साथ अपना रिश्ता कायम रखे हुए हैं। ये लोग इसका कभी ढिंढोरा नहीं पीटते।

.... और आखिर में एक मर्सिया लता जी की आवाज़ में
इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत को याद करने के अपने-अपने तरीके हैं। शिया समुदाय में मुहर्रम के १० दिनों में मर्सिया  (शोकगीत) पूरी शिद्दत से गाया और सुना जाता है। साल 1977 में आई फिल्म "शंकर हुसैन" में मीर अनीस का लिखा और खय्याम साहेब की तर्ज़ पर एक पारम्परिक मर्सिया लता जी  ने गाया था। जिसके बोल इस तरह से है-

हुसैन जब के चले बाद दोपहर रन को
ना था कोई के जो थामे रकाबे तौसन को
सकीना झाड़ रही थी .बा के दामन को
हुसैन चुप के खड़े थे झुकाए गरदन को
ना आसरा था कोई शाह--करबलाई को
फकत बहन ने किया था सवार भाई को
हुसैन जब के चले बाज दोपहर रन को
इसका वीडिओ इस लिंक पर मौजूद है.

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